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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन रत्नाकर
BE
VOLAN
प्रकाशक
केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया सादुलपुर (बीकानेर)
मुद्रक - महालचन्द वयेद ओसवाल
१८६, क्रोस स्ट्रीट, / कलकत्ता I
प्रथमावृत्ति ५००० ]
वीर निर्वाणाद २४७६
मूल्य 1-)
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प्रकाशक
केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
सादुलपुर (बीकानेर)
प्राप्तिस्थान(१) केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
सादुलपुर (बीकानेर) (२) केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
__ पल्टन बाजार, सिलांग (आसाम) (३) ओ स बाल प्रेस
१८६, क्रोस स्ट्रीट, कलकत्ता
मुद्रकमहालचन्द बयेद
ओसवाल प्रेस १८६, क्रोस स्ट्रीट,
कलकत्ता।
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१ नवकार २. पाठ ३ सामायिक प्रतिया ४ सामायिक पाण विधि १ चमोला योनि ६ चत्तारि
७ पत्रवयव
८
के नाम
के नाम
१० सोलह मनियों के नाम १४ या गगवरी के नाम
१२ नव आचार्यों के नाम
१३ श्री वीर प्रार्थना
१४ श्री भन्नु भक्ति १४ श्री भिक्षु स्मृति १६ परमेष्ठी प १७ अरिहन्त पच
विषय-सूची
१८ मिद्ध पथकं १६ धर्माचार्य पथकं
२० उपाध्याय पञ्चकं
२१ साधु पञ्चकं
२२ परमेष्ठी मत २३ अरिहन्त पथकं २४ प्रार्थना
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२८
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२५ श्रद्धा सुमन
२६ श्रावक जीवन की पृष्ठ भूमिका २७ सादर शिरोधार्य
२८ तेरह सूत्री योजना
२६ व्रत धारण शिक्षा
जैन
( ख )
भजन प्रातः स्मरण की ढाल
३०
३१ चवद नियम की ढाल
३२ नित्य प्रति चितारने के १४ नियम
३३ चवद स्थानक की ढाल
३४ श्रावक के तीन मनोरथ ३५ बारह भावना के दोहा
३६ पञ्च पद वन्दना ३७ खामेमि सव्वे जीवा ३८ पचीस बोल
३६ असली आजादी ४० अनुपूर्वी ४१ जैन सिद्धान्त
४२ क्षमत क्षामना की ढाल
४३ पद्मावती आराधना ४४ मुनि गुण वर्णन की ढाल
४५ दश दान की ढाल
४६ अठारह पाप की ढाल
४७ तीन वोलां करि जीवने अल्प आउषो बन्धाय
४८ आत्म चिन्तन ४६ धर्म गान
३०
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रस्स्म्र
जैन रत्नाकर
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प्रकाशक
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केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
सादुलपुर (बीकानेर)
मुद्रकमहालचन्द बयेद ओसवाल प्रेस १८६, क्रोस स्ट्रीट,
कलकत्ता।
Enामा
वोर निर्वाणान्द २४७६ प्रथमावृत्ति ५०००
मूल्य | JHAR
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प्रकाशककेशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
सादुलपुर (बीकानेर)
प्राप्तिस्थान(१) केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
सादुलपुर (बीकानेर) (२) केशरीचन्द जैसुखलाल सेठिया
पल्टन बाजार, सिलांग (आसाम) (३) ओ स वाल प्रेस
१८६, क्रोस स्ट्रीट, कलकत्ता
मुद्रकमहालचन्द बयेद
ओसवाल प्रेस १८६, क्रोस स्ट्रीट,
कलकत्ता।
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श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी
द्वारा जैन विश्व भारती, लाडनं
को सप्रेम भेंट -
-m x cc wom.
५ चौरासी लाख योनि ६ चत्तारि मङ्गलं ७ चवीस्थर ८ चौवीस तीर्थङ्करों के नाम है वोस वहरमानों के नाम १० सोलह सतियों के नाम ११ इग्यारह गणवरों के नाम १२ नव आचार्यों के नाम १३ श्री वीर प्रार्थना १४ श्री भिक्षु भक्ति १५ श्री भिक्षु स्मृति १६ परमेष्ठी पञ्चकं १७ अरिहन्त पञ्चकं १८ सिद्ध पञ्चक १६ धर्माचार्य पञ्चक २० उपाध्याय पञ्चक २१ साधु पञ्चक २२ परमेष्ठी सप्तकं २३ अरिहन्त पञ्चकं २४ प्रार्थना
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(
ख
)
२५ श्रद्धा सुमन २६ श्रावक जीवन की पृष्ठ भूमिका २७ सादर शिरोधार्य २८ तेरह सूत्री योजना २६ व्रत-धारण शिक्षा ३० जैन भजन प्रातः स्मरण की ढाल ३१ चव नियम की ढाल ३२ नित्य-प्रति चितारने के १४ नियम ३३. चवद स्थानक की ढाल ३४ श्रावक के तीन मनोरथ ३५ बारह भावना के दोहा ३६ पञ्च पद वन्दना ३७ खामेमि सव्वे जीवा ३८ पचीस बोल ३६ असली आजादी ४० अनुपूर्वी ४१ जैन सिद्धान्त ४२ क्षमत क्षामना की ढाल ४३ पद्मावती आराधना ४४ मुनि गुण वर्णन की ढाल ४५ दुश दान को ढाल ४६ अठारह पाप की ढाल ४७ तीन बोला करि जीवने अल्प आउषो बन्धाय ४८ आत्म चिन्तन ४६ धर्म गान
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or or or or
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जैन रत्नाकर
॥ मंगलाचरण ॥
दोहा
ॐ नमो अरिहन्त सिद्ध , आचारज उवज्झाय । साधु सकल के चरण कू , वन्दं शीश नमाय ॥१॥ महामन्त्र ए सुध जपूँ , प्रात समय सुखकार । विघ्न मिटै संकट कट , बरते जय जयकार ॥२॥ सुमरूँ श्री भिक्षु गुरु , प्रबल बुद्धि भण्डार । वासु प्रसादे पामिये , समकित रत्न उदार ॥ ३॥
नवकार णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो' आयरियाणं नमस्कार हुवो अरिहंत नमस्कार हुवो सिद्ध • नमस्कार हुवो आचार्य भगवत ने भगवंत ने
देव ने
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म कर
णमो लोए सव्व साहूणं
नमस्कार हुवो लोक ने विषै सर्व
णमो उवज्झायाणं नमस्कार हुवो उपाध्याय ने
अरिहन्तों को नमस्कार करता हूं । सिद्धों को नमस्कार करता हूं' | आचायों को नमस्कार करता हूं । उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ । लोक में जितने साधू हैं उन सबको नमस्कार करता हूं । इसमें पांच श्रेणी की आत्माओं को नमस्कार किया गया है।
साधु ने
अरिहंत शब्द का अर्थ है - शत्रु को मारने वाला । आठ कर्मों के सिवाय जीव का कोई भी दुश्मन नहीं है । इन आठ कर्मों में भी ज्ञानावरणीय, दर्शनाबरनीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म बड़े प्रबल शत्रु हैं। ये चार कर्म जिनके समूल नष्ट हो जाते हैं एवं जो धर्म-मार्ग के प्रवर्तक होते हैं उनका नाम अरिहंत है ।
6
जो आत्मायें त्याग तपस्या रूप साधना द्वारा आठों ही कम का नाश कर पूर्ण रूप से कर्म रहित हो जाती हैं वे सिद्ध कहलाते हैं ।
आचार्य शब्द से यहां धर्म के आचार्य ही लिये जाते हैं । धर्माचार्य्य वे होते हैं जो स्वयं साधुपन पालते हुए दूसरों को साधुपन पालने में सहायता देते हैं । धर्म-शासन के सबसे मुख्य अधिकारी एवं संघ के स्वामी होते हैं । जैसे ६२१ साधु-साध्वी
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और लाखों श्रावक-श्राविकाओं के अधिनायक श्री श्री १००८ श्री श्री तुलसीरामजी महारज हैं।
धार्मिक सिद्धान्तों को पढ़ने और पढ़ाने वाले उपाध्याय कहलाते हैं। आचार्य के द्वारा ये उपाध्याय के पद पर नियुक्त किये जाते हैं।
पांच समिति और तीन गुप्ति सहित पांच महाव्रतों को पालने वाले साधु कहलाते हैं। अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय
और साधु ये सब ही समिति गुप्ति सहित साधुपन पालते है इसलिये इन्हें नमस्कार करने से लाभ होता है। सिद्ध बिल्कुल कर्म रहित शुद्ध आत्मायें हैं-अतएव ये नमस्कार करने योग्य हैं। अरिहन्त, आचार्य एवं उपाध्याय इनको साधु पद से पहले कहने का यह मतलब है कि इनमें उत्तर गुण विशेष होते हैं। आत्मा का उद्धार करने के लिये यह महान् मन्त्र है।
तिक्खुत्तो पाठ
(गुरु वन्दन विधि) तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं (करेमि) चंदामि तीन वार दक्षिण पास थी लेइने प्रदक्षिण ( करूं छु) स्तुति करूं छू नमसामि सकारेमि सम्माणमि कल्लाणं नमस्कार करूं छू सत्कार करूं छू सन्मान करूं छू गुरुदेव केहवा छै
कल्याणकारी
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जैन रमाकर
मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण मंगलकारी धर्मदेव ज्ञानवंत चित्त एहवा गुरु महाराज वलि मस्तके करी
प्रसन्नकारी नौ सेवा करूं छं वंदामि । वंदना करूं छु।
पांच परमेष्ठियों की वन्दना करने की विधि इस पाठ में बतलाई गई है। वन्दना करने वाला वन्दना करते समय अपने दोनों हाथों को जोड़ कर तीन वार दांयी ओर से बांयी ओर प्रदक्षिणा करता है। वन्दना करता हूं। नमस्कार करता हूं। सत्कार करता हूं। सम्मान करता हूं। आप कल्याणकारी हैं। मंगल करने वाले हैं। दैवत अर्थात् देवता के समान हैं। चैत्य-ज्ञानमय हैं अथवा चित्त को आह्लादित करने वाले हैं। मैं आपकी पर्युपासन अर्थात् सेवा करता हूं और मस्तक से आपकी वन्दना करता हूं।
सामायिक प्रतिज्ञा
(सामायिक लेवानी विधि) करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं हू करूं छू हे भगवन् समता रूप सामायिक सावद्य पाप सहित व्यापारनो पच्चक्खामि जाव नियमं (मुहुत्तं एग) त्याग करूं छू यावत् नियम सामायिक नो काल छै तावत् ( मुहूर्त एक)
काल पर्यन्त सामायिक नो
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जैन रत्नाकर पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि सेवन करूं छू दो करण तीन योग थी सावद्य योग नो सेवन न करूं न कारवेमि मणसा वयसा कायसा तस्स न कराऊ मन थी' वचन थी काया थी पूर्व कृत सावध व्यापार थी भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि हे भगवन् निवृत्त होऊ छु। निन्दा करूं छू गहीं करूं छू अप्पाणं वोसिरामि ।। आत्माने पाप थी दूर करू छु।
हे भगवन् ! मैं आपकी अनुमति से सामायिक करता हूं। मैं एक मुहूर्त के लिये सावध योग का प्रत्याख्यान करता हूं अर्थात् पापकारी प्रवृत्ति छोड़ता हूं। मैं पापकारी प्रवृत्ति स्वयं नहीं करूंगा मन से, वचन से, शरीर से। इसी तरह दूसरों के पास कराऊंगा भी नहीं मन से, वचन से, शरीर से । हे भगवन् ! मैंने इस समय से पहले जो पापकारी प्रवृत्ति की है-उससे मेरी आत्मा को दूर हटाता हूं एवं उस पाप में प्रवृत्त आत्मा की निन्दा एवं गर्दा करता हूं तथा आत्मा को याने उस पापकारी प्रवृत्ति को छोड़ता हूं।
सामायिक के कई मुख्य नियम १-उघाड़े मुंह नहीं बोलना । २-बिना देखे इधर उधर नहीं
फिरना। ३-विकथा नहीं करना ।
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जैन रत्नाकर
सामायिक में क्या किया जाता है ?
सामायिक में हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं अपने पास जो वस्त्रादि उपकरण रहते हैं - उनके सिवाय अन्य वस्तु रखने का परित्याग किया जाता है ।
सामायिक में क्या करना चाहिये ?
साधुओं का व्याख्यान सुनना चाहिये । धार्मिक प्रश्न पूछने चाहिये । सत्वचर्चा करनी चाहिये। स्वाध्याय आत्मसाधना से सम्बन्धित पठन पाठन करना चाहिये । ध्यान करना चाहिये । अनित्य अशरण आदि भावनाओं का चिन्तन करना चाहिये | आराध्य देवों का स्मरण करना चाहिये । नमस्कार मंत्र का स्मरण करना चाहिये । उसमें भी आनुपुर्वी से नमस्कार मंत्र का स्मरण करना मन को स्थिर रखने के लिये महान् उपयोगी है।
समाइय पारण विहि ( सामायिक पारवानी विधि )
नवमा सामायिक व्रत ने विषै जो कोई अतिचार
दोष लागो होय तो आलोऊं ।
१ - मन जोग सावद्य प्रतर्त्तायो होय
२ - वचन जोग सावद्य प्रवर्त्तायो होय
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जैन रत्नाकर
३-काय जोग सावध प्रवर्तायो होय ४-सामायिक नी सार संभाल न करी होय
५-अण पूरी सामायिक पारी होय सामायिक में स्त्री कथा, भक्त कथा, देश कथा, राज कथा, कीधी होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
सामायिक काल एक मुहूर्त का है। सामायिक में एक मुहूर्त तक पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जब वह एक मुहूर्त का समय पूरा हो जाता है तब उस सामायिक में भूल से या जान कर भी कोई मामूली गल्ती हो गई हो, तो उसकी विशुद्धि के लिये प्रायश्चित स्वरूप यह पाठ किया जाता है। (विशेष गल्ती के लिये साधु साध्वियों के पास प्रायश्चित करना चाहिये। - इस पाठ का अर्थ यह है- श्रावक के वारह व्रतों में से सामायिक नौवां व्रत है। इस व्रत में अर्थात जो मैंने सामायिक व्रत का पालन किया है- उसमें यदि कोई अतिचार दोष लगा हो, तो मैं उसकी आलोचना करता हूं। अतिचार शब्द का अर्थ है-जिसका परित्याग किया है उसी को करने के लिये तैयार हो जाना ) सामायिक में यदि मैंने इतने काम किये हों तो उन सबका मैं प्रायश्चित करता हूं अर्थात् मेरे किये हुए सब पाप निष्फल हों- मिथ्या हों।
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जैन रत्नाकर
(१) मन की पाप सहित प्रवृत्ति की हो। (२) वचन की, " " (३) शरीर की, " " (४) सामायिक की सार-अर्थात् मेरे किये हुए सब पाप
नहीं करने के होते वे यदि किये हों।। (५) एक मुहूर्त तक सावध पाप सहित प्रवृत्ति छोड़ी हुई है
उसे एक मुहूर्त पहले ही शुरू की हो। (६) सामायिक में स्त्री-सम्बन्धी, भोजन-सम्बन्धी, देश
और राज सम्बन्धी कथा की हो।
___८४ लाख जीवायोनि सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपकाय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, च्यार लाख नारकी, च्यार लाख देवता, च्यार लाख तिर्यश्च पंचेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य नी जाति, च्यार गति चौरासी लाख जीवायोनि ऊपरै राग द्वेष आयो होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
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जैन रत्नाकर
चत्तारि मंगलं चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलीपन्नचो धम्मो मंगलं । चत्वारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवली पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पवज्जामि - अरिहंता सरणं पवज्जामि, सिद्धा सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवली पन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ।
ए च्यारूं शरणा सगा, और न सगो कोय । जे भवि प्राणी आदर, अक्षय अमर पद होय ॥
चउबीसत्थव
इरियावहियाए इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए, विराहणाए । गमणागमणे, पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मकड़ा संताणा संकमणे। जे मे जीवा विराहिया, एगिदिया, वेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया, अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया,
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% 3A
जैन रत्नाकर संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छामि दुक्कडं । __ मैं इच्छा करता हूँ | निवृत्त होना, (बचना) । मार्ग पर चलने मादिसे होनेवाली। विराधना से। जाने आने में। किसी प्राणी को दबाकर . वनसतिको दवाकर। औस-किडियोंके बिलपांच वर्ण की काई - पानी मिट्टी-मकड़ी के जाला आक्रमण हुआ, जो मेरे से जीवों की विराधना हुई हो, एक इन्द्रियवाले, दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले, चार इन्द्रियवाले, पांच इन्द्रियवाले, सन्मुख आते चोट पहुंचाई हो, धूल आदि से ढक्या हो, भूमि पर मसले हों इकठे किये हों, छुए हों, मृत तुल्य क्रिया हो, भयभीत किया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान में अयत्ना से रखें हों। जीवित से रहित किया हो। उसका निष्फल हो। मेरे पाप ।
तस्सउत्तरी तस्सउत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, चिसोहिकरणेणं, चिसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए, ठामि काउस्सगं । अन्नत्थ ऊससिएणं, निससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाईएणं, उड्डइएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए, सहुमेहिं अङ्गसंचालेहि, सुहुमेहिं
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जैन रत्नाकर खेलसंचालेहिं, सुहुमेहिं दिद्विसंचालेहि, एवमाइएहिं आगा रेहिं अभग्गो अविराहिओ हुन्ज मे काउस्सग्गो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं, नमुक्कारेणं नपारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ।
उसको श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के निमित्त । प्रायश्चित आलोचना करने के लिये । विशेष रूप से शुद्धि करने के लिये । तीन शल्य का त्याग करने के लिये । पाप-कर्मों का, नाश करनेके लिये, करता हूँ, कायोत्सर्ग (ध्यान)। इन आगारों के बिना उश्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जंभाई ( वगासी , डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तविकार जनित मूर्छा, सूक्ष्म (थोड़ा), अंग संचार सूक्ष्मश्लेष्म (कफ) संचार, सूधम दिष्टि संचार, इत्यादि आगारों से भंग नहीं विराधना नहीं ( अखंडित) हो मेरा ध्यान (कायोत्सर्ग) जब तक अरिहन्त भगवन्त को नमस्कार करके न पाळं ध्यान (समाप्त) तव तक काया को स्थिर रखकर, मौन रहकर, ध्यान धरकर, आत्मा को पाप कर्म से त्यागता हुआ छोड़ता हूं।
लोगस्स लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरेजिणे, अरिहंतेकित्तइस्सं चउन्नीसंपि केवली १ उसममजियं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमइंच, पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे २ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीयलसिज्जंसवासुपुजं च,
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१२ . जैन रत्नाकर बिमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च बंदामि ३ कुंथु अरं च मल्लिं, चंदे मुणिसुन्बयं नमि जिणं च, चंदामि रिडनेमि, पासं तह बद्धमाणं च ४ एवं मए अमिथुया, बिहूयरयमला पहीणजरमरणा, चउच्चीसपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ५ कित्तिय-बंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा, आल्ग बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु ६ चंदेसु निस्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ! ७ ॥ ___ लोक में उद्योत करने वाले, धर्म रूप तीर्थ को त्यापित करने वाले, राग द्वेष जीतने वाले तयंबरों का मैं स्तवन करता हूं, चौबीस केवलो। ऋषन को-अजित को और वन्दना करता हूँ। संभवनाथ को अभिनन्दन स्वामी को पुनः सुनतिनाथ को, पन प्रभू को, सुपार्श्वनाथ जिनको और चन्द्रप्रभ को वन्दना करता हूँ। सुविपिनाथ (दूसरा नाम : पुष्पदन्त को शीतलनाथ नो, श्रेयांसनाथ को, वासुपूज्च को और विमलनाथ को और अनन्तनाथ जिनको, धर्मनाथ शो; शान्तिनाय गो वंदना करता हूं। कुत्युनाथ. को, अरनाथ को महिनाय को वन्दना करता हूँ। मुनि सुत्रत को नमिनाय जिनको पुनः वन्दना करता हूँ | अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमान (नहावीर भगवान) को। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तवन किये गये, पाप रूप रज के मल
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जैन माकर
से रहित। जरा वृद्धावस्था और मरण से मुक्त। चौवीसों जिनवर तीर्थङ्कर देव मुझ पर प्रसन्न हो कीर्तन वन्दन और भाव से पूजन को, प्राप्त हुए हैं। जो वे लोक के प्रधान सिद्ध हैं। आरोग्य-सम्यक्त्व का लाभ । समाधि वर उत्तम श्रेष्ठ देवे। चन्द्र से विशेष निर्मल । सूर्य से अधिक प्रकाश करने वाले। महासमुद्र के समान गम्भीर। सिद्ध भगवान मोक्ष मुझको देवें।
नमोत्थूणं णमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुतमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं,लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोयगराणं-अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, बोहिदयाणं, जीवदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं,धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं, दीवोत्ताणं सरणगइपइट्ठा, अप्पडि-हय-वर नाणदंसण-धराणं, विअछउम्माणं, जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं, सम्वन्नूणं सम्वदरिसीणं, सिव-मयल मरुय-मणंत-मक्खय-मवावाह-मपुणरावित्तिः सिद्धिगइनाम
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जैन रामद धेयं, ठाणं (संपाविउकामाणं ) संपत्ताणं, नमो जिणाणं जियभयाणं।
नमस्कार हो । अरिहन्त भगवन् को, वे भगवान कैसे हैं ? धर्म के आदि करता, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले। अपने आप बोध को प्राप्त हुये। पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंहके समान, पुरुषों में पुण्डरीक कमलके समान निर्लेप । पुरुषों में प्रधान गंधहस्ती के समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकारी, लोक में प्रदीप के समान, लोक में उद्योत करने वाले। अभय दान देने वाले। ज्ञान रूप नेत्रों को देने वाले। मोक्ष मार्ग के देने वाले। सर्व जीवों के शरण भूत ! बोध बीज के देने वाले ( सयंम रूपी) जीवन के दाता। धर्म के दाता । धर्मोपदेशक । धर्म के नायक। धर्म रूप रथ के सारथी। धर्म में प्रधान और च्यार गति का अंत करने वाले। अतएव चक्रवर्ती के समान । संसार समुद्र में दीपक के समान और रक्षक । शरणागतों को वत्सलता करने वाले। अप्रतिहत । ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान दर्शनके धरने वाले। छद्म अर्थात् घातिक कमों से रहित । राग द्वेष को जीतने वाले । संसार समुद्र से स्वयं तरते हुए, दूसरों को तारने वाले। 'आप बुद्ध हैं। दूसरों को दोष देने वाले। स्वयं कर्मों से मुक्त
औरों को मुक्त करने वाले। सर्वज्ञ सर्वदर्शी कल्याण रूप स्थिर। रोग से रहित । अनन्त । अक्षय । बाधा पीडा रहित । पुनर्जन्म रहित । (ऐसे ) सिद्धिगति, नामक, स्थान को प्राप्त हुये हैं। नमस्कार हो जिन भगवान को।
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जेन रक्षाकर
चौबीस तीर्थकरों के नाम
१ श्री ऋषभदेवजी
२ श्री अजितनाथजी
३ श्रीसंभवनाथजी
४ श्रीअभिनन्दनजी
५ श्री सुमतिनाथजी
६ श्रीपद्मप्रभजी
७ श्रीसुपार्श्वनाथजी
८ श्रीचन्द्रप्रभजी
६ श्री सुविधिनाथजी
१० श्रीशीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
१२ श्रीवासुपूज्यजी
१३ श्रीविमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्रीधर्मनाथजी
१६ श्रीशान्तिनाथजी
१७ श्रीकुंथुनाथजी
१८ श्रीअरनाथजी
१ श्रीसीमंधरस्वामी
२ श्रीयुगमंधरस्वामी ३ श्रीबाहुस्वामी
१६ श्रीमल्लिनाथजी
२० श्रीमुनिसुव्रतजी
२१ श्रीनमिनाथजी
२२ श्रीअरिष्टनेमिजी
२३ श्रीपार्श्वनाथजी
२४ श्रीमहावीर स्वामी
बीस बिहरमानों के नाम
४ श्री सुबाहुस्वामी
५ श्री सुजातस्वामी
६ श्रीस्वयंप्रभस्वामी
१५
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जैन रमाकर
न
७ श्रीऋषभाननस्वामी ८ श्रीअनन्तवीर्यस्वामी ६ श्रीसरप्रभस्वामी १० श्रीविशालधरस्वामी ११ श्रीवजूधरस्वामी १२ श्रीचन्द्राननस्वामी १३ श्रीचन्द्रबाहुस्वामी
१४ श्रीभुजंगस्वामी १५ श्रीईश्वरस्वामी १६ श्रीनेमिप्रभस्वामी १७ श्रीवीरसेनस्वामी १८ श्रीमहाभद्रस्वामी १६ श्रीदेवयशस्वामी २० श्रीअजितवीर्य स्वामी
सोलह सतियों के नाम १ ब्रामी
६ सीता २ सुन्दरी
१० सुभद्रा ३ चन्दनवाला
११ शैव्या ४ राजेमती
१२ कुन्ता ५ द्रौपदी
१३ दमयन्ती ६ कौशल्या
१४ चेलणा ७ मृगावती
१५ प्रभावती ८ सुलसाँ
१६ पद्मावती :
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जैन रत्नाकर
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१ इन्द्रभूति
११ गणधरों के नाम
७ मौर्यपुत्र २ अग्निभूति ८ अकम्पित ३ वायुमति ६ अचलभ्राता ४ व्यक्त
१० मेतार्य ५ सुधर्मा ११ प्रभास ६ मण्डित
नव आचार्यों के नाम १ श्री श्री १००८ श्री श्री भिक्षु स्वामी । २ श्री श्री १००८ श्री श्री भारीमालजी स्वामी । ३ श्री श्री १००८ श्री श्री रायचन्दजी स्वामी। ४ श्री श्री १००८ श्री श्री जीतमलजी स्वामौ । ५ श्री श्री १००८ श्री श्री मघराजजी स्वामी। ६ श्री श्री १००८ श्री श्री मानिकलालजी स्वामी । ७ श्री श्री १००८ श्री श्री डालचन्दजी स्वामी। . ८ श्री श्री १००८ श्री श्री कालूरामजी स्वामी । ६ श्री श्री १००८ श्री श्री तुलसीरामजी स्वामी।
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जैन रत्नाकर
श्री वीर प्रार्थना (देशी-उदियापुर मोच्छव दीक्षा नो) . ॐ जय जय त्रिभुवन अभिनन्दन २, त्रिशला नन्दन तीर्थपते । अयि त्रि० । अयि कलुष निकन्दन विश्वपते । ॐ० । ए आँकड़ी । तिमिराच्छादित भुवन में रे, दिव्य दिवाकर उदित भयो । अयि दिव्य० । सरण सरण निज किरण पसारे, सारे जग जागरण थयो। अयि सा० । निद्रा घर्णित जन बोध लह्यो ॥ ॐ ॥ १॥ अतुल अहिंसा धर्म नो रे, मर्म दिखायो महितल में । अयि० । अक्षय अनुपम अविचल अविकल, सौख्य लहै जिम भवि पल में । अयि सौ० । न लहै संकट जग हलफल में ॥२॥ शिवपुर पावापुर थकी रे, पावन कीन्हो अघ दलिया । अयिः । छिछिछिम छिछिछिम छिम छिम बाजै, धौ धौं धप मप माद्दलिया। अयि० । रयणावलिया दीपावलिया। करै मोच्छव सुर नर सहु मिलिया ॥ ३ ॥ यद्यपि प्रभु निर्वाण में रे, तो पिण तेरापंथ चले। अयि० । भिक्षुराज नी विरचित वनिका, नन्दन वन उपमान झिलै । अयि० । चिहुँ तीरथ प्रवल प्रसून खिलै । गुण परिमल अमल
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जेन रेनाकर
रहे
भारिमल रायेन्दुजी रे, जय जश
अमन्द मिलै ॥ ४ ॥ मघ माणिकलाले । डालिम कलिमल कन्दन कालू, वन पालू इक इक आले । अयि० । तुलसी गणि तस अनुपद चालें । मिल संघ सयल सायंकाले । करो वीर प्रार्थना समकाले || ५ |
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श्री भिक्षु भक्ति
( देशी - श्याम कल्याण )
श्री भिक्षु स्वामी द्योनि मोहि भक्ति तुम्हारी । भक्ति तुम्हारी प्रभु शक्ति तुम्हारी, युक्ति मुक्ति पथ वारी | आँकड़ी | भक्ति विशाली भाली भगवन् निराली, सुर थये चरण पुजारी ॥ १ ॥ शक्ति तुम्हारी प्रभु सत्य सपथ पर, आत्मवली करनारी ॥ २ ॥ युक्ति तुम्हारी प्रभु वर्णन वर्ण न जाणत सकल संसारी ॥ ३ ॥ तीन चीज नी रीझ जो पाऊँ, तो थाऊँ त्रिभुवन संचारी ॥ ४ ॥ चारुवास छापूर विच सुमरे, तुलसी नवम पट धारी ॥ ५ ॥
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जैन रत्नाकर श्री भिक्षु स्मृति (देशी-आरती नी)
अयि जय भिक्षो दैपेय । तेरापन्थ पथाधिप २, जैन जगत आधेय ।अयि०। ए आँ०। एकानन लख कानन, पञ्चानन लाजै । अयि पञ्चा० । हंसासन वृषभासन, तवं उपमा साझै ॥ अयि० ॥१॥ नर बङ्को मरुधर नो, कवि कलना चीन्ही । अयि० क०। कण्टालिय पुर अवतर, चरितारथ कीन्ही । अयि० ॥२॥ विरस विषय रस त्यागी, त्यागी चित्र न एह । अयि त्यागी० दुनियाँ सतपथ लागी, अद्भुत हम हृदयेह । अयि० ॥३॥ नहिं केवल मनपर्यव, अवधि स्यादन्ते । अयि० अ० । तदपि अलौकिक अनुपम, पन्थ लह्यो भन्ते । अयि० ॥४॥ अलग अलग शिव जग मग, सुन कोई चित चिड़के । चित्र न चङ्ग मृदङ्ग, महिषि सदा भिड़के । अयि० ॥५॥ महावीर शासन में, दक्षिण इण भरते । अयि० द० । तव कृपया कलियुग में, सतयुग सो वरते । अयि० ॥६॥ है तब अटल आण में, तीरथ च्यार खरे । अयि ती० । छापुर चारुवास विच, तुलसी तुम सुमरे । अयि० ॥७॥
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जैन रत्नाकर परमेष्ठी पञ्चकं
(देशो-मैं ढूंढ़ फिरी जग सारा) परमेष्ठी पञ्च पियारे, जीवन धन प्राण सहारे । प० । आध्यात्मिक सुख सञ्चारे, निर्दिष्ट मन्त्र ॐकारे ॥१०॥
अरिहन्त सिद्ध अविनाशी, धर्माचारज गुण राशी। है उपाध्याय अभ्यासी, तिम साधु साधनावारे ॥१॥
सहु मुक्ति महल के वासी, पधराये वा पधरासी । ज्योती में ज्योति मिलासी, अस्तित्व अलग लग धारे ॥२॥ है विश्व-विन्ध जस वाणी, सद्धर्म मर्म दर्शाणी । सर्वत्र मैत्री महकाणी, भवि प्राणी नयन निजारे ॥३॥
जिन मत में मन्त्र अनादि, अविकार अमल अविवादी। सुमरण ते होत समाधी, तिह मध्य सतत बसनारे ॥४॥
है निष्कारण उपकारी, अशरण के शरण उदारी । भवि मानस विपिन विहारी, तुलसी तस स्तवन उचारे ॥॥
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जैन रत्नाकर
अरिहन्त पञ्चक
( राग आशावरी) प्रभु म्हारे मन मन्दिर में पधारो, करूं स्वागत गान सु प्यारो । प्र० । करूं पल पल पूजन थारो । प्र० । आँकड़ी। चिन्मय नैं मृन्मय न बणाऊं, नहिं मैं जड पूजारो । न करूं केशर चन्दन चरची, अविनय नाथ तुम्हारो ॥१॥ नहि फल कुसुमकी भेंट चढ़ाऊँ, (मैं) भाव भेंट करनारो। महिं तिम सलिल स्नान करवाऊँ, आप अमल अविकारो॥२॥ नहिं तत ताल कंसाल बजाऊं, नहिं टोकर टणकारो । जश झल्लरी झणणाऊँ झणणण, धूप ध्यान धरणारो ॥३॥ म्लान स्थान चञ्चलता निरखी, न करो नाथ नाकारो। तुम स्थिर वासे निरमल थासे, थास्ये स्थिरता वारो ॥४॥ द्वादश गुण युत जिनमत अर्हत, शीघ्र विनय स्वीकारो । तुलसी नक्माचार्य करै नित, तेरा पन्थ प्रचारो ॥५॥
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जैन रत्नाकर
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सिद्ध पञ्चक
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(देशी-देखो देखो जी बदरवा कारे जीवरा दुखाये ) देवो देवो जी डगर, जिम सिद्धि नगर पहुंचाये। जोवें पलक २ हम, अपलक नजर टिकाये ॥ ए आंकड़ी॥'
किन मारग से अयि जिनवरजी, तुम निज धाम सिधाये । सर्व दर्शि सर्वज्ञ कहाकर, आतम सुख अपनाये ॥१॥
अक्षय अरुज अनन्त अचल अज, अव्यावाध कहाये । अजरामर पद अनुपम सम्पद, तास अधीश सुहाये ॥२॥
निकट अनन्त अलोक प्रदेशही क्यों हतभाग्य रहाये । पैंतालीश लाख योजन में, किम तुम सकल समाये ॥३॥ साक्षात्कार करें यदि साहिव, दया दृष्टि दिखलाये । वीर-पुत्र हम मिल्ल-पुत्र वत, नहिं घबराट मचायें ॥४॥ अष्ट गुणान्वित सिद्ध अनन्त हि, प्रणमत पाप पलाये । सिद्ध स्तवन करे इम तुलसी, हुलसित मन वच काये ॥५॥
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जैन रत्नाकर
म
धर्माचार्य पञ्चक
(देशी-पानी में मीन पियासी.) धर्माचारज मुझ तारो, मैं लीन्हों शरण तुम्हारो ध। कछु करुणा दृष्टि दिखारो । ध० ॥ ए आंकड़ी ॥ भव सागर है अथग अमित जल, नहिं कहिं नजर किनारो। काल अनन्त अनन्त हि प्राणी, भ्रमण करै हर वारो ॥१॥ साश्रव आतम नाव हमारी, पल २ जल पयसारो। नहिं कोई कर्णाधार नियामक, नहिं प्रोन्नत पतवारो ॥२॥ डपर डगर में मगर हैं सोये, खोये प्राण हजारों । तरुण तुफान उठे हड़बड़ के, धड़के हृदय हमारो ॥३॥ (ओह) मन भमर भँवर विच भटकै, माँझी थइ मतवारो। हा! हा! विषम अवस्था म्हारी, नहिं कोइ निकट सहारो॥४॥ प्रतिनिधि आप प्रथम पदके हो, गुण षट तीस हीधारो। तुलसी इम भव भीरु मानव, सविनय अरजि उचारो॥॥
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जैन रत्नाकर
उपाध्याय पञ्चक
(देशी-नाथ कैसे कर्म को फन्द छुड़ायो) भविक उपाध्याय जी नै नित्य ध्यावो, हाँ रे हाँ निज आतम ध्येय बनावो । भ० ॥ ए आंकड़ी। परमेष्ठी पञ्चक में जेहनो, चौथो पद है चावो । सुमर सुमर सप्ताक्षर सुजना, हार्दिक भाव दृढ़ावो ॥१॥ आगम नो अध्ययन अध्यापन, जेहनो कारज ठावो । जिन शासन में ज्ञान विकाशन, एक हि जास उम्हावो ॥२॥ विद्या वारिधि पञ्चाचार,-निपुणता निर्मल भावो । गुरु अनुशासन जीवन जेहनो, सूरि जन शीष झुकावो.॥३॥
सम्प्रति जस कारज सम्पादक, आचारज अनुभावो । सातहि पद नो काम करूँ मैं, (ओ) भिक्षु वचन अपनावो॥४॥
परम प्रभात समय थई सन्मुख, मङ्गल गान सुनावो । पञ्च वीश गुण तुलीस गणपति, मतिना कोई विसरायो॥
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जैन रत्नाकर
साधु पञ्चकं. ( देशी- असल दुपट्टो फूल रे गुलाबी जानी ) करिये द्विकर जोड़ शिर मोड़, साधु के चरणों में परणाम। चरणों में परणाम रे सुजन जन, करत दुरित क्षय थावे, पावै परमातम हाँ रे हाँरे क, पावै परमातम पद धाम । करिये० ॥ए आंकड़ी॥ आत्म साधना करै रे निरन्तर, सो साधू कहिवावै । भावै शुभ भावन हाँ रे हाँरेक, भावै शुभ भावन अविराम ॥१॥ पञ्च महाव्रत करण जोग जुत, आजीवन सुध पाले। भालै शिव मग हाँ रे ३ क, भालै शिव मग आढू याम ॥२॥ निज जीवन धन गुरु अनुशासन, शीष चढ़ावत वरते । करते करणी हाँ रे ३ क, करते करणी नित निष्काम ॥३॥ पर उपकार परायण पल पल, भल उपदेश सुनावै । ध्यावै जेह नैं हाँ रे ३ क, ध्यावै जेहनै भविक तमाम ॥४॥ सप्त वीश गुण समवायांगे, जिनवर जास बतावै। गावै तुलसी हाँ रे ३ क, गावै तुलसी तस गुण ग्राम ॥५॥
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जेन रत्नाकर
C
परमेष्ठी सप्तकं
(देशी-मैं ढूंढ़ फिरी जग सारा) परमेष्ठी पञ्च पियारे, जीवन धन प्राण आधारे, आध्यात्मिक सुख सञ्चारे, निर्दिष्ट मन्त्र ॐकारे ॥ ए आंकड़ी ॥ अरिहन्त प्रथम लहि ख्याती, संहार च्यार धनघाती । द्वादश गुण जस सङ्घाती, जग में शिव पन्थ प्रचारे ॥१॥ है सिद्ध सिद्ध-शिल वासी, अज अजरामर अविनाशी। क्षय अखिल कर्म नी राशी, वास्तव वसु गुण वसनारे ॥२॥ धर्माचारज धृतिधारी, निष्कारण पर उपकारी। लाखों की नैया तारी, छत्र युक्त तीस गुणवारे ॥३॥ है उपाध्याय अधिकारी, गणि पिटिका के भण्डारी। गुण पञ्च वीश गण नारी, जिन शासन गगन सितारे ॥४॥ मुनि पञ्च महाव्रत वारा, काञ्चन कामिनी सं न्यारा। गुरु अनुशासन वहनारा, गुण सप्त वीश सुखकारे ॥॥ सहु निर्विकार निर्मोही, तजि आश्रव आत्म विशोही। जड सेती जडता खोई, लहि जग में जय जयकारे ॥६॥ संवत एके सुविलासे, निज जन्म भूमि सुख वासे । तुलसी गणि स्वमुख प्रकाशे, गुण पञ्च पदों के प्यारे॥७॥
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जैन रत्नाकर
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अरिहन्त पञ्चकं
(देशी-पर घर लाज न मारो) मोहि स्वाम सम्भारो २ । स्वाम सम्भारो नाथ सम्भारो,मैं शरणागत थारो, भगवन् मतिरे विसारो । मो०॥एआँकड़ी।
पल २ छिन २ घडि २ निशिदिन, ध्याऊँ ध्यान तुम्हारो। सर्व दर्शि सम दर्शि तुम्हीं हो, आन्तर भाव निहारो ॥१॥
पञ्च पदों में प्रमुख स्थान तव, तिम त्रिण तत्व मझारो। अवर देव देवाधिदेव तुम, अनन्त चतुष्टय धारो ॥२॥
तुम्हीं अहिंसा पन्थ प्रचारक, टारक पाप प्रचारो। भव-सायर विच डोलत नैया, तुम्हि निर्यामक तारो ॥३॥
विहरमाण तुम वीश निरन्तर, लेखो उत्कृष्टाँ रो। इकशत सित्तर एक समय में, भाग्य बड़ो दुनियाँ रो ॥४॥ मन-मन्दिर में सदा विराजित, मम अर्चा स्वीकारो। तुलसी तव चरणाम्बुज लोलप, भ्रमर भाव वहनारो ॥५॥
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जैन रत्नाकर प्रार्थना
(देशी-मन्त्र वन्देमातरम् ) हे दयालो देव ! तेरी, शरण हम सब आ रहे। शुद्ध मन से एक तेरा, ध्यान हम सब ध्या रहे ॥ मोह मद ममता के त्यागी, वीतरागी तुम प्रभो। हम भी उस पथ के पथिक हों, भावना यहीभा रहे ॥१॥
सद्गुरू में हो हमारी, भक्ति सच्चे भाव से। धर्म रग रग में रमे, हरदम यही हम चाह रहे ॥२॥
दिल से पापा के प्रति, प्रतिपल हमारी हो घृणा । प्रेम हो सतसङ्ग से यह, लालसा दिल ला रहे ॥३॥
दूसरों की देख बढ़ती, हो न ईर्ष्या लेश भी।। सर्वदा ग्राहक गुणों के, हों हृदय से गा रहे ॥४॥ त्यागमय जीवन विता, शान्तिमय वर्ताव हो। भाव हो समभाव तेरा-पन्थ जो हम पा रहे ॥शा
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जैन रत्नाकर
श्रद्धा सुमन
(देखो वीर जिनेश्वर वन्दन राय उदाई आवै रे)
श्री महावीर चरण में सादर, "श्रद्धा सुमन" सझाऊँ मैं। हार्दिक भक्ति-सलिल से सींच, सींच कलियाँ विकसाऊँ मैं,
(इति ध्रुव पदम्) ईश्वर अखिलेश्वर, हाँ हाँ ईश्वर० । प्रभु परमातम परमेश्वर । प्राण-प्रिय जैन जिनेश्वर ।
भास्वर अविनश्वर कहि बतलाऊँ मैं ॥ श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा सुमन सझाऊँ मैं ॥१॥
नहिं जिन जग कर्ता, हाँ हाँ नहिं० । नहिं शङ्कर वत संहर्ता । यद्यपि त्रिभुवन के भर्ता ।
अविकार अमल जस लक्षण गाऊँ मैं ॥ श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा सुमन सझाऊँ मैं ॥२॥
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जैन रखाकर
नहिं घट घट व्यापी, हॉ हॉ नहिं । यद्यपि घट घट के ज्ञापी।
प्रभु ज्ञान पतङ्ग प्रतापी ।
सब पाप काप सुमरत सुख पाऊँ मैं ॥ श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा सुमन सझाऊँ मैं ॥३॥
नहिं भगवन् भोगी, हॉ हॉ नहिं० । नहिं योगाराधक योगी।
साकार इतर उपयोगी।
अवियोगि मिलन हित हृदय लुभाऊँ मैं ।। श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा सुमन सझाऊँ मैं ॥४॥
अमृत रस वर्षी, हाँ हाँ अमृत०। चुम्बक वत चिताकपी ।
उपदेश हि जस शिव दी।
तुलसी नत मस्तक शीष चढ़ाऊँ मैं ॥ श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा सुमन सझाऊँ मैं ॥॥
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जैन रत्नाकर
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श्रावक जीवन की पृष्ठ-भूमिका ।
तेरह नियम लो। घट घट में अब जल्द जगावो , आत्म धर्म की लौ । ते०। श्रावक-पन की पृष्ठ-भूमिका , अब तैयार करो।
तेरह नियम लो॥ इति ध्रुव पदम् ।। मानवता के भव्य-भवन में , खेल रहा प्राणी पशु-पन में। हो मन में मदमस्त अस्त कर , अमित आत्म बल जो॥
तेरह नियम लो॥१॥ उज्ज्वल मन्दिर में जो आये , कीड़े दुर्गण रूप रचाये। क्यों इस छुत रोग को मानव , पुरस्कार अब दो।
तेरह नियम लो॥२॥ वीर-पुत्र बन जो हि बटोरो , अपने जीवन में कमजोरो। देख होत दिल ग्लानि , क्यों नहीं लज्जा से झुको।
तेरह नियम लो ॥३॥ नागपाश से बन्धन टूटे , (तो) क्यों नहीं बुरी आदतें छूटे। 'अव भी पुरुषों में पौरुष है', ऐसी बात कहो।।
तेरह नियम लो ॥४॥ नैतिकता का ऊँचा स्तर हो, मानव मानवता में स्थिर हो। 'तुलसी' ऐसे सार्वजनिक , जीवन उत्थान चहो ।
तेरह नियम लो ॥५॥
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जैन रत्नाकर
सादर शिरोधार्य
मैं तेरह नियम पालूंगा । मैं० 1
श्रोवर के श्रीमुख से नि.सृत, ये महामन्त्र कालूंगा । मैं० ।
ध्रुव पदम् ॥ साधु - हित भोजन बनवा के कभी न दूंगा निकट बुलाके, आत्मघात, मद, मांस, जुत्रा ओर, चौर्य्य कर्म टालूंगा । मैं तेरह नियम पालूंगा ॥ १ ॥ नस प्राणी का प्राण न लूंगा, रात्रि भोजन सात्विक अन्न क्षुधा हरने को, दिन मैं तेरह नियम पालूंगा ॥ २ ॥
रहते
MY
A
टाल करूंगा, खालूंगा ।
पर- स्त्री पर नहिं पलक उठाऊं, नहीं कभी भी लाय लगाऊं, नरक - सी समकूं, नहीं नजर डालूंगा ।
वेश्या नार
मैं तेरह नियम पालूंगा ॥ ३ ॥
मिथ्या साक्षी न देने जाऊं, कभी न धूम्रपान अपनाऊ, सत्गुरु जन की शिक्षाओं से, अपने को छालूंगा । मैं तेरह नियम पालूंगा ॥ ४ ॥
तेरह नियम तन मन से पालू : अपने को अति उच्च बनालू, श्री तुलसी चरणार्विन्द के चिह्नों पर चालूंगा । मैं तेरह नियम पालूंगा ॥ ५ ॥
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जैन रत्नाकर
तेरहसूत्री योजना-गुरुधारणा १-देव-अरिहन्त-(वीतरागी) २-गुरु-निग्रन्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
इन पांच नियमों को पूर्णतया पालन करनेवाले मुनि । ३-धर्म-वीतराग कथित अहिंसादि धर्म ।
गुरुधारणा-सम्बन्धी त्याग कुदेव, कुगुरु, और कुधर्म को धार्मिक देव, धार्मिक गुरु और धर्म (आत्म साधक धर्म ) मानने का त्याग करना ।
-मानवताके आवश्यक तेरह नियम१-शुद्ध साधुवों को अशुद्ध (साधुवों के लिए बनाया हुवा,
खरीदा हुवा आदि ) आहार पानी देने का त्याग करना । २- क्रोध, भय, दुःख, और सङ्कट आदि कारणों से जहर खाकर
कुए में गिर कर आदि उपायों द्वारा आत्महत्या करने का
त्याग करना। ३-निरापराध चलते फिरते जीवों को जान बूझकर मारने का
त्याग करना। ४-मद्य पीने का त्याग करना । ५-मांस खाने का त्याग करना । ६-बड़ी चोरी करने का त्याग करना । ७-जूबा खेलने का त्याग करना। ८-असत्य साक्षी देने का त्याग करना-कमसे कम जिसके
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जैन रत्नाकर . ३५ द्वारा प्राण हत्या हो या उसके जैसा भयङ्कर अनर्थ होता हो,
वैसी झूठी साक्षी देने का त्याग करना । 8-द्वेषवश या लोभवश आग लगाने का त्याग करना। १०-परस्त्रो गमन का त्याग करना (अप्राकृतिक मैथुन का त्याग
करना।) ११-वेश्या गमन का त्याग करना। १२-तमाखू अर्थात् धूम्रपान व नशे का त्याग करना। १३-रात्रि भोजन का त्याग करना (कमसे कम) आठम और चवदश का त्याग करना।
-स्पष्टीकरण२- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए आत्म-बल का परिचय देते हुए मृत्युपण
अंगीकार करना अर्थात् प्राणों की बलि दे देना आत्महत्या नहीं है, लेकिन इसके लिए होनेवाले प्रहार और आक्रमण के भयसे मरजाना
आत्महत्या है जिसका त्याग करना न करना अपनी इच्छाके अधीन है। ३---संकल्प-पूर्वक जान-बूझकर मारनेका त्याग करना । -
हिंसा के मुख्य तीन प्रकार हैं:१-आरम्भी-कृषिवाणिज्य आदि उपायों से होने वाली हिसा । २--विरोधि-विरोधियों के प्रति की जाने वाली हिंसा । ३-संकल्पी-विना प्रयोजन की जाने वाली हिसा।
उपर्युक्त नियमों में सिर्फ संकल्पी हिसा का त्याग कराया जाता है। ६-चडी चोरी का अर्थ है ताले तोड़ कर डाका डाल कर लूट खसोट कर
जेबें काटकर आदि ऐसे साधनों द्वारा दूसरों की वस्तुओं का हरण
करना जिसे प्रत्यक्ष में चोरी कहा जा सके। १२-तमाखू पीना खाना सूंघना आदि सब इसके अन्तर्गत है भांग, गांजा,
सुलफा अफीम आदि नशीली वस्तुओं का त्याग भी इसके.अन्तर्गत है।
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जैन रत्नाकर
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व्रत-धारण शिक्षा
(देशी-दुलजी छोटोतो) श्रावक ! व्रत धारो,
निज जीवन-धन सम्भारो रे ! श्रा० ॥ जैनागम रहस्य विचारो रे,
श्रावक ! व्रत धारो। क्षणिक-विषय-सुख खातर आतुर, __ मानव-भव मत हारो रे ॥श्रा०नि०॥ए आं०॥ अव्रत-नाला वहै दग चाला,
रोकण तास प्रचारो रे ॥ श्रा०॥ आत्म-तलाव कर्म-जल विरहित,
करवा हित अविकारो रे ॥ श्रा० ॥१॥ हिंसा वितथ अदत्त रु मन्मथ,
लोभ क्षोभ करनारो रे ॥ श्रा० ॥ निज मन्दिर में तस्कर-लस्कर, ___ तास करन मुंह कारो रे ॥ श्रा० ॥२॥ ईर्ष्या द्वेष असूया मत्सर,
घर-घर क्लेश करारो रे ॥ श्रा० ॥
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जैन रत्नाकर
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कलुषित-हृदय कलह-दिलदूषित,
तास करन प्रतिकारो रे ॥ श्रा० ॥३॥ मुक्ति-महलनी पञ्चम पेड़ी,
नेड़ी निजर निहारो रे ॥ श्रा० ॥ वोर विभू सन्तान स्थान तुमें, ___ कातरता न सिकारो रे ॥ श्रा० ॥४॥ निरय तिरय गति निगम निरोधो,
न्यन्तर असुर विसारो रे ॥ श्रा०॥ ज्योतिषि ऊपर वैमानिक सुर,
देखो तास दुवारो रे ॥ श्रा० ॥ ५ ॥ धन्य जघन्य समय शिव सम्भव,
त्रिण भव में निस्तारो रे॥श्रा०॥ आत्मानन्द अमन्द अपूरव,
व्रत वैभव विस्तारो रे ॥ श्रा० ॥६॥ त्याग नाग नहिं सिंह बाघ नहिं,
माग नहीं भयवारो रे ॥ श्रा० ॥ हृदय चिराग भाग जागरणा,
क्यों कम्पै दिल थारो रे ॥ श्रा० ॥७॥
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जैन रत्नाकर
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चित्त प्रधान पूणियो श्रावक, । । मन्त्री अभयकुमारो रे ॥ श्रा० ॥ आनन्दादि उपासक वर्णक,
सप्तम अङ्ग सुप्यारो रे॥ श्रा० ॥८॥ शङ्ख-पोखली भगवति सूत्रे, . । सुलसाँ सति श्रियकारो रे ॥ श्रा० ॥ राणी चिल्लणा जबर जयन्ति,
निसुणो तस अधिकारो रे ॥ श्रा० ॥६॥ भिक्षु-रचित बारह व्रत चौपी, . । विस्तृत रूप विचारो रे ॥ श्रा० ॥ दृग-गोचर अथवा श्रुति-गोचर,
कर-कर आत्म उद्धारो रे ॥ श्रा० ॥ १० ॥ उगणीशै नव नवती वर्षे, : चूरू - शहर मझारो रे ॥ श्रा० ॥ तुलसी गणपति व्रत सम्पति हित,
आखी सीख उदारो रे॥ श्रा० ॥११॥
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जैन रत्नाकर जैन भजन
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प्रातः स्मरण की ढाल । श्री ऋषभ सजित संभव अभिनन्दजी रे, सुमति पदम सुपासः। चन्द सुविध शीतल श्रेयांस नमुं : सदाः रे; वासुपूज्य गुणरास ॥ श्रीजिन - वन्दिये रे॥ वन्द्याँ परम आनन्दक, पाप निकन्दिये रे ॥ जयकारी जिनः चन्दक, श्री जिन वन्दिये रे ॥ १॥ विमल, अनन्त: धर्म जिनजी जपियेरे, शान्ति करण प्रभु सन्त । कुन्थु. अर मल्ली मुनि सुत्रत नमि नेमजी रे, पारस वीरः भगवन्त ॥ श्री ॥२॥ जग हितकारी तारी बहु नर नारने रे, उपकारी अरिहन्त । सिद्ध तणा सुख पाम्या, प्रभुजी शाश्वता रे, हूँ प्रणमं धर खन्त ॥ ३॥ साम्प्रत विचरै वहरमान जिन वीस छै रे, अढाई द्वीप मझार। सीमंधर जुगमंधर वाहु सुबाहुजी रे, जम्बूद्वीप में च्यार ॥४॥ सुजात स्वयं प्रभु ऋषभानन्द अनन्तवीर्य जी रे, पूर्व धातरी खण्ड। सूर विशाल वज्र धर चन्द्राननजी रे, पश्चिम च्यार जिणन्द ॥ ५॥
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जैन रत्नाकर चन्द्रबाहु भुजङ्ग ईश्वरजी नेमजीरे, 'पूरव अध पुखराज । वीरसेन महाभद्र देवजस अजितजी रे, पश्चिम च्यार जिनराज ॥६॥ फटिक सिंहासण बैठ प्रभुजी देवै देशना रे, ऊपर तरु आशोक । छत्र चमर भामण्डल दीसे झलकता रे, परवल पुन्याई जोग ॥ ७ ॥ देव ध्वनि पुष्प वृष्टि सुर दुन्दुभि रे, अमृत वैन अमाम । अनन्त ज्ञान दरशण तप बल घणो अनन्त छ रे, नमन करूं शिर नाम ॥ ८॥ आयु पूर्व लाख चौरासी जिन तणी रे, समचौरस संठाण । काया धनुष पांच सौ प्रभुनी शोमती रे, वज ऋषभ नाराच संघाण ॥ ६ ॥ जग हितकारी तारी बहु नर नारने रे, उपकारी जिण चन्द। विदेह क्षेत्र ना जघन्य वीस जिन वन्दता रे, अंजै भवि दुख द्वन्द्व ॥ १० ॥ गणधर गौतम इन्द्र अगन वायुभूति नमूं रे, गित सुधर्मा स्वाम। मण्डीपुत्र ने मौर्यपुत्र अकम्पित पुत्र ने अचल नमुं रे, मेतारज प्रभासक ॥ गणधर चन्दिये रे ॥ गुणवन्ता बुद्धिवन्ता गणधर चन्दिये रे ॥ ११ ॥ ब्राह्मी सुन्दरि चन्दन बाला
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जैन रत्नाकर
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राजेमती रे, द्रौपदी कौसल्या जान । मृगावती सुलसाँ सीता'ने वन्दिये रे. सुभद्राजी गुणखानक । सतियाँ ने वन्दिये रे ॥ १२ ॥ सेवा कुन्था दमयन्ती ने वन्दिये रे, चेलणा प्रभावती जान। पद्मावती ने पोह उठ चन्दू भाव सूं रे, शील तणी गुण खानक ॥ स० ॥ १३ ॥ जम्बु भरत आरज मरुधर देश माँ रे, प्रगट्या पूज्य दयाल । श्री भिक्षु भारीमाल राय ऋषि जयगणी रे, मघवा माणक डाल। कालू गणी वन्दिये रे ॥ १४ ॥ पाट नवमें आज उजागर दीपता रे, तुलसीराम गणिन्द। च्यार तीरथना नाथ प्रभुजी शोभता रे, जिम ताराँ बिच चन्द। गणेश्वर वन्दिये रे । शासन का शिणगार ॥ग० ॥ १५ ॥ जुग प्रकार छतीस गुणाधर दीपता रे, अरिहन्त जेम अवतार । सोले उपमा शोभै आप में रे, नाम लियाँ निस्तार ॥ ग० ॥
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जैन, रत्नाकर चवदै नियम की ढाल ।
(देशी–सोई रे सयाणा अवसर साधै०) सचित १ द्रव्य २ विगय ३ परिहार, पन्नी ४. तंबोल ५ वस्त्र ६ सुविचार। फूल ७ बाहन ८ सयन ६ सुखकार, विलेपन १० ब्रह्मचर्य ११ धार ॥ सोई रे. सयाणा नेम चितारै, श्रावक ते आतम निस्तारै ॥१॥ दिशि १२ तणो करै परिमाण, स्नान १३ तणी. मर्यादा. आण । भात १४ तणो नियम बले जाण, ए चवदै नियम सीखे गुणखाण ॥२॥ पृथ्वी अप तेउ बले वाय, वनस्पति त्रस ए छहुँ काय । कूटण पीटण छेदन करै काय, परिमाण करै मन समता लाय ॥३॥ असनादिक ना द्रव्य अनेक, परिमाण करै मन समता छेक। दूध दही घृत ने मिष्टान्न, तैल बले विविध पकवान ॥४॥ मद्य मांस अभक्ष कहाय, श्रावक तो नहिं सेवै ताय । माखण मधु नो करै परिमाण, श्रावक ते कहिये गुण खाण ॥५॥ विगय तणो करै पचखाण, समता बसावै दिल माँ आण । चर्म तणी तथा बस्त्र नी जोय, पन्नी पावड़ियादिक अवलोय ॥६॥ पान सुपारी एलायची पेख, वस्त्र वासना द्रव्य अनेक। चित
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४३.
में समता धारै चङ्ग, ताम्बुल नेम धारै मन रङ्ग || ७ || सूत ऊनु रेशम नो जोय, वस्त्र अभिग्रह धारें सोय । फूलादिक सुगन्ध अपार, संघण मेरा करें सुखसार ||८|| अश्व रथादिक नी असवारी, बाहनाभिग्रह करै मन बारी । पल्यङ्कादिक सयण सुजाण, वैसण सोवण विध परिमाण ॥६॥ केशर चन्दण ने घनसार, विलेपन नी मर्याद विचार । देव मनुष्य तिर्यश्च ना जोय, भोग छाड़ी ब्रह्मचारी होय. ॥ १० ॥ पूर्व पश्चिम उत्तर, दक्षिण उर्द्ध अधो धारै विचक्षण । भ्रमण तणो मन मेटी भ्रम, पाप सेवन त्यागे दिल नर्म || ११ || एक दोय उपरान्त उदार, अंग पखालण
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परिहार | हस्त पाद धोवण विध जोय, ते पिण त्यागै समता वसोय ॥१२॥ असनादिक चिहुॅ विधि आहार, त्यामें एक वे आदि त्यागे सार । तथा तोल मान करें जेह, भात गिनत संख्या धारेह ॥ १३ ॥ एह चवदै नेम कहीजे, त्यांमें लेन बेचन बहु काम गिणिजै । खावण पीवण मर्याद करीजै, करण योग दिल माँह धरीजै ॥ १४॥
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अनन्त काल भव भ्रमण मिटावे, सुख सम्पति आनन्द चवर्दे नेम हृदय जे ध्यावै, नरक निगोद मांहें
उपावै ।
जन रक्षाकर
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जैन रत्नाकर नहीं जावै ॥१५॥ दुर्लभ लाधो मनुष्य जमारो, आर्य क्षेत्र सुकुल अवतारो। आण अखंडित सू आराधो, तो शिवरमणी ना सुख साधो॥१६॥ अङ्ग अश्व ग्रह चंद कहावे, भाद्र कृष्ण पञ्चम दरशा। श्री कालू करुणा सुपसायो, ऋषिराम आनन्द निधि आयो ॥१७॥ अल्प मात्र विस्तार ए कीधो, बुद्धिवन्त जाण लेवै बहू विधो । गंगापुर श्रावक गुण गाया, ढाल जोड़ो ए युक्ति लगाया ॥१॥ इति ॥
नित्यप्रति चितारने के १४ नियम १ सचित्त-माटी, पाणी अग्नि वनस्पति, फल, फूल, छाल्य
काष्ठ, मूल, पत्र, बीज त्वचा तथा अग्नि प्रमुख अनेरं शस्त्र लाग्यं न होय ते, इलायची, लौंग
बादाम इत्यादिक सचित्तनुं वजन धारवं । २ द्रव्य-धातु वस्तुनी शली तथा अपनी आंगुली के
सिवाय जो वस्तु मुख में दीजे सो सर्व द्रव्य की गिणती में आवै। नामान्तर, स्वादान्तर स्वरूपान्तर, परिणामान्तर, द्रव्यांतर होणेसे द्रव्यांतर
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जैन रत्नाकर
होई। जिम गहूँ एक द्रव्य किन्तु उसकी रोटी, फीणा रोटी, वेढवा रोटी और बाटी यह सर्व द्रव्य जुदा कहिये। इसी प्रकारे भात, दाल रोटी, मांडियो, पलेच, तरकारी, पापड़, खीचिया, लड्ड, फीणी, घेवर खाजा इत्यादि। यहां उत्कृष्ट द्रव्य को नाम लेई राखै तो एक हो द्रव्य कहिये । जैसे मेवे की खीचड़ी अनेक द्रव्य निष्पन्न है किन्तु नाम लेके रखने से
एक ही द्रव्य है। ३ बिगई-दूध, दही, घी, गोल, (चीनी गुड़) तेल तथा
जे चीज कढाइमां तलायवे तेहनी गणत्री धारवी। ४ वाहण-पगरखां अथवाजोड़ा तथा मोजा चट्टी, खड़ाल
(जो पापमें पहना जाय)। ५ तंबोल-पान, सुपारी, इलायची, लवंग ,चूरण, गोली,
खाटो इत्यादिक नुं वजन धार, ।। ६ वत्थ-वस्त्र (रेशमी, सूती शण तथा ऊनना पगड़ी,
टोपी, कोट जाकिट, गंजी, चोला, कमीज, धोती, पायजामा दुपट्टा, चद्दर, शाल अङ्गोछा
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जन रक्षाकर
और रुमाल । मर्दाना, जनाना कपड़ा) वगैरहनी
गणत्री धारवी। ७ कुसुमेसु-जे वस्तु नाके सूंघवामा आवै तेहना तोलन
प्रमाण करवं उदाहरण फूल, फूल की चीजें जैसे-माला, हार, गजरा, तुर्रा, सेहरा, पंखा सिमया, अतर, तेल, सेण्ट, घी, छोंकणी वगै
रहनों नियम करवो। ८ बाहण-चरतुं, फरतुं, तरतुं, उदाहरण--
हाथी, घोड़ा, ऊंट, इक्का, गाड़ी, स्थ, पालकी, रिक्सो, रेल, ट्राम, साईकल, मोटर, मोटर साईकल, उड़नी जहाज, नाव, अने बोट वगैरह
नो नियम करवो। ६ सयन-सूबानी सज्या, पाट, पाटला, बिछाना, कुरसी,
चौकी, पलंग छपर-खाट, मेज तखत, सुखासन, सतरंजी, जाजम, गद्दी वगैरह नी गणत्री
धारवी। १० विलेषण-जे वस्तु शरीरे चौपड़वा मा आवै तेहना
वजननों प्रमाण उदाहरण-सूखड़ चन्दन, केशर,
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जैन रनाकर तेल, सोडो, मसालो कपूर, कस्तूरी, रोली,
काजल, सुरमा वगैरह। ११ वंभ-ब्रह्मचर्यनो नियम करवो?--स्त्री पुरुषने सूई
डोरै के न्याय तथा बाह्य विनोदकी गणत्री धारची, श्रावक परदारा त्याग और स्वदारा से ही संतोष राखे, उसका भी प्रमाण करै,
अन्तराय देणी नहीं, संयोग मेलणो नहीं। १२ दिशि-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, नीचं अने ऊंचुं
ए छः दिशाएं जावा आवाना कोसन प्रमाण धार, चिट्टी, तार, आदमी, माल, इतने कोस,
भेजना तथा मंगाना।' १३ न्हाण-सर्व अंगे नहावं तेहनी गणत्री तथा पाणीनो
: वजन धार । १४ भत्तसु-भोजन तथा पाणी वापरखु तेहना वजनन
प्रमाण करवं इतना घर उपरान्त जीमणो तथा पाणी पीणो नहीं।
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जैन रत्नाकर
चवदे स्थानक की ढाल।
(एक विवस लङ्कापति कोड़ा नी उपनी रती०) चवदे स्थानकरा जीव ए, त्यांमें दुःख कह्या अतीव ए। तिणरो ए तिणरो विवरो हिव सांभलो ए ॥१॥ बड़ी नीत उच्चार ए, पासवण एम विचार ए । बे घड़ी ए बे घड़ी पछै जीव उपजै ए ॥ २ ॥ आलस भय करी रात रो, भेलो करी राखै मातरो । इण बात रो निर्णय हिव तुम सांभलो ए ॥३॥ खस खस दाणे एवड़ा, जम्बू द्वीपे जेवड़ा। एवड़ा असन्नीआ मुआ घणा ए॥४॥ स्त्री पुरुष संयोग में, मृतक जीव वियोग में। इण जोग में, नयर अशुचि नाला भरया ए॥५॥ इम हिज खेलमें जाणज्यो, नाकरो मेल पिछाणज्यो। बमणाज, ए बमणज पित दोन्यू कह्या ए ॥६॥ इमहिज लोही राध में, शुक्र तणी मर्याद में । सूको ए सूको पुद्गल नीलो हुवै ए ॥७॥ सर्व अशुचि ठाम ए, चवदे स्थानक रानाम ए। जतनज ए जतनज कोई बिरला करै ए ॥८॥ ज्ञानी पुरुषाँ देख्या ए, ज्याँ आप सरीषा लेख्या ए। जाणज ए जाण पुरुष जयणा करै ए ॥३॥ नाहना घणा अथाग ए, आंगल रे असं
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जैन रत्नाकरे _ ख्यात में भाग ए। गिराजज ए, गिराज आवै ज्ञानी तणे ए॥१०॥ श्रावक के नित्य चिन्तवने के तीन मनोरथ ।
दोहा
प्रणम अरिहन्त सिद्ध बलि , आचारज उवझाय । साधु सकल पद वन्दता , आनन्द मङ्गल थाय ॥१॥ श्रीजिनवर स्वमुख थकी , तीजा अङ्ग मझार । तीजै ठाणे आखिया , तीन मनोरथ सार ॥२॥ श्रावक व्रत धारक जिके , चिन्तवता सुखकार । कर्म महा अघ निरजरै, पामै भवनो पार ॥३॥
ढाल पहली (देशी- भाखै कृष्ण मुरार धिकार संसार में ) प्रथम मनोरथ मांहि, श्रावक इम चिन्तवै । ये आरंभ दुःखदाय, परिग्रह थी हुवै ॥१॥ महा अनरथ - मूल, परिग्रह जिन कह्यो। किंचित् ने वलि स्थूल, पंच भेदे ग्रह्यो ॥२॥ खेतु पथु दिक जान, हिरण्य सुवर्ण सही। कुम्भिधातु धन धान, द्विपद चौपद मही ॥ ३ ॥ यथाशक्ति परिमाण, त्याग उपरान्तही । पञ्चम व्रत गुण खाण, करण योगवन्त
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जैन रहाकर
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ही ॥ ४ ॥ जे राख्यो आगार, ते अन्नत द्वार है । देयाँ देवायाँ तार, पाप सञ्चार है ॥ ५ ॥ सचित अचित जे वस्तु, आहार ने पाणियाँ । सावद्य कार्य समस्त भोगाय भलो जाणियाँ || ६ || हिन्सा हुवै षटकाय, तणी गृहवास में । जिन मुनि आण न ताय, धर्म नहीं जास में || ७ || आरम्भ परिग्रह एह, कुगति दातार है । क्रोध मान माया लोभ, तणुं करण हार है || ८ || संयम समकित कल्पतरु नो भंजनूं । महामन्द बुद्धि अज्ञान तणो मन रञ्जनूं ॥ ६ ॥ माठी लेश्या होय, आर्त्त रौद्र ध्यान में । न्याय न सूझे कोय, लिप्त धनवान ने ॥ १० ॥ सुमति शुचि सौभाग्य, विनाशण एह हो । जन्म मरण भय अथाग, हुवै परिग्रह थकी || ११ || कड़वा कर्म विपाक, तणो हेतु सधैं | सींचे तृष्णा बेल, त्रिषै इन्द्रो बधै ॥ १२ ॥ दारुण कर्कश - दु:ख वेदन असराल ही । कूड़ कपट परपश्च, करै विकराल ही ॥ १३ ॥ इण सरीषो नहीं मोह, पाश प्रतिबन्ध है । स्नेह राग करि जास, मूछो अन्ध है ||१४|| दान कुपात्र दुरगति दायक जिन कहै । परिग्रह थी देवाय तेह थी शिव किम रुहे ॥ १५ ॥ घणा काल री प्रीत, विनाशै स्यात में । कुल
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जैन रत्नाकर
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मर्यादनी रीत, छांड़ वलि न्यात में ॥ १६ ॥ एहवो आरम्भ परिग्रह, जे दिन त्यागस्यं । थासे ते दिन धन्य, अंतस वैराग सूं ॥१७॥ वाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थ, तणी मूर्छा तजू । प्रगटै भल रवि तेह । नाम प्रभू नूं भजूं ॥ १८ ॥
दोहा दूजो मनोरंथ चिन्तवै , श्रावक जे व्रतधार । तन धन जोबन कार, विणशंतों नहीं वार ॥१॥ मात पिता बंधव त्रिया , पुत्रादिक परिवार । स्वारथ लग सहु को सगा , सही संसार असार ॥२॥ गृहवासै हिवड़ा बसू , चारितमोह जे कर्म । क्षय उपशमियां थी कदा , लेस्यूं चारित्र धर्म ॥ ३ ॥
ढाल दूसरी (देशी-वैरागे मन वालियो तथा कृष्ण भाव रूड़ी भावना) . • धन २ सञ्जम धर मुनि, त्यागो ते संसार। पञ्च महाव्रत धारका, पालै पञ्च आचार ॥ धन २ संयम धर मुनि ॥१॥ श्री जिन आणा चाहिरो। सावध कारज ताय, नहीं आदेश दे तेहन । मौन धारै मुनिराय ।। धन २ ॥२॥ दश विध यति धर्म धारियो, यति नाम कहिवाय । जीत्या विषय इन्द्रियाँ तणी, द्वितीय अर्थ सुखदाय ॥ धनं
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जैन रत्नाकर
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२ || ३ || दोष बयालिस टालके, ले भिक्षु शुद्ध आहार । कह्यो को भिक्षु ए गुण थकी, भेदे कर्म अपार ॥ धन २
महा गुण खान ।
धन २ ॥ ५ ॥
॥ ४ ॥ साधे शिव मग साधना, साधु द्वादश भेदे तप करै, तपसी नाम बखान ॥ मतहणो २ जीवने, दे उपदेश महन्त । माहण महा गुण आगला, शान्ति-भाव ते सन्त ॥ धन २ ॥ ६ ॥ कल्याणकारी ते भणी, कल्याणिक मुनि नाम । विज्ञोपशमकारी पणे, मंगलीक अभिराम ॥ धन २ ॥ ७ ॥ धर्मोपदेशक गुण थकी, पूजनीक तसु पाय । तीन लोक ना अधिपति, धर्म देव मुनिराय || धन २ ॥ ८ ॥ चित्त प्रसन्न दरशन तसु, चैत्य सदा सुखकार । नव विध पालै बक्ष क्रिया, बलिहारी ब्रह्मचार || धन २ ॥ ६ ॥ जन्म सफल कियो महा ऋषि, षट् काया प्रतिपाल । भव सागर में डूबताँ, जहाज समान दयाल || धन २ ॥ १० ॥ स्नेह पास नहिं केह सूं, सम्बेगी वैराग । ग्रन्थी त्याग निग्रन्थ है, महकत सुयश अथाग ॥ धन २ ॥ ११ ॥ शुद्ध क्रिया में श्रम करें, श्रमण कहिजै तेह | योग विमल साधै सदा, तिणसूं योगी कह || धन २ ॥ १२ ॥ आर्जव २ भाव थी,
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मा २ भाव । शौच शुची क्रिया भली करता मुक्ति उपाय ॥ धन २ ॥ १३ ॥ धर्म विणज विणजै सदा, सार्थवाह सुविचार | कर्म- कटक दल जीतवा, सेनापति व्रतधार ॥ धन २ ॥ १४ ॥ मन वच काया गोपवै, सुमति पञ्च प्रकार | इन्द्रादिक स्वमुख करी, न लहै गुणनो पार || धन २ ॥ १५ ॥ सबला इकवीस दोष जे, टालै ते भल रीत । तीन तीस आशातना, करें नहीं सुविनीत ॥ धन २ ॥ १६ ॥ आचारज उवज्झायरी, व्यावच से धर प्यार । तपसी लघु फुन ग्लानने, वस्त्रादिक दे आहार ॥ धन २ ।। १७ ।। भव भ्रम भमता जीवने, तारण तरण समान । गहन कन्तार संसार थी, ल्यावै शिव मग स्थान ॥ धन ॥ १८ ॥ चन्द्र तणी पर निरमला, तम मिध्या मति नाश | अडिग अमर गिर सारीषा, रविवत् ज्ञान प्रकाश ॥ धन २ || ११ || जिन भाषित दाखित सदा, साधु श्रावकनुं धर्म । अत्रत विष सम लेखवी, पालै क्रिया पर्म ॥ धन || २ || २० | आतम भावै विचरता, ध्यावै निज ध्येय ध्यान | अकरता पद परिणमें, धन्य २ ते गुणवान ॥ धन २ ॥ २१ ॥ निन्दित वन्दत सम पर्णे,
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जैन रत्नाकर
राग द्वेष नहिं होय। जश अपयश जीवण मरण में, हर्ष शोग नहिं कोय ॥ धन २ ॥ २२ ॥ सफल जमारो धन्य घड़ी, भाव जागृत जेह। अप्रतिबन्ध वायु परै, तजी कुटुम्ब थी नेह ।। धन २ ॥ २३ ॥ चारित मोह क्षयोपशम्याँ, हूँ एहवो व्रतधार। थास्यूं ते दिन धन्य घड़ी; आनन्द हर्षे अपार ॥ धन २ ॥ २४ ॥
- दोहा तीजो : मनोरथ चिन्तवै , मन · में श्रावक एम। संयम ग्रही शुभ भाव से , लिया निभाऊँ नेम ॥१॥ ए संसार अगाध में , भमियो काल अनन्त । बहु षटरस भोजन किया , समता नहिं उपजन्त ॥ २॥ चरण सहित अणशण करूं , पादोगमन संथार । अवसर मरण तणे बलि , होयजो शरणा च्यार ॥३॥
ढाल ३ जी (देशी–हूं तुझ आगल स्यूं कहूँ कन्हैया) शुभाशुभ पुदगल फरशिया ॥ गुणवन्ता ।। षटत्रण दिशनं आहार हो । ग॥ श्रावक ॥ दुगन्ध सुगन्ध फश आठ ही ।। गु॥ पञ्च वरण रस धार हो । गु ॥ श्रावक ॥ भावै एहवी भावना गुणवन्ता ॥ १ ॥ मोटी माया मोहणी
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.. जैन रक्षाकर ।। गु॥ खोटी पुदगल पर्याय हो॥ गु॥ श्रा॥ उदय थयाँ दुःख नीपजै॥ ग ॥ वेदै चेतन रायहो । ग॥ श्रा॥ ॥ भावै ॥ २ ॥ प्रकृति अठवीसे करी ॥ ग॥ क्रोध मान माया लोभ हो ।। गु॥ चिहुँ २ भेदे संचरै ।। गु॥ पामै चेतन खोभ हो ॥ गु॥ श्रा॥ भावै ॥ ३ ॥ हास्य रतारत भय बलि ॥गु॥ शोग दुगंछा थाय हो । गु॥ श्रा।। स्त्री पुरुष नपुंसक तिहु॥ गु॥ मोह चारित कहिवायहो ॥ गु॥ श्रा॥ भावै॥ ४॥ दरशन मोह उदय थकी।गा। भिच्छत समकित जान हो ॥ गु॥श्रा॥ मिश्र मोहनी ए तिहुं । गु॥ दाबै निज गुण खान हो ॥ गु॥श्रा ।। ॥ भावै ।। ५ ।। असाता वेदनोदय ।। गु॥ भूख तृषादि पीडंत हो ।। गु॥ श्रा॥ लाभ भोगंतर क्षयोपशम्याँ ।।। भोग शक्ति पावंत हो ॥7॥ श्रा॥ भावै॥६॥ नाम उदय थी सहु मिलै । गु॥ गमता अणगमता भोग हो ॥ गु॥ श्रा॥ विविध प्रकारे भोग ।गु ॥ शरीरादि रोग्य आरोग्य हो । ग॥ श्रा ॥ भावै ॥ ७॥ पार अनन्त सुख दुःख सद्या ।। गु॥ भव भव भमियो जीव हो ।। गु॥ श्रा॥ स्वर्ग नरक फुन मनुष्य में ॥ गु॥
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जैन रक्षाकर
तिर्यञ्च गति में अतीव हो ।। गु ॥ श्रा॥ भावै ॥ ८॥ अनन्त मेरु सम आहारिया ॥ गु॥ अनन्त पुद्गल पर्याय, हो । गु॥श्रा ॥ कई इक लोकाकाश में ॥ गु॥ वार अनन्त कहिवाय हो॥ गु॥श्रा ॥ भाव ॥ ६ ॥ भोजन किया इण आत्मा ॥ गु॥ बहु मूल्यनो तंत हो॥ गु॥ श्रा॥ इभ जाणी अणशण करै ।गु०॥ छहले अवसर सन्त हो॥ गु॥श्रा ॥ भावै ॥१०॥ अष्टादश जे पापना ॥ गु॥ थानक प्रते आलोय हो ॥ गु॥श्रा ॥ निन्दै दुकृत जे. थया ॥ गु॥ शल्य रहित सहुकोय हो ॥ गु ॥ श्रा॥ भावै ॥११॥ लाख चौरासी योनिने । गु ॥ बारम्बार खमाय हो ॥ गु॥ श्रा॥ राग द्वेष तज सहु थकी ॥ गु॥ हर्ष शोग नहीं काय हो ॥ गु॥श्रा ॥ भावै ॥ १२॥ च्यार प्रकारे आहार जे ॥ गु ॥ त्यागै ममता रहित हो ॥ गु । श्रा॥ पञ्च आश्रव पचखी करी ॥ गु॥ पादोपगमन सहित हो॥ गु ॥ श्रा ॥ भावै ॥ १३ ॥ जङ्गम स्थावर सम्पति ॥ गु॥ द्विपद चौपद वोसराय हो । गु ॥ श्रा॥ अरिहन्त सिद्ध साधु ध्यान थी॥ गु॥, शिवगति नेडी थाय हो ॥ गु॥ श्रा॥ भावै ॥ १४ ॥ इहलोक परलोककी ॥ गु॥
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जैन रत्नाकर
जीवितव्य मरण सधीर हो ॥गु॥श्रा॥ आशा नहीं काम भोगरी ॥7॥ सम परिणाम सुथिर हो ॥7॥ श्रा।। भावै ॥ १५ ॥ अन्त समा में एहयो । गु॥ पण्डित मरण जे थाय हो ॥ गु॥ श्रा॥ मनरा मनोरथ जद फल ।।। आनन्द हर्ष सवाय हो ॥7॥श्रा ॥ भावै ॥ १६ ॥ धन्य दिवस धन्य जे घड़ी ॥ गु॥ आराधक पद पाय हो ॥ गु॥श्रा॥ अल्प भवारे आंतरे ॥ 7 ॥ सिद्ध गति में ते जाय हो ।। ग॥श्रा ॥ भावै ॥ १७ ॥ श्री भिक्षु गुण आगला ॥ गु॥ प्रगट बतायो राह हो । गु॥ जिन धर्म जिन आज्ञामहीं।गु॥ आज्ञा वाहेर नाहि हो ।। गु॥श्रा ॥ भावै ॥१८॥ भारीमाल गणि तस पटे ॥ गु॥ तृतीय तख्त ऋपराय हो ।। गु ॥ ॥श्रा ।। जय वर पट तूर्य सूर्य सा ।।गु ।। पञ्चम मघवा कहवाय हो॥ग ॥ श्रा॥ भावे ॥ १६ ॥ माणक माणक सारिखा ॥ गु॥ वर्तमान गच्छ स्थम्भ हो ॥ गु॥ श्रा॥ नामें डाल शशि भला । गु० ॥ भविजन निरख अचम्भ हो ॥ गु० ॥ श्रा०॥भावै० ॥ ॥२०॥ उगणीस पैंसठ बलि ॥ गु० ॥ मृगशर सित पख पेख हो । गु०॥ श्रा० ॥ श्रावक गुलाब
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जैन रत्नाकर कहै भलूं ॥ गु ॥ आनन्द हर्ष विशेष हो ॥ गु॥ श्रावक भावै ॥ २१॥
॥ कलश ॥ गीतक छन्द ॥ इम त्रण मनोरथ चिन्तवै, जे भविक नित प्रते जाण ही। अघ राशि कर्म विनाश थावै, पावै पद निरवाण ही॥ गणी डालचन्द दिनन्द सम, मम गुरु तास पसाय ही। कहै श्रमणोपासक गुलाबचन्द, आनन्द हर्ष अथाय ही ॥१॥
बारह भावना के दोहा
(१) अनित्य भावना राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥
(२) अशरण भावना दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियाँ जीवको, कोई न राखन हार ।।
' (३) संसार भावना .. दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥
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जैन रखाकर
(४) एकत्व भावना आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय । यों कबहूँ या जीव को, साथी सगो न कोय ॥
(५) अन्यत्व भावना जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर संपति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥
(६) अशुचि भावना दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह ॥
. (७) आश्रव भावना जगवासी घूमें सदा, मोह नींद के जोर । सब लूटे नहीं दीसता, कर्म चोर चहुँ ओर ॥
(८) संवर भावना मोह नींद जब उपशमै, सतगुरु देय जगाय । कर्म चोर आवत रुकें, तव कुछ बने उपाय ॥
(6) निर्जरा भावना ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरव चोर ॥
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जैन रत्नाकर
पञ्च महाव्रत संचरण, समिति पञ्च प्रकार । प्रबल पञ्च इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार ॥
(१०) लोक भावना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादि तें, भरमत है बिन ज्ञान ॥
(११) बोधिदुर्लभ भावना धन जन कंचन राजसुख, सबहिं सुलभ कर जान। दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ॥
(१२) धर्म भावना जाचे सुरतरु देय सुख, चिंतित चिन्ता रैन । बिन जाचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन।
पञ्च पद वन्दना
अरिहन्त वन्दना __पहिले पदे श्री सीमंधर स्वामी आदिदेई जघन्य बीस तीर्थङ्कर देवाधिदेवजी उत्कृष्ट एक सौ साठ तीर्थङ्कर देवाघिदेवजी, पंच महाविदेह क्षेत्र में विचरे छ,-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त बल, अशोक
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जैन रत्नाकर वृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुन्दुभि, स्फटिक सिंहासन, भामण्डल, छत्र, चामर एवं द्वादश गुणना धारक, एक हजार आठ शुभ लक्षण युक्त शरीर, चउसठ इन्द्रांना पूजनीय, चउतीस अतिशय, पैंतीस वचनातिशय करी शोभित, एहवा श्री अरिहन्त देवॉ प्रते हाथ जोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं चंदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण चंदामि ॥१॥
सिद्ध वन्दना दूजै पदे अनन्त सिद्ध पन्द्रह भेदे अनन्त चउवीसी अष्ट कर्म खपावीने मोक्ष पहुँता-केवल ज्ञान, केवल दर्शण, आत्मिक सुख, क्षायक सम्यक्त्व, अटल अवगाहना, अमूर्तिपणो, अगुरुलघुपणो, अन्तराय रहित, एवं अष्ट गुण संयुक्त जन्म मरण जरा रोग सोग दुख दारिद्र रहित सदा काल शाश्वत सुखाँ में विराजमान छै ते सिद्ध भगवन्त प्रते हाथजोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं वंदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण चंदामि ॥२॥
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जैन रत्नाकर
धर्माचार्य वंदना तीजै पदे म्हारा धर्माचार्य गुरु पूज्यजी महाराजा, धिराज श्री श्री १००८ श्री तुलसीरामजी स्वामी आदि ते आचार्य भगवान केहवा छै–पञ्च महानतना पालणहार, चार कषायना टालणहार, पञ्चाचारना पालणहार, पञ्च समिति-समिता, त्रिण गुप्तिगुप्ता पंचेन्द्रियना जीतणहार, नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्यना पालणहार एवं छत्तीस गुणना धरणहार, शासन शृङ्गार गच्छाधार धर्मधुरन्धर सयल शुभङ्कर, भुवन भासक, मिथ्यात्व नासक तीर्थङ्कर देव वत् धर्मोद्योतकारी एहवा महापुरुष आचार्यजी प्रते हाथजोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं वंदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मथएण वंदामि ॥३॥.
___ उपाध्याय वंदना चउथे पदे उपाध्यायजी महाराज इग्यारह अंग बारह उपांग भणै भणावै एवं पचीस गुणयुक्त विराजमान छै ते महापुरुष उपाध्यायजी प्रते हाथजोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं वदामि नमसामि सकारेमि सम्माणेमि
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जैन रत्नाकर
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-कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थपण
चंदामि ॥ ४ ॥
मुनि वंदना पंचमें पढ़े जघन्य दो हजार क्रोड़ जाझेरा साधु साध्वी उत्कृष्ट नव हजार क्रोड़ साधु साध्वी अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्रों में विचरे छै ते महा सुनिराज केहवा छे पंच महाव्रतना पालणहार, पंचेन्द्रियना जीतणहार, चार कपाय ना टालनहार, भावसत्य करणसत्य, जोगसत्य क्षमावन्त वैराग्यवन्त, मन समाधारणता, वचन समाधारणता, काय समाधारणता, ज्ञान सम्पन्न, दर्शण सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न, वेदनी आय सवभावे सहै, मरण आयॉ समभावे सहै एवं सत्तावीस गुणना धरणहार, बावीस परिपहना जीतणहार, क्यॉलीस दोष टाल आहार पाणी ना लेवणहार, चावन अनाचार ना टालणहार निर्लोभी, निर्लालची संसार सूं उदासी मोक्षना अभिलापी, संसार सूं अपूठा मोक्ष सूं साहमा, सचितना त्यागी अचितना भोगी, नंतिया जीमै नहीं तेड़िया आये नहीं वायुवत् अप्रतिबन्ध बिहारी, एहवा महा उत्तम मुनिराज प्रते हाथजोड़ मानमोड़
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जैन रत्नाकर तिक्खुतों ओयाहिणं पयाहिणं बंदामि नमसामि सकारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मस्थएण वंदामि ॥५॥
॥ इति पञ्चपद वन्दना समाप्त ॥
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खामेमि सव्वेजीवा खामेमि सधजीवे, सम्बे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरमज्झ न केणई ।।
३
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जैन रत्नाकर
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पचीस बोल (१) पहले बोले गति च्यार
(१) नरक गति (२) तियाति
(३) मनुष्य गति (४) देवांगति, (२) दूजे बोले जाति पाँच
(१) एकेन्द्रिय (२) द्वीन्द्रिय शीन्द्रिय
(४) चतुरिन्द्रिय (५) पञ्चेन्द्रिय (३) तीजे वोले काया छव
(२) पृथ्वीकाय (२) अप्काय (३) तेजसका
(8) वायुः काय (५) वनस्पतिकाय (६) त्रस काय (४) चौथे वाले इन्द्रियाँ पांच
(१) श्रोत्रेन्द्रिय (२) चक्षुरिन्द्रिय (३) घ्राणेन्द्रिय . (४) रसनेन्द्रिय (५) स्पर्शनेन्द्रिय ।। (५) पांचवें वोले पर्याप्ति छव
(१) आहार पर्याप्ति (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रिय पर्याप्ति (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति
(६) मनः पर्याप्ति । .(६) छठे बोले प्राण दश
(१) श्रोत्रेन्द्रिय प्राण (२) चक्षुरिन्द्रिय प्राण (३) घ्राणेन्द्रिय प्राण (४) रसनेन्द्रिय प्राण (५) सर्शनेन्द्रिय
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जैन रत्नाकरें
प्राण (६ मनो बल (७) बचन बल (८) काय बल (६) श्वासोच्छ्वास प्राण (१०) आयुष्य प्राण । (७) सात में बोले शरीर पांच
(१) औदारिक शरीर ( २ ) वैक्रिय शरीर (३) आहारक शरीर (४) तैजस शरीर (५) कार्मण शरीर ।
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) आठवें बोले योग पन्द्रहः -
चार मन का - (१) सत्य मनो योग (२) असत्य मनो योग (३) मिश्र मनोयोग (४) व्यवहार मनोयोग |
चार वचन का - (५) सत्य वचन योग (६) असत्य - वचन योग (9) मिश्र वचन योग (८) व्यवहार वचन योग ।
सात काया का - (६) औदारिक काय योग |
(१०) औदारिक मिश्र काय योग ।
(११) वैक्रिय काय योग ।
(१२) वैक्रिय मिश्र काय योग ।
(१३) आहारक काय योग । (१४) अहारक मिश्र काय योग । (१५) कार्मण काय योग ।
(E) नवमें बोले उपयोग बारह
पांच ज्ञान - (१) मति ज्ञान (२) श्रुत ज्ञान (३) अवधि ज्ञान (४) मनः पर्यव ज्ञान (५) केवल ज्ञान ।
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जैन रत्नाकर तीन अज्ञान-(६) मति अज्ञान (७) श्रुत अज्ञान (७) विभंग
अज्ञान । चार दर्शन -(8) चक्षुः दर्शन (१०' अचक्षु दर्शन
(११) अवधि दर्शन (१२) केवल दर्शन । (१०) दशवें बोले कर्म आठ
(१) ज्ञानवरणीय कर्म (२) दर्शनावरणीय कर्म (३) वेदनीय कर्म (४) मोहनीय कर्म (५) आयुष्य
कर्म (६) नाम कर्म (७) गोत्र कर्म (८) अन्तराय कर्म । (११) इग्यारहवें वोले गुण स्थान चौदह
(१) मिथ्या दृष्टि गुण स्थान (२) सास्वादन सम्यग दृष्टि गुण स्थान (३) मिश्र गुणस्थान (४) अविरत सम्यग दृष्टि गुणस्थान : ५) देश विरति गुण स्थान (६) प्रमत्त संयत गुण स्थान (७) अप्रमत्त संयत गुण स्थान (८) निवृत्ति वादर गुण स्थान (8) अनिवृत्ति वादर गुण स्थान (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुण स्थान (११) उपशान्त मोह गुण स्थान (१२) क्षीण मोह • गुण स्थान (१३) सयोगी केवली गुण स्थान
(१४) अयोगी केवली गुण स्थान। (१२) बारहवे चोले पांच इन्द्रियों के तेवीस विषयश्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषय -(१) जीव शब्द (२) अजीव
शब्द ३) मिश्र शब्द। चक्षुरिन्द्रिय के पांच विपय -(४) कृष्ण वर्ण (५) नील वर्ण
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६८
जैन रत्नाकर
1
(३) रक्त वर्ग (७) पीत वर्ण ६८ खेत वर्ण ।
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घ्राणेन्द्रिय के दो विषय – (६) सुगन्ध (१०) दुर्गन्ध 1 रसनेन्द्रिय के पांच विषय - (११) तिक रस
(१२) कटु रस
(१३) कषाय रस (१४) आम्ह रस (१५) मधुर रस ।
लर्शनेन्द्रिय के आठ विषय - (१३) शीत सर्रा (१७) उद्या
ली (१८' रूझ स्पर्रो (१६) लिच तर्रा (२०) लघु स (२१) गुरु स्पर्श (२२) मृदु स (२३) कर्कश सर्श |
(१३) तेरह बोले दश प्रकार के मिध्यात्व
(१) धर्म को अधर्म
(२) अधर्म को धर्म
(३) साघु को असाधु
(४) असाधु को साधु (२) नार्ग को कुमार्ग
(कुमार्ग को मार्ग
(७) जोष को अजीव
(८) अजीव को जीव (३) लुक को अमुक्त
(१०) अमुक्त को मुक्त
सनकने वाला मिध्यात्वी तनन्ते वला मिध्यात्वी समन्ते वाला मिथ्यात्वी सनन्दने वाला मिथ्यात्वी समन्तने वाला मिध्यात्वी समते वाला मिध्यात्वी सनन्ते चाला मिथ्यात्वी सननने वाला निय्यात्वी तमन्ते वाला मिथ्यात्वी लभन्ते वाला मिध्यात्वी
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(१४) चौदहवें बोले नव तत्व के ११५ भेदजीव तत्व के चौदह भेद
सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद-(१) अपर्याप्त और (२) पर्याप्त । वादर एकेन्द्रिय के दो भेद- (३) अपर्याप्त और (४) पर्याप्त। द्वीन्द्रिय के दो भेद-(५) अपर्याप्त और (६) पर्याप्त । त्रीन्द्रिय के दो भेद-(७) अपर्याप्त और (८) पर्याप्त । चतुरिन्द्रिय के दो भेद-(१) अपर्याप्त और (१०) पर्याप्त । असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद-(११) अपर्याप्त और (१२) पर्याप्त । संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद-(१३) अपर्याप्त और (१४)
पर्याप्त । अजीव तत्व के चौदह भेद
धर्मास्ति काय के तीन भेद -(१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश। अधर्मास्तिकाय के तीन भेद-(४) स्कन्ध (५) देश (६) प्रदेश ।
आकाशास्तिकाय के तीन भेद -(७' स्कन्ध (८ देश (8) प्रदेश। काल का एक भेद-(१०) काल ।
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पुद्गलास्तिकाय के चार भेद--(११) स्कन्ध (१२) देश
(१३) प्रदेश (१४) परमाणु । पुण्य तत्व-पुण्य बंध के कारण नौ
(१) अन्न पुण्य (२) पानी पुण्य (३) स्थान पुण्य (४) शय्या पुण्य (५) वस्त्र पुण्य (६) मन पुण्य
(५) वचन पुण्य (८) काय पुण्य (5) नमस्कार पुण्य पाप तत्व-पाप बंध के कारण अठारह
(१) प्राणातिपात पाप (२) मृषावाद पाप (३) अदत्ता दान पाप (४) मैथुन पाप (१) परिग्रह पाप (E) क्रोध पाप (७) मान पाप (८) माया पाप (E) लोभ पाप (१०) राग पाप (११) द्वेष पाप (१२) कलह पाप (१३) अभ्याख्यान पाप (१४) पैशुन्य पाप (१५) पर परिवाद पाप (१६) रति अरति पाप (१७) माया
मृषा पाप (१८) मिथ्या दर्शन शल्य पाप । आश्रव तत्व के भेद बीस
(१) मिथ्यात्व आश्रव (२) अव्रत आनव (३) प्रमाद आश्रव (४) कषाय आश्रव (५) योग आश्रव (६) प्राणातिपात आश्रव (७) मृषावाद आनव (८) अदत्ता दान आश्रव रह) मैथुन आश्रव (१०) परिग्रह आम्रव (११) श्रोनेन्द्रिय प्रवृत्ति आनव (१२) चक्षुरिन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (१३) प्राणेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्व (१४) रसनेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (१५) पर्शनेण्द्रिय प्रवृत्ति
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आश्रव (१६) मन प्रवृत्ति आश्रव (१७) वचन प्रवृत्ति आश्रव (१८) काय प्रवृत्ति आश्रव (१६) भण्डोपकरण आश्रव (२०) शुचि कुशाग्र मात्र आश्रव ।
संवर तत्व के भेद बीस
(१) सम्यक्त्व संवर (२) व्रत संवर (३) अप्रमाद संवर (४) अकषाय संवर (५) अयोग संवर ( ६ ) प्राणातिपात विरमण संवर (७) मृषावाद विरमण संवर (८) अदत्तादान विरमण संवर ( 1 ) अब्रह्मचर्य विरमण संवर (१०) परिग्रह विरमण संवर (११) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह संवर (१२) चक्षुरिन्द्रिय निग्रह संवर (१३) घ्राणेन्द्रिय निग्रह संवर (१४) रसनेन्द्रिय निग्रह संवर (१५) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह संवर (१६) मनो निग्रह संवर (१७) वचन निग्रह संवर (१८) काय निग्रह संवर (१६) भण्डोपकरण रखने में अयत्ना न करना (२०) शुचि कुशाग्र मात्र दोष सेवन
न करना ।
निर्जरा तत्व के भेद बारह
(१) अनशन (२) ऊनोदरी (३) भिक्षाचरी (४) रस परित्याग (५) काया क्लेश (६) प्रति संलीनता (७) प्रायश्चित (८) विनय (2) वैयावृत्य (१०) स्वाध्याय (११) ध्यान (१२) व्युत्सर्ग।
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बन्ध तत्व के भेद चार- .
(१) प्रकृति बन्ध (२) स्थिति बन्ध (३) अनुभाग बन्ध
(४) प्रदेश बन्ध । मोक्ष तत्व के भेद चार
(१) ज्ञान (२) दर्शन (३) चारित्र (४) तप । (१५) पन्द्रहवें बोले आत्मा आठ
(१) द्रव्य आत्मा (२) कषाय आत्मा (३) योग आत्मा (४) उपयोग आत्मा (५) ज्ञान आत्मा (६) दर्शन आत्मा
(७) चारित्र आत्मा (८) वीर्य आत्मा (१६) सोलहवें बोले दण्डक चौबीससात नारकी का दण्डक एक
पहला भवनपति देवों के दण्डक दशअसुर कुमार का दण्डक
दूसरा नाग कुमार " "
तीसरा सुपर्ण कुमार " " विद्युत् कुमार , .
पांचा अग्नि कुमार ,
छटा द्वीप कुमार ,
सातवां उदधि कुमार ,
आठवां
चौथा
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जैन रवाकर
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नवर्मा
दशवां इग्यारहवा
दिग कुमार , " बात कुमार " "
स्तनित कुमार का दण्डक पांच स्थावर जीवों का दण्डक पांच
पृथ्वी काय का दण्डक अप्काय " " तेजस काय " " वायु काय
वनस्पति काब " " द्वीन्द्रिय
का दण्डक त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तियश्च पंचेन्द्रिय मनुष्य पंचेन्द्रिय व्यन्तर देवों ज्योतिष्क देवों वैमानिक देवों
बारहवां तेरहवा चौदहवा पन्द्रहवा सोलहवां सतरहवा अठारहवा उन्नीसवा बीसवा इक्कीसवा बावीसा तेवीसा चौवीसा
(१७) सतरहवे बोले लेश्या छच
(१) कृष्ण लेश्या (२) नील लेश्या (३) कापोत लेश्या । (४) तेजः लेश्या (१) पन लेश्या (4) शुकु लेश्या ।
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'जैन रत्नाकर
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(१८) अठारहवें बोले दृष्टि तीन :
(१) सम्यक् दृष्टि (२) मिथ्या दृष्टि (३) सम्यक
मिथ्या दृष्टि । (१६) उन्नीसवें बोले ध्यान चार :
(१) आर्त ध्यान (२) रौद्र ध्यान (३) धर्म ध्यान
(४) शुक्ल ध्यान। (२०) बीसवें बोले षट् द्रव्यों का ज्ञान :(१) धर्मास्तिकाय
द्रव्य से- एक द्रव्य क्षेत्र से - लोक प्रमाण काल से - आदि अन्त रहित अर्थात् अनादि और
अनन्त । भाव से - अरूपी गुण से - गतिशील पदार्थों को गति में अपेक्षित
सहायता करना। (२) अधर्मास्तिकाय
द्रव्य से- एक द्रव्य । क्षेत्र से -- लोक प्रमाण। काल से - अनादि और अनन्त । भाव से - अरूपी। गुण से - पदार्थों के स्थिर रहने में अपेक्षित
सहायता करना।
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जैन रत्नाकर
(३) आकाशास्तिकाय
द्रव्य से- एक द्रव्य। क्षेत्र से- लोक अलोक प्रमाण । काल से - अनादि और अनन्त । भाव से - अरूपी। गुण से - समस्त पदार्थों को अवकाश देना,
स्थान देना। भाजन गुण। (४) काल -
द्रव्य से - अनन्त द्रव्य । क्षेत्र से ~ अड़ाई द्वीप प्रमाण । काल से - अनादि और अनन्त । भाव से - अरूपी।
गुण से - वर्तमान गुण। (५) पुद्गलास्तिकाय
द्रव्य से - अनन्त द्रव्य । क्षेत्र से- लोक प्रमाण। काल से - अनादि और अनन्त । भाव से ~ रूपी।
गुण से-गलन मिलन स्वभाव । (१) जीवास्तिकाय
द्रव्य से - अनन्त द्रव्य। क्षेत्र से- लोक प्रमाण।
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करे एवं पन्द्रह प्रकार के कर्मादान का भी
मर्यादा उपरान्त त्याग करे। (८) आठवें व्रत में श्रावक मर्यादा उपरान्त अनर्थ
दण्ड का त्याग करे । (E) नवमें व्रत में श्रावक सामयिक को मर्यादा करे। (१०) दशवें व्रत में श्रावक देशावकाशिक संवर की
मर्यादा करे। (११) इग्यारहवें व्रत में श्रावक पौषध की मर्यादा करे। (१२) बारहवें व्रत में श्रावक शुद्ध साधु को निर्दोष
आहार-पानी आदि चौदह प्रकार का दान दे। (२३) तेवीसवें बोले साधु के पंच महाव्रत
(१) पहिले महाव्रत में साधु सर्वथा प्रकारे जीव
हिसा करे नहीं, करावे नहीं एवं करनेवाले को
भला जाणे नहीं, मन से वचन से काया से। (२) दूसरे महावत में साधु सर्वथा प्रकारे झूठ बोले
नहों, बोलावे नहीं एवं बोलनेवाले को भला
जाणे नहीं मन से वचन से काया से।। (३) तीसरे महाव्रत में साधु सर्वथा प्रकारे चोरी करे
नहीं, करावे नहीं एवं करनेवालेको भला जाणे
नहीं मन से वचन से काया से । (४) चौथे महाव्रत में साधु सर्वथा प्रकारे मैथुन सेवे ।
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(DHA
जैन रत्नाकर
M
नहीं, सेवावे नहीं एवं सेवने वाले को भला
जाणे नहीं, मन से वचन से काया से। (५) पांचवें महाव्रत में साधु सर्वथा प्रकारे परिग्रह रखे नहीं, रखावे नहीं एवं रखने वाले को भला
जाणे नहीं, मन से वचन से काया से। (२४) चौबीसवें बोले भांगा ४६तीन करण तीन योग से -
तीन करण-करू नहीं, कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं। • तीन योग-मन, वचन, काय । आंक ११ का मांगा:
यहां पहले १ का अर्थ है एक करण और दूसरे १ का अर्थ है एक योग । अर्थात् एक करण और एक योग से भागे हो सकते हैं जैसे-. (क) (१) करूं नहीं मन से।
(२) करूं नहीं वचन से।
(३) करूं नहीं काया से। (ख) (४) कराऊं नहीं मन से।
(५) कराऊ नहीं वचन से।
(६) कराऊं नहीं काया से। (ग) (७) अनुमोदूं नहीं मन से ।
(८) अनुमोदूं नहीं वचन से। (९) अनुमोदूं नहीं काया से।
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जैन रत्नाकर
आंक १२ का भांगा है
यहाँ पहले अङ्क १ का अर्थ है एक करण एवं दूसरे अङ्क २ का अर्थ है दो योग । अर्थात् एक करण एवं दो योग से ६ भांगे हो सकते हैं जैसे :(क) (१) करूं नहीं मन से वचन से ।
(२) करूं नहीं मन से काया से । (३) करूं नहीं वचन से काया से । (ख) (४) कराऊं नहीं मन से वचन से ।
(५) कराऊं नहीं मन से काया से । (६) कराऊं नहीं वचन से काया से । (ग) (७) अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ।
(८) अनुमोदूं नहीं मन से काया से । (१) अनुमोदूं नहीं वचन से काया से । आंक १३ का भांगा ३
ह
आंक २१ का भांगा है
-
यहाँ पहले अंक १ का अर्थ है एक करण और दूसरे अंक ३ का अर्थ है तीन योग । अर्थात् एक करण तीन योग से सिर्फ ३ भांगे हो सकते हैं जैसे
(क) करूं नहीं मन से, वचन से, काया से । (ख) कराऊं नहीं मन से वचन से काया से । (ग) अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ।
यहां पहले २ का अर्थ है दो करण एवं दूसरे अंक १
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जैन रत्नाकरें
का अर्थ है एक योग । अर्थात दो करण एक योग से भांगे हो सकते हैं जैसे
(क) (१) करूं नहीं कराऊं नहीं मन से । (२) करूं नहीं कराऊं नहीं वचन से । (३) करूं नहीं, कराऊं नहीं काया से । (ख) (४) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से । (५) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं वचन से । (६) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं काया से । (ग) (७) कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से ।
(८) कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं वचन से । (६. कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं काया से ।
आंक २२ का भांगा है-
यहाँ - पहले अङ्क दो का अर्थ है दो करण और दूसरे अङ्क २ का अर्थ है दो योग । अर्थात् दो करण एवं दो योग से ६ भांगे हो सकते हैं जैसे
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(क) 1१) करूं नहीं, कराऊ' नहीं मन से, वचन
से ।
(२) करूं नहीं, कराऊ' नहीं मन से, काया से ।
(३) करूं नहीं, कराऊ' नहीं वचनसे, काया से ।
(ख) (४) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ।
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जैन रत्नाकर
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(५) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से, काया
(६) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं, वचन से
काया से। (ग) (७) कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से,
वचन से। (८) कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से,
काया से। (8) कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं, वचन से
काया से। आंक २३ का भागा ३
यहां पहले अङ्क २ का अर्थ है दो करण, और दूसरे अङ्क ३ का अर्थ है तीन योग । अर्थात् दो करण तीन योग से सिर्फ ३ ही भांगे हो सकते हैं जैसे :(क) करूं नहों, कराऊं नहीं मन से, वचन से,
काया से। (ख) करूं नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से, वचन से,
काया से। (ग) कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से वचन से,
काया से।
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जैन रत्नाकर
आंक ३१ का भांगा ३
यहाँ पहले अङ्क तीन का अर्थ है तीन करण और दूसरे अङ्क १ का अर्थ है एक योग। अर्थात् तीन करण एवं एक योग से सिर्फ ३ भांगे हो सकते हैं जैसे :(क) कलं नहीं, कराऊ नहीं. अनुमोदूं नहीं मन
(ख) करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं वचन
(ग करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं काया
आंक ३२ का भांगा ३
यहां पहले ३ का अर्थ है तीन करण एवं दूसरे अङ्क २ का अर्थ है दो योग। अर्थात् तीन करण एवं दो योग से सिर्फ तीन भांगे हो सकते हैं जैसे:(क. करूं नहीं. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन
से, वचन से। (ख) करूं नहीं, कराऊ नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन
से, काचा से। (ग) करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, वचन
से, काया से।
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जैन रत्नाकरे
आंक ३३ का भांगा - १
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यहाँ पहले अंक ३ का अर्थ है तीन करण और दूसरे अंक ३ का अर्थ है तीन योग । अर्थात् तीन करण एवं तीन योग से सिर्फ एक ही भांगा हो सकता है जैसे :
(१) करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से, वचन से, काया से |
(२५) पचीसर्वे बोले चारित्र पांच
(१) सामायिक चारित्र ।
(२) छेदोपस्थापन चारित्र | (३) परिहार विशुद्धि चारित्र । (४) सूक्ष्म सम्पराय चारित्र |
( ५. यथाख्यात चारित्र |
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जैन रत्नाकर
असली आजादी
असली आजादी अपनाओ । मिली तुम्हें जो यह आजादी, तो आगे कदम बढ़ाओ || असली आजादी अपनाओ || इति ध्रुव पम् ॥ बन्धन जो है परवशता के, समझो अंतर ज्योति जगाके । फिर तोड़ो आत्मबल लाके, ज्यों स्वतंत्र बन जाओ ॥ असली आजादी अपनाओ ॥ १ ॥
है गुलाम दुनियाँ स्वारथ की, पराधीनता मन मन्मथ की । प्रतिपथ मोह ममत्व प्रसारित, क्यों न नजर में लाओ ॥ असली आजादी अपनाओ ॥ २ ॥
रिश्वत खोरी - जुआजोरी, जग रही जग हिंसा की होरी । धर्म नाम पर धर नृशंसता, जरा न दिल शरमाओ | असली आजादी अपनाओ || ३ ||
८४
मन पञ्चेन्द्रिय कर काबू में, धोलो आतम तप साबू में । दुःखद दुराचार बदबू में, कभी न मन ललचाओ || असली आजादी अपनाओ ॥ ४ ॥
पन्द्रहऽगस्त पुनीत समय में, भारत आजादी अभिनय में । 'तुलसी' सब आध्यात्मिकता के अभिनव दीप जलाओ ॥ नाम मात्र की यह आजादी, पाकर मत फुलाओ || असली आजादी अपनाओ ॥ ५ ॥
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अनुपूर्वी पढ़ने की विधि जहाँ १ है वहाँ णमो अरिहंताणं बोलना चाहिए। जहाँ २ है वहाँ णमो सिद्धाणं बोलना चाहिए। जहाँ ३ है वहाँ णमो आयरियाणं बोलना चाहिए। जहाँ ४ है वहाँ णमो उवज्झायाणं बोलना चाहिए। जहाँ ५ है वहाँ णमो लोए सव्वसाहूणं बोलना चाहिए ।
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जैन सिद्धान्त जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हिंसा मत जान । मारणवाला ने हिंसक कह्यो, नहिं मारे ते दया गुण खान ।।
क्षमत क्षामना की ढाल
॥दोहा॥ व्रत-धारक भवि शुद्ध मन, खमत खामना सार । निरमल आतम किम करै , आखू ते अधिकार ॥१॥ सरल पणे वच काय तूं , मन थी कपट निवार । नमन भाव दिल आणिनें , खमाविये तज खार ॥२॥
॥ ढाल ॥ (देशी-संभव साहिब समरिये ) सात लाख योनि महीधरा, सात लाख अप् पाणीनो जोणिके। सात लाख तेउ अग्मिनी, वायु पिण इतनी कही गोणिकै । खमत खामना तेह थी॥१॥ एक जीव इक तनु मंही, तेह प्रत्येक वनस्पति कायकै । दश लख योनि जिन कही, चौदह लख साधारण तायकै॥ खमत ॥ २॥ जीव अनन्ता एकसा, एक शरीर में रह्या तिण न्यायकै। लीलण फूलण आदि में, जमीकन्द अंकूरा मांयकै । खमत ॥ ३ ॥ सूक्ष्म बादर बिहुं परै, क्रोध भाव आण्या हुवै कोयकै। त्रिविध २ म्हायरै, मिच्छामि दुकहं छै अवलोयकै ॥ खमत ॥४॥ बादर पांचं कायनें, हणी हणाई निज पर काजकै।
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जैन रत्नाकर
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अनुमोदी हणतां प्रते, ते तिहुं जोग आलोवं आजकै।। खमत ।। ५॥ लट गिनोला बेइन्द्रिय, कोड़ादिक तेइन्द्री ना जीवकै। खटमल प्रमुख विणासिया, कलुष भाव करी पाड़ी रीवकं ॥ खमत ॥ ६ ॥ माखी माछर चौरिन्द्री, बिच्छु प्रमुख हण्या हुवे सोयक। ये तिहुं विकलेन्द्रि तणी, योनि लख जाणो दोय दोयकै ॥ खमत ॥७॥ रसप्रभा जाव तमतमा, सात नरक में नेरीया जेहकै। च्यार लाख योनि तेहनी, तास खमा सरल पणेहकै । खमत ।। ८ ।। च्यार प्रकारे देवता, भुवनपति व्यन्तर सुविचारकै। ज्योतिषी अने विमानका, चिहूं लख योनि घणो अधिकारकै। खमत ॥६॥ द्वेष भाव किण अवसरे, आण्या हुवै बलि कलुष परिणामकै। तास खमा भली परै, खमज्यो तुम्हें देवा अभिरामकै ।। खमत ॥१०॥ तूर्य लाख तिर्यचनी, जलचर में मच्छादिक जाणकै। थलचर थल पै चालता, हाथी अश्वादिक बहु प्राणकै। खमत ।। ११॥ उरपर उरु से गति करै, शादिक बलि विविध प्रकारकै। भुजपर उन्दर. आदि हैं, तासु खमा तज चित्त खारफै। खमत ॥ १२ ॥ गमन आकाश करै तसु, खेचर पंखी कहिजे जासके। हास्य कौतुहल दिक करी, हण्या हणाया हुवै बलि तासकै ॥ खमत ॥ १३॥ पांच. भेद तिर्यश्च ये, मन बिमना इन्द्रिय धर पांचके ॥ सब प्रते सीन जोग सूखमत खामना करूं तज खांचकै ॥ खमत ॥ १४ ॥ . चौदह लाख योनि मनुषनी, सूत्र विषै भाषी जिनरायकै। तसु मल मूत्रादि मंही, समूर्छिम मनु उपजै आयकै ॥ खमत ॥ १५ ॥ ये, चौरासी लख जाणिये, जीवां जोणि जे उपजण ठामक। बारम्बार
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जैन रत्नाकरे ते सब प्रते, खमत खामना छै अभिरामकै ॥ खमत ॥ १६ ॥ देव अरिहन्त जे केवली, अनन्त चौबीसी हुई भतं जेहकै। इमहिज ऐरवय पञ्चमें, वर्तमान जिन पञ्च विदेहकै ॥ खमत ।। १७॥ विनय करी कर जोड़ने, मन शुद्ध थी खमज्यो अपराधकै ॥ भव भव शरणो तुम तणो, तिण सू थावै परम समाधिकै ॥ १८॥ दूजे पद सिद्ध सुखकरू, पूर्व प्रयोगे गति परिणामकै। सर्वारथ सिद्ध थी अछ, द्वादश योजन ईसी प्रभाः नामकै ॥ खमत ॥ १६ ॥ ते थी अर्द्ध लोकान्तकै, गाऊ इकरै छ? भागकै। अनन्त गुणी तुम्हें जई बस्या, हिव पायो मैं तुम तणो मागकै । खमत ॥ २०॥ जे कोई जाण अजाणता, आशातना हुई तासु खमायकै। आवण तिहाँ मन लग रह्यो, तुम सरिषो तुम जपियाँ थायकै ॥ खमत ॥२१॥ आचारज तीजै पदे, सम्यक्त चर्ण तणा दातारके। शुद्ध प्ररूपण जेहनी, महाउपगारी महा सुखकारकै ।। खमत ॥ २२ ॥ उवज्झाया गण वत्सलू, भणै भणावै निरमल ज्ञानकै। गणी अणा न उलंघता, पालै पञ्च महाव्रत मानकै ॥ खमत ॥ २३ ॥ दाता समकित. चरणरा, देशव्रत पाल तुम जोगकै। जे कोई जाण अजाणता, आशातना हुई बिन उपयोगकै ।। खमत ॥ २४॥ शुद्ध साधु अढ़ी द्वीप में, पञ्चयाम नव कल्प विहारकै। निरलोभी निरलालची, जाचे दोष बयांली टारकै ॥ खमत ॥ २५॥ भिक्षु गण में महा मुनी । साध्वियां सहु गुण भण्डारकै। अप्रिय वच तसु दर्प थकी। कियो अविनय खमाऊंसारकै । खमत ॥ २६ ॥ गुण विहुणा गण वाहिरा, टालोकर बलि भ्रष्टाचारकै । तासु खमावू भली परै, किण
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अवसर कियो कलुष विचारकै खमत ॥ ॥२७॥ मात, पिता सुतने धुया, बलि तमु अंगज थी किण कालके । बान्धव न्याती गोति से, मित्र अमित्र सहू सम भालकै ॥ खमत ॥ २८ ॥ नोकर चाकर दास थी, दासीने बलि तमु अङ्गजातकै। जो कोई जाण अजाणता, स्व पर वश वच कटु आख्यातकै ॥ २६ ॥ क्रोध मान माया करी, लोभ थकी दिया अछता आलकै । सहु संसारी जीव से, खमत खामना अधिक रसाल कै॥३०॥ निज स्त्री पुत्र पुत्री ने, हित शिक्षा देता किण वार के। करड़ा वचन कया हुवे, कारज घरना करावण सारकै । खमत ॥ ३१॥ नाम लेईने जुवा जुवा, सर्व भणी इम खमत खमायकै । मन वच कायाई करी, दिल में मच्छर भाव मिटायकै ॥ खमत ॥३२॥ धर्म जिनेश्वर भाषियो, पायो इण भव में सुविशालकै। विघ्न मिटै, संकट कटै, तास प्रसादे मंगल मालकै । खमत खामना इम करै ।। ३३ ।। तीजै द्वार आराधना, खमाविये कही छट्ठी ढाल के। आराधना पद पाविये, जिन बच रहामो नयण निहालकै । खमत खामना इम करै ॥३४॥
॥ कलश ॥ .
इम खमत खामन अतहि पावन, विमल भावन नित धरै। बहु अघ खपावै सुणे सुणावै, आत्म हित चित सुख करै ॥ श्री जिनेश्वर महाराज भव दधि, पाज काज सेयां सरै। कहै श्रावक गुलाव सु आव गुण युत, अतही आनन्द निज घरै।
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पद्मावती आराधना
दोहा मोटी सतो पद्मावती, लीनो संजम भार । अथिर संसार ने जाण के, छोड्या विषय विकार ॥१॥ विरह पड्यो राजा तणो, सती गई बन माय । पाप-चितारे पाछला, ते सुणजो चित लाय ॥२॥
( राग-वेराडी) हिवे राणी पद्मावती, जीवरास खमावे । जाणपणो जग दोहिलो, इण वेला आवे ॥ ते मुझ मिच्छामि तुकडं ॥१॥ अरिहन्तनी साख, जे मैं जीव विराधिया, चौरासी लाख । ते मुझ ॥ २॥ सात लाख पृथ्वी तणा, साते अपकाय । सात लाख तेउ कायना, साते बली वाय । ते० ॥ ३ ॥ दश प्रत्येक वनस्पति, चउदे साधारण धार । बी ती चउरिन्द्री जीवना, बेबे लाख विचार | ते० ॥४॥ देवता तिर्यश्च नारकी, चार चार प्रकाशी। चउदे लाख मनुष्य ना, ए लाख चौरासी । ते ॥५॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोल्या मृषावाद। दोष अदत्ता दान ना, मैथुन ने उल्माद् । ते० ॥ ६॥ परिग्रह मेल्यो कारमो, कीधो क्रोध विशेष । मानं माया लोभ मैं किया, बली राग ने द्वेष। ते ॥७॥ फलह करों जीव दुहव्या, दीधा कूड़ा कलङ्क । निन्दा कीधी
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पारकी, रति अरति निशङ्क | ते० ॥ ८ ॥ चाड़ी कीधी चौंतरे, कीधो थापण मोसो । कुगुरु कुदेव कुधर्म नो, भलो आण्यो भरोसो | ते० ॥ ६ ॥ इणभवे परभवे सेविया, जे मैं पाप अठार | त्रिविध त्रिविध परिहरु दुर्गति ना दातार । ते० ॥ १० ॥ खटिक ने भवे मैं किया, जीव नाना विध धात | चिड़ीमार भवे चिड़कला, मारया दिन ने रात । ते० ॥ ११ ॥ मच्छी मारने भवे माछला, झाल्या जल वास । धींवर भील कोली भवे, मृग पाड्या पाश | ते० ॥ १२ ॥ काजी मुल्ला ने भवे, पढ़ी मन्त्र कठोर । जीव अनेक जवे किया, कीधा पाप अघोर । ते० ॥ १३ ॥ कोटवाल ने भवे जे किया, आकरा कर दण्ड । बन्दीवान मराविया, कोरड़ा छड़ी दण्ड । ते० ॥ १४ ॥ परमाधामी ने भवे, दोघा नारकी दुःख । छेदन भेदन वेदना, पाड़न्त क्रूक । ते० ॥ १५ ॥ कुम्भार ने भवे मैं किया, नीमाह पचाव्या । तेली भवे तिल पीलिया, पापे पिण्ड भराव्या । ते० ॥ १६ ॥ -हाली भवे हल खेड़िया, फाड़या पृथ्वी ना पेट सूड़ निनाण धणा किया, दोघी बलदां चपेट | ते ॥ १७ ॥ मालीने भवे रोपिया, नानाविध वृक्ष । मूल पत्र फल फूल ना, लागा पापज लक्ष । ते० ॥ १८ ॥ अद्धोवाइयाने भवे, भस्या अधिकाजी भार । पोठी पीठे कीड़ा पड़या, दया नाणी लिगार | ते ॥ १६ ॥ छोपाने भवे तस्या, कीधा रांजण पास । अग्नि आरम्भ कीधा घणा, धातुर्वाद अभ्यास । ते० ॥ २० ॥ सूरपणे रण झुझर्ता, माख्या माणस वृन्द । मदिरा मांस माखण भख्या, खादा मूल ने कन्द । ते०
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॥ २१ ॥ खाण खणावी धातु नो, पाणी घणा उलंच्या | आरंभ किया अति घणा, पोते पापज संध्या । ते० ॥ २२ ॥ करम अङ्गार किया बली, घरने दव दीधा । सम खाधा वीतराग ना, कूड़ा कोलज कीधा । ते० ॥ २३ ॥ विली भवे उन्दर लिया, गिरोली हत्यारी । मूढ़ गंवार तणै भवे, मैं जुव लीखां मारी । ते० ॥ २४ ॥ भड़भुञ्जा तणे भवे, एकेन्द्री जीव । जुवारि चणा बहु सेकिया, पार्डत रींव | तेः ॥ २५ ॥ खांडण पीसण गारना, किया आरंभ अनेक, रांधण ईंधण अग्निना, कीधा पाप उद्वेग | ते० || २६ || विकथा चार कीधी बली, सेव्या पांच प्रमाद । इष्ट वियोग पड़ाविया, रूदन ने विषवाद | ते० | २७ ॥ साधु अने श्रावक तणा, व्रत लही ने भांग्या । मूल अने उत्तर तणा, मुझ दूषण लाग्या । ते० ||२८|| सांप बिच्छू सिंह चीतरा, सिकरा ने सामली | हिंसक - जीव तणे भवे, हिंसा कीधी सबली | ते० ॥ २६ ॥ सूआवड़ दुषण घणा, बली गरभ गलाव्या | जीवाणी ढोल्या घणा, शीलन्नत संगाव्या । ते० ॥ ३० ॥ रांगण पास मैं किया, जीव नहीं जाणी । हिंसा कीधी जीवनी दया न उर आणी । ते० ॥ ३१ ॥ धोबीने भवे धोविया, काठ्या कपड़ा ना कोट । अणगल नीर ढोल्या घणा, आई आंख्यां मीट | ते० ॥ ३२ ॥ छन्दोइ ना भव मैं किया, भट्टी वाली ने जोय । जीव आरम्भ किया घणा, लाग्या पातक मोय | ते० | ॥ ३३ ॥ वणिज किया वाणिया भवे, घड़ियाँ दीवी उड़ाय । छैतरी (पतरे ) वस्तु मारी घणी, पाप पूग्या आय ! ते० ॥ ३४ ॥ उनाले हुल
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हांकिया, वर्षाले गाडा | नीलण फूलण चाम्पी वणी, भूख मास्या पाडा | ते० ॥ ३५ ॥ मूजर ना भव मैं किया, बांध्या पाप रा भारा । पाडी ने बेलो छोड़ियो, पाडा ने पकड्या | ते० ॥ ३६ ॥ खाती ना भवे मैं किया, घणा रुख बाढ्या । थोड़ा ने बली घणा, मुझ दूषण लाग्या । ते० ॥ ३७ ॥ हाथी ना भवे मैं किया, किया - रु'खांरा खोगाल | पंखियां रा माला पाड़िया, भांजी तरुवर डाल । ते० ॥ ३८ ॥ लोहार ना भवे मैं किया, घणा धवण धमाया । कसी कुदाला पावड़ा, खड़ग कटारी कराव्या । ते० ॥ ३६ ॥ ब्राह्मण ना भवे मैं किया, अणगल नोर स्नान । ज्योतिष निमित्त भाखिया, लिया वर्जित दान । ते० ॥ ४० ॥ सती ने कुसती कही, कायर ने शूरा । वेश्या ना दोय डोकरा कह्या दोनू पख पूरा | ते० ॥ ४१ ॥ बजाज ना भवे मैं किया, जूना नया कर बेच्या । कूड़ कपट केलव्या घणा, पोते पापज संच्या । ते० ॥ ४२ ॥ सराफीना भव मैं किया, भेली करना आथ । गालणी घणी करावता, धन चाल्यो ना साथ । ते० ॥ ४३ ॥ अणछाण्या आधण दिया, अण पूंजे चूले । अण जोया धानज उरिया, मुझ पाप न भूले | ते० ॥ ४४ ॥ मेला तमासा देखता, विषय नजर भर जोय | कितोल हांसोने मशकरी, करता नर कोय । ते० ॥ ४५ ॥ जोर करी हीँडै हींडता, तोड़ी तरुवर डाल । काचा फल फूल चूंटिया, फोड़ी सरवर पाल | ते० ॥ ४६ ॥ भोया भरड़ाने भवे, अणहुंता नचाया। बकरी भैंसा बापड़ा, दोसे मिस मराया । ते० ॥ ४७ ॥ नावण घोवण मैं किया, बागा वेस बनाया। आरीसे
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जन रत्नाकर
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मुख जोइया. बहु दोष लगाया । ते० ॥४८॥ सूल्या धान दलाविया, घणा घुण मसलाया । ईली दुःखी अति घणी, पोते पाप कमाया। ते० ॥ ४ ॥ फड़िया ना भवे मैं किया, सूल्या धानज विणज्या । लोभ तणे वश परिग्रह, कारज कोई न सिज्या । ते०॥ ५० ॥ पढ़वारीरा काम में, घणा कर्मज वांध्या । घोचारी ने भोलाविया, क्षण साचा सांध्या। ते० ॥ ५१ ॥ वेपार कीनो पसारी तणो, घणी औषधियां राखी । जीवारा नाश किया घणा, कीकर रेसी नांखी । ते ॥५२॥ गुड खाण्ड तेल घृत ना, विणज चौमासे कोना । जीवहत्या लागी घणी, कर्म खोटा कीना । ते. ॥ ५३ ॥ रंगरेजाना भवे मैं किया, कसुम्बा रंग्या । अणलाण्या पाणी ढोलिया, लोभ तणो संज्ञा । ते० ।। ५४ ॥ सोनीरा भवे में किया, सोना रूपा में भेल । पूरो तोल रे वाणिया, धरत लोग्यो तेल । ते० ॥ ५५ ॥ वाघरी ने घरे जद वस्या, सब जीव संहार । रुधिर मांस भत्या रह्या, करता मांस आहार । ते ॥ ५६ ।। दासी वेश्या ने कुले, चोरी जारी पाई। साते व्यसन सेविया, कुवृद्धि कूड़ कमाई । ते० ॥ ५७ ।। दाई ना भव देखिया, आंवल मल असमाय । झूठ जाचक ने जिहाँ, राखिया सराय । ते० ॥ ५८ ॥ काग चिड़ी कूकड़ कुले, कोटक भखिया कोड़ । मांखी जुवा गिगेडला, उदेई इण्डा फोड़। ते०॥५६॥ लखारा भव लाख लेई, बड़ पीपल बाढ़ी। पुरण प्राणी धोई ने, अगन चढाई गाढी। ते०॥६० ॥ भील मेणा थोरी भवे, लगाया दव लायां । भैंसा एवड़ बाढ़िया, डंभाई टोगड़ गायाँ । ते० ॥६१॥ असुर तणै भव
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उपना, मुर्गा गाय मरावी । पंखी पिंजर पाड़िया, कट गिलोल करावी। ते० ॥६२॥ केई जुहर कराया, धोरी केई धरणा। दुरबल लोक केई दुहव्या, करमा सु कोई न डरणा । ते० ॥ ६३ ॥ खेत बाग खेडाविया, होय हाकम हुजदार । सर दह केई शोषाविया, भरिया पापारा भार । ते० ॥ ६४॥ कवाड़ी भवे कर्म में किया, केई कठोता कराया । सालर मूलर बड़ काटिया, पापे पेट भराया । ते ॥६५॥ कलाल कुंजड़ा कुले, दारू भट्ट चढाया । भाजी केकरे कारणे, केई रोप रोपाया । ते० ॥ ६६ ॥ भाठा सिलावट भांजिया, केई मन्दिर कराया। माटी ईटा कारणे, केई चाव लगाया। ते ॥६॥ भैरूं भवानी मानिया, महा रुद्र हनुमान । आठ मद छके करी, दीधा बलिदान । ते॥१८॥ पंखी माला खोसिया, भंवरा घर ढाया। सूल्यां धान दुलाविया, पापे पिण्ड भराया। ते० ॥ ६ ॥ निन्दा कीधी साधु की, सुधा साधु सताया। कुगुरु संगे लाग ने, कर्म बहुला बंधाया। ते. ॥ ७० ॥ दान्तण ने ते कारण, केई रूख कटाया। धोयण दाड़ी ने मीसे, केई गोठ कराया। ते० ॥ ७१ ॥ कावड डुबड केतला, रावल रात रमाया। वले हरषे पात्री योखने, केई चिरत कराया। ते. ।। ७२ ॥ रे रे कर्म किया कैसा, पाप कीधा अपार । ये दोष उदय आविया, अवै कुण आधार । ते० ॥ ७३ ॥ सिद्ध भगवन्त अरु साधु नो, हिवे शरणो होईज्यो । भगवन्त नो भजन कीजिये, सुर रहामो जोईज्यो । ते० ॥ ७४ ॥ समदृष्टि जीव ते सरधसी, सुणतां समता आवै । भारी कर्मा जोवना, सुणतां दुःख पावै । ते.
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रत्नाकर
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॥ ७५ ॥ भव अनन्त भमत थक, किया कुटम्ब सम्बन्ध | त्रिविधे २ करी बोसरूं, तिस सूं प्रतिबन्ध | ते० ॥ ७६ ॥ भव errea rai थीं, किया काया सम्बन्ध । त्रिविधे त्रिविधे करी दोसखं तिण सूं प्रतिबन्ध | ते० ॥ ७७ ॥ भव अनन्त अथक, कीधो परिग्रह सम्बन्ध | त्रिविधे त्रिविधे करी बीसरू, तिण सूं प्रतिबन्ध | ते० ॥ ७८ ॥ इण भव पर भव, मैं किया, कीधा पाप अक्षत्र । त्रिविधे त्रिविधे करी बोसरू, करूं जन्म पवित्र | ते० ॥ ७७ ॥ हिवे राणी पद्मावती, शरण लिया चार । लागारी अणसण कियो, जाणपणारो सार । ते० ॥ ८० ॥ राग बेराड़ी जे सुण, ए त्रिजी ढाल | समयसुन्दर कहे पाप थी, भव तत्काल | ते० ॥ ८१ ॥
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मुनि गुण वर्णन की ढाल
मुणिन्द मोरा, भिक्षुने भारीमाल । वीर गोयम री जोड़ीरे, लामी मोरा । अति भली रे, मोरा स्वाम ॥ १ ॥ मुणिन्द मोरा, आप सहि तथा गण में जाण । सुध संजम जाणोतोरे । स्वा० । हिदी सहीरे, मोरा० ॥ २ ॥ मुणिन्द मोरा, ठागा स्यूं रहिवारा पवखाण । वली अनन्त सिद्धांरी साखेरे, खा० । समसहीरे योरा ॥ ३ ॥ सुणिन्द मोरा, अवगुण बोलणरा त्याग । गणमें अथवा बाहिरदे, स्वा० । बिहुं तणेरे, सोरा० ॥ ४ ॥ मुणिन्द मोरा, सुनिवर जे महाभाग्य । एह मर्याद आराधेरे, स्वा० । हित घणोरे सोरा० ॥ ५ ॥ सुणिन् मोरा तीजे पट ऋषराय । खेतसीजी सुख
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जैन रमाकर
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कारीरे, स्वा० । मुनि पितारे, मोरा० ॥ ६ ॥ मुणिन्द मोरा समदम, उदधि सुहाय। हेम हजारी भारीरे, स्वा०। गुणरत्तारे, मोरा० ॥ ७॥ मुणिन्द मोरा, जय जश करण जिहाज। दोपगणी दीपकसारे, स्वा० । महामुनि रे, मोरा०॥८॥ मुणिन्द मोरा, गणपति में सिरताज । विदेह क्षेत्र प्रगटियारे, स्वा० । महाधनीरे, मोरा०॥ ६ ॥ मुनिन्द मोरा अमिय चन्द भणगार | महा तपस्वी वैरागीरे, स्वा० । गुणनिलोरे, मोरा० ॥ १० ॥ मुणिन्द मोरा, जीत सहोदर सार । भीम जवर जयकारीरे, स्वा० । अतिभलोरे, मोरा० ॥ ११ ॥ मुणिन्द मोरा कोदर तपस्वी करूर। रामसुख ऋषि रुडोरे, स्वा० । राजतोरे, मोरा० ॥ १२ ॥ मुणिन्द मोरा, शिवदायक शिवसूर । सतीदास सुखकारीरे, स्वा० । गाजतोरे, मोरा० ।। १३ ।। मुणिन्द मोरा, उभय पिथल वर्द्धमान। साम राम युग बंधवरे, स्वा० । नेमस्यूरे, मोरा० ॥ १४ ॥ मुणिन्द मोरा, हीर बखत गुणखाण। थिरपाल फते सु जपियेरे, स्वा०। प्रेम स्यूरे, मोरा०॥ १५॥ मुणिन्द मोरा, टोकरने हरनाथ। अखय राम सुख रामजरे, स्वा०। ईश्वररे, मोरा० ॥ १६ ॥ मुणिन्द मोरा, राम शम्भु शिव साथ । जवान मोती लाचारे । स्वा० । दमीश्वरुरे, भोरा० ॥१७. मुणिन्द मोरा, इत्यादिक बहु सन्त । बले समणी सुखकारीरे, स्वा० । दीपतीरे, मोरा० ॥ १८॥ मुणिन्द मोरा, कलु महागुणवन्त । तीन वन्धव नी मातारे, स्वा० । जीपतीरे, मोरा० ॥ १६ ॥ मुणिन्द मोरा, गङ्गा नै सिणगार। जैतो दोली जाणारे स्वा० । महासतीरे, मोरा ||२०|| मुणिन्द मोरा, जोता महा जश धार! चम्पा आदि
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जैन रत्नाकर
सयाणीरे, स्वा० । दीपतीरे, मोरा० ॥ २१ ॥ मुणिन्द मोरा, शासन महासुखकार । अमर सुरी अधिष्टाय करे, स्वा० | दायकारे, मोरा० || २२ || मुणिन्द मोरा, दववन्ती जैयन्ती सार । अनुकूल बली इन्द्राणीरे, स्वा० । सहायकारे, मोरा० ॥ २३ ॥ मुणिन्द मोरा उगणीसे चउदे उदार । कार्तिक सुदि तिथि दशमीरे, स्वा० । गाइयोरे मोरा० ॥ २४ ॥ मुणिन्द मोरा, जय जश सम्पति सार । बीदासर सुख सातारे, स्वा० | पाइयोरे, मोरा० ॥ २५ ॥
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दश दान की ढाल दोहा
करन्त ।
दश दान भगवन्त भाषिया, सूत्र ठाणांग मांय | गुण निपन्न नाम है तेहना, भोलांने खबर न कांय ॥१॥ धर्म अधर्म दो मूल का प्रसिद्ध लोक में एह । आठ को अर्थ अन्धो करै, मिश्र धर्म कहै तेह ||२|| मिश्र धर्म परूपता, कूड़ो बाद आठ से अधर्म कयो, साम्भलज्यो दृष्टन्त ||३|| आम नीम के रूखनो, जुदो जुदो विस्तार । नीम निमोली तेल खल, नीम तणो परिवार ||४|| -हम हिज आठूं दान नो, अधर्म तणो परिवार । धर्म दान में मिले नहीं, श्रीजिन आज्ञा बार ॥५॥ इतरा में समझो नहीं, तो कहूँ भिन्न भिन्न भेद । विवरा सहित बताइयाँ, मत कोई करज्यो खेद ||६||
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जैन रत्नाकर
ढाल
कृपण दोन अनाथ ए, म्लेच्छादिक त्यांरी जात ए। रोग शोक ने आरत ध्यान ए, त्यांने दे अनुकम्पा दान ए ॥१॥ त्यांने देव मूलादिक जमीकन्द ए, तिण में अनन्त जीवां रा फन्द ए । तिण दियां केवै मिश्र धर्म ए, तिणरै उदै आया मोह कर्म ए॥२॥ लूणादिक पृथवी काय ए, आपे अग्नि ढोले पाणी वाय ए। देव शस्त्र -विविध प्रकार ए, इण दान सूरुले संसार ए॥३॥ बन्धीवानादिक ने काज ए, त्यांने कष्ट पड्या देव साज ए। थोरी बावरी भील कसाई ने ए, सचित्तादिक द्रव्य खवाई ने ए॥४॥ छोड़वा देवै ग्रंथ ताम ए, संग्रह दान छै तिण रो नाम ए। ए तो. संसार रो उपगार ए, अरिहन्त नी आज्ञा बार ए ॥५॥ ग्रह करड़ा लागा जाण ए, सुणी लागी पनोती आण ए। फिकर घणी मरवा तणी ए, वले कुटुम्ब तणी जतना भणी ए॥ ६ ॥ भयरो घाल्यो देवैः आम ए, भय दान छै तिण रो नाम ए । ते लेवै छै कुपात्र आय ए, तिण में मिश्र किहाँ थी थाय ए॥ ७ ॥ खर्च करें मुवारै केड़ ए, जिमावै न्यात ने तेड़ ए। तीन बारा दिन अनुमान ए, ए चौथो कालुणी दान ए॥ ८॥ बले बरस छमासी श्राद्ध ए, जिम तिम करै कुल मर्याद ए । मुवा पहिली खर्च करै कोय ए, घणा ने राम.. करै सोय ए॥ ॥ आरम्भ कियाँ नहीं धर्म ए, जिमायाँ पिणबन्धसो कर्म ए। वुद्धिवन्तां करजो विचार ए, या में संवर निर्जरा नहीं लिगीर ए ॥ १०॥ घणा रो लज्जावश थाय ए, सांकडै पड्या,
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जैन रत्नाकर
देव ताय ए । देवै सचित्तादिक धन धान्य ए, ए तो पांचों लज्जा दान ए ॥ ११॥ ए तो सावय दान साक्षात् ए, ते दियो कुपात्र हाथ ए। तिण में कहै मिश्र धर्म ए, तिण थी निश्चय बन्धसो कर्म ए ॥ १२ ॥ मुकलावो पहरावणी मुशाल ए, सगां ने जुवा जुवा संभाल ए। त्याने द्रव्य देव यश ने काम ए, गर्वदान छै तिणरो नाम ए ॥ १३ ॥ कीर्तियावादी मल्ल ए, रावलियाँ रामत चल्ल ए। नट भौपा आद विशेष ए, दान देव त्यांने द्रव्य अनेक ए ॥ १४ ॥ इण दान थी बंधै कर्म ए, मूर्ख कहै मिश्र धर्म ए । जेहनी प्रत्यक्ष खोटी बात ए, खोटी श्रद्धा ने मूल मिथ्यात ए ॥ १५॥ गणिकादिक खेवैकुशली ए, दान दे त्यांने करावे केल ए,। ए तो प्रत्यक्ष खोटो कास ए, अधर्मदान छै तिण रो नाम ए ।। १६ ।। सूत्र अर्थ सिखाय ए, शुद्ध मारग आणै ठाय ए। आपै समकित चारित्र एह ए, धर्म दान छै आठमों तेह ए ॥ १७ ॥ बली मिलै सुपात्र आण ए, देव निर्दोषण द्रव्य जाण ए। ए तो दान मुक्त रो माग ए, तिण दियाँ दारिद्र जावै भाग ए॥ १८ ॥ छः काय मारण रा त्याग ए, कोई पचखे आणी वैराग ए। अभयदान कह्यो जिनराय ए, धर्म दान सें सिलियो आय ए ॥ १६ ॥ सचित्तादिक द्रव्य अनेक ए, उधारा जेम देवै विशेष ए। पालो लेवा रो मन में ध्यान ए, नवमों काअन्ती दान ए ॥ २०॥ लेणायत ने देव जेह ए, हांती नेतादिक तेहए। पाछो लेवण रो एकान्त काम ए, कान्तिति दान छै तिण रो नाम ए ॥ २१ ॥ नवमें दशमें दान नी चाल ए, धुर बोर वालो ख्याल ए। ज्ञानी माने सावध माय ए, तिणमें मिश्र किहीं
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जैन रत्नाकरे
थी थाय ए ॥२२॥ दश दान रो एह विचार ए, संक्षेप कह्यो विस्तार ए। वीर नी आज्ञा में दान एक ए. आज्ञा बारै दान अनेक ए॥ २३ ॥ असंयती घरे आवियो ए, निर्दोषण आहार बहिरावियो ए। तिण ने दियाँ एकन्त पाप ए, भगवती में कह्यो जिन आप ए ॥२४॥ एम जाणी ने करो विचार ए, आठ अधर्म तणो परिवार ए। घणा सूत्रों नी साख ए, श्रीवीर गया छै भाष ए॥ २५॥ धर्म अधर्म दान दोय ए, मिश्र म जाणो कोय ए। केम जाणे मिथ्यात्वी जीव ए, मूल में नहीं सम्यक्त नीव ए ॥ २६ ॥
अठारह पाप की ढाल
दोहा आज्ञा श्री अरिहन्तनी, निरवद्य दान में जाण । साचद्य दान में स्थापने, मूर्ख मांडी ताण ॥१॥ मिश्र धर्म प्ररूपने, नहीं सूत्रनो न्याय । लोकांने गेरै फन्द में, कूड़ा चौज लगाय ॥२॥ अप्रत आश्रव में कह्यो, श्रीजिन मुख से आप। सेया सेवायां भलो जाणियाँ, तीनं करणा पाप ॥३॥ व्रत धर्म श्रीजिन कहो, अव्रत · अधर्म जाण ।. मिश्र मूल दीसे नहीं, कर अज्ञानी ताण ॥४॥
ढाल . जिन भाष्या पाप अठार, सेयों नहीं धर्म लिगार ।-शंका मत आणग्यो ए, सांची करि जाणज्यो ए ॥ १॥ जो थोड़ो घणो
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जनरत्नाकर
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कर पाप, तिण थी होय सन्ताप । मिश्र नहीं जिन कयो ए, समदृष्टि अद्धियो ए॥२॥ केई कहै अज्ञानी एम, श्रावक पौष नहीं केम । भाजन रत्ना तणो ए, नको अति घणो ए॥३॥.तिण रो नहीं जाणे न्याय, त्यांने किम आणीजे ठाय । बहदो घालियो ए, झगड़ो झालियो ए।। ४ ।। हिवै सुणज्यो चतुर सुजान, श्रावक रनारी खान । व्रतां करि जाणज्यो ए, उलटी मत ताणज्यो ए ५॥ कोई रूख बाग में होय, आम धत्तुरो दोय। फलं नहीं सारखा ए, कोजो पारखा ए ॥ ६ ॥ आमा सू लिव लाय, सींचे. धत्तो आय । आशा मन अति धणी ए, आम लेवण तणी ए १७॥ आम गयो कुम्हलाय, धत्तुरो रह्यो दृढाय | आवी ने जोवै जरैए, नयनां नीर झरै ए ॥ ८॥ इण दृष्टान्ते जाण, श्रावक व्रत अम्ब समान । अव्रत अलगी रही ए, धतूरा सम कही ऐ॥४॥ सेबावे अव्रत कोय, व्रतां सामो जोय । ते भूला भ्रम में ए, हिन्सा धर्म में ए ॥ १० ॥ अव्रत से बन्धै कर्म, तिण में नहिं निश्चय धम। तीनूं करण सारखा ए, विरलाने पारखा ए ॥ ११ ॥ खाधा बन्धे कर्म, खुवायां मिश्र धर्म । ए झूठ चलावियो ए, मूर्ख मन भावियो ए ।। १२ ।। मिश्र नहीं साक्षाता, ते किम श्रद्धोजे बात । अक्ल नहीं सूढ़ में ए, पड़िया रूढ़ में ९॥ १३ ॥ पोते नहीं बुद्धि प्रकाश, वली लाग्यो कुगुरोरो पाश। निर्णय नहीं कर ऐ, ते भव-सागर' पर ऐ॥ १४ ॥ साधु संगति थाय, सुणे एक चित्त लगाय । पक्षपात परिहरै-ए। ज्यों खबर बेगी पर ए ॥ १५ ॥ आनन्द आदि दे जाण, श्रावक दशं बखाण । ते पड़िमा आदरी ए, चर्चा पाधरी,ए.।। १६ ।।
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जैन रत्नाकर तीन बोलाँ करि जीव अल्प आउषो बान्धै
ते ऊपर ढाल
दहो शुद्ध सार्धा ने अशुद्ध दान दे, जाणी ने ले साध । दोन डबा बापड़ा, जिनवर वचन विराध ॥१॥
ढाल तीन वोलां करो जीवने जी, अल्प आउषो बंधाय। हिन्सा करै प्राणो जीवरी, बलि बोले मूषा वाय जी ॥ साधां ने अशुद्ध बहिरायजी, हिन्सा करि चोखी जायगां बणायजी। साधां ने उतारण री मन मायजी, तिणरै अशुभ कर्म बंधायजी ॥ तीजे ठाणे कह्यो जिनराय जी, बलि सूत्र भगवतो मांयजी। श्रीवीर कहै सुश गोयमा | ए आंकड़ो ॥ १॥ दई लोम्पै साधु कारणैजो, छपरा देवै छाय। केलू पिण फिरता था, जमिया जाला उखेले तायजी। लीलण फूलण मारी जायजी, अनन्ता जोव छै तिण रै मायजी। बले अवर हणी छः कायजी, तिणरी दया न आणी कायजी। तिणर अल्प आयु बंधायजी ॥ श्री वीर कहै ॥२॥ नींव दिरावै ठेट सूजी, टांको बजावै ताय । भेला करि भाठा चूणे, तिण बहुत हणी छः कायजी । अनन्ता जीव हणिया जायजी, ते पूरा केम कहिवाय जी। साधां ने उतारण रो मन ल्यायजो, तिण मोटो कियो अन्यायजो। तिणर अल्प आयु बंधायजो ।।
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जैन रखाकर
श्री वीर० ॥३॥ जिण गरथ दियो थानक कारणेजी, ते पिण मराई छःकाय । किण मोल भाई लै भोगलावै, तिण थाप राखी छै ताय जी। इत्यादिक दोषीला कहिवायजी, खीणे खोदै समों करे जायजी। विध २ सं मारी छः कायजी, बलि मन माहि हरषित थायजी। तिणरे अल्प आयुष्य बंधायजी ॥ श्री वीर०॥४॥ आहार सेभया वस्त्र पातराजी, इत्यादिक द्रव्य अनेक। अशुद्ध बहिरावै साधु ने, ते डूबा बिना विवेक जी। त्या झाली कुगुरी री टेकजी, त्यारे कर्म आडी काली रेखजी। त्यांने सीख न लागे एकजी, गुरु ने पिण भ्रष्ट किया विशेष जी। संशय हुवै तो सूत्र ल्यो देखजी॥ श्री वीर०॥५॥ पाप उदै हुवे एहने, तो पड़े निगोद में जाय। अनन्त उत्कृष्टा भव करे, त्यां मार अनन्ती खायजी । रहै घणो सङ्कड़ाई मांयजी, जक नहीं निगोद में तायजी। वलि सर्ण बेगो बेगो थायजी, उपजै ने बिल हो जायजी। तिण रो लेखो सुणो चित्त ल्यायजी ।। श्री वीर० ॥ ६ ॥ सतरह भव जाझेरा करे, एक श्वासोश्वास मझार । एक मुहूर्त में भव करे, साडा पैंसठ हजारजी। बलि छतीस अधिक बिचारजी, एहवी जनम मरण री धारजी। मरण पामै अनन्ती बारजी, अनन्त कालचक्र समार जी । त्यारो बेगो न आवै पारजी ।। श्री वीर० ॥७॥ कदा पहली पड़े बन्ध नरक नो, तो पड़े नरक में जाय। खेत्र बेदन ? अति घणी, परमाधामी मारे बतलायजी। तिहीं मार अनन्ती खायजी, उठ कोण छुड़ाव आयजी। भूख तृषा अनन्ती थायजी, दुःख में दुःख उपजै आयजी। अशुद्ध दान दियाँ ए फल थायजी
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जैन रत्नाकर
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॥ श्री वीर० ॥८॥ दुःख भोगविया नरक में जी, शेष बाकी रह्या पाप, तिण सं जीव उपजै जाय तिर्यश्च में। उठे पण घणो शोग सन्तापजी, नहीं छूटै कियां विलापजी। आड़ा नहीं आवै गुरु मा बापजी, दुख भोगवै आपो आप जी। अशुद्ध दान दियाँ धर्म थापजी, ए पिण कुगुरु तणो प्रतापजी ॥ श्री वीर० ॥ ६॥ अशुद्ध जाणी ने भोगवै, त्यो भांगी जिनवर पाल। अनन्त उत्कृष्टा भव कर, नर्क में जासे टांको भालजी। उठे मार देसे नर्क ना पालजी, कीधा कर्म लेवै संभालजी। बलि नवमो उद्देशो संभालजी ॥ श्री वीर० ॥ १०॥ आधाकरमी जाणी भोगवै, तो बंधै चिकणा कर्म। बलि भ्रष्ट थया आचार थी, त्यां छोड़ दियो जिन धर्मजी। निकल गयो त्यारो मर्मजो, छोड़ दीधी लज्जा'ने शर्मजी। बिगोय दियो जिन धर्मजी, दुःख पायो उत्कृष्टो पर्मजी ॥ श्री वीर० ॥११॥ साधू काजे हणै छः कायने, ते बार अनन्ती हणाय । साधू जाणी ने भोगवै, ते पण अनन्ता जनम मर्ण कर ताय जी। ए दोन दुःखिया थायजी, भव २ में मास्या जायजी। ए कर्तव्य संमारी छः कायजी, ते दुख भोगव लेवै तायजी। त्यारो पार बेगो नहीं आयजी ॥ श्रीवोर० ॥ १२॥ छ: काय रे अशुभ उदय हुआ, ते पामें एकरसंघात । जे साधू पड़िया नर्क निगोद में, सेवकों ने लेजावै साथजी। त्यां मानी कुगुरां री बात जी, कोनी त्रस स्थावर नी घात जी। अनन्ता काल दुःख में जात जी, याने पण कुगुरां डबोया साख्यातजी ॥ श्री वीर०॥ १३ ॥ गुरी ने डबोया श्रावका, श्रावकों ने डबोया साध। दोनं पड़िया नर्क निगोद में,
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जैन रत्नाकर
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श्री जिनवर धर्म विराधजी । संसार समुद्र अगाथजी, जिन धर्म री रहिस नहीं लाघजी । भव भव में पामें असमाधजी, ए पण कुगुरां तणो प्रसादजी ॥ श्री वीर ॥ १४ ॥ अशुद्ध जागी देवै साधु ने, ते साध ने लूटी लिया ताय । पाप उदय हुवै इण भवे, दुःख दारिद्र धसे घर मांयजी । ऋद्ध सम्पति जावै विलाय जी, दुःख मांहि दिन जायजी । कदा पुन्य भारी हुवै तायजी, तो परभव में शंका नहीं कायजी ॥ श्री वीर ॥ १५ ॥ इम सांभल नर नारियां जी, कीज्यो मन में विचार । शुद्ध साधां ने जाणनेजी, अशुद्ध मत दीज्यो किणवार जो । अशुद्ध में धर्म नहीं लिगार जी, शुद्ध दान दे लाहो ल्यो सारजी । ज्यू उतर जावो भव पारजी, ए मनुष्य जन्म नो सारजी ॥ श्री वीर कहै सुण गोयमा ॥ १६ ॥
आत्म-चिन्तन
दृष्टि
आत्म-चिन्तन प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिये क्योंकि जिन बुराइयों को मनुष्य छोड़ना चाहता है, पहले उनसे घृणा होनी चाहिये ; आत्म-चिन्तन उन बुराइयों से घृणा पैदा करता है, अतः बादमें उन्हें छोड़ देना सहज होता है ।
अपने अवगुण अपने आप देख कर छोड़ने से बढ़कर मनुष्य में महान बनने की कोई शक्ति नहीं हो सकती और यह शक्ति
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जैन रत्नाकर
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आत्म-चिन्तन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। दूसरे व्यक्ति को अपने दोषों के बारे में अवसर देने से पहले ही उन्हें पहचान कर छोड़ देना मानव से महामानव बनना है। 'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं'-यह सिद्धान्त का पद हमें यही शिक्षा देता है कि 'अपनी आत्मा को अपनी आत्मा के द्वारा देखो' और फिर" जत्थेव पसिकई दुप्प उतकाएणवाया अदुभाण सेण तत्थेवधीरो पड़िसाहरिजा आईनाओखिप्प मिवक्खलिणम् ?"
अर्थात् जहाँ कहीं भी धीर पुरुष अपनी आत्माको मन वचन और काया के द्वारा दुष्प्रवृत्ति करते देखे उसी समय जैसे उत्पथगामी घोड़े को लगाम डाल कर रोक लिया जाता है वैसे रोके। ___ इसी आत्म-चिन्तन को जन साधारण में प्रचलित करने के लिये जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के नवमाचार्य श्री तुलसी गणी जनसाधारण द्वारा होनेवाली गलतियों का दिग्दर्शन कराते हुए उपदेश देते हैं कि प्रत्येक मनुष्य इनका चिन्तन करे और अपने में पाई जानेवाली गलती को छोड़े। यही इसकी विशेषता है।
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आध्यात्मिक
१ प्रभात में आत्म चिन्तन समाइयक - साधना, सन्त-दर्शन व
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आध्यात्मिक भावना की या नहीं ?
२ समाइयक साधना आदि में मन को स्थिर रखा या नहीं ? ३ धार्मिक स्वाध्याय और चिन्तन किया या नहीं ?
४ सन्ध्याकालीन प्रार्थना वन्दना व प्रवचन में सम्मिलित हुए या नहीं ?
५ प्रतिक्रमण करके अपने आवश्यक कर्त्तव्य का पालन किया या नहीं ?
या नहीं ? नैतिक
६ धार्मिक चर्चा के समय वायुकाय की हिसा तो नहीं की ? ७ प्रतिक्रमण व प्रवचन आदि के समय बातें आदि करके विन तो नहीं डाला ?
८ श्रावक की दृष्टि से दैनिक चवदह नियमों का चिन्तन किया
BURMARES
६ भौतिक सुखों से आसक्त होकर आत्मोन्नति के प्रमुख लक्ष्य को भूले तो नहीं ?
१० स्व प्रशंसा और पर निन्दा से प्रसन्नता तो नहीं हुई और स्वनिन्दा व पर प्रशंसा से अप्रसन्नता तो नहीं हुई ?
११ अपने मुंहसे अपनी बड़ाई तो नहीं की ?
१२ किसी का झूठा पक्ष लेकर विवाद तो नहीं फैलाया और किसी को अपमानित करने की कोशिश तो नहीं की ?
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१३ किसी की निन्दा तो नहीं की ? १४ किसी भी सभा या सम्मेलन में पीछे से आकर आगे बैठने ____ की चेष्टा तो नहीं की? ६५ किसी पर कटु आक्षेप तो नहीं किया ? १६ भोजन के समय सुदान की भावना की या नहीं ? १७ दान, जान बूझकर अशुद्ध तो नहीं दिया ? १८ दान देते समय भावना में विकार तो नहीं हुआ या कम
लेने पर क्रोध तो नहीं आया ? १६ दान देकर कुछ उन्नोदरी की या नहीं ? २० किसी व्रत में दोष तो नहीं लगाया ? २१ बाहरी एवं अन्य बातों से प्रभावित होकर सच्चे देव, गुरु,
धर्म और शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा तो नहीं को ? २२ तात्विक अध्ययन और पठन के लिये कुछ समय दिया या
नहीं ? २३ किसी की उन्नति व ऐश्वर्य देख कर ईयां तो नहीं की ? २४ दूसरों की बरावरी करने के लिये नैतिक जीवन से गिराने __वाले कर्म तो नहीं किये ? २५ किसी की छिपी बात को प्रकाशित कर बदनाम करने की . चेष्टा तो नहीं की? २६ किसी के साथ अशिष्ट व्यवहार तो नहीं किया, बोलने में
अश्लील शब्दों का प्रयोग तो नहीं किया ?
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२७ बड़े बुड्ढों की अवहेलना या उनके साथ अविनय तो नहीं
किया, अपने माता, पिता आदि पूज्य जनों के सम्मान में
कोई अविनय तो नहीं किया ? २८ अविनय, भूल या अपराध हो जाने पर क्षमा याचना की या
नहीं ? २६ वालक-बालिकाओं को कहना न मानने पर निर्दयता से पीटा ' तो नहीं ? ३० झूठ बोलकर अपना दोष छिपाने की कोशिश तो नहीं की ? ३१ स्वार्थ से या बिना स्वार्थ से किसी झूठी बात का प्रचार तो
नहीं किया ? ३२ किसी को वस्तु चुराई तो नहीं ? ३३ पर-स्त्री को पाप-दृष्टि से तो नहीं देखा या पर पुरुषको पाप
दृष्टि से तो नहीं देखा ? ३४ अप्राकृतिक मैथुन तो नहीं किया ? ३५ धन पाने के लिये कोई विश्वासघात आदि अमानवोचित ___ काम तो नहीं किया ? ३६ किसी के साथ कोई मानसिक, वाचिक व कायिक हिंसा तो
नहीं की? ३७ आज मुझे क्रोध तो नहीं आया और आया तो क्यों, किस
पर और कितनी बार ? ३८ किसी को ठगने या फसाने की कोशिश तो नहीं की ?
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जैन रत्नाकर
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३६ भांग, गांजा, सुलफा आदि नशीली वस्तुओं का प्रयोग तो
नहीं किया? ४० अपने विचारों से सहमत नहीं होने वालों से द्वेष तो नहीं
किया ? ४१ जिह्वा की लोलुपता पर अधिक तो नहीं खाया पीया ? ४२ तास, चोपड़, केरम आदि खेलों में ही समय को तो बर्बाद
नहीं किया ? ४३ आज समूचे दिनमें कौन-सी नई शिक्षा व गुण ग्रहण किया ? ४४ घरके या पड़ोस के व्यक्तियों से झगड़ा तो नहीं किया ? ४५ किसी अनैतिक व अप्रिय कामों में भाग तो नहीं लिया ? ४६ किसी के साथ व्यक्तिगत वा सामूहिक रूप से कोई षड़यन्त्र
या पाखण्ड तो नहीं रचा, जो देश, समाज वा वर्ग की आशान्ति के साथ स्वयं के लिये आत्म ग्लानि का कार्य हो।
लौकिक४७ फिजूल खर्ची तो नहीं की ? ४८ कन्या-विक्रय या वर-विक्रय तो नहीं किया या ऐसे कार्यों में
भाग तो नहीं लिया? ४६ ब्लेक में कोई वस्तु खरीदी या वेची तो नहीं ? ५० किसी भी अशान्ति पूर्ण कार्यों में भाग तो नहीं लिया ? ५१ जुआ, सट्टा, फाटका आदि में प्रवृत्ति तो नहीं की या किसी
को प्रेरणा तो नहीं दी?
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जैन रत्नाकर
५२ विधवा स्त्री आदि को अपशकुन मानकर उनका दिल तो।
नहीं दुखाया? .५३ विवाह, भोज आदि में परिग्रह की अतिभावना तो नहीं
रक्खी ? नारी समाज (विशेष) १ आभरण आदि बनाने के लिये पति को वाध्य तो नहीं किया ? २ सास, ननद, जेठाणी देवरानी आदि पारिवारिक स्वजनों के __ साथ ईर्ष्या द्वेष व कलह तो नहीं किया ? ३ सौत, जेठाणी, ननद आदि दूसरों के बच्चों के साथ दुर्व्यववहार
तो नहीं किया ? ४ किसी विधवा बहिन का अपशब्दों से अपमान व तिरस्कार तो
नहीं किया ? ५ बनाव शृङ्गार व विषयवासनओं में शक्ति व समय का अप
व्यय तो नहीं किया ? ६ शोरगुल झगड़ा एवं सावध बातें करके धर्म-स्थान एवं सार्व
जनिक स्थानों की शान्ति, नियम एवं मर्यादा को भङ्ग तो नहीं किया ? ७ दिन भर में कौन-से अनुचित, अप्रिय एवं अवगुण पैदा करने वाले कार्य किये और कौन-सी सुशिक्षा ग्रहण की ?
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जैन रत्नाकर
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धर्म गान (तर्ज-विजयी विश्व तिरङ्गा प्यारा)
अमर रहेगा धर्म हमारा। जन जन मन अधिनायक प्यारा । विश्व विपिन का एक उजारा, असहायों का एक सहारा, सव मिल यही लगावो नारा ।
अमर रहेगा धर्म हमारा |॥ १॥ धर्म धरातल अतुल निराला, सत्य अहिंसा स्वरूप वाला, विश्व मंत्री का विमल उजाला, सत्पुरुषों ने सदा रुखारा ।
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥२॥ व्यक्ति व्यक्ति में धर्म समाया, जाति पांति का भेद मिटाया, निर्धन धनिक न अन्तर पाया, निसने धारा जन्म सुधारा ।।
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥३॥राज-नीति से पृथक सदा है, गृह-समाल से धर्म जुदा है। मोक्ष-साधना लक्ष्य यदा है, पर प्रभाव सब पर इकसारा ॥
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥४॥
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जैन रत्नाकर
आडम्बर में धर्म कहां है, स्वार्थसिद्धि में धर्म कहाँ है। शुद्ध साधना धर्म वहां है, करते हम हर वक्त इशारा ।
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥२॥ धर्म नाम से शोषण करते, धर्म नाम से निज घर भरते । धर्म नाम से लड़ते भिड़ते, वे सब धर्म कलङ्क विचारा ।
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥ ७॥ प्रलयकार पवन भी वाजें, उठे तुफानों की आवाजें, पल्टै सब जग रीति रिवाजे, पर नहिं यह कहीं पलटनहारा ।
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥७॥ धर्म नाम पर डटे रहेंगे । सत्य सौध में सटे रहगे, सङ्कट हो यदि सकल सहगे, तुलसी निश्चित है निस्तारा,
अमर रहेगा धर्म हमारा ॥८॥
॥ समाप्तम् ॥
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Fee ! "
१॥
भजन-भास्कर
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संग्रह करने योग्य सर्वोत्तम पुतकें। नित्य नियमावली
नन्दन मणियाराको व्याख्यान वैराग्य-स्तुति
आषाढ मुनि वैराग्य-रत्नावली
मोहजीत जैन भजनावलो
mu आषाढ भूत जैनस्तुति
थावरच्या पुत्र भजन-रत्नाकर
बड़ो चौवीसी
वड़ी साधु वन्दना गुण रत्नमाला
१ वावीस परिषह वैराग्य-मञ्जरी
आदिनाथ स्तोत्र सुदर्शन-चरित्र (सचित्र) ३) समाज दुर्दशा नाटक सुदर्शन सेठ को व्याख्यान ॥ धूर्ताख्यान अझना और मैणरया ॥ साहित्य प्रभाकर तिलोक सुन्दरी को व्याख्यान । (द्वितीय सस्करण) श्रीकृष्ण वलभद्र की चौपाई ॥ जैन भजन प्रकाश उदाई राजा
वीराजना वीरा खधक मुनि ( सचित्र)
दौलत विलास आराधना
फैशन बत्तीसी दाडिमिया सेठ को व्याख्यान भकामर स्तोत्र कल्याण मन्दिर स्तोत्र
सत्संग मञ्जुषा चतुरविचार
श्रावक प्रतिक्रमण जम्बूकुंवर को चोढालियो ajni जिन आज्ञा को चोढालियो तुलसी सुधा
अनुपूर्वी तुलसी मन्त्र माला
गणधर गुगावली पचीस बोल
नित्य स्वाध्याय चौवीसी (दौलतराज रचित) । जम्बूकुंवर को व्याख्यान (सचित्र)२॥
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१८)
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ओसवाल प्रेस-१८६, क्रोस स्ट्रीट, कलकत्ता।
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ब्रिह्मचर्य का अद्वितीय आदर्श
'सुदर्शन चरित्र इक रंगे और बहुरंगे १२ चित्रों से सुसज्जित ) सेट सुदर्शन परम जितेन्द्रिय पुरुष थे। अपने जीवन काल में स्त्रियों द्वारा अनेकों उपसर्ग होने पर भी वे कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुए।
जैसे सोने की परीक्षा उसे कसोटी पर घिस कर, काट कर हथौड़ी से कूट कर और आय मे तपा कर की जाती है, वैसे ही सेठ सुदर्शन-स्वर्ण की भी परीक्षा की गयी। पहले वे कपिला की कसौटी में कसे गये. फिर असया ने अभय होकर अपनी काम कतरनी से जांचा, इसके बाद उन्होंने वेश्या-हथौड़ी के हाव भाव की चोट खायीं और अन्त में भूतनी के भभकते हुए अग्नि कुण्ड में तपाये गये; किन्तु खरे सोने की भाँति उनकी प्रभा बढ़ती ही गयी। यद्यपि वे विद्यमान नहीं है, तथापि उनका नाम आज भी जैन-जगत में जगमगा रहा है।
जैनेतर विद्वान-लमालोचकों ने लिखा है कि "यदि सुदर्शन की जीवन-कालिक घटनाएँ सत्य हैं, तो यह निःशंकोच.कहा जा लपाता है, कि वे परम जितेन्द्रिय पुरुष थे।" __ यदि स्त्री-चरित्र के गूढ रहस्यों को जानना है, तो इस आदर्श पुरुष के जीवन-चरित्र को अवश्य पढ़िए । मनुष्य मात्र के लिए यह संग्रह करने और उपहार देने योग्य पुस्तक है। मूल्य केवल ३॥
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