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जैन रत्नाकर
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मर्यादनी रीत, छांड़ वलि न्यात में ॥ १६ ॥ एहवो आरम्भ परिग्रह, जे दिन त्यागस्यं । थासे ते दिन धन्य, अंतस वैराग सूं ॥१७॥ वाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थ, तणी मूर्छा तजू । प्रगटै भल रवि तेह । नाम प्रभू नूं भजूं ॥ १८ ॥
दोहा दूजो मनोरंथ चिन्तवै , श्रावक जे व्रतधार । तन धन जोबन कार, विणशंतों नहीं वार ॥१॥ मात पिता बंधव त्रिया , पुत्रादिक परिवार । स्वारथ लग सहु को सगा , सही संसार असार ॥२॥ गृहवासै हिवड़ा बसू , चारितमोह जे कर्म । क्षय उपशमियां थी कदा , लेस्यूं चारित्र धर्म ॥ ३ ॥
ढाल दूसरी (देशी-वैरागे मन वालियो तथा कृष्ण भाव रूड़ी भावना) . • धन २ सञ्जम धर मुनि, त्यागो ते संसार। पञ्च महाव्रत धारका, पालै पञ्च आचार ॥ धन २ संयम धर मुनि ॥१॥ श्री जिन आणा चाहिरो। सावध कारज ताय, नहीं आदेश दे तेहन । मौन धारै मुनिराय ।। धन २ ॥२॥ दश विध यति धर्म धारियो, यति नाम कहिवाय । जीत्या विषय इन्द्रियाँ तणी, द्वितीय अर्थ सुखदाय ॥ धनं