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जैन रहाकर
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ही ॥ ४ ॥ जे राख्यो आगार, ते अन्नत द्वार है । देयाँ देवायाँ तार, पाप सञ्चार है ॥ ५ ॥ सचित अचित जे वस्तु, आहार ने पाणियाँ । सावद्य कार्य समस्त भोगाय भलो जाणियाँ || ६ || हिन्सा हुवै षटकाय, तणी गृहवास में । जिन मुनि आण न ताय, धर्म नहीं जास में || ७ || आरम्भ परिग्रह एह, कुगति दातार है । क्रोध मान माया लोभ, तणुं करण हार है || ८ || संयम समकित कल्पतरु नो भंजनूं । महामन्द बुद्धि अज्ञान तणो मन रञ्जनूं ॥ ६ ॥ माठी लेश्या होय, आर्त्त रौद्र ध्यान में । न्याय न सूझे कोय, लिप्त धनवान ने ॥ १० ॥ सुमति शुचि सौभाग्य, विनाशण एह हो । जन्म मरण भय अथाग, हुवै परिग्रह थकी || ११ || कड़वा कर्म विपाक, तणो हेतु सधैं | सींचे तृष्णा बेल, त्रिषै इन्द्रो बधै ॥ १२ ॥ दारुण कर्कश - दु:ख वेदन असराल ही । कूड़ कपट परपश्च, करै विकराल ही ॥ १३ ॥ इण सरीषो नहीं मोह, पाश प्रतिबन्ध है । स्नेह राग करि जास, मूछो अन्ध है ||१४|| दान कुपात्र दुरगति दायक जिन कहै । परिग्रह थी देवाय तेह थी शिव किम रुहे ॥ १५ ॥ घणा काल री प्रीत, विनाशै स्यात में । कुल
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