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जैन रत्नाकरे _ ख्यात में भाग ए। गिराजज ए, गिराज आवै ज्ञानी तणे ए॥१०॥ श्रावक के नित्य चिन्तवने के तीन मनोरथ ।
दोहा
प्रणम अरिहन्त सिद्ध बलि , आचारज उवझाय । साधु सकल पद वन्दता , आनन्द मङ्गल थाय ॥१॥ श्रीजिनवर स्वमुख थकी , तीजा अङ्ग मझार । तीजै ठाणे आखिया , तीन मनोरथ सार ॥२॥ श्रावक व्रत धारक जिके , चिन्तवता सुखकार । कर्म महा अघ निरजरै, पामै भवनो पार ॥३॥
ढाल पहली (देशी- भाखै कृष्ण मुरार धिकार संसार में ) प्रथम मनोरथ मांहि, श्रावक इम चिन्तवै । ये आरंभ दुःखदाय, परिग्रह थी हुवै ॥१॥ महा अनरथ - मूल, परिग्रह जिन कह्यो। किंचित् ने वलि स्थूल, पंच भेदे ग्रह्यो ॥२॥ खेतु पथु दिक जान, हिरण्य सुवर्ण सही। कुम्भिधातु धन धान, द्विपद चौपद मही ॥ ३ ॥ यथाशक्ति परिमाण, त्याग उपरान्तही । पञ्चम व्रत गुण खाण, करण योगवन्त