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१२ . जैन रत्नाकर बिमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च बंदामि ३ कुंथु अरं च मल्लिं, चंदे मुणिसुन्बयं नमि जिणं च, चंदामि रिडनेमि, पासं तह बद्धमाणं च ४ एवं मए अमिथुया, बिहूयरयमला पहीणजरमरणा, चउच्चीसपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ५ कित्तिय-बंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा, आल्ग बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु ६ चंदेसु निस्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ! ७ ॥ ___ लोक में उद्योत करने वाले, धर्म रूप तीर्थ को त्यापित करने वाले, राग द्वेष जीतने वाले तयंबरों का मैं स्तवन करता हूं, चौबीस केवलो। ऋषन को-अजित को और वन्दना करता हूँ। संभवनाथ को अभिनन्दन स्वामी को पुनः सुनतिनाथ को, पन प्रभू को, सुपार्श्वनाथ जिनको और चन्द्रप्रभ को वन्दना करता हूँ। सुविपिनाथ (दूसरा नाम : पुष्पदन्त को शीतलनाथ नो, श्रेयांसनाथ को, वासुपूज्च को और विमलनाथ को और अनन्तनाथ जिनको, धर्मनाथ शो; शान्तिनाय गो वंदना करता हूं। कुत्युनाथ. को, अरनाथ को महिनाय को वन्दना करता हूँ। मुनि सुत्रत को नमिनाय जिनको पुनः वन्दना करता हूँ | अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमान (नहावीर भगवान) को। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तवन किये गये, पाप रूप रज के मल