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जैन रत्नाकरे ते सब प्रते, खमत खामना छै अभिरामकै ॥ खमत ॥ १६ ॥ देव अरिहन्त जे केवली, अनन्त चौबीसी हुई भतं जेहकै। इमहिज ऐरवय पञ्चमें, वर्तमान जिन पञ्च विदेहकै ॥ खमत ।। १७॥ विनय करी कर जोड़ने, मन शुद्ध थी खमज्यो अपराधकै ॥ भव भव शरणो तुम तणो, तिण सू थावै परम समाधिकै ॥ १८॥ दूजे पद सिद्ध सुखकरू, पूर्व प्रयोगे गति परिणामकै। सर्वारथ सिद्ध थी अछ, द्वादश योजन ईसी प्रभाः नामकै ॥ खमत ॥ १६ ॥ ते थी अर्द्ध लोकान्तकै, गाऊ इकरै छ? भागकै। अनन्त गुणी तुम्हें जई बस्या, हिव पायो मैं तुम तणो मागकै । खमत ॥ २०॥ जे कोई जाण अजाणता, आशातना हुई तासु खमायकै। आवण तिहाँ मन लग रह्यो, तुम सरिषो तुम जपियाँ थायकै ॥ खमत ॥२१॥ आचारज तीजै पदे, सम्यक्त चर्ण तणा दातारके। शुद्ध प्ररूपण जेहनी, महाउपगारी महा सुखकारकै ।। खमत ॥ २२ ॥ उवज्झाया गण वत्सलू, भणै भणावै निरमल ज्ञानकै। गणी अणा न उलंघता, पालै पञ्च महाव्रत मानकै ॥ खमत ॥ २३ ॥ दाता समकित. चरणरा, देशव्रत पाल तुम जोगकै। जे कोई जाण अजाणता, आशातना हुई बिन उपयोगकै ।। खमत ॥ २४॥ शुद्ध साधु अढ़ी द्वीप में, पञ्चयाम नव कल्प विहारकै। निरलोभी निरलालची, जाचे दोष बयांली टारकै ॥ खमत ॥ २५॥ भिक्षु गण में महा मुनी । साध्वियां सहु गुण भण्डारकै। अप्रिय वच तसु दर्प थकी। कियो अविनय खमाऊंसारकै । खमत ॥ २६ ॥ गुण विहुणा गण वाहिरा, टालोकर बलि भ्रष्टाचारकै । तासु खमावू भली परै, किण