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जैन रत्नाकर
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॥ श्री वीर० ॥८॥ दुःख भोगविया नरक में जी, शेष बाकी रह्या पाप, तिण सं जीव उपजै जाय तिर्यश्च में। उठे पण घणो शोग सन्तापजी, नहीं छूटै कियां विलापजी। आड़ा नहीं आवै गुरु मा बापजी, दुख भोगवै आपो आप जी। अशुद्ध दान दियाँ धर्म थापजी, ए पिण कुगुरु तणो प्रतापजी ॥ श्री वीर० ॥ ६॥ अशुद्ध जाणी ने भोगवै, त्यो भांगी जिनवर पाल। अनन्त उत्कृष्टा भव कर, नर्क में जासे टांको भालजी। उठे मार देसे नर्क ना पालजी, कीधा कर्म लेवै संभालजी। बलि नवमो उद्देशो संभालजी ॥ श्री वीर० ॥ १०॥ आधाकरमी जाणी भोगवै, तो बंधै चिकणा कर्म। बलि भ्रष्ट थया आचार थी, त्यां छोड़ दियो जिन धर्मजी। निकल गयो त्यारो मर्मजो, छोड़ दीधी लज्जा'ने शर्मजी। बिगोय दियो जिन धर्मजी, दुःख पायो उत्कृष्टो पर्मजी ॥ श्री वीर० ॥११॥ साधू काजे हणै छः कायने, ते बार अनन्ती हणाय । साधू जाणी ने भोगवै, ते पण अनन्ता जनम मर्ण कर ताय जी। ए दोन दुःखिया थायजी, भव २ में मास्या जायजी। ए कर्तव्य संमारी छः कायजी, ते दुख भोगव लेवै तायजी। त्यारो पार बेगो नहीं आयजी ॥ श्रीवोर० ॥ १२॥ छ: काय रे अशुभ उदय हुआ, ते पामें एकरसंघात । जे साधू पड़िया नर्क निगोद में, सेवकों ने लेजावै साथजी। त्यां मानी कुगुरां री बात जी, कोनी त्रस स्थावर नी घात जी। अनन्ता काल दुःख में जात जी, याने पण कुगुरां डबोया साख्यातजी ॥ श्री वीर०॥ १३ ॥ गुरी ने डबोया श्रावका, श्रावकों ने डबोया साध। दोनं पड़िया नर्क निगोद में,