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________________ ११४ जैन रखाकर श्री वीर० ॥३॥ जिण गरथ दियो थानक कारणेजी, ते पिण मराई छःकाय । किण मोल भाई लै भोगलावै, तिण थाप राखी छै ताय जी। इत्यादिक दोषीला कहिवायजी, खीणे खोदै समों करे जायजी। विध २ सं मारी छः कायजी, बलि मन माहि हरषित थायजी। तिणरे अल्प आयुष्य बंधायजी ॥ श्री वीर०॥४॥ आहार सेभया वस्त्र पातराजी, इत्यादिक द्रव्य अनेक। अशुद्ध बहिरावै साधु ने, ते डूबा बिना विवेक जी। त्या झाली कुगुरी री टेकजी, त्यारे कर्म आडी काली रेखजी। त्यांने सीख न लागे एकजी, गुरु ने पिण भ्रष्ट किया विशेष जी। संशय हुवै तो सूत्र ल्यो देखजी॥ श्री वीर०॥५॥ पाप उदै हुवे एहने, तो पड़े निगोद में जाय। अनन्त उत्कृष्टा भव करे, त्यां मार अनन्ती खायजी । रहै घणो सङ्कड़ाई मांयजी, जक नहीं निगोद में तायजी। वलि सर्ण बेगो बेगो थायजी, उपजै ने बिल हो जायजी। तिण रो लेखो सुणो चित्त ल्यायजी ।। श्री वीर० ॥ ६ ॥ सतरह भव जाझेरा करे, एक श्वासोश्वास मझार । एक मुहूर्त में भव करे, साडा पैंसठ हजारजी। बलि छतीस अधिक बिचारजी, एहवी जनम मरण री धारजी। मरण पामै अनन्ती बारजी, अनन्त कालचक्र समार जी । त्यारो बेगो न आवै पारजी ।। श्री वीर० ॥७॥ कदा पहली पड़े बन्ध नरक नो, तो पड़े नरक में जाय। खेत्र बेदन ? अति घणी, परमाधामी मारे बतलायजी। तिहीं मार अनन्ती खायजी, उठ कोण छुड़ाव आयजी। भूख तृषा अनन्ती थायजी, दुःख में दुःख उपजै आयजी। अशुद्ध दान दियाँ ए फल थायजी
SR No.010292
Book TitleJain Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKeshrichand J Sethia
PublisherKeshrichand J Sethia
Publication Year
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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