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जैन रत्नाकरे
थी थाय ए ॥२२॥ दश दान रो एह विचार ए, संक्षेप कह्यो विस्तार ए। वीर नी आज्ञा में दान एक ए. आज्ञा बारै दान अनेक ए॥ २३ ॥ असंयती घरे आवियो ए, निर्दोषण आहार बहिरावियो ए। तिण ने दियाँ एकन्त पाप ए, भगवती में कह्यो जिन आप ए ॥२४॥ एम जाणी ने करो विचार ए, आठ अधर्म तणो परिवार ए। घणा सूत्रों नी साख ए, श्रीवीर गया छै भाष ए॥ २५॥ धर्म अधर्म दान दोय ए, मिश्र म जाणो कोय ए। केम जाणे मिथ्यात्वी जीव ए, मूल में नहीं सम्यक्त नीव ए ॥ २६ ॥
अठारह पाप की ढाल
दोहा आज्ञा श्री अरिहन्तनी, निरवद्य दान में जाण । साचद्य दान में स्थापने, मूर्ख मांडी ताण ॥१॥ मिश्र धर्म प्ररूपने, नहीं सूत्रनो न्याय । लोकांने गेरै फन्द में, कूड़ा चौज लगाय ॥२॥ अप्रत आश्रव में कह्यो, श्रीजिन मुख से आप। सेया सेवायां भलो जाणियाँ, तीनं करणा पाप ॥३॥ व्रत धर्म श्रीजिन कहो, अव्रत · अधर्म जाण ।. मिश्र मूल दीसे नहीं, कर अज्ञानी ताण ॥४॥
ढाल . जिन भाष्या पाप अठार, सेयों नहीं धर्म लिगार ।-शंका मत आणग्यो ए, सांची करि जाणज्यो ए ॥ १॥ जो थोड़ो घणो