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जनरत्नाकर
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कर पाप, तिण थी होय सन्ताप । मिश्र नहीं जिन कयो ए, समदृष्टि अद्धियो ए॥२॥ केई कहै अज्ञानी एम, श्रावक पौष नहीं केम । भाजन रत्ना तणो ए, नको अति घणो ए॥३॥.तिण रो नहीं जाणे न्याय, त्यांने किम आणीजे ठाय । बहदो घालियो ए, झगड़ो झालियो ए।। ४ ।। हिवै सुणज्यो चतुर सुजान, श्रावक रनारी खान । व्रतां करि जाणज्यो ए, उलटी मत ताणज्यो ए ५॥ कोई रूख बाग में होय, आम धत्तुरो दोय। फलं नहीं सारखा ए, कोजो पारखा ए ॥ ६ ॥ आमा सू लिव लाय, सींचे. धत्तो आय । आशा मन अति धणी ए, आम लेवण तणी ए १७॥ आम गयो कुम्हलाय, धत्तुरो रह्यो दृढाय | आवी ने जोवै जरैए, नयनां नीर झरै ए ॥ ८॥ इण दृष्टान्ते जाण, श्रावक व्रत अम्ब समान । अव्रत अलगी रही ए, धतूरा सम कही ऐ॥४॥ सेबावे अव्रत कोय, व्रतां सामो जोय । ते भूला भ्रम में ए, हिन्सा धर्म में ए ॥ १० ॥ अव्रत से बन्धै कर्म, तिण में नहिं निश्चय धम। तीनूं करण सारखा ए, विरलाने पारखा ए ॥ ११ ॥ खाधा बन्धे कर्म, खुवायां मिश्र धर्म । ए झूठ चलावियो ए, मूर्ख मन भावियो ए ।। १२ ।। मिश्र नहीं साक्षाता, ते किम श्रद्धोजे बात । अक्ल नहीं सूढ़ में ए, पड़िया रूढ़ में ९॥ १३ ॥ पोते नहीं बुद्धि प्रकाश, वली लाग्यो कुगुरोरो पाश। निर्णय नहीं कर ऐ, ते भव-सागर' पर ऐ॥ १४ ॥ साधु संगति थाय, सुणे एक चित्त लगाय । पक्षपात परिहरै-ए। ज्यों खबर बेगी पर ए ॥ १५ ॥ आनन्द आदि दे जाण, श्रावक दशं बखाण । ते पड़िमा आदरी ए, चर्चा पाधरी,ए.।। १६ ।।