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जैन रत्नाकर
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धर्माचार्य पञ्चक
(देशी-पानी में मीन पियासी.) धर्माचारज मुझ तारो, मैं लीन्हों शरण तुम्हारो ध। कछु करुणा दृष्टि दिखारो । ध० ॥ ए आंकड़ी ॥ भव सागर है अथग अमित जल, नहिं कहिं नजर किनारो। काल अनन्त अनन्त हि प्राणी, भ्रमण करै हर वारो ॥१॥ साश्रव आतम नाव हमारी, पल २ जल पयसारो। नहिं कोई कर्णाधार नियामक, नहिं प्रोन्नत पतवारो ॥२॥ डपर डगर में मगर हैं सोये, खोये प्राण हजारों । तरुण तुफान उठे हड़बड़ के, धड़के हृदय हमारो ॥३॥ (ओह) मन भमर भँवर विच भटकै, माँझी थइ मतवारो। हा! हा! विषम अवस्था म्हारी, नहिं कोइ निकट सहारो॥४॥ प्रतिनिधि आप प्रथम पदके हो, गुण षट तीस हीधारो। तुलसी इम भव भीरु मानव, सविनय अरजि उचारो॥॥