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जैन रत्नाकर
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सिद्ध पञ्चक
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(देशी-देखो देखो जी बदरवा कारे जीवरा दुखाये ) देवो देवो जी डगर, जिम सिद्धि नगर पहुंचाये। जोवें पलक २ हम, अपलक नजर टिकाये ॥ ए आंकड़ी॥'
किन मारग से अयि जिनवरजी, तुम निज धाम सिधाये । सर्व दर्शि सर्वज्ञ कहाकर, आतम सुख अपनाये ॥१॥
अक्षय अरुज अनन्त अचल अज, अव्यावाध कहाये । अजरामर पद अनुपम सम्पद, तास अधीश सुहाये ॥२॥
निकट अनन्त अलोक प्रदेशही क्यों हतभाग्य रहाये । पैंतालीश लाख योजन में, किम तुम सकल समाये ॥३॥ साक्षात्कार करें यदि साहिव, दया दृष्टि दिखलाये । वीर-पुत्र हम मिल्ल-पुत्र वत, नहिं घबराट मचायें ॥४॥ अष्ट गुणान्वित सिद्ध अनन्त हि, प्रणमत पाप पलाये । सिद्ध स्तवन करे इम तुलसी, हुलसित मन वच काये ॥५॥