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जैन रत्नाकर परमेष्ठी पञ्चकं
(देशो-मैं ढूंढ़ फिरी जग सारा) परमेष्ठी पञ्च पियारे, जीवन धन प्राण सहारे । प० । आध्यात्मिक सुख सञ्चारे, निर्दिष्ट मन्त्र ॐकारे ॥१०॥
अरिहन्त सिद्ध अविनाशी, धर्माचारज गुण राशी। है उपाध्याय अभ्यासी, तिम साधु साधनावारे ॥१॥
सहु मुक्ति महल के वासी, पधराये वा पधरासी । ज्योती में ज्योति मिलासी, अस्तित्व अलग लग धारे ॥२॥ है विश्व-विन्ध जस वाणी, सद्धर्म मर्म दर्शाणी । सर्वत्र मैत्री महकाणी, भवि प्राणी नयन निजारे ॥३॥
जिन मत में मन्त्र अनादि, अविकार अमल अविवादी। सुमरण ते होत समाधी, तिह मध्य सतत बसनारे ॥४॥
है निष्कारण उपकारी, अशरण के शरण उदारी । भवि मानस विपिन विहारी, तुलसी तस स्तवन उचारे ॥॥