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जैन रत्नाकर
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अरिहन्त पञ्चकं
(देशी-पर घर लाज न मारो) मोहि स्वाम सम्भारो २ । स्वाम सम्भारो नाथ सम्भारो,मैं शरणागत थारो, भगवन् मतिरे विसारो । मो०॥एआँकड़ी।
पल २ छिन २ घडि २ निशिदिन, ध्याऊँ ध्यान तुम्हारो। सर्व दर्शि सम दर्शि तुम्हीं हो, आन्तर भाव निहारो ॥१॥
पञ्च पदों में प्रमुख स्थान तव, तिम त्रिण तत्व मझारो। अवर देव देवाधिदेव तुम, अनन्त चतुष्टय धारो ॥२॥
तुम्हीं अहिंसा पन्थ प्रचारक, टारक पाप प्रचारो। भव-सायर विच डोलत नैया, तुम्हि निर्यामक तारो ॥३॥
विहरमाण तुम वीश निरन्तर, लेखो उत्कृष्टाँ रो। इकशत सित्तर एक समय में, भाग्य बड़ो दुनियाँ रो ॥४॥ मन-मन्दिर में सदा विराजित, मम अर्चा स्वीकारो। तुलसी तव चरणाम्बुज लोलप, भ्रमर भाव वहनारो ॥५॥