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जैन रत्नाकर कहै भलूं ॥ गु ॥ आनन्द हर्ष विशेष हो ॥ गु॥ श्रावक भावै ॥ २१॥
॥ कलश ॥ गीतक छन्द ॥ इम त्रण मनोरथ चिन्तवै, जे भविक नित प्रते जाण ही। अघ राशि कर्म विनाश थावै, पावै पद निरवाण ही॥ गणी डालचन्द दिनन्द सम, मम गुरु तास पसाय ही। कहै श्रमणोपासक गुलाबचन्द, आनन्द हर्ष अथाय ही ॥१॥
बारह भावना के दोहा
(१) अनित्य भावना राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥
(२) अशरण भावना दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियाँ जीवको, कोई न राखन हार ।।
' (३) संसार भावना .. दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥