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जैन रत्नाकर
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-कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थपण
चंदामि ॥ ४ ॥
मुनि वंदना पंचमें पढ़े जघन्य दो हजार क्रोड़ जाझेरा साधु साध्वी उत्कृष्ट नव हजार क्रोड़ साधु साध्वी अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्रों में विचरे छै ते महा सुनिराज केहवा छे पंच महाव्रतना पालणहार, पंचेन्द्रियना जीतणहार, चार कपाय ना टालनहार, भावसत्य करणसत्य, जोगसत्य क्षमावन्त वैराग्यवन्त, मन समाधारणता, वचन समाधारणता, काय समाधारणता, ज्ञान सम्पन्न, दर्शण सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न, वेदनी आय सवभावे सहै, मरण आयॉ समभावे सहै एवं सत्तावीस गुणना धरणहार, बावीस परिपहना जीतणहार, क्यॉलीस दोष टाल आहार पाणी ना लेवणहार, चावन अनाचार ना टालणहार निर्लोभी, निर्लालची संसार सूं उदासी मोक्षना अभिलापी, संसार सूं अपूठा मोक्ष सूं साहमा, सचितना त्यागी अचितना भोगी, नंतिया जीमै नहीं तेड़िया आये नहीं वायुवत् अप्रतिबन्ध बिहारी, एहवा महा उत्तम मुनिराज प्रते हाथजोड़ मानमोड़