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________________ म कर णमो लोए सव्व साहूणं नमस्कार हुवो लोक ने विषै सर्व णमो उवज्झायाणं नमस्कार हुवो उपाध्याय ने अरिहन्तों को नमस्कार करता हूं । सिद्धों को नमस्कार करता हूं' | आचायों को नमस्कार करता हूं । उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ । लोक में जितने साधू हैं उन सबको नमस्कार करता हूं । इसमें पांच श्रेणी की आत्माओं को नमस्कार किया गया है। साधु ने अरिहंत शब्द का अर्थ है - शत्रु को मारने वाला । आठ कर्मों के सिवाय जीव का कोई भी दुश्मन नहीं है । इन आठ कर्मों में भी ज्ञानावरणीय, दर्शनाबरनीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म बड़े प्रबल शत्रु हैं। ये चार कर्म जिनके समूल नष्ट हो जाते हैं एवं जो धर्म-मार्ग के प्रवर्तक होते हैं उनका नाम अरिहंत है । 6 जो आत्मायें त्याग तपस्या रूप साधना द्वारा आठों ही कम का नाश कर पूर्ण रूप से कर्म रहित हो जाती हैं वे सिद्ध कहलाते हैं । आचार्य शब्द से यहां धर्म के आचार्य ही लिये जाते हैं । धर्माचार्य्य वे होते हैं जो स्वयं साधुपन पालते हुए दूसरों को साधुपन पालने में सहायता देते हैं । धर्म-शासन के सबसे मुख्य अधिकारी एवं संघ के स्वामी होते हैं । जैसे ६२१ साधु-साध्वी
SR No.010292
Book TitleJain Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKeshrichand J Sethia
PublisherKeshrichand J Sethia
Publication Year
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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