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जैन रत्नाकर वृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुन्दुभि, स्फटिक सिंहासन, भामण्डल, छत्र, चामर एवं द्वादश गुणना धारक, एक हजार आठ शुभ लक्षण युक्त शरीर, चउसठ इन्द्रांना पूजनीय, चउतीस अतिशय, पैंतीस वचनातिशय करी शोभित, एहवा श्री अरिहन्त देवॉ प्रते हाथ जोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं चंदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण चंदामि ॥१॥
सिद्ध वन्दना दूजै पदे अनन्त सिद्ध पन्द्रह भेदे अनन्त चउवीसी अष्ट कर्म खपावीने मोक्ष पहुँता-केवल ज्ञान, केवल दर्शण, आत्मिक सुख, क्षायक सम्यक्त्व, अटल अवगाहना, अमूर्तिपणो, अगुरुलघुपणो, अन्तराय रहित, एवं अष्ट गुण संयुक्त जन्म मरण जरा रोग सोग दुख दारिद्र रहित सदा काल शाश्वत सुखाँ में विराजमान छै ते सिद्ध भगवन्त प्रते हाथजोड़ मानमोड़ तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं वंदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण चंदामि ॥२॥