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जैन रत्नाकर
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मा २ भाव । शौच शुची क्रिया भली करता मुक्ति उपाय ॥ धन २ ॥ १३ ॥ धर्म विणज विणजै सदा, सार्थवाह सुविचार | कर्म- कटक दल जीतवा, सेनापति व्रतधार ॥ धन २ ॥ १४ ॥ मन वच काया गोपवै, सुमति पञ्च प्रकार | इन्द्रादिक स्वमुख करी, न लहै गुणनो पार || धन २ ॥ १५ ॥ सबला इकवीस दोष जे, टालै ते भल रीत । तीन तीस आशातना, करें नहीं सुविनीत ॥ धन २ ॥ १६ ॥ आचारज उवज्झायरी, व्यावच से धर प्यार । तपसी लघु फुन ग्लानने, वस्त्रादिक दे आहार ॥ धन २ ।। १७ ।। भव भ्रम भमता जीवने, तारण तरण समान । गहन कन्तार संसार थी, ल्यावै शिव मग स्थान ॥ धन ॥ १८ ॥ चन्द्र तणी पर निरमला, तम मिध्या मति नाश | अडिग अमर गिर सारीषा, रविवत् ज्ञान प्रकाश ॥ धन २ || ११ || जिन भाषित दाखित सदा, साधु श्रावकनुं धर्म । अत्रत विष सम लेखवी, पालै क्रिया पर्म ॥ धन || २ || २० | आतम भावै विचरता, ध्यावै निज ध्येय ध्यान | अकरता पद परिणमें, धन्य २ ते गुणवान ॥ धन २ ॥ २१ ॥ निन्दित वन्दत सम पर्णे,