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जैन रत्नाकर
राग द्वेष नहिं होय। जश अपयश जीवण मरण में, हर्ष शोग नहिं कोय ॥ धन २ ॥ २२ ॥ सफल जमारो धन्य घड़ी, भाव जागृत जेह। अप्रतिबन्ध वायु परै, तजी कुटुम्ब थी नेह ।। धन २ ॥ २३ ॥ चारित मोह क्षयोपशम्याँ, हूँ एहवो व्रतधार। थास्यूं ते दिन धन्य घड़ी; आनन्द हर्षे अपार ॥ धन २ ॥ २४ ॥
- दोहा तीजो : मनोरथ चिन्तवै , मन · में श्रावक एम। संयम ग्रही शुभ भाव से , लिया निभाऊँ नेम ॥१॥ ए संसार अगाध में , भमियो काल अनन्त । बहु षटरस भोजन किया , समता नहिं उपजन्त ॥ २॥ चरण सहित अणशण करूं , पादोगमन संथार । अवसर मरण तणे बलि , होयजो शरणा च्यार ॥३॥
ढाल ३ जी (देशी–हूं तुझ आगल स्यूं कहूँ कन्हैया) शुभाशुभ पुदगल फरशिया ॥ गुणवन्ता ।। षटत्रण दिशनं आहार हो । ग॥ श्रावक ॥ दुगन्ध सुगन्ध फश आठ ही ।। गु॥ पञ्च वरण रस धार हो । गु ॥ श्रावक ॥ भावै एहवी भावना गुणवन्ता ॥ १ ॥ मोटी माया मोहणी