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जैन रक्षाकर
तिर्यञ्च गति में अतीव हो ।। गु ॥ श्रा॥ भावै ॥ ८॥ अनन्त मेरु सम आहारिया ॥ गु॥ अनन्त पुद्गल पर्याय, हो । गु॥श्रा ॥ कई इक लोकाकाश में ॥ गु॥ वार अनन्त कहिवाय हो॥ गु॥श्रा ॥ भाव ॥ ६ ॥ भोजन किया इण आत्मा ॥ गु॥ बहु मूल्यनो तंत हो॥ गु॥ श्रा॥ इभ जाणी अणशण करै ।गु०॥ छहले अवसर सन्त हो॥ गु॥श्रा ॥ भावै ॥१०॥ अष्टादश जे पापना ॥ गु॥ थानक प्रते आलोय हो ॥ गु॥श्रा ॥ निन्दै दुकृत जे. थया ॥ गु॥ शल्य रहित सहुकोय हो ॥ गु ॥ श्रा॥ भावै ॥११॥ लाख चौरासी योनिने । गु ॥ बारम्बार खमाय हो ॥ गु॥ श्रा॥ राग द्वेष तज सहु थकी ॥ गु॥ हर्ष शोग नहीं काय हो ॥ गु॥श्रा ॥ भावै ॥ १२॥ च्यार प्रकारे आहार जे ॥ गु ॥ त्यागै ममता रहित हो ॥ गु । श्रा॥ पञ्च आश्रव पचखी करी ॥ गु॥ पादोपगमन सहित हो॥ गु ॥ श्रा ॥ भावै ॥ १३ ॥ जङ्गम स्थावर सम्पति ॥ गु॥ द्विपद चौपद वोसराय हो । गु ॥ श्रा॥ अरिहन्त सिद्ध साधु ध्यान थी॥ गु॥, शिवगति नेडी थाय हो ॥ गु॥ श्रा॥ भावै ॥ १४ ॥ इहलोक परलोककी ॥ गु॥