Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/522801/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reg. No. B. 719. 30-SDECE जैनहितैपी। साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी लेखोंसे विभूषित अंक। C सम्पादक और प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी।। ग्यारहवाँ। कार्तिक, मार्गशीर्ष। भाग। श्रीवीर नि संवत् २४१ विषयसूची। १ प्रार्थना (कविता) ... उस बलकी कारकविता) ३ प्राचीन मसूरकी एक झलक ऐतिहासिक ४ तपका रहस्य धामिक १५ ऑखें (कविता) ६ महावीर स्वामीका निर्वाण-समय (ऐतिहा ७ जैन निवाणसंवत् (ऐतिहासिक जिनाचार्यका निवाण ९ प्राचीन खोज ... १० सेठ देवचन्द लालचन्द पुस्तकोद्धार फंड ११ दुर्बद्धि र गल्प) मालवा-प्रान्तिक सभाका अधिवेशन १३ सेठीजी और जनसमाज १. विविध प्रसंग १५ सहयोगियों के विचार १६ पुस्तक परिचय MAGARSADNE 002OPEN HOPDना ११७ V A R G For Personal & Private Use Only w .jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stostosteroidacodai S aptomsteoasleedia -बूढोंको रुलानेवाला, बच्चोंको हँसानेवाला और जवानोंको रोमांचित करनेवाला बूढका ब्याह। पाँच सुन्दर चित्रोंसे और नयनाभिराम मुखपृष्ठ से सुसज्जित । हिन्दीमें बिलकुल नये ढंगका काव्य छपकर तैयार है। तीन चार वर्ष पहले यह काव्य जैनहितैषीमें प्र. काशित हुआ था । अब बहुत घटा बढ़ाकर संशोधित परिवदित करके छपाया गया है। इसमें एक बालिकाके साथ एक साठ वर्षके बूढ़ेके ब्याहका चित्र खींचा गया है। जिसे पढ़कर आप हँसेंगे, घणा करेंगे और ऑसू बहावेंगे। एक बार हाथ में लेकर फिर छोडनेको जी नहीं चाहता। भाषा बहुत ही सरल है। हिन्दीके नामी चित्रकार श्रीयुत पं० गणेशरामजी मिश्रके बनाये हुए कई दर्शनीय चित्र लगाये गये। इ हैं। इस काममें खूब खर्च किया गया है। वृद्धविवा: हके रोकने में इस पुस्तकसे बहुत लाभ होगा। एक प्रति जरूर मँगाइए। मल्य छह आने । मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई ।। Felmrpronpronogpresrorappeaparagraagarmagaramparappssponenes Sectualsecskaniacterdestoftanslitastersteinivery SeroURJROOGoltech For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANNA a PATRO जैनहितैषी। श्रीमत्परमम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ ११ वाँ भाग कार्तिक, मार्गशीर्ष वीर नि० सं० २४४१ । २ अंक - - - Radi THousekeecsikaRNSTOURISeelia प्रार्थना। Foregangroverngregangangers धनी-निर्धनीके धनी, ऊँचनीचके मीत । लघुसे लघुतर कीटके, पालक पिता पुनीत ॥ . मनुज-जाति तक ही नहीं, मर्यादित तव दृष्टि । धर्मदेशना-वृष्टिसे, की सुखमय पशु-सृष्टि ॥ (३) किया न केवल आपने, जैनोंका उपकार। .. दयाधर्मसे आपके, उपकृत सब संसार ॥ ... For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 9759 (४) राज-विभवसुख छोड़कर, औरोंके हित-हेतु। .. सतत 'सत्य' घोषित किया, हे भवसागर-सेतु। किये पुनीत विहारसे, नव नव नाना देश। प्रभो, सुनाया सुखद अति, स्वार्थरहित संदेश ॥ इस कारण तव पद निकट, प्रार्थनीय नहिं और । चितमें नित चित्रित रहे, यह चरित्र सिरमौर ॥ . (७) जिसके पुण्य-प्रसादसे, यह जीवन-प्रासाद । परहित-रत उन्नत विमल, बने विगत-अवसाद ॥ नहीं चाहिए स्वार्थयुत, स्वर्गभोग भी हेय। पर-सेवाव्रत ही रहे, इस जीवनका ध्येय ॥ तव पुनीत जीवनचरित, महावीर भगवान् । सब जगका मंगल करे, बन आदर्श महान् ॥ =ere:వటenteresteelevisite teestutter ई उस बलकी दरकार । हूँ fianRHEORIEramgramrETENTARVEERTerands गीत। .. मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार। (टेक) अड़ी खड़ी हों अमित अड़चनें, आड़ी अटल अपार । तो भी कभी निराश निगोड़ी, फटक न पावे द्वार ॥ १ जिस चरित्रके । २ जीवनरूपी महल। ३ विषाद या नाशरहित । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस बलकी दरकार । मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार ॥ १ सारा ही संसार करे यदि, दुर्व्यवहार - प्रहार । हटे न तो भी सत्यमार्गगत, श्रद्धा किसी प्रकार || मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार ॥ २ धन-वैभवकी जिस आँधीसे, अस्थिर सब संसार । उससे भी न जरा डिग पावे, मन बन जाय पहार ॥ मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार ॥ ३ असफलताकी चोटोंसे नहिं, दिलमें पड़े दरार । अधिकाधिक उत्साहित होऊँ, मानूँ कभी न हार ॥ मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार ॥ ४ दुखदरिद्रताकृत अतिश्रम से, तन होवे बेकार । तो भी कभी निरुद्यम हो नहि, बैठूं जगदाधार ॥ मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार ॥ ५ जिसके आगे तनबल धनबल, तृणवत् तुच्छ असार । महावीर जिन ! वही मनोबल, महामहिम सुखकार ॥ मुझे है स्वामी, उसहीकी दरकार ॥ ६ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - प्राचीन मैसूरकी एक झलक । जिस जातिमें कमज़ोरी आजाती है और फिर भी वह सोया करती है, उसका अवश्य नाश होता है । यह नियम है कि संसारमें कमजोरोंको कोई जीवित नहीं रहने देता । केवल बलवानोंको ही जीनेका अधिकार है । संसारके इतिहास में ऐसी अनेक जातियोंके नाम मौजूद हैं, जिनका अब पता भी नहीं है । अतएव जो जाति अपने बलको कायम नहीं रख सकती उसका दुनियामें कहीं भी ठिकाना नहीं । इतिहास इस बातका साक्षी - है कि वे पतित जातियाँ जो पहले कभी श्रेष्ठ रह चुकी हैं पुनः उन्नत हो गई हैं; परन्तु उन्होंने अपनी उन्नति अपने ही उद्योग और बलसे की है । उन जातियोंने जब अपने प्राचीन गौरवको अपने इतिहास में देखा तब उनमें उत्साहका संचार हो गया । उत्साह संचारसे उद्योग प्रारंभ हुआ और उद्योगसे उन्नति हुई । जैनसमाजकी दशा आज बड़ी ही शोचनीय है । क्या इसमें भी उत्साह का संचार हो सकता है, जैसा अन्य जातियों में हुआ है? अवश्य हो सकता है । जिन कारणोंसे उनकी उन्नति हुई है उनका प्रयोग करने से उन ही जैसा परिणाम होगा । यदि जैनसमाजके सामने उसके प्राचीन गौरवका इतिहास रक्खा जायगा तो उसमें भी उत्साहके दर्शन होने लगेंगे; परंतु इतिहास आये कहाँसे ? ' यह एक बड़ा भारी - प्रश्न जैन विद्वानों * For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । के मामने उपस्थित है । बहुत से जैनग्रंथ और अन्य आवश्यक सामग्रियाँ नष्ट हो चुकी हैं । यदि अब भी जैनसमाज बची हुई सामग्रीकी रक्षा करना मीग्व जाय तो बहुत कुछ ऐतिहासिक साधन मिल सकते हैं । यदि जैन विद्वान् इसी बची खुची सामग्री-- ग्रंथ इत्यादि को लेकर परिश्रम करने लग जाय, तो जैन-इतिहासके बहुत में अंगोंकी पूर्ति हो जाय । देखना है कि जैनसमाज इस बातको कव समझता है ! परन्तु याद रहे कि इन वचेवचे साधनोंको भी समाज ग्वा बटा. तो इसका भयंकर परिणाम यह होगा कि जैनसमाजका भी मंमारके इतिहासमें केवल नामही नाम रह जायगा । मैकड़ों ग्रंथरत्न---जो हमारे प्राचीन गौरवके आधार थे-सदैवके लिए खो गये । कभी कभी हमारी सरकारकी कृपासे हमें अपने प्राचीन गौरवकी एकाध झलक दिखाई दे जाती है; उस समय हमको पता लगता है कि जैनसमाजकी स्थिति प्राचीन कालम अब जैसी नयी ! यदि मरकारकी हमारे ऊपर यह कृपा न होती. तो हमको इतना भी पता लगना कठिन था। ___ पाठको, आज आपको उस क्षेत्रके प्राचीन गौरवका कुछ दर्शन कराया जाता है जहाँ पर अब मैसूरराज्य विद्यमान है-जहाँ पर जैनवद्री और मूडबद्री नामक जैनियोंके अतिशय तीर्थ मौजूद हैं। इस मंत्रधम पहले बहुतसे अन्वेषण हो चुके हैं। यदि उन सबको लिखा जाय तो एक मोटी पुस्तक बन जाय । यहाँ पर हमारा अभिप्राय केवल कुछ नई बातें प्रकट करनेका है. जो हालमें ही मालूम हुई हैं । इनके साथ ही अन्य मनोज्ञ बातोंका भी उल्लेख किया जाय : यदि जैनसमाजमें कुछ भी उत्साहका संचार हुआ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनहितैषी तो हम अपने परिश्रमको सफल समझेंगे । हमारा उद्देश जैनसमाजका ध्यान जैनइतिहासकी ओर आकर्षित करनेका है। श्रवणबेलगुल-यहाँ गोमठस्वामीकी विशाल मूर्ति विन्ध्यगिरि पर्वत पर है, जो लगभग ६० फीट ऊँची है। मूर्तिकी बाई ओर पत्थरका एक बड़ा बरतन है, जिसमें मूर्तिके प्रक्षालके लिए जल रहता है। इस बरतनका नाम है ललितसरोवर, जो इसके सामनेवाले पर्वत पर खुदा हुआ है। जब ललितसरोवर भर जाता है तब जितना जल अधिक होता है वह एक नालीके द्वारा बह जाता है । मूर्तिके पास एक पैमाना ( स्केल ) ३ फीट, ४ इंचका खुदा हुआ है। इसके ठीक बीचमें पुष्पके आकारका चिह्न बना है, जिससे पैमानेके दो बराबर हिस्से हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इस पैमानेकी लम्बाईको १८ से गुण करनेसे मूर्तिकी ऊँचाई निकल आती है; परन्तु १८ से ही क्यों गुणा किया जाय, इसका कारण नहीं मालूम । कुछ लोग कहते हैं कि यह पैमाना एक धनुष्की लम्बाईका सूचक है; परन्तु धनुष् ३३ हाथका होता है, ३ फीट, ४ इंचका नहीं। इस पैमाने पर हालमें ही ध्यान दिया गया है। परन्तु इस बातका पता अब भी नहीं लग सका है कि इसका क्या अभिप्राय है। मूर्तिके सामने घटे पर एक नया लेख मिला है, जो प्राचीन नहीं है। मूर्तिके चारों ओर अनेक तीर्थंकरों, और बाहुबलिस्वामी इत्यादिकी कुल ४१ प्रतिमायें हैं । अब यह मालूम हो गया है कि प्रत्येक प्रतिमा किस किसकी है। इस पर्वत पर अनेक मंदिर हैं। इनमेंसे एकमें For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । चंद्रनाथकी प्रतिमा है । यह मंदिर ई० सन् १६७३ के लगभगका बना मालूम होता है। यहाँ पर एक बड़ा भारी पत्थर है, निस पर कई लेख मिले हैं । इसके उपरी अंश पर जैनगुरुओंकी प्रतिमायें हैं। कुछ प्रतिमाओंके नीचे उनके नाम भी लिखे हैं । इस मंदिरके दरवाजेकी दायीं ओर एक स्त्रीकी मूर्ति हाथ जोड़े खड़ी है। अभी तक लोग इसे गुल्लका यक्षी समझते थे; परन्तु इसके नीचे अब एक लेख मिला है जिससे मालूम होता है कि यह एक सेट्टीकी पुत्री है, जो वहीं मर गई थी। यहाँके पर्वत पर तीन लेख और मिले हैं। चंद्रगिरि पर्वत पर भी कई मंदिर हैं। इनमेंसे दो मंदिरोंके नाम 'शान्तीश्वर बस्ती' और 'सुपार्श्व बस्ती' हैं। इनके बीचमें एक इमारत है, जो अब रसोईघरका काम देती है । इस इमारतमें एक मूर्ति बाहुबलि ( गोमठ ) के भाई भरत. की है जो अधूरी बनाकर छोड़ दी गई है । मूर्तिसे कुछ दूर एक लेख है जिसमें लिखा है कि ' अरिठ्ठो नेमिगुरुने........बनवाया' । क्या बनवाया, यह मिट गया है । लोग यह कहते हैं कि अरिठ्ठो नेमि एक शिल्पकारका नाम है, जिसने गोमठ स्वामीकी विशाल मूर्ति बनाई थी; परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि शिलालेखसे मालूम होता है कि 'अरिठ्ठो: नेमि' तो बनवानेवालेका नाम है-यह नहीं मालूम कि उन्होंने क्या बनवाया । यहाँ पर और भी कई लेख मिले हैं । ब्रह्मदेव मंदिरके सामने उन यात्रियोंके नाम मिले हैं जो यहाँके मंदिरोंको देखनेके लिए किसी समय आये थे । 'कच्चिन दोडे' नामक तालके पास एक लेख मिला है, जिसमें लिखा है कि For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी तीन बड़े बड़े पत्थरके टुकड़े किसी कदम्बवंशीय राजाकी * आज्ञासे यहाँ पर लाये गये । इनमेंसे दो पत्थर तो अब भी पड़े हैं। परन्तु तीसरा बिलकुल खंडित हो गया है । एक और लेख मिला है जिसमें लिखा है कि उक्त ताल जिनदेवका ( के निमित्त ) है । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बातें ‘लकिदोडे' नामक तालके पास मालम हुई हैं। पर्वतके इस भागकी पहले कभी खोज नहीं हुई थी । यहाँ पर ३० नये शिलालेख मिले हैं जो नौवीं और दशवीं शताब्दियोंकी लिपिमें लिखे हुए हैं। इनमें अधिकतर उन यात्रियोंके नाम लिखे हैं जो यहाँ दर्शनके निमित्त आये थे। इनमेंसे कुछ यात्री जैनगुरु, कवि, पदाधिकारी और अन्य प्रतिष्ठित मनुष्य हैं । एक लेख 'कंड' नामक छंदमें दिया है और शेष सब गद्यमें हैं । इनमसे कुछमें यात्रियोंके नाम मात्र ही लिखे हैं । इस पर्वतकी रक्षाकी बड़ी जरूरत है, नहीं तो ये लेख धीरे धीरे मिट जायेंगे और संसारमेंसे एक महत्त्वपूर्ण चीज़ जाती रहेगी। ये लेख यात्रियोंके नामोंको तो बतलाते ही हैं; परन्तु इनसे इस ऐतिहासिक बातका पता लगता है कि नौवीं और दशवीं शताब्दिमें श्रवणबेलगुलका माहात्म्य कायम था और इसके दर्शनोंके लिए दूर दूरके लोग आते थे। कहा जाता है कि पार्श्वनाथ बस्तीके सामनेके मानस्तंभ और मंदिरके घेरेको उम ग्रामके दो निवासियोंने 'चिक्कदेवराज उडेयर' नामक राजाके समयमें —जिसने सन् १६७२ से १७०४ तक राज्य किया है * इस वंशके बहुतसे ( कदाचित् सब ) राजा जैन थे, इस बातका पता और लेखोंसे भी लगा है। क्या कोई महाशय इस वंशके राजाओंकी खोज जैनग्रंथोंसे करनेका कष्ट उठावेंगे जिससे इनका एक इतिहास तयार हो सके ? For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । wwwwwwwwwwww बनवाया था। श्रवणबेलगुलका सबसे बड़ा मंदिर भंडारी-बस्ती' है। यह बारहवीं शताब्दिके उत्तरार्द्धका बना हुआ मालूम होता है । इसके फर्शमें जो पत्थरके चौके लगे हैं वे बहुत बड़े हैं। अधिकांश १२ फीट लम्बे ६ फीट चौड़े और ९ इंच मोटे हैं। न मालूम ये यहाँ किस तरह लाये गये होंगे। एक मंदिरमें एक प्रतिमामें पंचपरमेष्ठीकी मूर्तियाँ बनी हैं। ___ यहाँ पर एक 'जैनमठ' भी है । मठकी दीवारों पर जिनदेवों और जैनराजाओंके जीवनोंके अनेक दृश्य चित्रोंद्वारा दिखाये गये हैं। एक चित्रमें 'कृष्णराजा उडेयर ( तृतीय)' सिंहासन पर बैठे हैं । एक चित्रमें पंच परमेष्ठि, श्रीनेमिनाथ, यक्ष, यक्षी, और मठके खामी हैं। एक चित्रमें श्रीपार्श्वनाथके समवसरणका दृश्य है । एक और चित्रमें महाराज भरतजीके जीवनके दृश्य हैं। मठकी कई मूर्तियों पर नवीन लेख मिले हैं। एक ताल और पर्वत पर भी कई लेख मिले हैं। इनमेंसे अधिकांश तामिल और ग्रंथलिपियोंमें हैं। इस मठके पुस्तकालयमें बहुतसे जैनग्रन्थ हैं । इसी ग्राममें पंडित दौर्बली शास्त्री रहते हैं। इनके निजी पुस्तकालयमें ताड़ और कागज़ पर लिखे हुए लगभग ५०० जैनग्रंथ हैं । पंडितजी अपने ग्रंथोंको बड़ी सावधानीसे सुरक्षित रखते हैं । वे उनको दिखानेको भी तैयार हैं। सरकारने इन ग्रंथोंकी एक सूची प्राप्त कर ली है। ताडपत्रों पर लिखे हुए. कुछ ग्रंथ एक गज़से अधिक लम्बे और ६ इंचसे अधिक चौड़े हैं। इनमें से बहुतसे अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जो मंठके पुस्तकालयमें भी नहीं है। यहीं पर एक और महाशयके For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - पुस्तकालयमें ३० जैनग्रंथ कन्नड़ भाषाके हैं । एक ग्रंथ हाल ही मिला है जिसका नाम 'जिनेन्द्र - कल्याणाभ्युदय ' है । यह संस्कृतमें है और इसके लेखक अय्यप्पाख हैं । इसमें जिनपूजाकी विधि लिखी है । यह ग्रन्थ सन् १३१९ का लिखा हुआ है । लेखकने वीराचार्य, पूज्यपाद, जिनसेन, गुणभद्र, वसुनंदि, इंद्रनंदि, आशाधर, हस्तिमल और एकसंधिका उल्लेख किया है । सन् १९७८ का लिखा हुआ एक ग्रंथ ' चंद्रप्रभ-शतपदि ' कन्नड़ भाषाका मिला है । १० श्रवणबेलगुलसे एक मील उत्तरको जिननाथपुर नामक ग्राम है । यहां 'शान्तिनाथ बस्ती' नामक मंदिर है । इसमें जिनदेवों, यक्षों, यक्षियों, ब्रह्म, सरस्वती, मनमथ, मोहिनी, ढोल बजानेवालों, बाजा बजानेवालों और नर्तकों इत्यादिकी मूर्तियाँ हैं । I आसपासके ग्रामोंमें दो हिन्दुओंके मंदिर हैं जिनके स्तंभ और अन्य अंश किसी समय जैनमंदिरोंके भाग रहे होंगे; परन्तु अब वे इन मंदिरों में लगे हैं। इन अंशों पर जो लेख मिले हैं; उनसे यह बात मालूम हुई है । अंकनाथपुर नामका एक उजाड़ ग्राम है । यहाँका भी हिंदुओंका मंदिर जैनमंदिरोंके अंशोंसे बना है । इसका नाम अंकनाथेश्वर है । इस हिन्दू मंदिर के दरवाजेके बगलके पत्थर पर एक जैन लेख मिला है और मंदिरके स्तंभ पर छोटी छोटी जैनप्रतिमायें बनी हुई हैं । लेख कोनगाव राजाके समयका है । मंदिरकी सीढ़ियों पर भी दो जैनलेख मिले हैं। एक जैनलेख मंदिरकी छतमें लगे हुए एक पत्थर पर मिला है । यह दशवीं शताब्दिका है । छतकी दो पटरियों पर चार जैनलेख और मिले हैं; ये भी 1 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । दशवीं शताव्दिके हैं। इसमें अब कोई संदेह नहीं है कि यह हिन्दूमंदिर एक या अधिक जैनमंदिरोंके पत्थरोंसे बनाया गया है । कालकी गति बड़ी विचित्र है । शालिग्राम ——यह एक प्राचीन ग्राम है। सुना जाता है यहाँ पर रामानुजाचार्य आये थे और एक मंदिरमें उनकी मूर्ति भी यहाँ स्थापित है । यहीं पर दो जैनमंदिर भी हैं । एक तो नवीन है जिसको बने हुए केवल ४० वर्ष हुए हैं और दूसरा प्राचीन है, जो एक किले के भीतर बना है । इसमें अनन्तनाथजीकी प्रतिमा पर एक लेख है. जो कुछ कुछ मिट गया है । इसमें एक चतुर्विंशतितीर्थंकर प्रतिमा है. जिसमें बीचकी प्रतिमा खड्डासनस्थ है। बहुत - अच्छी बनी हैं। इस प्रतिमाके पीछे एक प्राचीन लेख है । इस बस्ती अर्थात् मंदिरमें जो जैनप्रतिमाओंका समूह है वह ऐसा शोभायमान है कि देखते ही बनता है । अन्य प्रतिमाओंके सिंहासनों पर भी कई लेख मिले हैं। घंटों पर भी लेख मिले हैं। इस ग्रामसे पूर्वकी ओर कुछ दूरी पर एक चट्टान है; इसे गुरुगलरे ( गुरुकी चट्टान ) कहते हैं । इस चट्टान पर दो चरणपादुकायें बनी हैं। श्रीवैष्णव कहते हैं कि ये रामानुज आचार्यके चरण हैं और जैनी इनको अपने गुरुके चरण बताते हैं । जैनी इनकी पूजा विशेष कर विवाह इत्यादिके अवसरों पर करते हैं । इसके उत्तरकी ओर एक लेख मिला है, जिसमे अब मालूम हो गया है कि ये चरणपादुकायें जैनगुरु श्रेयोभद्रकी हैं । यहाँके कुछ जैनियोंको अब तक यह विश्वास था कि ये चरण रामानुजाचार्यके हैं और कुछ वर्ष हुए ११ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषीmmmmmmmmmmmmmm स्वयं जैनियोंमें ही इस बात पर झगड़ा उठ चुका है कि ये पादुकायें रामानुजाचार्य की हैं या जैन गुरुकी। एक चट्टान पर तीन सो के चित्र भी बने हैं। ___ चिक्क हनसोगे—-इस ग्राममें एक केशवका मंदिर है। एक मंदिर और है, जिसको ‘आदिनाथ-बस्ती ' कहते हैं। मंदिर दुर्दशामें है; परन्तु आदिनाथ, शान्तिनाथ, चंद्रनाथकी मूर्तियाँ अच्छी दशामें हैं। इस मंदिरके दरवाजे पर कुछ नये लेख मिले हैं। ये कन्नड लिपिमें हैं। इन लेखोंसे और पहले मिले हुए लेखोंसे अब यह सिद्ध हो गया है कि यह स्थान किसी समय जैनियोंका अतिशय क्षेत्र था। इसमें एक समय ६४ बस्तियाँ अर्थात् मंदिर थे; परन्तु अब इस ग्राममें तथा इसके आसपासके ग्रामोंमें एक भी जैनी नहीं रहता । उपर्युक्त आदिनाथका मंदिर टूटा हुआ पड़ा है, जिसकी कोई खबर लेनेवाला नहीं । कुछ वर्ष हुए यहाँकी एक नदीमेंसे कई गाड़ियाँ भरकर धातुकी जैनप्रतिमायें और बरतन निकाले गये थे। ११ वी शताब्दिमें इसके जैनमंदिर विद्यमान थे। कित्तुर–यहाँ पर एक पार्श्वनाथ बस्ती है. जिसकी दशा शोचनीय है । इस मंदिरमें अब एक लेख मिला है जिससे मालूम हुआ है कि यह मंदिर बड़ा प्राचीन है। मंदिरके बरतनों पर भी कुछ लेख पाये गये हैं। .. इन अन्वेषणोंसे जो नई ऐतिहासिक बातें मालूम हुई हैं उनका कुछ सार यहाँ पर लिखा जाता है । अंकनाथपुरके लेखोंसे यह मालूम हुआ है कि यह स्थान किसी समय जैनियोंका अच्छा क्षेत्र था। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । कुछ जैनलेखोंसे गंगवंशीय राजाओंके समयका पता लगता है। चंद्रनाथ वस्तीके एक लेखसे मालूम हुआ है कि उसकी प्रतिमा बालचंद्र-सिद्धांत-भट्टारके शिष्य के....लभद्र-गोरवने विराजमान कराई थी। यह कदाचित् सन् ९५० की बात है । एक जैनलेखसे पता लगा है कि देवियब्बे कांति नामक स्त्री पाँच दिन तपस्या करके स्वर्गको चली गई । एक लेग्वमें चमकब्बे नामक स्त्रीकी मृत्य लिखी है । वह उदिग-मेट्टी और डेवरदामय्यकी माता थी । वह कुंदकुंदाचार्यकी अनुयायिनी थी। एक और लेखमें महेन्द्रकीर्ति नामक जैनमुनिका अष्टकर्म क्षय करके स्वर्गवास (?) लिखा है। इन लेखोंका समय इशवीं शताब्दि मालूम होता है । श्रवणवेलगुलके यात्रियोंके लेख मनोरजनमे खाली नहीं हैं । जैसा पहले लिखा जा चुका है ये लेख नौवीं और दशवीं शताब्दियों में श्रवणबेलगुलकी प्रतिष्ठाको प्रगट करते हैं। इनमें से कुछ लेख आठवीं शताब्दिके हैं। कुछ लेखोंमें तो केवल यात्रियों के नाम ही दिये हैं और कुछमें उनका परिचय भी दिया है। पहले प्रकारके लेखोंके उदाहरण लीजिए । गंगरवंठ ( गंगवंशीय योद्धा ). बदवरनंठ ( निर्धनोंका मित्र ), श्रीनागती आलदम ( नागतीका शासक ), श्रीराजन चट्ट (राजाका व्यापारी)। दूसरे प्रकारके लेखोंके उदाहरण श्रीएचय्य, शत्रुओंके लिये कठोर; श्रीईशरय्य. दूसरोंकी स्त्रियाका ज्येष्ठः श्रीमदरिष्टनेमि पंडित, प्रतिद्वंदी मतोंका नाशक; श्री नागवर्म.........सूर्य । और भी बहुतसे नाम दिये हैं. जिनमें विशेष रविचन्द्रदेव. श्रीकविरत्न, श्रीनागवर्म, श्रीवत्सराज बालादित्य, श्रीपुलिक्कय्य, श्रीचामुण्डय्य, मारसिंगय्य, For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनहितैषी इत्यादि हैं । इनमें कविरत्न और नागवर्म ये दोनों कन्नड़ भाषाके प्रसिद्ध कवि मालूम होते हैं जो दशवीं शताब्दिमें विद्यमान थे । मारसिंगय्य एक गंगवंशीय राजाका नाम है। चामुण्डय्यया चामुंडराय उस सेनापतिका नाम मालूम होता है जिसने गोमठ स्वामीकी विशाल मूर्ति बनवाई है। एक लेखमें मूर्तियोंके बनानेवाले शिल्पकारोंके नाम चंद्रादित्य और नागवर्म लिखे हैं। एक लेखमें सर्पचूळामणि नामक जैनका नाम लिखा है। यह नहीं मालूम कि ये कौन थे। कई लेखोंमें इस बातका उलेख है कि अमुक अमुक मनुष्योंने आकर उस जगहके दर्शन किये अथवा तपस्या की। ___ कदम्बवंशके एक राजाका जिसने पत्थरके तीन टुकड़े मँगवाये थे, उल्लेख हो चुका है। श्रवणबेलगुलके एक और लेखमें लिखा है कि बासबेके पुत्र राचय्य, जो कदम्बबंशके थे, संसारको त्याग कर यहाँ आये और तीन दिन तक तपस्या करके देवगतिमें पहुँचे । इस लेखके लिखनेवालेका नाम · बलदेव ' दिया है। यह लेख कदाचित् सन् ९५० में लिखा गया होगा। ___ अनंतकेश्वर नामक मंदिरके एक लेखसे पता चला है कि दुदमल्लरस नामक राजाने, जो हैंगडंगमें रहते थे, प्रभाचंद्र देवको ऐबवल्लि नामक ग्राम एक जिनमंदिर बनानेके लिए दिया । इस राजाका और भी लेखोंमें नाम आया है; ये सन् १०८५ के लगभग विद्यमान थे । कदाचित् ये राजा कोनगाल्व वंशके थे। होलेनरसिपुरके रामानुजाचार्यके मंदिरमें एक जैनलेख मिला For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मैसूरकी एक झलक । है, जिससे वीर कोनगाल्वदेव नामक राजाका पता चलता है। इसमें लिखा है कि कुंदकुंद-परंपरा, पुस्तक गच्छ, देशीय गण और मूलसंघके मेघचन्द्र-त्रैविद्य-देवके शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवके श्रावक महामंडलेश्वर वीरकोनगाल्व-देवने सत्यवाक्य-जिनालयको बनवाया और उसके निमित्त प्रभाचन्द्र-सिद्धांत-देवको ‘ हैंनेगडलू ' नामक ग्राम दान दिया और उस ग्रामको करसे भी मुक्त कर दिया । इस लेखके मेघचन्द्र और प्रभाचन्द्र ' श्रवणबेलगोला इन्सक्रिपशन' न० ४७ में भी आये हैं । यह दान सन् १११५ ई० के लगभग दिया गया मालूम होता है। ___ शालिग्रामकी अनन्तनाथ बस्तीकी जो चतुर्विंशति प्रतिमा है, उसके पीछे एक लेख है । उसमें लिखा है कि मूल संघ और बलात्कार गणके महानंद सिद्धांतचक्रवर्तिके श्रावक सम्बु-देव. की स्त्री बोममव्वेने इस प्रतिमाका दान ( जैनियोंके ) 'आणति नोम्मि' नामक व्रतके समाप्त करने पर किया था। ___ इनके अतिरिक्त कई और जैनप्रतिमाओं पर लेख मिले हैं, जिनसे बहुतसे जैनमुनि, भट्टारक संघ, शाखा, गण, कुल इत्यादिका पता चलता है । इनसे कई राज-वंशोंका भी निर्णय हो सकता है । यदि अब तक संग्रहीत संपूर्ण जैनलेखोंको इकट्ठा करके देखा जाय तो हमारे यहाँकी बहुत पट्टावलियाँ दुरुस्त हो जायँ और अनेक जैनराजाओंका पता लग जाय । भिन्न भिन्न कालोंमें जैनसमाजकी स्थिति कैसी रही है, इस बातका भी पता लग जाय । उदाहरणार्थ, अनेक जैनशिलालेखोंसे अब यह निश्चय For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी हो चुका है कि जैनधर्मका महावीर स्वामीके बाद नौवीं, दशवीं और ग्यारहवीं शताब्दियोंमें सबसे अधिक जोर रहा । जिनसेन इत्यादि बड़े नामी नामी लेखक, जैनमुनि और अमोघवर्ष इत्यादि राजा इसी कालमें हुए हैं । मथुराके जैनलेखोंसे पता चलता है कि स्त्रीसमाजकी रुचि धर्मकी ओर अधिक थी। परिश्रम करनेसे ऐसी ही अनेक बातोंका पता लग सकता है और लगा है। -संशोधक । तपका रहस्य। (जैनहितेच्छुके एक लेखके एक अंशका अनुवाद ।) यह सब जानते हैं कि — दान ' और 'शील' के पालनेवाले मनुष्यके स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर निर्मल रहते हैं। तथापि दो कारण ऐसे हैं है। जिनसे इन दोनों ही शरीरोंमें मलोंके या अनिष्ट तत्त्वोंके प्रवेश होनेकी संभावना बनी रहती है। एक तो मनुष्य मात्रसे भूल होती है, प्रमाद होता है और दूसरे भूल या प्रमादसे, जानकर या बिना जाने, शारीरिक या मानसिक अतिक्रमण या व्यतिक्रमण या अनाचार हो जानेका संभव रहता है। इस प्रकार ज्ञात या अज्ञात अवस्थामें जो शारीरिक या मानसिक दोष लग जाते हैं यदि उनके भस्म करनेका उपाय तत्काल न किया जाय तो वे धीरे धीरे बढ़ते जाते हैं और भयंकर रूप धारण करके बहुत बड़ी हानि पहुंचाते हैं । जैसे, शीलसम्बन्धी बारह व्रतोंमें जो For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ सातवाँ व्रत है उसमें आज्ञा दी गई है कि मनुष्यको नियमित और मिताहारी होना चाहिए। इससे उसके स्थूल सूक्ष्म शरीरोंकी निर्मलता बढ़ती है। यदि वह कभी स्वादके वशीभूत होकर भोजन कर ले और चित्ताकर्षक दृश्योंके देखनेके लिए बहुत रात तक जागता रहे और इस तरहकी भूल बार बार करता रहे तो बीमार पड़ जायगा । परन्तु यदि इस अपराधका दण्ड या इस भूलका प्रायश्चित्त शीघ्र कर लिया जायगा, तो अनिष्ट परिणाम न होगा । पेटपर पड़े हुए बोझेको कम करनेके लिए लंघन या उपवास कर लिया जाय अथवा विश्राम लिया जाय तो इतनेहीसे बुरा असर दब जायगा । इस तरह जो दोष ज्ञात अवस्थामें बन गये हैं उनका असर अधिक न बढ़ने पावे, इसके लिए प्राकृतिक ओषधि अथवा तपकी आवश्यकता है । इसी तरह सांसारिक काम धंधोंमें पडे रहनेसे आत्मभान नहीं रहता है और विभावरमणता हो जाती है। असत्य बोला जाता है, अयोग्य काम बन जाते हैं और मानसिक शान्ति खो दी जाती है। परन्तु यदि उसके बाद एकान्तमें बैठकर स्वाध्याय अर्थात् ज्ञानदायक पुस्तकोंका वाचन मनन किया जाय, ध्यान पश्चात्ताप और जनसेवाकार्य किये जावें तो खोई हुई मानसिक शान्ति फिर प्राप्त हो जाती है और लगे हुए दोष न्यूनाधिक रूपसे दूर हो जाते हैं । इसके सिवाय पूर्वजन्मकृत कर्मोंको भस्म करने के लिए भी तपकी आवश्यकता रहती है । इस तरह पूर्वके तथा वर्तमानके दोषोंको निवारण करनेके लिए - शारीरिक और मानसिक अतिक्रमणके अनिष्ट प्रभाव नष्ट या न्यून करनेके लिए तपकी बड़ी भारी आवश्यकता है । तपका रहस्य | For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी यह तप शरीरके तथा मनके भीतरके मलको जला डालनेके लिए शक्तिशालिनी आँच या अग्नि है और इसी लिए जगद्गुरु तीर्थकरोंने इसके दो भाग किये हैं-एक बाह्य तप और दूसरा अन्तरंग तप । ___ आजकल लोगोंमें बाह्यतपके सम्बन्धमें जितनी अज्ञानता या बेसमझी फैली हुई है उतनी शायद ही किसी अन्य विषयके सम्बन्धमें फैली होगी। जो शरीरशास्त्र और वैद्यकशास्त्रसे सर्वथा अपरिचित हैं, अँगरेजीका भाषाज्ञान मात्र प्राप्त कर लेनेसे जो आपको विद्वान् समझने लगते हैं, वे तो इस बाह्यतपको केवल बहम, पागलपन, Humbag या शारीरिक अपराध समझते हैं और जो धर्मके रहस्योंसे अनभिज्ञ साधु नामधारियोंके गतानुगतिक पूजक हैं वे केवल लंघनको ही आत्मकल्याणका मार्ग समझ बैठे हैं और शारीरिक तथा मानसिक स्थितिका जरा भी खयाल किये बिना शक्तिसे बाहर तपस्या करके निर्बल बनजानेको ही सब कुछ मान लेनेकी मूर्खता करते हैं। • अज्ञानतासे होनेवाली इन दो प्रकारकी भूलोंसे, चतुर पुरुषोंको अलग रहना चाहिए । बाह्यतपका प्रारम्भ उपवाससे नहीं किन्तु स्वादत्याग, ऊनोदर ( भूखसे कम खाना ) एकासन, व्यसनत्याग आदिसे करना चाहिए । जिसे अधिक मसाला खानेकी आदत पड़ रही हो, उसको कुछ दिन तक स्वाद परित्यागरूप तप करना चाहिए; जिससे जिह्वाको वशमें रखनेकी आदत पड़े, अधिक मसालेके खानेसे जो हानि होती है उससे बचा रहै और थोडासा कारण For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य। पाकर उत्तेजित होजानेवाला मन कुछ संयमी बने । बारबार खानेकी आदतवालेको, खूब डटकर खानेवालेको, अपचकी और अस्थिर मनकी शिकायतें करनेवालेको ऊनोदर तप करना चाहिए, अर्थात् कुछ दिनोंके लिए भूखसे भी कम खानेका नियम ले लेना चाहिए, कुछ समय तक दिनमें केवल एक ही बार खाना चाहिए और बीड़ी, सुपारी, तम्बाकू आदि व्यसनोंसे भी नियमित समय तक पृथक् रहना चाहिए । ये सब बातें तपकी प्रारम्भिक अवस्थाकी हैं। इस भाँति शरीरकी असत् ( अस्वाभाविक ) क्षुधा, अथवा लालसाओंको अंकुशमें रखनेकी आदत पड़ जाती है और तब उपवासकी दूसरी सीढ़ी पर चढ़ना सुगम होता है। . पाश्चात्य विद्वानोंने, शरीरशास्त्रके ज्ञाताओंने, और अनुभवी पुरुषोंने उपवासके विषयमें बड़ी गहरी खोनें की हैं और भाँति भाँतिके प्रयोगों द्वारा कई सत्य सिद्धान्त स्थिर किये हैं । अतः हम भी इस विषयमें यहाँ प्राचीन ग्रन्थोंका हवाला न देकर, वर्तमान वैद्य-विद्या, और सायन्सके सिद्धान्तोंका उल्लेख करेंगे । बरनार मैक फेडन ( Bernarr Macfadden ) नामी अमेरिकन शोधक लिखता है:___“ शरीरमें लगातार उत्पन्न होनेवाले विषोंको-जो बहुत समय तक रहनेसे नानाप्रकारके रोगोंका रूप धारण कर प्रगट होते हैंनिकाल बाहिर करनेके लिए जितने उत्तम और रामबाण उपाय हैं उनमें सबसे अच्छा उपाय उपवास है। । . इसमें कुछ सन्देह नहीं कि प्रकृति रोगोंका इलाज करनेके For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी लिए जो जो उपाय करती है उन सबमें 'उपवास' सर्वोत्कृष्ट और आवश्यकीय है । यदि हम कोई ऐसा पदार्थ ढूँढें जो कि सर्व रोगोंको हटा सके तो वह सिवाय उपवासके और कोई नहीं हो सकता क्योंकि यह सर्व उपायोंसे आगे खड़ा रहता है । रोगोंका मुख्य कारण शरीरमें उत्पन्न होनेवाले नाना भाँतिके विषोंका समूह है और उन विषोंको निकाल बाहर करनेके हेतु अन्य सारे स्वाभाविक उपायोंमेंसे, प्रथम और आवश्यकीय उपाय ‘उपवास' है। " उपवास करनेमें सबसे बड़ी कठिनता यह है कि मनको समाधान नहीं होता। वह नहीं समझता कि उपवास करना शरीरके लिए अच्छा है । अतः तुमको विश्वास रखना चाहिए कि मनुष्य उपवास करनेसे अथवा भूख रहनेसे न तो अशक्त होकर बुरी स्थितिको प्राप्त होते हैं और न क्षण मात्रमें भूमि पर गिरकर मर ही जाते हैं । इसकी लेश मात्र भी शंका न रक्खो । बहुत लोग समझते हैं, कि भूखे रहनेसे मनुष्य मर जाते हैं और उनका यह विश्वास ही उन्हें मार डालता है। उपवास और ऊपर कहे हुए विषके रहस्यसे अभिज्ञ पुरुष यदि पाँच या सात दिन तक उपवास करे, तो सचमुच ही उसका मर जाना सम्भव है । क्योंकि उसके मनमें यह विश्वास जमा रहता है कि इतने दिनतक उपवास करनेसे आदमी अवश्य मर जाता है। इससे यह विदित होता है कि मनका शरीर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । इस समय मैं यह जोर देकर कहूँगा कि जिस प्रकारसे उक्त बुरा कार्य मनमे हो जाता है उस ही भाँति दूसरी तरहका उत्तम कार्य भी मनसे किया जा सकता है। यदि For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ तुम मनकी शक्तिको विश्वासपूर्वक मानोगे तो चाहे कैसा ही रोग क्यों न हो तुम उससे मुक्त हो सकोगे और मनको स्वस्थ करनेके लिए दृढ़ संकल्प करना ही चित्तकी दूसरी शक्ति है | गरज यह कि यदि तुमको उपवाससे नीरोग बनना है तो प्रथम ही उपवास सम्बन्धी भय या चिन्ताको मनसे अलग कर दो। तपका रहस्य । I | “ उपवाससे शरीर के भीतरकी सारी गलीज अथवा विषैली चीजें निकल जाती हैं । इसका एक आश्चर्यजनक किन्तु जाना हुआ प्रमाण यह है कि उपवास के समय जिह्वाके ऊपर थरसी जमी हुई मालूम होती है और मुँहमे दुर्गंध निकलने लगती है । जिह्वा खराब हो जाती है, स्वाद बिगड़ जाता है और बदबू निकलने लगती है । ये सात प्रगट करती हैं कि उपवासकी बहुत आवश्यकता थी । पाचनक्रिया करनेवाले सारे अवयव जो अब तक उदरमें गये हुए भोजनको पचानेहीमें ध्यान देते थे और पुष्टिकारक तत्त्वोंको शरीरके प्रत्येक भाग वितीर्ण करनेका काम करते थे, वे उपवास के समय अपनी कार्यप्रणालीको तब्दील कर देते हैं। यही बात दूसरे शब्दोंम इस तरह कही जा सकती है कि वे भोजनको पचानेके बदले जहरको बाहिर निकालने का काम करने लगते हैं । उनका यह कार्य ही शरीरको नीरोग करनेका उपाय है और उपवासमे बीमारियाँ दूर होनेका कारण भी यही है । " साधरणतया नीरोग मनुष्यके मुखसे दुर्गन्ध नहीं निकलती; किन्तु यदि किसीके मुँह से दुर्गन्ध आने लगे तो समझना चाहिए कि इसके शरीरमें कुछ रोग है | रोग के सारे ऊपरी कारणोंके विदित 1 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी rom हो जाने पर भी, यदि तुम उस पर कुछ ध्यान न देकर, लापरवाही करोगे तो याद रक्खो कि वह कभी न कभी एक बड़े भारी भयङ्कर रूपमें प्रगट होगा जिससे या तो तुम मरणासन्न हो जावोगे या ऐसा कोई निरन्तर रहनेवाला ( Chronic ) रोग हो जायगा कि जिससे मुक्त होना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव हो जायगा । इसमें भी ख़ास कर यदि आधुनिक प्रचलित एलोपेथी ( Allopathy ) नामक वैद्यविद्याके अनुसार इलाज कराया करोगे, तो उन इलाजोंके साथ जो थोड़ी बहुत खुराक देनेकी रीति है उससे अवश्य मरणको प्राप्त हो जाओगे।" ___ डाक्टर मैक फेडन आगे चलकर कहते हैं कि “ बीमारीके समय उदरको भोजन देकर कष्ट पहुँचाना एक प्रकारका अपराध है। इस बातको मिथ्या प्रमाणित करनेके लिए यदि कोई वैद्य ( Doctor ) अथवा वैज्ञानिक (Scientist) तत्पर हो तो उसको मैं चैलेंज ( Challenge) देता हूँ। जब तुम किसी कठिन रोगसे पीड़ित हो रहे हो, जैसे कि फेंफड़ेकी सूजन, ज्वर आदि-तब भली भाँति समझ लो कि तुम्हारी नाड़ी अभीतक तुम्हारे हाथहीमें है। ये सब तकलीफें भाँति भाँतिके चिह्न हैं। इनका अभ्यास करो, इनकी सूचनाओंको सीखो, और ज्यों ही ये चिह्न प्रगट हो, त्यों ही उपवास करना प्रारभ्म कर दो। इस एक ही . उपायसे तुम अपने पर आक्रमण करनेवाले अनेक कठिन रोगोंको रोक सकोगे, और इसके साथ ही साथ यदि अन्य सावधानियाँ भी रक्खोगे, तो ध्यान रक्खो कि रोगी होना तुम्हारे लिए असम्भवसा हो जावेगा। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । ___ " मुझे याद है कि मेरे जीवनमें मुझ पर न्यूमोनियाके कई आक्रमण हुए हैं। उसके चिह्नोंसे ज्यों ही मुझे उसका आना मालूम होता था त्यों ही मैं आठ या दस दिनोंतक विस्तरों पर पड़कर कष्ट उठानेके बदले यह सच्चा उपाय अर्थात् — उपवास' करना प्रारभ्म कर देता था और अधिकसे अधिक पाँच दिनमें ही उसे बिदा कर देता था । इसही भाँति प्रत्येक कठिन रोगका इलाज हो सकता है। __" जब तुम्हें थकावट मालूम हो, सुस्ती आने लगे, अवयव निकम्मेसे जान पड़ने लगें, अथवा तुम्हारा मूत्राशय ( Kidneys ) अपना नियमित कार्य करना बन्द कर दे, और जब तुम्हारे शरीरके किसी भी भागसे विकट वरम ( सूजन ) अथवा गरमीका ज़ोर बाहर आता हुआ जान पड़े, तो उसी समय तुम्हारा फर्ज है कि तुम इन विकारोंको दवा देनेका प्रयत्न करो । इसके पहले ही कि रोग तुमको अपने जालमें फँसा लेवे तुमको चाहिए कि ऊपर कहे हुए अथवा अन्य किसी इलाजके द्वारा उसका नाश कर दो। यदि तुम यह सूचना ध्यानमें रख लोगे, तो डाक्टरोंको सैकड़ों रुपयोंका बिल न चुकाना पड़ेगा। इतना ही नहीं बल्कि कितनी ही वेदनाओंसे और कठिनाइयोंसे भी बच जाओगे और सम्भव है कि तुम्हारे जीवनके वर्षों में भी किसी कदर वृद्धि हो जाय । यदि तुम उपवासके सिद्धान्तोंका ज्ञान प्राप्त करोगे तो यह ज्ञान हजारों लाखों रुपयोंकी कीमतके जवाहरातसे भी विशेष कीमती हो जायगा । क्योंकि संसारमें पहला सुख कायाका नीरोग रहना है। " अवयवोंके कार्योंमें खलल होनेका-बाधा पडनेका नाम 'रोग' For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनहितैषी या 'दर्द' है। कई प्रसंगोंमें तुम यों भी कह सकते हो कि रोग यह निर्बल जीवन शक्ति है, जीवनशक्ति ( जो शरीरमें है ) का घटना है, अथवा शरीरके काम करनेवाले कल पुरजोंमें कुछ खराबीका हो जाना है। यह मत समझो कि तुम पर किसी जातिके कीड़ोंने हमला किया है जिससे तुम्हें रोग होगया है अथवा कोई विचित्र जातिके सूक्ष्म जंतु तुम्हारी श्वासके साथ भीतर चले गये हैं। रोग प्रकट हुआ है, इसका कारण यह है कि तुम उसके लिए तैयार हुए हो, अथवा तुमने स्वयं वैसी हालत तैयार की है। बहुतसे उदाहरणोंमें रोगका कारण यह होता है कि तुमने प्राकृतिक नियमोंका भंग किया है । अर्थात् तुम प्रकृतिके नियमोंसे प्रतिकूल चले हो और उसके दण्डके रूपमें तुम रोगके पात्र हुए हो। तो भी स्मरण रक्खो कि रोग एक मित्रकी भाँति ही आता है, शत्रुकी भाँति नहीं। इस बातको तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि न यह रातको चुपचाप घरमें घुस आनेवाले चोरकी भाँति छुपकर आता है और न तुमको हैरान करनेके लिए आता है। यह तुम्हें लाभ पहुँचाने आता है; और बहुतसे उदाहरणोंसे प्रतीत होता है कि यह तुम्हारे स्थूल शरीरको साफ़ कर जाता है। __“ यद्यपि रोग ( दर्द ) एक ही है, किन्तु वह सैकड़ों मार्गोंसे आता है और उसके सहस्रों चिह्न दिखाई देते हैं। वैद्यलोग उन चिह्नोंको भिन्न भिन्न रोगोंके नामोंसे पहचानते हैं। मगर वे हैं सब एक ही रोगके परिणाम । अभ्याससे, व्यवहारोपयोगी रीतिसे, अथवा कुदरती उपायोंकी रातिसे, जो मनुष्य आरोग्यता For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । प्राप्त करना जानते हैं वे समझते हैं कि रोग एक ही है और वह बाहरी वस्तुओंके अथवा खराब चीजोंके शरीरके रक्तमें मिल जानेसे होता है। ____ जब देखो कि शरीरमें कोई पीडा या रोग है, तब समझ लो कि जो अवयव रक्त बनानेका कार्य करते हैं और जिनमें वास्तविक जीवनशक्ति रहती है वे अपना कर्तव्य पूर्ण नहीं कर रहे हैं । अतः रक्तमें जो मल एकत्रित हो गया है, उसको बाहर निकालना चाहिए। किन्तु जब यह कार्य करनेवाले अवयव अशक्त हो जाते हैं तब विषमय पदार्थोंको रक्तमेंसे भिन्न नहीं कर सकते । उस समय कठिनाई आ पड़ती है, बखेड़ा खड़ा हो जाता है और शरीरके आवश्यकीय अवयवोंके कार्यमें बाधा आ पड़ती है। जब ये अवयव शरीरमें से इन विषोंको बाहर निकालनेमें अशक्त हो जाते हैं तब तुम्हारे जीवनको बचानेके लिए रोग दिखलाई देता है और वह मानों यह सूचित करता है कि भोजनको पचानेवाले अवयवोंका जो सदाका काम है उसे बन्द कर दो और उन्हें जहरको बाहर निकालनेके काममें लगा दो। इस तरह 'रोग' भी एक सहायक मित्र है। _ " आजकल ४० से ५० दिनोंतकका उपवास करना तो ( अमेरिकामें ) साधारण बात हो गई है। जिन लोगोंने इतने उपवास किये हैं, उनसे मैं मिला हूँ। मैंने सुना है कि एक अमेरिकनने ७० दिनका उपवास किया था ! इसे लोग बहुत आश्चर्यजनक समझेंगे; परन्तु वास्तवमें उपवास ही अशक्ति और अधिक For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनहितैषी - खानेसे उत्पन्न हुए रोगोंको मिटानेका इलाज है । एक पूर्ण उपवास करनेके बाद शरीर अपने आप ही अपने वास्तविक वजनकी प्राप्ति कर लेता है । " मि. सिंकलरका स्वानुभव | अमेरिकाके प्रसिद्ध डाक्टर मि. सिंकलर लिखते हैं कि- “ मेरा प्राकृतिक सुदृढ़ शरीर अनियमित आहारसे निर्बल हो गया था। मैं न कभी मदिरापान करता था, न सिगरेट पीता था और न कभी चाय या काफ़ी ही पीता था । मैं एक कट्टर वैजीटेरियन ( शाकफल–अन्नभोजी ) था । किन्तु बहुत खानेसे और समय पर न खानेसे मुझे अजीर्ण (Dyspepsia ) का रोग हो गया और तब मेरे शरीरमें नाना भाँतिके रोग उत्पन्न होने लगे । अन्तमें ऐसी खराब हालत हुई कि मेरे लिए दुग्ध पचना भी कठिन हो गया । तब मैंने उपवासके द्वारा अपने रोगोंकी चिकित्सा करना प्रारम्भ किया । पहले चार दिनोंमें मेरी जो हालत रही उसको मैं यहाँ संक्षेपमें बतलाता हूँ । 1 " पहले दिन मुझे बहुत ही क्षुधा लगी, वह अप्राकृतिक अग्निके समान थी । इसे प्रत्येक अजीर्णसे पीडित मनुष्य पहचानता है। दूसरे दिन प्रातःकाल मुझे थोड़ीसी क्षुधा लगी और उसके बाद आश्चर्योत्पादक बात यह हुई कि मुझे क्षुधा ही न लगी । अन्नसे मुझे ऐसी नफरत हो गई कि जैसे कभी न खाई हुई वस्तुसे हो जाती है 1 “उपवासके पहले दो तीन सप्ताहसे मेरे सिरंमें पीड़ा रहती थी; For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । २७ किन्तु उपवास करना प्रारम्भ करनेके दूसरे ही दिनसे वह पीड़ा मिट गई और फिर कभी न हुई। __ “दूसरे दिन मुझे बहुत ही निर्बलता जान पड़ी और उठते समय चक्कर आने लगे। तब मैं कहीं घरसे बाहर न जाकर छत पर धूपमें बैठ गया और तमाम दिन पढता रहा । इसी प्रकार तीसरे और चौथे दिन ऐसा मालूम हुआ कि मानों मेरा शरीर ही बेकाम हो गया है; परन्तु उसी समय ऐसा भी प्रतीत हुआ कि मेरी मानसिक शक्ति बढ़ रही है । पाँचवें दिनके बाद मुझमें शक्ति आने लगी और मजबूती जान पड़ने लगी। मैंने बहुत कुछ समय टहलकर बिताया, बादमें कुछ लिम्वना भी प्रारम्भ कर दिया । इस तपस्यामें मुझे जो सबसे अधिक अचरजकी बात मालूम हुई वह मनसम्बन्धी चपलताकी थी। क्योंकि मैं पहले जितना पढ़ने लिखनेका काम कर सकता था, उससे बहुत ज्यादा काम इन दिनोंमें कर सका था । "पहले चार दिनोंमें मेरा वजन साढे सात सेर कम हो गया; किन्तु पश्चात् उसका कारण विचारनेसे विदित हुआ कि मेरे शरीरके स्नायु भाग ( Tissues ) बहुत ही निर्बल स्थितिको प्राप्त हो गये थे, इसलिए मेरा वज़न इतना कम हो गया था। तत्पश्चात् आठ दिनोंमें केवल एक सेर ही कम हुआ जो कि मामूली कहा जा सकता है। उपवासके दिनोंमें मैं अच्छी तरह सोता था । प्रतिदिन दो पहरको मुझे निर्बलता मालूम होती थी; किन्तु पगचम्पी करवानेसे और शीतल जलमें स्नान करनेसे, फिर ताज़गी आजाती थी। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी __" ११ दिन मैंने इस ही भाँति बिना भोजनके केवल जलपान करके बिताये। बारहवें दिन चलते समय थकावट मालूम होने लगी; परन्तु मुझे सो-रहना पसन्द न आया। इसलिए उस दिन नारंगीका रस पीकर मैंने अपना उपवास भंग कर दिया । आगे दो दिन केवल नारंगीका रस ही पीया । तत्पश्चात् मैंने मि० बरनार मैक फेडनकी सम्मतिके अनुसार दुग्ध पीना प्रारम्भ किया । पहले दिन प्रति घंटे एकएक प्याला पीता रहा। फिर दूसरे दिन पौन पौन घंटेके अन्तरसे एकएक प्याला दुग्ध पीने लगा । इस प्रकार दिन भरमें चार सेर दूध पीजाने लगा । यद्यपि यह सारा हजम नहीं होता था, तथापि पेटके अन्दरके अवयवोंको धोकर ( Flush ) साफ कर देता था और फिर दस्तके द्वारा सारे मलको लेकर बाहिर निकल जाता था । इससे अन्दरके बारीक स्नायुओंका ( Tissues ) पोषण होकर असाधारण रातिसे बलवृद्धि और शरीरपुष्टि होने लगी। जिस दिन दूध पीना प्रारम्भ किया, उस दिन मेरा वजन सवा दोसेर बढ़ गया । तत्पश्चात् २४ दिनोंमें सोलह सेर वज़न बढ़ा। पहले तो मुझमें एक असाधारण जातिकी शान्ति उत्पन्न हुई । मानों मेरे शरीरका प्रत्येक थका हुआ तन्तु एक बिल्लीके समान, जो अँगीठीके पास बैठकर आराम लेती हो, आराम लेता हुआ मालूम हुआ । दूसरी तबदीली यह हुई कि मेरे मनकी शक्ति बहुत बढ़ गई । निरन्तर लिखने पढ्नेका कार्य करते रहनेहीमें मुझे आनन्द आने लगा; और अन्तमें शारीरिक परिश्रमका कुछ न कुछ कार्य करते रहनेका उत्साह उत्पन्न होने लगा।" For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । दूसरी तपस्याका परिणाम । पहली तपस्याके बाद मिस्टर सिंकलरके अजीर्णसम्बन्धी सारे विकार नष्ट हो गये और उनका मुख गुलाबके फूलकी भाँति दिखाई देने लगा। परन्तु इतने हीसे उन्हें सन्तोष नहीं हुआ । वे कहते हैं कि "अभी तक मैंने एक पूरी तपस्या, अर्थात् अपने आप क्षुधा लगने तक उपवास जारी रखनेकी क्रिया नहीं की थी। मेरे पैर दुखने लगे थे इससे पहली तपस्या छोड़ दी थी। अतः फिर मैंने दुबारा तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । अबकी बार मैंने छोटी तपस्या करनेका ही विचार किया था, किन्तु क्षुधा बिल्कुल ही मिट गई, और मैंने देखा कि पहलेके समान इस बार मैं निर्बल नहीं हुआ। मैं नित्य प्रति शीतल जलसे स्नान करता और खूब अच्छी तरहसे घिसघिसकर अपना शरीर पोंछ डालता था । नित्य प्रति चार माइलका चक्कर लगाता, और फिर हलकीसी कसरत भी कर लिया करता था; किन्तु यह विचार मैं कभी नहीं करता था कि मैंने भोजन नहीं किया है, अथवा मैं उपवास करता हूँ। आठ दिनमें मैं आठ पौंड ( चार सेर ) कम हो गया। फिर आठ दिन मैंने अंजीर नारंगी खाकर बिताये; और इनसे ही मैंने अपना गया हुआ वजन पूरा किया। मुझे कभी शिरःपीडाकी शिकायत नहीं करनी पड़ी। मैं वर्षाके दिनोंमें ठंडी हवाके चलते रहने पर भी जंगलोंमें फिरता रहता था; किन्तु ठंड मुझ पर कुछ असर न करती थी। विशेष जाननेकी बात तो यह है कि मुझमें कुछ ऐसी शक्तिका संचार हो गया था कि जिससे मैं बिना कुछ किये एक मिनिट भी नहीं बैठ सकता था । यदि कहीं For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी एक आध मिनिटकी फुरसत मिलती, तो मैं (दूसरा कार्य न होनेसे) कुलाटेही खाने लगता या सिरके बल खड़ा होजाने लगता था ! इस भाँति मेरी शारीरिक चपलता बहुत ही बढ़ गई थी।" उपवासकी जाँच । ___ सबसे ज्यादा आवश्यकीय और लोगोंको पूर्णतया भरोसा दिलाने वाली बात कारनेजी इंस्टिट्यूशन ( Nutrition laboratory of the Carnegie Institution of Washington ) की है कि जहाँ उपवासकी जाँच पूर्ण योग्यता और उत्तमताके साथ ' सायंटिफिक ' रीतिसे कुछ अरसा हुआ चल रही है और उसमें कई आजमायशे हो भी चुकी हैं। पाठकोंको विदित होगा कि मिस्टर कारनेनीने सांइसकी शोधके लिए उक्त संस्थामें लगभग ९ करोड़ रुपया लगाया है। इस संस्थाके सबसे बड़े प्रोफेसर फ्रांसीस डी. बेनीडिक्ट हैं कि जो बहुत अनुभवी और उत्साही गिने जाते हैं। इन प्रोफेसरसाहबने एक कल ऐसी बनाई है कि उसके अन्दर प्रवेश करनेसे मनुष्यके सब अवयवोंकी हरकतें वहाँ अंकित हो जाती हैं। दम किस भाँति चलता है, रक्त कैसे फिरता है और प्रत्येक अवयव किस भाँति काम करता है; इत्यादि सूक्ष्मसे सूक्ष्म क्रियाओंका भी इस कलमें उल्लेख हो जाता है। ___ इस संस्थाके कितने ही विद्यार्थियों पर उपवासकी जाँच की गई है। इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने कितने ही बाहरके मनुष्योंपर भी जाँच करके यह निश्चय किया है कि कोई भी साधारण मनुष्य दोसे सात दिनों तक बिना खुराकके केवल जलके आधार पर । For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य | ३१ ही रह सकता है और इससे उसको किसी भाँतिकी हानि या तकलीफ़ नहीं होती । उपवास करनेसे मनुष्य प्रति दिन आधा सेर वजनमें कम होता है; किन्तु उपवास तोड़ने अर्थात् पुनः खुराक लेना प्रारम्भ करने बाद खोये हुए वजनसे द्विगुण वजन प्राप्त करता है । इस वजनकी पुनः प्राप्तिका कार्य बहुत ही शीघ्रतासे होता है । सात दिनोंके उपावासका परिणाम | सात दिनोंके उपवाससे तपस्वीके शरीरमें से ८१ ग्राम (Grammes) नाइट्रोजन ( Nitrogen ) कम हो जाता है; और १२ दिनोंमें वह उसे पुनः प्राप्त कर लेता है । ऐसी दो तपस्यायें करनेके बाद एक साथ ५४ ग्राम नाइट्रोजन उसके शरीर में बढ़ जाता है । इस भाँति उपवास–तपस्यारूप बाह्य तपके असंख्य लाभ हैं । अथवा यों कहो कि शरीररूपी मैशीनके कल पुरज़े साफ करने के लिए और उसको सशक्त बनानेके लिए बाह्य तपकी बहुत आवश्यकता है । इसके बिना वह अच्छी तरह काम नहीं दे सकता । हमें पाश्चात्य विद्वानोंके अभिप्रायसे मालूम हुआ है कि उपवास केवल शरीरको ही लाभ नहीं पहुँचाता है, किन्तु मनको भी शान्ति देता है। इसके सिवाय इससे बाह्य वस्तुओंकी आसक्तिको वशमें करनेकी आदत पड़ती है और यह एक बहुत बड़ा लाभ है । किन्तु उपवास के बाद कम खानेका, बहुत ही सादा भोजन कर - नेका, और तन्दुरुस्ती के सामान्य नियम भली भाँति पालनेका पूरा ध्यान रखना चाहिए । यह बात कभी न भूलना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनहितैषी बाह्य तपके विषयमें जिन लोगोंके भ्रमपूर्ण खयाल हैं उनके लिए श्रीमुनिचंद्रसूरिका निम्नलिखित श्लोक बहुत ही उपयोगी होगाः कायो न केवलमयं परितापनीयो, मिष्टै रसैर्बहुविधैर्न च लालनीयः। चित्तेन्द्रियानि न चरन्ति यथोत्पथेन, वश्यानि येन च तदाचरितं जिनानाम् ।। अर्थात्-इस शरीरको केवल कष्ट ही पहुँचे, ऐसा तप नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार दूसरी ओर विविध प्रकारके मधुर रसों द्वारा इसका केवल लालन पालन ही न करना चाहिए । ( तब क्या करना चाहिए ? ) चित्त और इन्द्रियाँ जिससे उन्मार्गमें न जावें और अपने वशमें रहें, ऐसा श्रीजिनेश्वर भगवान्का आचरित 'तप' करना चाहिए। उपवास और आरामका रहस्य । अमेरिकासे प्रगट होनेवाले ‘दी एनल्स आफ साइकिकल सायन्स' नामक एक मानसशास्त्रसम्बन्धी पत्रमें दो वर्ष हुए एक मनन करने योग्य लेख निकला था । उसका सारांश नीचे दिया जाता है:___“ यदि गई हुई शक्ति खुराकसे फिर प्राप्त होती तो हम कसरतशालामें न जाकर पहले भोजनशालामें जाते; किन्तु इसतरह नहीं होता । हम जब थके हुए होते हैं, तब भोजनालयमें नहीं किन्तु शयनालयमें जाते हैं जिससे कि गत शक्तिको पुनः प्राप्त कर सकें। हमने चाहे कितना ही भोजन किया हो, चाहे कितनी ही मेहनत या कसरत भोजन पचानेके लिए की हो, तो भी एक समय अवश्य ऐसा For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ आता है कि जब हमें आराम लेना पड़ता है, सोना पड़ता है, अथवा मरना पड़ता है | तपका रहस्य | "हम यह जानते हैं कि दिनभर परिश्रम करनेके बाद भोजन करनेको बैठजाना वैद्यकशास्त्र के विरुद्ध है और सादी आनन्ददायक कसरत ऐसे अवसर में लाभदायक होती है। मतलब यह कि शक्ति प्राप्त करनेके लिए भोजनकी आवश्यकता नहीं; किन्तु जब शक्तिकी आवश्यकता हो उस समय आराम और नींद लेनेका यत्न करना चाहिए। मनुष्यशरीर और यंत्र में यही अन्तर है । मनुष्यशरीर अपने आप ही अपनी कमीको पूरी कर लेता है पर यंत्र ऐसा नहीं कर सकता । ' एक मनुष्य से उपवास कराइए, फिर देखिए कि वह जैसा तन्दुरस्त उपवास प्रारम्भ करनेके पहले था उससे विशेष तन्दुरुस्त और विशेष शक्तिशाली दश बीम या तीस उपवास के पश्चात् होता है या नहीं: इस बात बहुत लोग हँगे परन्तु मैंने ( उक्त अमेरिकन पत्रके सम्पादकने) प्रयोग करके देखा है कि जो मनुष्य उपवास के पहले दिन जीने पर चढ़ने में भी असमर्थ थे वे तीसवें उपवास के दिन ५ माइल पैदल चल सके थे | इससे यह सिद्ध हुआ कि 'प्रतिदिनकी खुराकसे शरीरको शक्ति मिलती है' यह विश्वास भ्रमपूर्ण है । खुराक या भोजनका काम शरीरमें मारे दिनके कामोंमें जो कमी हो जाती है उसे पूरी कर देना और परिश्रम से शिथिल हुए स्नायुओं को ताजा कर देना है । खुराक शरीरको किसी भी तरह की उष्णता अथवा शक्ति नहीं दे सकती । यह उष्णता और शक्ति सर्वथा भिन्न प्रकारसे ही 1 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी प्राप्त होती है। शारीरिक शास्त्रके विद्वान् कुछ बाहरी बातें देखकर भ्रममें पड़ गये हैं । उष्णता और शक्ति भोजन या ग्वगकमे नहीं, किन्तु निद्रा और आराममे प्राप्त होती है । नींदके समय मनुप्यशरीर, ग्रहण करनेकी स्थिति ( Receptive .ittitute ) में होता है और उसके पुरजे अर्थात् म्नायुआदि सर्वव्यापक शनि. : All Pey. vading Cosmic Energy ) मे भर जाते हैं । इसी शक्तिमं हम रहते हैं, चलते हैं. फिरते हैं और जीवित रहते है । निदाके समय जब शरीर ग्राहकगुण धारण करता है. तब उसमें यह दाक्ति, प्रवेश करती है। यही कारण है कि जब हम प्रात:काल जागृत होते हैं. तत्र ऐसा मालूम होता है कि हममें कोई नवीन चैतन्य आगया है। ___ खुराकसे अग्नि भी उत्पन्न नहीं होती है। वह गम्मी भी नेतन्य की ही है । एक मुद्देके पेटमें चाहे जितनी खुराक क्यों न डाल दी उसमें कदापि उप्णता नहीं आयगी । नीगेगावस्थामें जितनी उष्णता चाहिए उतनी उष्णता जिन लोगों के शरीर में न होब वे यदि उपवाग करें तो उनको उतनी ही उप्णता प्राप्त हो सकती है। शरीर शक्ति उत्पन्न करनेका यन्त्र नहीं है किन्तु उसे एक म्थलग दुसरे म्पलमें पहुंचा नेका कार्य करनेवाला यन्त्र है। वह यन्त्र निद्रा और आगमके समयमें शक्ति प्राप्त करता है और जागृतावस्थामें उसका व्यय करता है। ___ "उपवास और लंघन दोनों एक सय धिवकुल विरुद्ध दशाय हैं। उदाहरणार्थ, जब कोई व्यक्ति, प्राकृतिक नियमोंका उल्लंघन करतहै, तब उसके शरीरमें बिगाइ उत्पन्न हो जाते हैं और फिर वह उपवाम करना प्रारम्भ कर केवल जल पर ही कई दिनोंतक निर्वाह करता For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । है। उस समय उसके मल शुद्ध करनेवाले अवयव सदा गति करते रहते हैं. इससे शरीरका भीतरी मल्ल या कचरा सब थोडे ही दिनों में निकल जाता है। ज्यों ज्यों कचरा निकलता जाता है त्यों त्यों उसकी नाडी और उष्णता ठीक स्थितिमें आती जाती है । उसका श्वास सुगन्धित होता जाता है. उमको आरोग्यताकी क्षुधा लगने लगती है. और यह क्षुधा ही वास्तविक क्षुधा कहलाती है। " बादमें वह मनप्य धीरे धीरे भोजन लेना प्रारम्भ करता है और उसको वह पचान लगता है । इससे उसका मूल रोग नष्ट हो जाता है । उपवास प्रारम्भ करनेके पहले जितना बल था इस वक्त उसका अपनमें उसमे विशेष वल मालूम होता है । इसका कारण यह है कि उसके यंत्र मलरहित शुद्ध हो जाते हैं और 'इससे उन यंत्राके द्वारा पहलेकी अपेक्षा अधिक शक्ति कार्य कर मकती है। __.. उपवास. यह एक शास्त्रीय ( Scientific) योजना है कि जिसके जरिये रोग अर्थात् म्नायुआंका कचरा अलग किया जाता है। उपवासका परिणाम मदा लाभदायक होता है । लंघन अथवा भृग्व मग्ना. उस स्थितिका नाम है कि जिसमें स्नायुओंका जरूरत के मुवाफिक पोषण नहीं होता है । लंघन अथवा भूखा मरनेका परिणाम मदेव चुग होता है। उपवासका अन्त उस समय होता है. जब प्राकृतिक सुधाका लगना प्रारम्भ होता है और लंघनका प्रारंभ उस समय होता है जब कि प्रकृतिक क्षुधा भोजन चाहती है । उपवासका परिणाम शक्तिकी पुनः प्राप्ति है और भूखा मरनेका परिणाम मृत्यु है । एकके आरंभके आगे दूसरेका अन्त है । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - “डाक्टर डेवी अपने सुन्दर शब्दों में कहते हैं: - ' बीमार मनुप्यवे पेटमेंसे खुराक ले लो, इससे तुम बीमारको नहीं किन्तु उसके रोगके भूखा मारनेवाले गिने जावोगे ।' इन थोडेसे शब्दोंमें उन्होंने उपवा सकी फिलासफी और सायंसका सारा रहस्य भर दिया है । ३६ “बीमारकी ताक़त जाती न रहे इस लिए कुछ न कुछ खिलाते हैं रहना चाहिए । इस प्रकारके विचार कितने भ्रमपूर्ण हैं, इसका पत उक्त कथनसे सरलता के साथ लग जाता है । “शरीर शक्तिको एकस्थानसे दूसरे स्थानमें ले जानेवाला यंत्र है वह शक्ति इस शरीर के द्वारा दिखाई देती है । जीवन शक्ति यह एक अद्भुत शक्ति है जिसका अस्तित्व शरीर के बाहर भी संभव है और शरीरसे वह स्वतन्त्र है । जिस भाँति लेम्प काचकी चिमनी के द्वारा अपना प्रकाश बाहर डालता है उसी भाँति उक्त जीवन. शक्ति, शरीरके ज़रिये अपना प्रकाश प्रकट करती है । अर्थात वह शक्ति इस शरीरके द्वारा प्रगट होती है । यदि चिमनी धुँधली होती है, मैली होती है या किसी गहरे रंग की होती है तो उसके अनुसार लेम्पका प्रकाश भी न्यूनाधिक होता है । शरीर के सम्बन्ध में भी ऐसा ही समझना चाहिए । यदि शरीर खुराकके कचरे से भरा हो, रोगी हो अथवा लंघन कर रहा हो तो जीवन ऐसे शरीरके द्वारा भले प्रकारसे दर्शन नहीं दे सकता है । " अभ्यंतर तप । बाह्य तपके उपयोग हेतु और लाभका विचार करने बाद अत्र हम ‘अभ्यंतर तप’की जाँच करेंगे। स्थूल अथवा औदारिख For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । शरीरका कचग निकालनेके लिए अथवा खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए जिस भाँति बाह्य तप ' उपयोगी है उसही भाँति सूक्ष्म शरीरके ( तैनम और कार्माण शरीरोंके ) लगे हुए मलको दूर कर उन शरीगंको निर्मल और विशेष उपयोगी बनानेके लिए । अभ्यन्तर तप की आवश्यकता है । इस प्रकारके तपको जैन-फिलासफगने प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग इन छ: भागाम विभक्त कर दिया है । (, मान ला कि मैंने किसी मज्जनपुरुपके सम्बन्धमें बुरी बात फैलाई है । अर्थात् उसकी निन्दा कर उसको लोगोंकी दृष्टिसे गिरा दिया है । अब यदि में अपनी भल देख सकूँ मेरा यह कृत्य हत्याक समान है ऐसा समझ सकूँ. तो उसके लिए मेरे मनमें बहुत दम्ब या पश्चात्ताप उत्पन्न होगा और मेरा मानसिक सूक्ष्म शरीर पश्चात्तापकी मम अग्निमें जलकर शुद्ध होगा । इस शुद्धताका विश्वास तव ही हो सकता है कि जब शुद्धिकरणकी क्रिया करने के बाद में स्वयं अगट रूपमे उम मनप्यके वारेमें लोगोंको वास्तविक बात बताऊँ और उस मनुप्यमे सच्चे अन्तःकरणके साथ क्षमा माँगें। इतना ही नहीं बल्कि समय आने पर उस मनुप्यकी सेवा करनेमे या उपकी कीर्ति फैलानेमे भी बाज न आऊँ । इसका नाम 'प्रायश्चित्त तप' है । यदि प्रायश्चित्त नियत मंत्रोच्चारण करनेणे. या नियत दंड न्टेनमे हो जाता, तो फिर हत्यारों और व्यभिचारियों को नको जानेका लेशमात्र भी डर नहीं रहता । अपनेसे बड़े ज्ञानी या गुणी के सामने किये हुए पापोंका स्वरूप प्रकाश करनसे For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी उनके द्वारा हमको जो ज्ञान मिलता है, वह पापको निवारण करनेमें बहुत उपयोगी होता है । इसी लिए गम्भीर विद्वान् और पवित्र पुरुषोंके समक्ष पाप प्रगट करके प्रायश्चित्त लेनेका धर्मशास्त्रोंने निर्देश किया है। किन्तु ध्यान रखना चाहिए कि प्रायश्चित्त तप बाह्य तपका नहीं, किन्तु अभ्यन्तर तपका भेद है और इस ही लिए इसमें बाह्य क्रियाओंका महत्त्व नहीं हैं। इसमें आन्तरिक पश्चात्ताप और भूल सुधारनेके लिए यथाशक्ति यत्न करनेका निश्चय, ये दो बातें अवश्य होनी चाहिए । हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि जो मनुष्य अपने किये हुए अपराधोंके लिए हार्दिक खेद करने, और कृत अपराधके असरका यथाशक्ति निवारण करनेको तत्पर नहीं होता है वह ध्यान या कायोत्सर्ग जैसे उच्चकोटिके तपके लिए भी योग्य नहीं हो सकता। (२) झूठे खयालों और संकुचित बुद्धिको जडमूलसे उखा डनेकी शक्तिवाले सत्य धर्मकी फिलासफी, उस धर्मके निर्देशानु सार आचरण करनेवाले पवित्रहृदय सद्गुरु, उस धर्मके शुद्ध स्वरूपके प्रचार करनेवाले पुरुष, उस धर्मके प्रचारार्थ और रक्षार्थ स्थापित की हुई संस्थायें-इन सबकी ओर सत्कार दृष्टिसे देखने और सामान्यतया गुणीजनोंके प्रति नम्रता प्रकट करनेको ‘विन. य तप ' कहते हैं । जहाँ गुण दोष समझनेकी शक्ति, अर्थात् विवेकबुद्धि नहीं है वहाँ विनयतपका अस्तित्व भी असम्भव है। जिसके हृदयमें गुण दोष पहचाननेकी शक्ति है, उसके हृदयमें अपने आप ही गुणियोंके प्रति नम्रता या विनय दिखानेके भाव For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य । उत्पन्न हो जाते हैं और ऐसे विनयसे उस मनुष्यका हृदय अपने अन्दर दूसरोंके सद्गुणोंका आकर्षण करने योग्य बन जाता है ! ६उपर जो धर्म, धर्मगुरु, धर्मप्रचारक, धर्मरक्षक, धार्मिकमंस्थायं आदिके प्रति विनय करनेको कहा गया है उन सबका विनय करके ही चुप नहीं रह जाना चाहिए, किन्तु इससे आगे बढ़कर यथाशक्ति उनकी सेवा करना अर्थात् उनके उपयोगी बनना चाहिए । यही यावृत्य तप कहलाता है। (४) पश्चात्ताप. विनय और मेवान पर ना इन तीन गुणोंके धारकका मस्तक और हृदय इतना निर्मल हो जाता है कि उसको ज्ञान प्राप्त करनेमें कुछ भी कठिनाई नहीं पड़ती है. इसी में चौथे नम्बर पर · स्वाध्याय तप' अथवा ज्ञानाभ्याम रखा गया है । ज्ञान प्राप्त करना यह आवश्यकीय तप है: इसको कभी न भूलना चाहिए । इसके लिए पाँच मीढ़ियाँ बताई गई हैं , वाचना' अर्थात् शिक्षक अथवा गुरुके पासमे कोई गार टना अथवा गरुका योग न मिले तो पुस्तकका कोई अंश पर लेना।। २, पृच्छना अर्थात् उतने अंशमें जो कठिनाईयां प्रतीत होता हो उनको गुरुसे अथवा किसी अनुभवी पुरुषमे पूछ लन! ।। ६ ) · परावर्तना' अर्थात् सीखा हुआ पाट फिर याद कर लेना । ( ४ ) ' अनुप्रेक्षा ' अर्थात् अभ्यस्त विषय पर गम्भीर विचार और मनन करना । ( ५ ) · धर्मकथा ' अर्थात् प्राप्त ज्ञान दूसरोंको मुनाना. समझाना. व्याख्यान, बातचीत, ग्रन्थरचना. तथा चर्चा इत्यादिके द्वारा दूसरोंको ज्ञान देनेका उद्यम करना । इसमे अपना ज्ञान बढ़ता है और दूसरोंमें भी ज्ञानका For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी प्रचार होता है जिससे ज्ञानान्तरायकर्म क्षीण होता है और इस कारण ज्ञान प्राप्त करनेकी विशेष योग्यता प्राप्त होती है। __ यदि कोई यह कहे कि ज्ञान अमुक पुस्तकोंसे, या अमुक पुरुषोंसे ही ग्रहण करना चाहिए अन्यसे नहीं; तो उसे कभी मत मानो । इसी भाँति किसी लोकप्रिय सिद्धान्तके विरुद्ध विचार करनेवाले सिद्धान्तकी दलीलोंको सुननेके लिए भी कभी आनाकानी मत करो । हृदयको उदार बनाओ, आँखें खुली रक्खो, सारे संसारमें तुम्हारे घरके कूपके जलके अतिरिक्त अन्य किमी कूपसे उत्तम जल कभी प्राप्त ही नहीं हो सकता, ऐसी मूर्खताका परित्याग करके भिन्न भिन्न फिलासफरोंका सहवास करो, उनके विचारोंको सुनो, भाषाज्ञान प्राप्त करो, न्यायशास्त्र पढ़ो और बादमें इन दोनोंकी सहायतासे संसारका प्राचीन और अवचीन जितना भी ज्ञान प्राप्त कर सको, करो । (५) उक्त सब प्रकारके तपोंमे 'ध्यान तप' विशेष शक्तिशाली है। संसारिक विजयके हेतु और आत्मिक मुक्तिके लिए दोनों कामोंमें यह एक तीक्ष्ण औज़ार है । चित्तकी एकाग्रता अथवा ध्यानके द्वारा सब शक्तियाँ एक ही विषय पर एक साथ उपयोगमें आती हैं और उससे ईप्सितार्थ प्राप्त करनेमें बहुत आसानी हो जाय यह . स्वाभाविक ही है । असाधारण विजेता नेपोलियनकी मनोवृत्तियोंकी एकाग्रता इतनी हद्दतक पहुँची हुई थी कि उसने सेनाओंके मध्यमें भी-जहाँ दनादन तो दगती थीं बैठकर राज्यकी कन्याशालाओंके नियम बनाये थे ! वह युद्धभूमिमें ही १० या १५ , For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपका रहस्य। मिनिट पर्यन्त अपनी इच्छानुसार थकावट दूर करनेवाली नींद ले लेता था : ऐसे मनुष्य यदि विजयश्रीको मुट्ठीमें बाँध रक्खें तो क्या आश्चर्य है ? खोई हुई चित्तशान्ति पुनः प्राप्त करनेके लिए, व्यापार ' या परमार्थके कामोंमें आई हुई कठिनाइयोंका निराकारण करनेके लिए, वस्तुम्वरूपकी पहचानके लिए, और मोक्षमार्गकी प्राप्तिके हेतु भी ध्यानकी उपयोगिता अनिवार्य है। शास्त्रकार ठीक कहते हैं: निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः। तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥ अर्थात् कर्मोंको झड़ानेके कार्यमें बाह्य तपकी अपेक्षा अभ्यन्तर तप विशेष उपयोगी और उत्तम हैं और उसमें भी ध्यान तपका तो एकछत्रपन है, अर्थात् यह तो तपोंमें चक्रवर्ती है । क्योंकि: अन्तर्मुहूर्तमात्रं यदेकाग्रचित्ततान्वितम् । तयानं चिरकालीनां कर्मणां क्षयकारणम् ॥ अर्थात् अन्तर्मुहूर्त मात्र चित्तके एकाग्र होनेको ध्यान कहते हैं। ऐसा ध्यान चिरकालके मंचित कर्मोके भयका कारण होता है। जह चिअसंचियनिधणमणलो य पवणसहिओ दुअं डहइ । तह कमिंधणममि खणेण झाणाणलो डहइ ॥ अर्थात् जिस प्रकार बहुत समयके एकडे-किये हुए काष्ठको पवनसहित अग्नि तत्काल ही जला देती है उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि अनन्त कर्मरूपी ईधनको एक क्षण मात्रमें जला देती है। सिद्धाः सिद्ध्यन्ति सेत्स्यन्ति यावन्ताः केपि मानवाः। ध्यानतपोबलेनैव ते सर्वेपि शुभाशयाः ॥ अर्थात् , जितने सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होवेंगे, सो सब शुभाशययुक्त ध्यान तपका ही बल समझना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनहितैषी ___ ध्यानके भेद मार्ग आदिके सम्बन्धमें बहुत कुछ जानने और सीखने योग्य है; किन्तु इस छोटेसे लेखमें सब बातोंका समावेश नहीं किया जा सकता । पाश्चात्य विद्वानोंने ध्यानके सिद्धान्तसे दर्द मिटाना, बुरी आदतें सुधारना, एक जगह बैठे बैठे दूरका संदेशा मँगाना आदि अद्भुत और उपयोगी कार्य साधे हैं और आर्यविचारकोंने इस ही ध्यानके बलसे मुक्तिका मार्ग सिद्ध किया है । इस लिए यह अद्भुत शास्त्र बुद्धिशालियोंको, विशेषकर धर्मशिक्षकोंको अवश्य सीखना चाहिए। (६) ध्यानसे आगेकी एक स्थिति कायोत्सर्ग है। इसमें कायाकोस्थूल शरीरको बिलकुल मृतवत् बनाकर सूक्ष्म देहोंके साथ आत्माको उच्च प्रदेशों में ले जाना होता है । इस अवस्थामें शरीर जल जायर, छिद जाय, तो भी उसका भान नहीं रहता । क्योंकि जिस मनको भान होता है वह मन अथवा मानसिक शरीर आत्माके साथ उच्च प्रदेशोंमें चला जाता है । इसको कोई कोई समाधि भी कहते हैं। यह विषय इतना गहरा है कि इसमें तर्क और वाचन कुछ काम नहीं दे सकता; यह 'अनुभव' का विषय है और मुझमें इतनी योग्यता है नहीं, इसलिए इस विषयमें मुझे मौन ही धारण करना चाहिए। कृष्णलाल वर्मा। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँखें। आँखें । तुम्हें देखनेको ये दोनों आँखें अब भी जीती हैं, आशा-वश शरीर रखनेको केवल पानी पीती हैं। सूख गये सब अङ्ग अचानक ये तीती भी रीती है, साती नहीं, स्वप्नमें रहती, कितनी रातें बीती हैं ! (२) पानी में रहकर भी दोनों आँखे प्यासी रहती हैं, डव नहीं जाती है उसमें, व्याकुल होकर बहती हे । पडकर प्रवल-पलक-जालोंमें पर-वश पीड़ा सहती हैं, केवल मौन, मनोभाषामें, 'पाहि पाहि ही कहती हैं । आँखाको पानी दे देकर मानस सूखा जाता है, स्वयं सूखकर क्यों वह इनको इतना आर्द्र बनाता है ? इनसे तुम्हें देखने की वह आशा रखता आता है, देखें उसका पूर्ति-योग वह कब तक तुमसे पाता है ! निज पवित्र जलसे ये आँखें अब किसका अभिषेक करें ? विना तुम्हारे किसे देखकर अपने मनमें धैर्य धरें? इन्हें इट यह है कि तुम्हारे रूप-सिन्धुमें सदा तरे, .. तुम्हें इष्ट क्या है कि उसीमें पार न पाकर डूब मरें ? पलक-कपाट खोलकर आँख मार्ग तुम्हारा देख रहीं, बाढ़ आरही है सम्मुख ही उसका भी कुछ सोच नहीं। पर तुम ऐसे निर्दय निकले-जहाँ गये रम गये वहीं भूलो तुम, पर क्या ये तुमको भूल सकेंगी कभी कहीं! फँसी तुम्हार प्रवल-गुणोंमें सतत शून्यमें झुली हुई, मनकी अमिलाषाके ऊपर तुल्य भावसे तुली हुई ? कोध कहाँ, अभिमान कहाँ अव, अविरल जलसे धुली हुई हाय : खुली ही रह जावेगी क्या ये आँखें खुली हुई ! For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - (७) खुली हुई आँखें क्या तब तक तुमको देख न पायेंगीजगकी धूल छान कर जब तक बन्द नहीं हो जावेगी ॥ किन्तु हाय ! ये ऐसा अवसर आप कहाँसे पावेंगी ? सींच सींच कर बस आशाके अंकुर ही उपजावेंगी ॥ ( ८ ) ४४ अनन्तगुणमय ! क्या ऐसे अकरुण तुम हो जाओगे - सब कुछ दिखलाकर आँखोंको अपनेको न दिखाओगे ? नहीं नहीं, ऐसा न करोगे, तुम इनको अपनाओगे, दिव्य-दीप्ति - परिपूर्ण स्वयं ही सहसा सम्मुख आओगे ॥ मैथिलीशरण गुप्त | महावीर स्वामीका निर्वाणसमय । अ ब तक सभी लोगोंने इस बातको मान लिया था कि महावीर स्वामीका निर्वाण ईस्वी सनसे १२७ वर्ष पूर्व हुआ; परन्तु अभी हालमें जाल चारपेंटियर नामक एक पाश्चात्य विद्वान् ने इस विषयका एक विस्तृत लेख ' इंडियन एंटिक्वेरी ' क जून, जुलाई और अगस्तके अंकोंमें प्रकाशित कराया है । इस लेखमें उन्होंने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि महावीर स्वामीका निर्वाण ईस्वी सन्से ४६७ वर्ष पूर्व हुआ है । अर्थात् इस समय हम जो वीरनिर्वाणसंवत् मान रहे हैं उसमें ६० वर्षका अन्तर है -२४४१ के स्थान में २३८१ चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीका निर्वाणसमय । साधारण पाठकोंकी दृष्टिमें यह कोई महत्त्वका विषय नहीं कि महावीर स्वामीका निर्वाण ४६७ वर्ष पूर्व हुआ या १२७ वर्ष पूर्व हुआ परन्तु विशेष पाठकों के लिए तथा जैनधर्मके इतिहासके लिए यह विषय बहुत ही महत्त्वका है । विद्वानों और इतिहासज्ञोंका कर्तव्य है कि वे उक्त विद्वान के दिये हुए प्रमाणों पर विचार करें और इस विषयकी अच्छी तरह जाँच पड़ताल करके अपना सम्वत् निश्चय करें | जैनधर्मके लिए यह विषय बहुत ही आवश्यक है, कारण कि इसी पर जैनधर्मके इतिहासका आधार है । जब तक इसका निर्णय नहीं होगा तब तक जैनइतिहासका लिखाजाना असंभव हैं । उक्त विद्वान्ने अपने विस्तृत लेखको तीन भागों में विभक्त किया हैं। हम यहाँ पर उसका सारांश मात्र दिये देते हैं। पहले भाग में आपने सन् १३०६ की बनी हुई मेरुतुंगाचार्यकृत विचारश्रेणी की उन गाथाओंको अयुक्त और असम्बद्ध दिखलाया है जिनमें महावीरनिर्वाण तथा विक्रमादित्य के राज्यारूढ़ होने के बीच के मुख्य मुख्य राजरानोंका उल्लेख किया गया है। वे गाथायें ये हैं: जं रयणीं कालगओ, अरिहा तित्थंकरो महावीर । तं रयणी अवंतिवई, अहिसित्तो पालगो रण्णो ॥ १ ॥ अर्थात् -- जिस रात्रिको महावीर तीर्थकरका निर्वाण हुआ उसी रात्रिको अवन्तीके राजा पालकका राज्याभिषेक हुआ । सही पालगरणी पण्णावण्णलयं तु होइ नंदाण । असंय मुरियाणं, तीसं चित्र प्रसमित्तस्स ॥ २ ॥ ४५ For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनहितैषी पालक राजाने ६० वष, नन्द राजाओंने १५५ वर्ष, मौर्य राजाओंने १०८ वर्ष और पुष्यमित्रने ३० वर्ष राजा किया । बलमित्त भाणुमित्त सहीवरसाणि चत्त नहवहन । तह गद्दभिल्ल रज्जं तेरसवरिसा सगस्त चऊ ॥३॥ बलमित्र भानुमित्रने ६० वर्ष, नभोवाहनने ४० वर्ष, गर्दभिल्लने १३ वर्ष और शकने ४ वर्ष राजा किया । इस प्रकार महावीरम्वा। मीके निर्वाण और विक्रमसंवत्के आरंभमें ४७० वर्षका अन्तर है। इनमें विक्रम संवत् और ईस्वीसन्के बीचके ५७ वर्ष जोड़ देनेसे ५२७ वर्ष होते हैं। ___ महावीर स्वामीके निर्वाणकालके विषयमें इन्हीं गाथाओंका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया जाता है; परंतु ये गाथायें किमी प्रकार भी मान्य नहीं हो सकतीं। प्रथम तो ये गाथायें मेरुतुंगकी अथवा उसके समकालीन ग्रंथकारोंकी बनाई हुई ही नहीं हैं। कारण कि उनके समयसे बहुत पहले जैनविद्वानोंने प्राकृतमें लिखना छोड़ दिया था । दूसरे इन गाथाओं तथा इसी प्रकारकी अन्य काल-विषयक गाथाओंमें विक्रम सम्वत्का उल्लेख किया गया है और उस सम्वत्को उज्जैनीके राजा विक्रमादित्यका चलाया हुआ मानते हैं । पर यह बिलकुल असत्य है । यह बात बहुत दिन हुए पूर्णरूपमे सिद्ध हो चुकी है कि ई० सन् से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामका कोई राजा ही नहीं हुआ है । यह सम्वत् बहुत पीछे विक्रमादित्य राजाके नामसे प्रसिद्ध हुआ है । विंसेंट स्मिथके अनुसार इस मम्वत्को मालवाके ज्योतिषियोंने चलाया था । संभवतः चन्द्रगुप्त द्वितीयके For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीका निर्वाणसमय । समयमें यह विक्रमादित्यके नामसे प्रसिद्ध हुआ । सवस पहले सन् ८४२ ई० के धौलपुरके एक शिला-लेखमें इसका जिकर आया है। फिर धनपालने ‘पाझ्यलच्छी' में सन् ९७२ ई० में और अमितगतिने सुभाषितरत्नसंदोह में मन् ९९४ ई० में इस संवत्का उल्लेख किया है । तीसरे जिन राजघरानोंका इन गाथाओंमें जिकर किया है वे भी असम्बद्ध मालूम होते हैं । उनमें कोई सम्बंध नहीं पाया जाता । पालक अवंतिका राजा था. नंद. मौर्यवंशी, पुप्यमित्र, मगधके गजा थे। शक उत्तर पश्चिमीय हिंदुस्तानके विदेशी घरानेका था। गर्दभिल पश्चिमीय हिंदुस्तानमें राज करता था । प्रोफेसर जैकोबी इस विषयमें अपना संदेह पहले ही प्रगट कर चुके हैं । अवंसीके राना पालकको मगधाधिपतियामें कैसे मिला दिया ? इसका उन से क्या सम्बंध था ? इसी प्रकार बलमित्र, भानुमित्र, नहवहन ( नभोवाहन ) गर्दभिल और शक राजाओंके विषय और समयमें वडा संदेह मालूम होता है । अतएव जैनियोंकी यह राजाओंकी सूची जिम पर वे महावीर भगवानके निर्वाणका समय निश्चय करते हैं. ऐतिहामिक दृष्टिमे कुछ भी महत्त्व नहीं रखती । पालक गजाका, जिसके ६० वर्ष बताये गये हैं, महावरिमे कोई सम्बंध नहीं है और न वलमित्र. भानुमित्र. गर्दभिल्ल और शक गजाओंका कोई सम्बंध है । निःसंदेह २९३ वर्षतक मगधके राजघरानोंका शासन रहा । संभावना यह है कि मगधके राजाओंसे ही इस वीचके समयका प्रारम्भ होता है। विम्बिमार ( श्रेणिक ) और अजातशत्र ( कणिक ) का जैनधर्मसे वनिष्ट सम्बन्ध रहा है। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी दूसरे भागमें उक्त विद्वान्ने इस बातको दिखलाया है कि गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी ये दोनों महात्मा समकालीन थे। बौद्ध ग्रंथोंमें अनेक स्थलों पर निगंथ नातपुत्त ( निग्रंथो ज्ञातिपुत्रः ) का जिकर आया है । ' सामण्णफलसुत्त ' में लिखा है कि अजातशत्रु , निगंथ नातपुत्तके पास गया तथा गौतमबुद्धके पास भी गया । जैनशास्त्रोंमें भी लिखा है कि कुणिका वा कोणिया ( अजातशत्रु ) महावीर स्वामीके पास गया । बौद्धशास्त्रोंमें अनेक स्थानोंपर लिखा है कि गौतमबुद्ध निग्रंथ साधुओंसे मिले । महावीरके शिष्य अपने गुरुको बुद्धदेवके समान ही अनंत ज्ञान और अनंत दर्शनका धारों कहते थे और उसी प्रकार उसकी स्तुति और प्रशंसा करते थे । बौद्धग्रंथोंमें महावीरस्वामीके सूचक अनेक शब्दों का प्रयोग किया है जिससे स्पष्ठ प्रगट होता है कि बौद्धोंको जैनियों तथा उनके गुरुका पूर्ण परिचय था। अतएव इसमें कोई संदेह नहीं है कि गौतम बुद्ध और महावीर समकालीन दो भिन्नभिन्न व्यक्ति थे । गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्मका प्रचार क्लिया । महावीर स्वामीने जैनधर्मका प्रकाश किया । दोनों मगधमें हुए । आजकलके प्रायः सभी विद्वान् इस विषयमें सहमत हैं। __ अब संदेह यह है कि जब गौतम बुद्ध और महादगरने साथ साथ अपने मतका प्रचार किया तब उनके निर्वाणमें इतना अंतर क्यों है ? जेनरल कनिंघम और प्रोफेसर मोक्षमूल के मतानुसार बुद्धदेवका ई० सन्से ४७७ वर्ष पूर्व विर्वाण का) मेरी रायमें भी यही ठकि मालूम होता है । उस समय उनकी For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरस्वामीका निर्वाणसमय। अवस्था (5 वर्ष की थी. इसमें किमीको भी विवाद नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि यदि महावीर स्वामीका ई० सन्से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण हुआ तो बुद्धदेवकी उस समय केवल ३० वर्षकी अवस्था होगी: परंतु इसको मत्र कोई मानते हैं कि ३६ वर्षकी अवस्थाले पहले न तो गौतमको वोध हुआ था और न उनके अनुयायी ही हुए थे. अतएव महावीर स्वामीका उनसे मिलना नितान्त असम्भव है । इसके अतिरिक्त कहा जाता है कि ये दोनों नहात्मा अनानशत्र. श्रेणिकके पुत्र कुणिक ) के राज्यकालमें हुए और अजातशत्रु बुद्धदेवकी मृत्युमे । वर्ष पूर्व राज्यसिंहासन पर बैठा और उसने १२ वर्ष तक राज्य किया । इससे महावीर स्वामी और बुद्धदेवके निर्वाणकालमें बड़ा संदेह मालूम होता है । या तो महावीर स्वामीका समय आगे बढ़ाया जाय, या बुद्धदेवका समय पीछे हटाया जायः परंतु बद्धदेवका समय विलकुल गिना हुआ है और महावीर स्वामीका समय केवट, अनमान किया हुआ है। अतएव हम बुद्धदेवके मृत्युसमय पर मंदह न करके महावीर स्वामीके मृत्यममय पर संदेह करते हैं। यद्यपि बद्धवके मन्युममयके विषयमें भी विद्वानोंका मतभेद है: विमट स्मिथ तथा अन्य अनेक विद्वानोंने अभी हालमें खोज वाग से यह निश्चय किया है कि ई० मन् मे ४८७ वर्ष पूर्व युद्धऔर नित्यु हुईः परंतु मैं उनमें महमत नहीं हूँ * । यदि थोड़ी र उक्त विद्वान्ने अंगरेजी लेखमें बुद्धदेवके निर्वाण कालके विपयने अनेक कियाँ दी हैं जिनको हमने पाठकोंके लिए विशेष उपयोगी न देखकर छोड़ दी प। जिन महाशायोंको इस विषयमें अधिक सचि हो वे मूल लेखको देखें । और घर केवल लेखकका आशय और अभिप्राय दिया है। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी- . देरके लिए मान भी लिया जाय कि उनका मत ठीक है तो भी महावीर स्वामीका निर्वाण ई० सन्से ५२७ वर्ष पूर्व नहीं हो सकता। निश्चयसे गौतम बुद्धका निर्वाण ई०सन्से ४७७ वर्ष पूर्व हुआ । चूंकि उनकी आयु ८० वर्षकी हुई, इसलिए उनका जन्म ई० सन् से ५५७ वर्ष पूर्व हुआ होगा । पाली ग्रंथोंसे जो इस विषयके मूल आधार हैं, ज्ञात होता है कि जिस समय बुद्धदेवने गृहस्थाश्रमको त्याग किया उस समय उनकी अवस्था २९ वर्षकी थी और जिस समय उनको बोध हुआ उस समय ३६ वर्षकी थी, अर्थात् दूसरे शब्दोंमें वे ई० सन् से ५२० वर्ष पूर्व बुद्ध हुए। इस हिसाबसे स्पष्ट विदित होता है कि महावीर स्वामी और बुद्धदेव कभी नहीं मिले होंगे और पाली ग्रंथोंमें जो कुछ नातपुत्त और उसके अनुयायियोंके विषयमें लिखा है वह सब आद्योपांत असत्य और कल्पित है। परंतु यह सर्वथा मिथ्या है; ऐसा कदापि नहीं हो सकता । अतएव महावीर स्वामीका निर्वाण कदापि ई० सन्से ५२७ वर्ष पूर्व नहीं हुआ; किंतु उससे ६० वर्ष पीछे अर्थात् ईस्वीसन्से ४६७ वर्ष पूर्व हुआ और इसीको तीसरे भागमें लेखक महाशय जैनकथाओंके अनुसार सिद्ध करते हैं। हेमचन्द्राचार्यके लेखानुसार कुणिकका चम्पामें देहान्त हुआ और उसका पुत्र उदयन राज्यका अधिकारी हुआ । यह राजा बड़ा बलवान् था; परन्तु इसको एक व्यक्तिने धोखेसे मार डाला और इसके बाद नंद राजा हुआ । कथानुसार यह घटना महावीर For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरस्वामीका निर्वाणसमय । स्वामीके निर्वाणके ६० वर्ष पश्चात् हुई । प्रथम नंदराजाके विषयमें हेमचन्द्राचार्यकी दृष्टि अच्छी मालूम होती है । सम्भवतः वह जैनधर्मका संरक्षक और प्रेमी था। यह बात उदयगिरिके खारवेलके लेखसे भी सिद्ध होती है। इन ६० वर्षों में कुछ वर्ष कुणिकने राज्य किया और शेषकाल उदयनने राज्य किया । अतएव यदि मेरे मतानुसार बुद्धदेवकी ई० सन् से ४७७ वर्ष पूर्व मृत्यु हुई है तो अजातशत्रु (कुणिक ) ई० सन्से ४ ८३ वर्ष पूर्व राज्यसिंहासन पर बैठा होगा । अजातशत्रुका सबसे पहला काम कौशलके राजासे युद्ध करना था । भगवती सूत्रके अनुसार गोशाल, जो महावीरसे बड़ा द्वेष रखता था, इस युद्धके समाप्त होते ही श्रावस्तीमें मर गया था और महावीर १६ वर्ष बाद तक रहे । गोशालके विषयमें जो और समय दिये हैं उनसे भी यह बात मिलती है । जब गोशाल मरा, उस समय महावीर स्वामीकी अवस्था ५६ वर्षकी होगी । इससे अनुमान होता है कि महावीरस्वामीका निर्वाण ४८३-१६-४६७ वर्ष पूर्वमें हुआ होगा । जहाँ तक मैं अनुमान करता हूँ ऐसा कोई कथन नहीं कि जिसके अनुसार महावीरस्वामीका अजातशत्रुके समयमें निर्वाण हुआ और न कोई ऐसा ही कथन है कि उनकी उदयनसे भेट हुई । मेरे विचारमें हमको यह नतीजा निकालना चाहिए कि बौद्धग्रंथोंमें जो अजातशत्रुका राज्यकाल ३० वर्ष दिया है वह ठीक है और यदि अजातशत्रु और उदयनके बीचमें कोई और राजा नहीं हुआ तो उदयनने ३३ वर्षसे भी अधिक राज्य For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - किया । चंद्रगुप्तके विषयमें मेरुतुंगका मत है कि उसने ई० सन्से ३१२ वर्ष पूर्वमें अपना सम्वत् चलाया । यद्यपि मैं इससे सहमत नहीं हूँ, मेरी रायमें चन्द्रगुप्तने कोई सम्वत् नहीं चलाया, तथापि इससे भी यही सिद्ध होता है कि महावीर स्वामीका निर्वाण ई० सन्से ४६७ वर्ष पूर्व हुआ । कारण, यह कहा जाता है कि चन्द्रगुप्तका वीर भगवान् के १५५ वर्ष बाद, राज्याभिषेक हुआ । ५२ प्रोफेसर जेकोबीने कल्पसूत्रकी भूमिका ४६७ वर्ष पूर्वके और भी कई प्रमाण दिये हैं । हेमचंद्र से पीछेकी जितनी कथायें हैं सबमें भद्रबाहुकी मृत्यु वीर भगवानसे १७० वर्ष बाद बतलाई है और भद्रबाहुका चन्द्रगुप्तके समय से निकटतम सम्बंध है । इससे भी सिद्ध होता है कि ४६७ वर्ष पूर्व ही महावीर भगवान्का निर्वाण हुआ । उसी हिसाब से भद्रबाहुका समय ई० सन्से २९७ वर्ष निकलता है । यहीं चन्द्रगुप्तका समय है । इसी प्रकार अनेक युक्तियाँ देते हुए, जिनका हमने यहाँ उल्लेख करना विशेष उपयोगी नहीं देखा, लेखक महाशय अपने लेखको समाप्त करते हैं और अंतमें अपने विज्ञ पाठकोंसे सानुरोध प्रार्थना करते हैं कि इस विषय पर पूर्णरूपसे अन्वेषण करें । हम भी अपने पाठकोंसे निवेदन करते हैं कि हमने इस लेखमें मूल लेखक महाशय के विचारोंका दिदर्शन मात्र कराया है । पाठकोंको उचित है कि इस नवीन मत पर पक्षपातरहित विचार करें । यदि लेखक महाशयके विचार अयुक्त हों अथवा ५२७ वर्ष पूर्वके प्रबल अकाट्य प्रमाण आपके पास मौजूद हों तो आप उनको For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीका निर्वाणसमय अवश्य प्रकाशित करें कि जिससे इस विषयका अच्छी तरह निर्णय हो सके । हम पुनः बलपूर्वक कहते हैं कि जैनइतिहासके लिए गृह अत्यंत आवश्यक प्रश्न है । जब तक यह हल न होगा जैन-इतिहासका लिखा जाना असम्भव है । हम अपने विद्वान् जैनपण्डितों से यह भी निवेदन कर देना चाहते हैं कि लेखक महाशय अपने विचारोंको बदलनेके लिए तैयार हैं, यदि आप प्रबल युक्तियों द्वारा उनका खंडन कर सकें और अपना मंडन कर सके । वास्तवमें यह समय परीक्षाका है | इस समय केवल कहने से काम नहीं चलता | दिखलाने और सिद्ध करनेकी जरूरत है । हमें आशा है कि हमारे विज्ञ पाठक इस विषय पर विचार करेंगे और शीघ्र ही वीर भगवान् के निर्वाणसमयका निर्णय करेंगे। हम शोक इस बात का है कि हमारे जैनीभाई इन विपर्योकी ओर किंचित् भी ध्यान नहीं देते हैं । तत्त्वचर्चा करते समय तो वे शतांशों और सहस्राशतिक पहुँच जाते हैं और लोक, अलोक, असंख्यात, अनंत, कोडाकोडी सागरों और पल्योंकी बातें करते है, परंतु उन विषयोंका जिकर तक भी नहीं करते जिन पर जैनइतिहासका आधार है । क्या इससे अधिक और कोई शोक की बात होसकती है कि धर्मप्रवर्तक, तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामीका निर्वाणसमय भी अभीतक अनिश्चित है ? कितने जैनपंडिताने और ग्रेज्युएटोंने इस विषयका अध्ययन किया! कितनोंने इस पर लेखनी उठाई ? शोक! महाशोक ! कि हमारे कामको विदेशी For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ - जैनहितैषी विद्वान् हाथमें लेवें और हम उनकी कुछ भी सहायता न करें । काम हमारा और करें वे और उस पर हमारा मौनावलम्बन ! दयाचन्द्र गोयलीय, बी. ए.। जैननिर्वाण-संवत् । जैनोंके यहाँ कोई २५०० वर्ष की संवत्-गणना का हिसाब हिन्दुओं भर में सब से अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समय में ऐतिहासिक परिपाटी की वर्षगणना यहां थी । और जगह वह लुप्त और नष्ट हो गई, केवल जैनों में बच रही । जैनों की गणना के आधार पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत सी घटनाओंको जो बुद्ध और महावीर के समय से इधर की हैं समयबद्ध किया और देखा कि उनका ठीक मिलान जानी हुई गणना से मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक बातों का पता जैनों के ऐतिहासिक लेख पट्टावलियों में ही मिलता है। जैसे नहपान का गुजरात में राज्य करना उस के सिक्कों और शिला लेखों से सिद्ध है। इसका जिक्र पुराणों में नहीं है । पर एक पट्टावली की गाथा में जिस में महावीर स्वामी और विक्रम संवत् के बीच का अन्तर दिया हुआ है नहपाण का नाम हम ने पाया । वह — नहवाण 'के रूपमें है। जैनों की पुरानी गणना में जो असंबद्धता योरपीय विद्वानों द्वारा समझी जाती थी वह हमने देखा कि वस्तुतः नहीं है। यह सब विषय अन्यत्र लिख चुके हैं। यहां केवल निर्वाण संवत् के विषय कुछ कहा जायगा । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जननिर्वाण-संवत् । महावीर के निर्वाण और गर्दभिल्ल तक ४७० वर्ष का अन्तर पुरानी गाथा में कहा हुआ है जिसे दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों दलवाले मानते हैं । यह याद रखने की बात है कि बुद्ध और महावीर दोनों एक ही समय में हुए । बौद्धों के सूत्रोंमें तथागत का निर्ग्रन्थ नाटपुत्र के पास जाना लिखा है और यह भी लिखा है कि जब वे शाक्यभूमिकी ओर जा रहे थे तब देखा कि पावामें नाटपुत्रका शरीरान्त हो गया है। जैनों के · सरस्वती गच्छ ' की पट्टावली में विक्रम संवत् और विक्रमजन्म में १८ वर्ष का अन्तर मानते हैं। यथा--" वीरात् ४९२ विक्रम जन्मान्तरवर्ष २२, राज्यान्त वर्ष ४ ।” विक्रम विषयकी गाथा की भी यही ध्वनि है कि वह १७ वें या १८ वें वर्ष में सिंहासन पर बैठे । इस से सिद्ध है कि ४७० वर्ष जो जैन-निर्वाण और गर्दभिल्ल राजा के राज्यान्त तक माने जाते हैं, वे विक्रम के जन्मतक हुए--(४९२-२२=४७०) । अतः विक्रमजन्म ( ४७० म०नि० ) में १८ और जोड़ने से निर्वाण का वर्ष विक्रमीय संवत् की गणना में निकलेगा अर्थात् ( ४७०+१८ ) ४६८ वर्ष विक्रम संवत् से पूर्व अर्हन्त महावीर का निर्वाण हुआ। और विक्रम संवत के अब तक १९७१ वर्ष बीत गए हैं, अतः ४८८ वि० पू० +१९७१=२४५९ वर्ष आजसे पहले जैन--निर्वाण हुआ । पर 'दिगंबर जैन ' तथा अन्य जैनपत्रों पर नि० सं० २४ ४ देख पड़ता है। इसका समाधान यदि कोई जैनसज्जन करें तो अनुग्रह होगा। १८ वर्ष का फर्क गर्दभिल्ल और For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी विक्रमसंवत् के बीच की गणना छोड़ देने से उत्पन्न हुआ मालूम होता है। बौद्ध लोग—लंका, श्याम, वर्मा आदि स्थान में बुद्धनिर्वाण के आज २४५८ वर्ष बीते मानते हैं। सो यहाँ मिलान खा गया कि महावीर, बुद्ध के पहले निर्वाण प्राप्त हुए | नहीं तो बौद्धगणना और · दिगंबर जैन ' गणना से अर्हन्त का अन्त बुद्ध-निर्वाण से १६-१७वर्ष पहले सिद्ध होगा जो पुराने सूत्रों की गवाही के विरुद्ध पड़ेगा। ( पाटलिपुत्रसे उद्धृत) जिनाचार्यका निर्वाण .. -उस का जातीय उत्सव- . कहु ईश्वर कहुं बनत अनीश्वर नाम अनेक परो। सत् पन्थहिं प्रगटावन कारण लै सरूप विचरो॥ जैन धरम में प्रगट कियो तुम दया धर्म सगरो। 'हरीचन्द' तुमको बिनु पाए लरि लरि जगत मरो॥ जैन-कुतूहल । धर्मनायकोंके मत-प्रवर्तन का तत्त्व ऊपर के पद की आदि कड़ियों में हरिश्चन्द्र ने कहा है। अहो तुम बहु विधि रूप धरो, जब जब जैसो काम परै तब तैसो भेख करो। । जब जिस बात की आवश्यकता पड़ती है, मानवशक्ति अथवा उस शक्ति का प्रेरक एक नया रूप धर कर खड़ा होता है। हिन्द जाति की आत्मा ने ऐसे समय में जब कि इस देश का मुख्य भोजन मांस था आचार्य महावीर नाटपुत्र के रूप में अवतार ले For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनाचार्यका निर्वाण । कहा 'बस ! अब बहुत हुआ, छुरी की जगह दया धारण करो।' नाटपुत्र निर्ग्रन्थ ने यहांके मनुष्येतर प्राणियों को निर्ग्रन्थ-स्वतंत्र किया । भागलपुर के पास एक छोटे से पंचायती राज्याणराज्य के एक ठाकुर के बेटे के मन में दया की दिग्विजय की कामना उठी । उस समय भारतवर्ष में चारों ओर राज्यनैतिक दिग्विजय की कामना हवा पानी पेड़ पत्ते में भर रहीं थी । छोटे छोटे राज्य पाण्डवों के महाराज्य सा राज्य बनाना चाहते और आसमुद्र एकचक्र, एकछत्र राज्य स्थापित किया चाहते थे; उसी फसल में अङ्ग के खेत में एक निराला फूल खिला। उसे हम 'अहिंसाविजय' कहेंगे । विजय और साथ ही अहिंसा ! जिन अर्थात् विजेता और 'साथ ही चींटी तक न दवे ! नाटपुत्र की विजय हुई। ' साई चले पउला पउला चिंउटी बचाय के ' ग्राम की बात है । चींटी को चारा देनेवाले, पिंजरापोल बनानेवाले, नीलकंठ कोः व्याध के हाथ से मुक्त करनेवाले हिन्दू, अपनी अलौकिक दया पर घमंड करने वाले हिन्दू, नाटपुत्र की बात मान गए । ऐसे बहादर को जिसने अपने से निर्बल को मारना कायरता और पाप मनवा दिया, हिन्दू लोगों ने ठीक ही — महावीर ' की उपाधि से भूषित किया । वह भारत के नहीं, संसार के महावीरों में जब तक चन्द्र और सूर्य है गिना जायगा। वेदद्रोही बुद्ध का आदर हिन्दुओं ने उन्हें अवतार मान कर किया । पर क्या हिन्दू अपने महावीर नाटपुत्र को भूल गए ? नहीं, उसकी याद वे हर साल करते हैं । हिन्दूजाति अपना इतिहास For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - भूल गई है, पर अपनी ऐतिहासिक संस्थाएं वह भक्तिपूर्वक मानती और चलाती चली आई है जिनके कारण बुद्धिबल और सुदिन पाने पर वह अपना इतिहास फिर जान जायगी । हिन्दुओं के त्योहार उस के सुदिन के अनश्वर बीज हैं । अवसर और देशकाल का मेह पाउन त्योहारों और रस्मों से अभ्युदय पनप पड़ेगा । ५८ 'जिन' नाटपुत्र का मृत्युदिन उनके जन्म दिन से भी बड़े उत्सव का दिन था, क्योंकि उस दिन उन्हों ने अपना मोक्ष माना । उनका मोक्ष कार्त्तिक की अमावस्या को हुआ । पावा कसबे में वहां के ज़मींदार के दफ्तर में उनका निर्वाण हुआ । उनका मोक्ष मनाने को पावापुरी ने ' दीपावली ' की । तब हीसे आज एक पावापुरी नहीं आर्यावर्त्त की सारी पुरियां - कार्त्तिक की अमावस्या को दीपावली का उत्सव मनाने लगीं और वह कितनी ही शताब्दियों से जातीय महोत्सव हो गया है । पि ज्ञान का रूप है। ज्ञानी और ज्ञानदाता नाटपुत्र महावीर के स्मरणार्थ इस से उपयुक्त महोत्सव क्या हो सकता है? प्राकृत जैन कल्पसूत्र ( १२३ से आगे ) में महावीर के जीवनचरित में पावा में उनके मरण का जहां विवरण दिया है वहीं निर्वाण के उत्सव में दिवाली करना भी लिखा है । हम लोगों के और किसी प्राचीन ग्रन्थ में दीपावली महोत्सव की उत्पत्तिकथा नहीं लिखी है | हम हिन्दू जैसे अपनी बहुत सी जातीय बातें भूल गए थे, उसी तरह इस महोत्सव का मूल भी भूल गए थे । जैसे बुद्ध भगवान् के मंदिर में हम नहीं जाते, उसी तरह For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनाचार्यका निर्वाण । ५९ जिनदेव के भी मन्दिर में नहीं जाते, अर्थात् दोनोंके मत-वाद को हिन्दू तसलीम नहीं करते । पर दोनों आचार्यों को हिन्दू जातीय महावीर, जातीय महात्मा और जातीय सभ्यता के स्तम्भ मानते हैं । अपने समय में हिन्दूजाति की दया ने सिद्धार्थ और नाटपुत्र के रूप में जन्म लिया था, जाति की जातिने मानों उन्हीं की आत्माके अन्तर्गत पैठ अपना निश्चय, दयानिश्चय प्रकट किया। जो तितिक्षा बाबू हरिश्चन्द्र में थी वही हमारे पूर्वजों में थी। पूर्वजों ने भगवान बुद्ध को परमात्मा का अवतार मान लिया जैसे बाबू हरिश्चन्द्र ने महावीर और उनके पहलेके तीर्थकर पार्श्वनाथ को अवतार कहा । तब. क्या अचरज है कि पूजाह अर्हन्त महावीर की स्मृति में हिन्दू जातिने एक महोत्सव चलाया ? जैन को नास्तिक भाखै कौन। परम धरम जो दया आहिंसा सोई आचरत जौन ॥ .. सत्कर्मन को फल नित मानत अति विवेक के भौन॥ तिन के मताहिं विरुद्ध कहत जो महा मूढ है तौन ॥ (हरिश्चन्द्र) ( पाटलिपुत्रसे उद्धृत) For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी प्राचीन खोज। भीलसा। विजयमण्डलमन्दिर--आदिमें यह मन्दिर वैष्णव या जैन था । वर्तमानमें वेदिकादिके चिह्न बिलकुल मिट गये हैं । मन्दिरकी सुन्दर कारीगरी और चित्रादिसे विदित हुआ कि यह बहुत प्राचीन है । खंभोंकी नक्काशी पुराने ढंग की है। प्रत्येक खंभे पर बारह लहरें पड़ी हुई हैं। - वज्रमन्द जैनमन्दिर-यह मंदिर ग्यारसपुरकी ओर मलाडियन पर्वतकी तलहटीमें है। पहले बहुत सुन्दर रहा होगा; पर वर्तमानमें खण्डहर हो रहा है । इसकी मरम्मत किसी भद्दे समयमें हुई है। जिन खंभों पर मूर्तियाँ विराजमान हैं वे किसी अन्य। प्राचीन मन्दिरसे लाये गये हैं। मन्दिरमें तीन वेदिका हैं । मध्यकी वेदिकामें हाथियोंके ऊपर सिंहासन पर एक पद्मासन मूर्ति है। दाहिनी ओर एक खड्गासन–मूर्ति है और उसके दोनों ओर कई छोटी छोटी खड्गासन मूर्तियाँ हैं। इसके बादकी वेदिकामें दो सिंहों पर रखे हुए सिंहासन पर भी जैनमूर्ति विराजमान है । ई० सन् ६५० के पहलेका यह मन्दिर मालूम होता है। ___ इसी ग्राममें एक मन्दिरमें मिले हुए चार खंभे और एक तोरण बहुत ही सुन्दर हैं । ये उसी समय के बने हुए मालूम होते हैं जिस समयका उक्त प्राचीन मन्दिर है। - गरूरमलका मन्दिर-बारूके समीप पथारी ग्राममें यह मन्दिर है । इसके भीतर देवोंकी मूर्तियाँ नहीं हैं। कहा जाता है कि एक गड़रियेने इसको अपनी स्त्रीकी यादगारमें बनाया था । मन्दिरके For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन खोज। nu भीतर गड़रियेकी स्त्रीकी सुन्दर मूर्ति है जो भीतके सहारे खड़ी है। उसके पास ही चार सेविकाओंकी मूर्तियाँ हैं । ये सब मूर्तियाँ पूरे कदकी हैं । मन्दिर पर एक बढ़िया तोरण भी है । एक मीनार खड़ा है, उस पर एक सिंहकी मूर्ति है । यह एक आदर्श जैनमन्दिर था। थोबन । थोबनसे पूर्वकी ओर पथरीले वनमें पार्श्वनाथके नामसे प्रख्यात जैनमन्दिरोंका एक समूह है। ये सब वणिकोंके बनवाये हुए हैं। ये बहुत प्राचीन नहीं हैं; परन्तु इनके बीचमें एक विष्णुका मन्दिर दशवीं शताब्दिका बना हुआ है जिसमें अनेक चित्र बने हुए हैं । एक जैनमूर्ति स्थापित करके जैनोंने इसकी प्रतिष्ठा भी करा डाली है। पहले यह मन्दिर बहुत सुन्दर रहा होगा । इसमें भीतर प्रवेश करते ही एक बुद्ध देवकी उकीरी हुई मूर्ति दृष्टि पड़ती है। उज्जैन। भरतरी गुफा—यह प्राचीन स्थान जैनमन्दिरोंके बीचमें है। इसमें शताब्दियों पहलेकी प्राचीन जैनमूर्तियाँ स्थापित हैं। जुमा मसजिद—साफ मालूम होता है कि यह बहुत प्राचीन जैनमन्दिर है । इसमें लाल पत्थरके बहुत ही सुन्दर खंभे हैं; परन्तु इस जिले भरमें कहीं लाल पत्थर नहीं मिलता है। चैनी खंभा—यह लाल रेतीले पत्थरका बना हुआ है और जैनोंकी प्राचीन शिल्पकारीका सुन्दर नमूना है। ( जयाजी प्रतापके एक अँगरेजी लेखसे ) विश्वभरदास गार्गीय । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.. सेठ देवचन्द-लालचन्द-पुस्तकोदार फण्ड । यह बड़ी ही प्रसन्नताकी बात है कि जैनसाहित्यके प्रकाश करनेकी ओर जैनसमाजका ध्यान जा चुका है और उसके उद्योगसे दिन पर दिन आधिकाधिक ग्रन्थ प्रकाशित होते जाते हैं। इस विषयमें दिगम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय बहुत आगे बढ़ गया है और यही कारण है कि आज साहित्यसेवियोंमें सबसे अधिक चर्चा श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंकी है। इस सम्प्रदायके अनुयायियोंने जो अनेक ग्रन्थप्रकाशिनी संस्थायें स्थापित की हैं उनमें ' सेठ देवचन्दलालचन्द पुस्तकोद्धार फंड,' विशेष उल्लेखयोग्य है । इसे सूरतके प्रसिद्ध जौहरी सेठ देवचन्दलालचन्दजी अपने मृत्युपत्रमें ४५ हजारका दान करके स्थापित कर गये हैं। आगे इस फंडमें सेठजीके पुत्र गुलाबचन्दजीने और उनकी पुत्री श्रीमती जीवकोर बाईने पचीस पचीस हज़ार रुपया और भी दिये और इस तरह अब यह फंड लगभग एक लाख रुपयाका हो गया है । इसकी ओरसे श्वेताम्बरसम्प्रदायके संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और अँगरेजी ग्रन्थ प्रकाशित किये जाते हैं। प्रत्येक ग्रन्थ लागतके या उससे भी कम मूल्य पर बेचा जाता है । साधु साध्वियों, असमर्थ श्रावकों, पाठशालाओं, मन्दिरों और पुस्तकालयोंके लिए बिनामूल्य ग्रन्थ देनेकी भी व्यवस्था है। संस्था अच्छे ढंगसे चल रही है। उसकी देखरेख ६ टूस्टियोंके हाथमें हैं। रुपया विश्वस्त बैंकों तथा प्रामिसरी नोटोंमें सुरक्षित है। अब तक इसकी ओरसे २३ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं जिन For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ देवचन्दलालचन्द-पुस्तकोद्धार फण्ड । www.mmmmm सबका मूल्य लगभग १२) रु० होता है । हमारे पास संचालकोंने निम्न लिखित चार ग्रन्थ भेजनेकी कृपा की है: १ आनन्दकाव्यमहोदधि प्रथम मौक्तिक, (गुजराती ) २ पंचप्रतिक्रमण सूत्राणि .... .... (सं०प्राकृत) ३ दि कर्म-फिलोसोफी .... .... ( अँगरेजी ) ४ दि योग-फिलोसोफी .... .... ( , ) पहले ग्रन्थमें शालिभद्ररास, कुसुमश्रीरास, कुमारपाल-प्रस्ताविक काव्य, अशोकचन्द्र-रोहिणीरास और प्रेमलालक्ष्मीदास इन पाँच गुजराती काव्योंका संग्रह है । प्रारंभमें लगभग ६० पृष्ठका - विवेचन ' है जिसमें प्रत्येक काव्यके लेखकका इतिहास, काव्यका विशेषत्व आदि बातोंका विचार किया गया है । लगमग ५५० पृष्टका कपडेकी पक्की जिल्द बँधा हुआ ग्रन्थ है, तो भी मूल्य सिर्फ दश आना रक्खा गया है। दूसरा ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत भाषाका है । इसमें स्तवनों और प्रतिकमणसूत्रोंका संग्रह है । सवा दोसौ पृष्ठका पक्की जिल्दका ग्रन्थ है । मूल्य सिर्फ चार आना। तीसरा और चौथा ये दोनों ग्रन्थ अंगरजीके हैं। इनमें स्वर्गीय वीरचन्द राघवजी गांधी बी. ए. बैरिस्टर एट् लाके उन लेखों और व्याख्यानों संग्रह है जो उन्होंने अपने अमेरीकाके प्रवासमें स्थान स्थान पर दिये थे। ये दोनों ग्रन्थ बड़े ही महत्वके हैं और बड़े ही परिश्रमसे संग्रह किये गये हैं । उनका मूल्य भी बहुत ही कम अर्थात् पाँच पाँच आने है। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी इस संस्थाकी दो वर्षकी संक्षिप्त रिपोर्ट हमारे पास आई है जिससे मालूम होता है कि पिछले वर्षके अन्तमें संस्थाके पास १११७२१०)॥ मौजूद रहे। दोनों वर्षमें लगभग ११०० पुस्तकें मुफ्त बाँटी गई। पिछले वर्षमें अर्थात् सं० १९७० विक्रम संस्थाकी ओरसे आठ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इस तरह संस्थाक दशा सब तरहसे संतोषयोग्य जान पड़ती है। हमारी इस संस्थाके साथ पूर्ण सहानुभूति है और हम चाहते हैं कि जैनसमाजमें इस तरहकी और भी अनेक संस्थायें खुलें क्या ही अच्छा हो यदि हमारे दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी में एक ऐसी ही संस्था स्थापित करें और उसके द्वारा अपने लुप्तप्रार साहित्यको जनसाधारणकी दृष्टि तक पहुँचानेका श्रेय प्राप्त करें स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दनीके स्मारकमें जो फण्ड खोल गया है उसकी ओरसे एक संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थमाला निकालनेक निश्चय हुआ है । क्या हमारे भाई इसी फण्डको बढाकर कमसे कम २५-३० हजारका नहीं कर सकते हैं ? दुर्बुद्धि। मैं एक कसबेकी सरकारी अस्पतालका डाक्टर हूँ । पुलिसवे थानेके सामने मेरा मकान है । यमराजके साथ मेरी जितनी मित्रता थी दारोगा : साहबके साथ भी उससे कम न थी। जिस तरह मणिसे वलयकी ( कडेकी ) और वलयसे मणिकी शोभा बढ़ती है उसी तरह मेरी मध्यस्थतासे दारोगा साहबकी और दारोगा साहबकी मध्यस्थतासे मेरी आर्थिक श्रीवृद्धि होती थी। For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि। इन सब कारणोंसे दारोगा ललितचक्रवर्तीके साथ मेरी गहरी मित्रता थी। उनके किसी सम्बन्धीकी एक कन्या थी । दारोगा साहब उसके साथ विवाह करनेके लिए मुझसे सदा ही अनुरोध किया करते थे और इस तरह उन्होंने मुझे अपना बेदामका गुलाम बना रक्खा था । किन्तु मैंने अपनी एकमात्र मातृहीना कन्या सावित्रीको विमाताके हाथ सपना उचित न समझा । प्रतिवर्ष ही नये पंचांगके अनुसार विवाहके न जाने कितने मुहूर्त निकले और व्यर्थ चले गये । न जाने कितने योग्य और अयोग्य पात्र मेरी आँखोंके सामनेसे वर बनकर गृहस्थ बन गये; परन्तु मैं केवल उनके व्याहोंकी मिठाइयाँ खाकर और लम्बी साँसें खींचकर ही रह गया। A सावित्रीने बारह पूरे करके तेरहवें वर्ष पैर रक्खा । मैं विचार कर रहा था कि कुछ रुपयोंका इन्तजाम हो जाय तो लड़कीको किसी अच्छे घरमें ब्याह दूं और उसके बाद ही अपने ब्याहकी चिन्ता करूँ। इसी समय हरनाथ मजूमदार आया और पैरों पर पड़कर रोने लगा। बात यह थी कि उसकी विधवा लड़की रातको एकाएक मर गई थी और इस मौकेको व्यर्थ खो देना अच्छा न समझकर उसके शत्रुओंने दारोगा साहबको एक वेनामका पत्र लिखकर सूचना दे दी थी कि विधवा गर्भवती थी।गर्भपात करनेका प्रयत्न किया गया, इसलिए इसमें उसकी भी जान चली गई । बस यह संवाद पाते ही पुलिसने हरनाथका घर घेर लिया और विधवाकी लाशका संस्कार करनेमें रुकावट डाल दी। एक तो लडकीका शोक व्याकुल कर रहा था और उस पर For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी mmmmmmmmmmm यह असह्य अपवादकी चोट ! बेचारा बूढा अस्थिर हो उठा। बोलाआप डाक्टर भी हैं और दारोगा साहबके मित्र भी हैं, किर्स तरह मुझे बचाइए। - लक्ष्मीजीकी लीला विचित्र है । जब वे चाहती हैं तब इस तरह बिना ही बुलाई छप्पर फोड़कर आजाती हैं । मैंने गर्दन हिलाकर कहा- यह मामला तो बड़ा बेढब है !' और अपनी बातको प्रमाणित करनेके लिए दो चार कल्पित उदाहरण भी दे दिये । बूढा हरनाथ काँप उठा और बच्चेकी नाई रोने लगा। अन्तमें मामला ठीक हो गया और हरनाथको अपने लडकीके शवसंस्कार करनेकी आज्ञा मिल गई। उसी दिन शामको सावित्रीने मेरे पास आकर करुणापूर्ण स्वरसे पूछा-" पिताजी, आज वह बूढा ब्राह्मण तुम्हारे पैरों पड़कर क्यों रोता था ?" मैंने उसे धमकाकर कहा-" तुझे इन बातोंसे क्या मतलब है ! चल अपना काम कर !" इस मामलेसे कन्यादान करनेका मार्ग साफ हो गया । लक्ष्मीजी बड़े अच्छे मौके पर प्रसन्न हुई। विवाहका दिन निश्चित हो गया। एक ही कन्या थी, इसलिए खूब तैयारियाँ की गई । घरमें कोई स्त्री नहीं थी, इस लिए पड़ोसियोंसे सहायता लेनी पड़ी । हरनाथ अपना सर्वस्व खो चुका था, तो भी मेरा उपकार मानता था और इसलिए इस काममें मुझे जी-जानसे सहायता देने लगा। विवाहसमारंभ पूरा नहीं हो पाया । जिस दिन हल्दी चढाई गई उसी दिन रात्रिको तीन बजे सावित्रीको हैजा हो गया । बहुत For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि। उपाय किये गये, परन्तु लाभ कुछ भी नहीं हुआ । अन्तमें दवाइयोंकी शीशियाँ जमीन पर पटककर मैं भागा और हरनाथके पैरों पड़कर गिड़गिड़ाकर कहने लगा-" बाबा, क्षमा करो, इस पापीको क्षमा करो ! सावित्री मेरी एक मात्र कन्या है । संसारमें इसे छोड़कर मेरा और कोई नहीं है।" ___ हरनाथ मेरे कथनका कुछ भी मतलब नहीं समझा; वह घबड़ाकर बोला-" डाक्टर साहब, आप यह क्या करते हैं? मैं आपके उप कारसे दबा हुआ हूँ; मेरे पैरोंको मत छुओ !" मैंने कहा--" बाबा, तुम निरपराध थे तो भी मैंने तुम्हारा सर्वनाश किया है । मेरी कन्या उसी पापसे मर रही है।" .. यह कहकर मैं सब लोगोंके सामने चिल्लाकर कहने लगा" भाइयो, मैंने मनमाने रुपया लूटकर इस वृद्ध ब्राह्मणका सर्वनाश कर डाला है, अब मैं उसका फल भोग रहा हूँ। भगवन् , मेरी सावित्रीकी रक्षा करो।" इसके बाद मैं हरनाथके जूते उठाकर अपने सिरमें चटाचट मारने लगा; वृद्ध घबड़ा गया, उसने मेरे हाथसे जूते छीन लिये। ___ दूसरे दिन १० वजे हरिद्रा-रंग-रंजित सावित्री इस लोकसे विदा हो गई ! इसके दूसरे ही दिन दारोगा साहबने कहा-" डाक्टर साहब, क्या चिन्ता कर रहे हो ? घर-गिरस्तीकी सारसंभालके लिए एक आदमी तो चाहना ही पड़ेगा; फिर अब विवाह क्यों नहीं कर डालते?" मनुप्यके मर्मान्तिक दुःखशोकके प्रति इस तरहकी निष्ठुर अश्रद्धा किसी शैतानको भी शोभा नहीं दे सकती! इच्छा तो हुई कि दारोगा For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - साहबको दो चार सुना दूँ; परन्तु समय समय पर मैं उनके सामने जिस मनुष्यत्वका परिचय दे चुका था उसकी याद आ जाने से इस समय मेरा मुँह उत्तर देनेको नहीं खुल सका। उस दिन ऐसा मालूम हुआ कि दारोगाकी मित्रताने चाबुक मारकर मेरा अपमान किया है ! ६८ हृदय चाहे जितना व्यथित हो— चाहे जितना कष्ट आकर पड़े; परन्तु कर्मचक्र चलता ही रहता है— संसारके काम काज बन्द नहीं होते । सदाकी नाई भूखके लिए आहार, पहरनेको कपड़े, और तो क्या चूल्हे के लिए ईंधन और जूतोंके लिए फीता तक पूरे उद्योगके साथ संग्रह किये बिना काम नहीं चलता । यदि कभी कामकाजसे फुरसत पाकर मैं घर में अकेला आकर बैठता था, तो बीचबीचमें वही करुणकण्ठका प्रश्न कानके पास आकर ध्वनित होने लगता था—“ पिताजी, वह बूढ़ा तुम्हारे पैरों पड़कर क्यों रोता था? " और उस समय मेरे हृदय में शूलकी सी वेदना होने लगती थी । मैंने दरिद्र हरनाथके जीर्ण घरकी मरम्मत अपने खर्च से करा दी | एक दुधारू गाय उसे दे दी और उसकी जो जमीन महाजनके यहाँ गिरवी रखी गई थी उसका भी उद्धार करा दिया । मैं कन्याशोककी दु:सह वेदनासे कभी कभी रात रातभर करवटें बदलता पड़ा रहता था — घडीभरको भी नींद न आती थी । उस समय सोचता था कि यद्यपि मेरी कोमलहृदया कन्या संसारलीलाको शेष करके चली गई है तो भी उसे अपने बाप के निष्ठुर दुष्कर्मो के कारण For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि। परलोकमें भी शान्ति नहीं मिल रही है-वह मानों व्यथित होकर यही प्रश्न करती फिरती है कि-"पिताजी तुमने ऐसा क्यों किया ?" कुछ दिन तक मेरा यह हाल रहा कि मैं गरीबोंका इलाज करके उनसे फीसके लिए तकाजा न कर सकता था । यदि किसी लड़कीको कोई बीमारी हो जाती थी तो ऐसा मालूम होता था कि मेरी मावित्री ही सारे गाँवकी बीमार लड़कियोंके रूपमें रोग भोग रही है। ___ एक दिन मूसलधार पानी बरसा । सारी रात बीत गई, पर वर्षा बन्द न हुई । जहाँ तहाँ पानी ही पानी दिखाई देने लगा । घरसे बाहर जानेके लिए भी नावकी जरूरत पड़ने लगी ! उस दिन मेरे लिए मालगुज़ार साहबके यहाँसे बुलावा आया था । भालगुजारकी नावके मल्लाहोंको मेरा जरा भी विलम्ब सह्य नहीं हो रहा था; वे तकाजे पर तकाजे कर रहे थे। पहले जब कभी ऐसे मौके पर मुझे कहीं बाहर जाना पड़ता था, तब सावित्री मेरे पुराने छातेको खोलकर देखती थी कि उसमें कहीं छिद्र तो नहीं है और फिर कोमल कण्ठसे सावधान कर देती थी कि “ पिताजी, हवा बहुत तेजीसे चल रही है और पानी भी खूब वरस रहा है, कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । " उस दिन अपने शन्य शब्दहीन घरमें अपना छाता स्वयं खोजते समय मुझे उस स्नेहपूर्ण मुखकी याद आ गई और मैं सावित्रीके वन्द कमरेकी ओर देखकर सोचने लगा-जो मनुष्य दूसरेके दुःखोंकी परवा नहीं करता है, भगवान् उसे सुखी करनेके लिए उसके घरमें सावित्री जैसी स्नेहकी चीज़ कैसे रख सकता है ? यह सोचते सोचते For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी मेरी छाती फटने लगी। उसी समय बाहरसे मालगुज़ार साह बके नौकरोंके तकाजेका शब्द सुन पड़ा और मैं किसी तरह शोक संवरण करके बाहर निकल पड़ा। नाव पर चढ़ते समय मैंने देखा कि थानेके घाट पर एक किसान लँगोटी लगाये हुए बैठा है और पानीमें भीग रहा है । पास ही एक छोटी सी डोंगी बँध रही है । मैंने पूछा- " क्यों रे, यहाँ पानीमें क्यों भीग रहा है ? " उत्तरसे मालूम हुआ कि कल रातको उसकी कन्याको साँपने काट खाया है, इस लिए पुलिस उसे रिपोर्ट लिखानेके लिए थानेमें घसीट लाई है। देखा कि उसने अपने शरीर एक मात्र वस्त्रसे कन्याका मृत शरीर ढक रक्खा है। इसी समर मालगुजारके जल्दवाज़ मल्लाहोंने नाव खोल दी। ___ कोई एक बजे मैं वापस आ गया । देखा कि तब भी वह किसान हाथ पैरोंको सिकोड़कर छातीसे चिपटाये बैठा है और पानीमें भीग रहा है। दारोगा साहबके दर्शनोंका सौभाग्य उसे तब भी प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने घर जाकर रसोई बनाई और उसका कुछ भाग किसानके पास भेज दिया; परन्तु उसने उसका स्पर्श भी न किया। ___ जल्दी जल्दी आहारसे छुट्टी पाकर मैं मालगुजारके रोगीको देखनेके लिए फिर घरसे बाहर हुआ । संध्याको वापस आकर देखा तो उस किसानकी दशा खराब हो रही है। वह बातका उत्तर नहीं दे सकता, मुँहकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगता है। उस समय नदी, गाँव, थाना, मेघाच्छन्न आकाश और कीचड़मय पृथ्वी आदि सब चीजें उसे स्वप्नके जैसी मालूम होती For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि । थीं ! बारबार पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उससे एकबार एक सिपाहीने आकर पूछा था कि 'तेरे पास कुछ रुपये हैं या नहीं' और इसके उत्तरमें उसने कह दिया था कि 'मैं बहुत ही गरीब हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है । ' सिपाही तब यह कहकर चला गया था, 'तो कुछ नहीं हो सकता, यहीं पड़े रहना पड़ेगा। ' मैंने इस प्रकारके दृश्य सैकड़ों ही बार देखे थे, पर उनका मेरे चित्त पर कुछ भी असर नहीं पड़ा था, मगर उस दिन उस किपानकी दशा मुझसे नहीं देखी गई - मेरा हृदय विदीर्ण होने लगा | सावित्रीके करुणागद्गद् कण्ठका स्वर जहाँ तहाँसे "सुनाई पड़ने लगा और उस कन्यावियोगी वाक्यहीन किसानका अपरिमित दुःख मेरी छातीको चीरकर बाहर होने लगा । पी । दारोगा साहब बेतकी कुर्सी पर बैठे हुए आनन्दसे हुक्का रहे थे । उनके पूर्वोक्त सम्बन्धी महाशय भी वहीं बैठे हुए गप्पें हाँक रहे थे जो कि अपनी कन्याका विवाह मेरे साथ करना चाहते थे । वे इस समय इसी कामके लिए वहाँ पधारे थे । मैं झप - टता हुआ पहुँचा और दारोगा साहब से चिल्लाकर बोला- “आप मनुष्य हैं या राक्षस ? " इसके साथ ही मैंने अपने जीवनकी सारी कमाई के रुपयोंकी थैली उनके सामने पटक दी और कहा - "रुपया चाहिए तो ये ले लो, जब मरोगे तब इन्हें साथ ले जाना; परन्तु इस समय इस गरीबको छुट्टी दे दो, मैं इसकी कन्याका अन्तिम संस्कार करा दूँ ! "" ७१ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनहितैषी - दारोगा साहबका जो प्रेम-मैत्री-विटप अनेक दुखियोंके आँसु ओंके सेचनसे लहलहा रहा था, वह इस आकस्मिक आँधीसे गिरकर जमीनमें मिल गया ! ( रवीन्द्रबाबूकी एक गल्पका अनुवाद । ) मालवा-प्रान्तिक-सभाका वार्षिक अधिवेशन । ग त ७ नवम्बरसे ९ नवम्बरतक दि० जै० मालवा TAN प्रान्तिक सभाका जल्सा खूब धूमधामके साथ - हो गया । यह अधिवेशन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट पर हुआ था । हमारी जितनी प्रान्तिकसभायें हैं उनमें अब दूसरा स्थान मालवासभाको मिलना चाहता है । अभी तक एक बम्बई प्रान्तिकसभा ही ऐसी थी जो एक सभाके रूपमें काम करती थीं; परन्तु अब देखते हैं कि मालवासभा भी उसी मार्ग पर पैर बढ़ाती जाती है । लगभग चार पाँच हजार स्त्री पुरुषोंका जमाव हुआ था । यह जानकर पाठक आश्चर्य करेंगे कि बडवाहकी एक धनिक विधवा बाईके उत्साह और अर्थव्ययसे यह अधिवेशन हुआ था । इस महिलारत्नका नाम श्रीमती बेसरबाई है । जैनसमाजमें शायद यह पहला उदाहरण है जिसमें For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा-प्रान्तिक सभाका वार्षिक अधिवेशन। ७३ एक स्त्रीने मन्दिरप्रतिष्ठादिके प्रचलित पुण्य कार्योंको छोड़कर सार्वजनिक सेवा करनेवाली सभाके लिए इतनी उदाहरण दिखलाई हो । इससे जान पड़ता है कि हमारे स्त्रीसमूहकी भी रुचि सभासुसाइटियोंकी ओर होती जाती है। ये अच्छे लक्षण हैं । स्वागतकारणी सभाने अधिवेशनका प्रबन्ध प्रशंसनीय पद्धतिसे किया था। इस काममें लगभग पाँच हजार रुपये खर्च हो गये। सभापतिका आसन धूलियानिवासी सेठ गुलाबचन्दजीको दिया गया था । सभापतिका व्याख्यान। आपका व्याख्यान, समायानुकूल और बहुत कुछ उदार विचा'रोंसें पूर्ण हुआ है। जैनग्रन्थोंको छपाकर प्रकाशित करना, जैनोंकी समस्त जातियोंमें रोटीबेटीव्यवहार होना, आदि ऐसे विषयोंका भी आपने प्रतिपादन किया है जिनके विषयमें अब तकके सेठ-सभापतियोंमेसे शायद ही किसीने जबान हिलाई हो । यद्यपि आपने इन बातोंको दवी जबानसे कुछ डरते हुए कहा है; पर कहा अवश्य है । वर्णाश्रम धर्म और राष्ट्रीयताके विषयमें आपने जो कुछ कहा है वह इस विषयकी सर्व बाजुओं पर विचार करके नहीं कहा है । वर्णको गुणकर्मानुरूप न मानकर जन्मसिद्ध माननेसे क्या क्या हानियाँ होती हैं, धर्मदृष्टिसे किसी मनुष्यको नीच अस्पर्य माननेका किसीको अधिकार है या नहीं और गुणकर्मसे नीचत्व उच्चत्व कहाँतक प्राप्त हो सकता है, इन सब बातों पर विचार करके इस प्रश्नकी मीमांसा होनी चाहिए For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - थी। जो लोग वर्णभेदके विरुद्ध हैं उनके वे सिद्धान्त नहीं हैं जो व्याख्यानमें बतलाये गये हैं । एकता और सार्वजनिक कामोंमें योग, इन दो विषयों पर बहुत ही उदारतापूर्वक चर्चा की गई है । इससे जान पड़ता है कि सभापति महाशय सार्वजनिक कामों से बहुत प्रेम रखते हैं । एकतामें उन्होंने दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरहपंथ, वीसपंथ आदिके झगड़ोंको भूलकर सम्मिलित शक्तिसे काम करनेका उपदेश दिया है । ७४ स्वागतकारिणी सभा के सभापति श्रीयुत बाबू माणिकचन्द्रजी बी. ए. एल एल. बी. वकील खंडवा बनाये गये थे । विद्यार्थी-जीवनमें आप जैनसमाजके कार्योंमें बहुत योग दिया करते थे । भारतजैनहामण्डलकी आप जीजानसे सेवा करते थे; परन्तु इधर कई वर्षों से आपने इस ओर से बिलकुल हाथ खींच लिया था । हर्षका विषय है कि मालवा प्रान्तिकसभा अब उन्हें फिर इस ओर खींच लाई है और हमें आशा दिला रही है कि बाबू माणिकचन्दजी जैनसमाजके कार्यों में पहलेहीके समान फिर योग देने लगेंगे । आपका व्याख्यान पिछले अंकमें प्रकाशित हो चुका है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह आपकी योग्यताके सर्वथा अनुरूप हुआ है । जैनसभाओं में इस प्रकारके व्याख्यान सुननेके अवसर बहुत कम प्राप्त होते हैं और इसका कारण यह है कि बहुत कम सभायें ऐसी हैं जो कभी भूल चूककर ऐसे योग्य पुरुषोंको सभापति चुन लिया करती हैं । इस तरहकी एक भूल बम्बई प्रान्तिकसभाने बाबू अजितप्रसादजीका चुनाव करके 1 1 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा-प्रान्तिक सभाका वार्षिक अधिवेशन। ७५ की थी, या अबकी बार यह दूसरी भूल मालवा प्रान्तिकसभाने की है ! स्वागतकारिणी सभाके सभापतिका व्याख्यान । जो लोग जैनसमाजकी उन्नतिमें दत्तचित्त हैं और उसकी भलाईमें लग रहे हैं उनके लिए यह व्याख्यान मार्गदर्शकका काम देगा । इसमें प्रायः सभी आवश्यकीय बातोंकी चर्चा की गई है और सभी बातों पर अपने स्वतंत्र मन्तव्य प्रकट किये गये हैं। जैनसमाजकी उन्नतिका आदर्श क्या होना चाहिए, इस विषयमें वे कहते हैं:" जैनसमाजकी भावी उन्नतिका आदर्श भी अन्य जातियोंके समान यह होना चाहिए कि हमारी समाजरूपी इमारतके बनानेमें नीव हमारे प्राचीनकी हो, ‘स्टाइल हमारी हो, परन्तु मसाला जहाँ अच्छा मिले वहाँसे लाकर उसे अपनी आवश्यकताओंके अनुकूल बनाकर दीवालें तथा छतें उसीकी बनाई जावें । नकल कभी अच्छा नहीं होती, वह चाहे प्राचीन पूर्वकी हो या अर्वाचीन पश्चिमकी हो। मेरी सम्मतिमें हमें भली बातें ग्रहण करनेमें ज़रा भी संकोच न करना चाहिए, चाहे वे प्राचीनकालसे मिलें या वर्तमान कालसे-पूर्वसे मिलें या पश्चिमसे । उन भली बातोंको हमें अपने उपयुक्त बनाकर उन्हें ग्रहण करनी चाहिए । रीतियें-रस्में इत्यादि किसीकी सम्पत्ति नहीं होतीं, उन पर सब कौमोंका हक़ है । चाहे कोई कुछ करे, पर हमारी समाज वर्तमान कालके प्रभावसे नहीं बच सकती । औरोंने जो सामाजिक विकास सम्बन्धी शोध किये हैं उनसे हमें लाभ उठना चाहिए। इत्यादि ।" इन थोडीसी पंक्तियोंमें बहुत विचार करने योग्य बातें For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी www.www... कह दी गई हैं। इस आदर्शको स्वीकार कर लेनेसे प्राचीनता और अर्वाचीनताके अभिमानियोंकी पारस्पारिक खींचाखींची बहुत कुछ कम हो सकती है। जैनसाहित्यकी रक्षा और प्रसारके लिए बाबू साहबने बहुत अधिक जोर दिया है। कहा है कि, “जैनग्रन्थ इस प्रचुरताके साथ छपवाकर वितीर्ण किये जावें कि सारा संसार उनसे पूर्ण हो जावे और लोग उन्हें पढनेके लिए मजबूर हो ।' आराके सिद्धान्त भवनके सम्बन्धमें जो जातिकी उदासीनता दिखलाई गई है हमारी समझमें उसके साथ साथ उसके संचालकोंकी भी उदासीनता और आलस्यका उल्लेख करना चाहिए था । संचालक यदि उत्साही प्रयत्नशील और सुयोग्य हों तो वे लोगोंकी उदासीनताको बहुत कुछ कम कर सकते हैं । सिद्धान्त भवनके कार्यकर्ता अभी तक अपने संग्रहीत पदार्थों और ग्रन्थोंकी एक सूची भी प्रकाशित नहीं कर सके हैं । तीनवर्षसे तो उसकी रिपोर्ट भी प्रकाशित नहीं हुई है। आगे उन्होंने जैनसमाजकी शिक्षासंस्थाओंकी आलोचना की है। वे कहते हैं कि-" एक दोको छोड़कर हमारी इन शिक्षासम्बन्धी संस्थाओंसे हमारी कौमको न वास्तविक लाभ हुआ है और न हो रहा है। इसका प्रधान कारण यह है कि हम इस कार्यको शिक्षासम्बन्धी उचित प्रणाली निश्चित किये विना कर रहे हैं। हमारी शिक्षाप्रणाली आवश्यकताओंके अननुरूप और समयके विपरीत है। ऐसी कोई भी शिक्षाप्रणाली सर्वसाधारणको प्रिय तथा स्वीकृत नहीं हो सकती जो उन्हें लौकिक शिक्षा प्रदान कर उनको लौकिक लाभ तथा लौकिक उन्नतिके और जीवननिर्वाहके मार्ग For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा-प्रान्तिक सभाका वार्षिक अधिवेशन। ७७ प्रदान न करे । इसी कारण साधारण लौकिक शिक्षाके विषयमें सरकारी शिक्षापद्धतिके विरुद्ध एक स्वतंत्र पद्धति स्थापित कर पृथक् पाठशालाएँ कायम करनेकी जैनसमाजके लिए आवश्यकता नहीं । ऐसा करनेसे कुछ लाभ नहीं होगा। गवर्नमेंटकी शिक्षाप्रणालीमें जो त्रुटियाँ हैं, केवल उन्हींकी पूर्तिके लिए हमें खास उद्योग करना चाहिए । अर्थात् हमें अपने बालकोंको साधारण शिक्षा तो सरकारी पाठशालाओंमें दिलाना चाहिए और धार्मिक शिक्षाके लिए हमें स्वतंत्र प्रबन्ध कर लेना चाहिए ।" इसमें सन्देह नहीं कि ये विचार बहुत कम लोगोंको पसन्द आवेंगे; परन्तु इनमें सत्यताका अंश बहुत है । जिन शहरोंमें सरकारी स्कूल हैं वहाँ एक स्वतंत्र पाठशाला स्थापित करना उस दशामें अच्छा हो सकता है जब उसका प्रबन्ध और उसकी शिक्षापद्धति सरकारी स्कूलोंसे अच्छी हो । नहीं तो स्वतंत्र पाठशालासे उलटी यह हानि होगी कि जो विद्यार्थी सरकारी स्कूलोंमें पढ़कर अच्छी योग्यता सम्पादन कर लेते, वे हमारी अस्तव्यस्त पाठशालामें पढ़कर मूर्ख रह जायेंगे । उन्हें छहढाला, मंगल, सूत्र, भक्तामर तो आवश्य आ जावेंगे; परन्तु और कुछ नहीं आवेगा। ऐसे स्थानोंमें दिनकी स्वतंत्र पाठशालायें न खोलकर दो घंटेके लिए रातकी पाठशालायें खोली जावें और उनमें जैनधर्मकी शिक्षा दी जावे तो बहुत लाभ हो । हम इस वातको नहीं मानते कि जैनसमाजको अपनी स्वतंत्र शिक्षा-संस्थायें खोलना ही न चाहिए अथवा कोई दूसरी स्वतंत्र शिक्षापद्धति जारी न करना चाहिए । इसकी हम बहुत आवश्यकता समझते हैं-अन्य For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - समाजोंने इसतरहकी कई संस्थायें खोली भी हैं; परन्तु ऐसी संस्थायें खोलना हँसी खेल नहीं है । इसके लिए बहुत बड़ी पूँजी और शिक्षाविज्ञानके अच्छे अच्छे विद्वान् संचालकोंकी आवश्यकतां है। ऐसी संस्थायें कोरे न्याय - व्याकरण - धर्मशास्त्र के पण्डितोंके भरोसे नहीं खोली जा सकती हैं । इसलिए जबतक हमारेपास ऐसी संस्थायें खोलने के साधन न हों तबतक छोटी छोटी स्वतंत्र संस्थायें न खोलकर सरकारी स्कूलोंसे ही लाभ उठाना चाहिए और धर्मशिक्षाका प्रबन्ध रात्रिकी पाठशालायें खोलकर कर देना चाहिए । आगे चलकर बाबू साहबने एक 'जैनशिक्षासमिति ' स्थापित करनेकी और ' महावीर जैनकालेज ' खोलनेकी आवश्यकता प्रकट की है । हमारी समझमें इन दोनों संस्थाओंकी जरूरत तो है; पर अभी इनके स्थापित होनेका - अच्छी तरह चल सकनेका समय नहीं आया है और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अभी तक हमारे शिक्षित भाइयोंका ध्यान इस ओर बहुत ही कम आकर्षित हुआ है । हमारे यहाँ काम करनेवालोंकी इतनी कमी है कि कालेज तो बहुत बड़ी बात है - एक हाईस्कूलका अच्छी तरह चला लेना भी बहुत कठिन जान पड़ता है । बम्बईका जैनहाईस्कूल इसका प्रमाण है । इसके बाद आपने जैनसमाजके जातिभेद और विशेष करके उपभेदोंको मिटादेनेकी चर्चा करके - बहुतसी कुरीतियोंको दूर करनेकी सूचना की है । समाजसुधारके प्रश्नका विचार करते हुए आपने जो नवयुवकोंको और पुराने विचारवालोंको सूचनायें की हैं वे बहुत महत्त्वकी हैं और उनसे आपकी दीर्घदृष्टिका परिचय 1 ७८ For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा - प्रान्तिक सभाका वार्षिक अधिवेशन | Į मिलता है | जहाँ आपने युवकोंको उद्धतता छोड़ने और धैर्यसे काम करने तथा अपने पक्ष पर स्थिर रहनेका उपदेश दिया है वहाँ बूढ़ोंको यह भी समझाया है कि वे नई पीढ़ीकी विचारप्रगतिके बाधक न बनें और विना प्रजाके राजा और विना अनुया - यियोंके मुखिया बननेका मौका न आने देवें । बीचमें और भी अनेक विषयोंकी चर्चा करके बाबूसाहबने अन्तमें कहा है कि “हमें सदा इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि हम हिन्दू जातिके एक अंग हैं और हमें कदापि उससे पृथक् होनेकी चेष्टा न करनी चाहिए । हमको कभी न भूलना चाहिए कि हम केवल जैन ही नहीं हैं हम हिन्दू भी हैं । हम हिन्दुस्थानके निवासी हैं, अतएव इस देशकी भक्ति तथा सेवा करना हमारा धर्म है ।" हम आशा "करते हैं कि जैनसमाजके नेता बाबूसाहबके इन वाक्यों पर ध्यान रक्खेंगे और देश के सार्वजनिक कार्योंमें उसी तरह योग देंगे जिस तरह और लोग देते हैं । हमें अपने इस कर्तव्यको और इस अधिकारको कभी न भुला देना चाहिए । अभी तक हमारे प्रयत्न प्रायः अपने हिन्दू भाइयों से जुदा रहनेकी ओर ही हो रहे हैं । प्रस्ताव । सभाके जल्सोंमें सब मिलाकर २१ प्रस्ताव पास हुए। उनमें - से कई प्रस्ताव महत्त्व हुए । १ पोरवाड़ जातिकी जो दो तीन शाखायें हैं वे मिला दी जावें और उनमें परस्पर सम्बन्ध होने लगें । २ सिद्धवरकूटके आसपासके स्थानोंकी ऐतिहासिक खोज की जाय। ७९ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैनहितैषी यह प्रस्ताव बिलकुल नया है । आशा है कि इसको अमलमें लानेके लिए भी कुछ उद्योग किया जायगा । ३ सभाकी ओरसे एक 'प्रभात ' नामका मासिक पत्र निकाला जाय । ४ जैनसाहित्यको प्रकट करके उसका बहुलताके साथ प्रचार किया जाय । मालवाप्रान्तिक सभाके अधिवेशनमें इस प्रकारका प्रस्ताव पास हो जाना यह बतलाता है कि हम अपने मार्गमें बराबर प्रगति करते जा रहे हैं । जब पहले अधिवेशनमें मुद्रित जैनग्रन्थोंके आद्य प्रचारक सेठ हीराचन्द नेभिचन्दजी सभापति हो चुके थे, तब इस अधिवेशनमें इस प्रस्तावका पास होना बिलकुल · क्रमयुक्त ' हैं—यह होना ही चाहिए था। - फुटकर बातें।. . सभामें अनेक विद्वान् उपस्थित हुए थे। उनके कई व्याख्यान और शास्त्रीय चर्चायें हुई। जैनमहिलापरिषत्की भी तीन बैठकें हुई । कई स्त्रियोंके व्याख्यान हुए और कई प्रस्ताव पास किये गये। सबसे बड़ी महत्त्वकी बात यह हुई कि श्रीमती बेसरबाईने स्त्रीशिक्षाके प्रचारके लिए २५ हज़ार रुपयेकी रकम देना स्वीकार की ! जैनसिद्धान्तपाठशाला मोरेना आदि संस्थाओंको लगभग दो हज़ार रुपयोंकी सहायता मिली। अशान्तियोग । - इस समय हमारे समाजमें जो · विचारभेद ' हो रहा है उसकी साक्षी देनेके लिए अब प्रायः प्रत्येक ही सभामें अशान्तियोग आकर उपस्थित हो जाता है । इस जल्सेमें भी इसके कुछ समयके लिए For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठीजी और जैनसमाज। दर्शन हो गये । इस प्रकारकी घटनायें अब हमारे लिए बहुत परिचित होती जाती हैं, इसलिए हमें इनसे कोई आश्चर्य या खेद नहीं होता है; तथापि यह जानकर हमें बहुत दुःख हुआ कि एक धनी महाशयने एक जरासी बात पर-बिना समझे ही एक वयोवृद्ध समाजसेवकका-नहीं, उसकी जातिभरका अपमान कर डाला । अवश्य ही उक्त सज्जनको इसका कुछ खेद नहीं हुआ है-वे अपने जीवनमें ऐसी बहुत सी घटनाओंका सामना कर चुके हैं; तथापि धनिक महाशयको-जो कि जैनसमाजके एक अगुएके रिक्त स्थानको भर देना चाहते हैं-बहुत सोच समझकर-परिणामका ख़याल रखकर अपने वचन निकालना चाहिए । बड़ोंका बड़प्पन इसीमें है। सेठीजी और जैनसमाज। . युत बाबू अर्जुनलालजी सेठी आज १० महीM नेसे जिस विपत्तिमें पड़े हैं उसका संवाद सर्व श्रुत हो चुका है । यह भी सबको मालूम है A कि अभीतक उन पर कोई भी अपराध नहीं लगाया गया है । जिस सन्देहमें वे पकड़े गये हैं वह अभी तक सन्देह ही सन्देह है । सरकारकी शक्तिशालिनी और विचक्षण दृष्टि भी अभी तक उस सन्देहको सत्यके रूपमें परिणत नहीं कर सकी है । यदि उसे एक भी प्रमाण उनके अपराधी हो For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैनहितैषी - नेका मिलता तो वह मुकद्दमा चलाये बिना और सजा दिये बिना न रहती; परन्तु अब तक वह कोई भी सुदृढ़ प्रमाण नहीं ढूँढ़ सकी है और इसी लिए आगे प्रमाण मिलनेकी आशासे उन्हें हवालातमें सड़ा रही है । यद्यपि कानूनकी दृष्टिसे किसी व्यक्तिको इस तरह प्रमाणाभावसे वर्षोंतक हवालात में डाल रखना अन्याय है और इस बातको गवर्नमेंट भी जानती है; परन्तु उसने अपनेको न्यायी और निर्दोषी बनाये रखनेके लिए एक उपाय कर लिया है और बहुत संभव है कि सेठीजीको जयपुरराज्यके हवाले कर रखने में उसका यही मतलब हो । गत ५ दिसम्बरको जो जयपुर - महाराजकी ओरसे सेठीजीके विषयमें एक आर्डर निकला है, उसका अभिप्राय यह है कि “ इस पुरुषका राजनीतिक साज़िशोंसे गहरा सम्बन्ध हैं और यह जयपुर राज्यके नियमोंसे विरुद्ध है । ऐसे पुरुषका स्वतंत्र रखना जोखिमका है । इसलिए 1 आज्ञा दी जाती है कि अर्जुनलाल सेठी ५ वर्ष तक या जब तक दूसरी आज्ञा न निकले हिरासत में रक्खा जाय । " इससे भी यही मालूम होता हैळाक गवर्नमेंट के पास और जयपुरराज्यके पास इस समय कोई भी प्रमाण नहीं है जिससे सेठीजी पर मुकद्दमा चलाया जा सके और वे अपराधी बनाये जासकें । दिल्ली, आरा और कोटेके मुकद्दमे भी करीब करीब ख़तम हो चुके हैं; परन्तु उनमें भी कहीं कोई बात ऐसी नहीं निकली है जिससे सेठीजी पर जो संदेह है उसे विश्वासके रूपमें बदलनेकी गुजाइश हो । इन सब बातोंसे साफ़ मालूम होता है कि सन्देहके सिवाय और कोई कारण सेठीजीकी इस विपत्तिका नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठीजी और जैनसमाज । परन्तु हम पूछते हैं कि क्या सन्देह हमेशा ही सत्यका अवलम्बन करनेवाला होता है ? झूठसे उसका क्या कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता है ? क्या यह संभव नहीं है कि सेठीजी पर जिस अपराधका सन्देह किया गया है वह उन्होंने सर्वथा ही न किया हो-केवल कुछ ऊपरी बातोंपरसे अनुमान कर लिया गया हो ? पुलिसके हाथों इस तरहके सन्देहों में नित्य ही अनेक आदमी फँसते हैं और अन्तमें वे निरपराध ठहरते हैं। फिर क्या कारण है जो हम सेठीजीके निर्दोष होने पर विश्वास न करें ? बल्कि और सन्देहास्पद व्यक्तियोंकी अपेक्षा तो सेठीजीके निर्दोष सिद्ध होनेकी बहुत अधिक संभावना है। कारण, और लोगोंको अपराधी सिद्ध करनेके लिए तो पुलिस कुछ न कुछ सुबूत तैयार रखती है और न्यायाधीश उन सुबतों पर विचार करके दोषी निर्दोषी सिद्ध करते हैं; परन्तु सेठीजीके विषयमें तो पुलिसके पास एक भी सुबूत नहीं है और इसी कारण अब तक वे किसी न्यायाधीशके सामने खड़े नहीं किये गये हैं। ___ इसके सिवाय सेठीजी एक अनुभवी और विद्वान् पुरुष हैं। जैनधर्म पर उनकी दृढ श्रद्धा है । परोपकारके लिए उन्होंने अपना जीवन दे डाला है । इस लिए उनके विषयमें हमको क्या, किसीको भी स्वप्नमें विश्वास नहीं हो सकता है कि उन्होंने कोई घृणित राजद्रोहका काम किया होगा । अवश्य ही किसी बड़े भारी भ्रममें पड़कर सरकार उन्हें राजद्रोही समझ रही है। जैनसमाजकी ओरसे सेठीजीके विषयमें कोई बलवान् प्रयत्न नहीं हो रहा है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि जैन For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैनहितैषी समाज शान्तिप्रिय और राजभक्त समाज है, इस लिए वह सेठीजी जैसे राजद्रोही आदमीके लिए कोई प्रयत्न करना भयप्रद समझता है। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो यह भय निर्मूल है और इसी लिए हमने ऊपर बतलाया है कि सेठीजीके राजद्रोही होनेका कोई भी सुबूत नहीं है; वे केवल सन्देहके कारण आपत्तिमें फंसे हुए हैं । इसलिए बड़ेसे बड़े राजभक्त समाजके लिए भी उनकी सहायता करनेमें जरा भी भयका कारण नहीं है। किसी अपराधी समझेगये आदमीको बचानेके लिए-जबतक कि उस पर अपराध साबित नहीं हुआ है-न्यायसंगत प्रयत्न करना गवर्नमेंटकी दृष्टिमें भी कोई अपराध या राजद्रोह नहीं है। क्योंकि जबतक न्यायाधीशने उसको अपराधी सिद्ध नहीं किया है तबतक गवर्नमेंट स्वयं भी उसे वास्तविक अपराधी नहीं समझती । ऐसी दशामें कोई कारण नहीं है कि जैनसमाज सेठीजीको बचानेके लिए प्रयत्न न करे । इस प्रयत्नमें उसे राजद्रोहका जरा भी भय न करना चाहिए । यह तो एक तरहसे सरकारके न्यायविभागको सहायता पहुँचाना है—सरकारको अन्यायके कलंकसे बचानेका यत्न करना है । इसे तो हम राजभक्ति ही कहेंगे । राजद्रोह करनेका हमारा उद्देश्य भी तो नहीं है । हम यह कहाँ चाहते हैं कि सेठीनी राजद्रोहका काम करके भी मुक्त हो जावें । नहीं, हमारा आशय तो यह है कि यदि वे वास्तवमें निरपराधी हैं और पुलिसके भ्रमसे कष्ट पा रहे हैं तो हमारे प्रयत्नसे उन्हें छुटकारा मिल जावे । निरपराधीको कष्टोंसे बचाना-उसकी सहायता For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठीजी और जैनसमाज | करना मनुष्य मात्रका कर्तव्य है । फिर जैनसमाजका तो यह बाना ही है- कि दुखियोंका दुःख दूर करना और निर्बलोंको अत्याचार से बचाना । इसके सिवाय सेठीजी जैनधर्मके अनुयायी हैं, जैनसमाजके एकान्त हितैषी हैं । उसकी सेवाके लिए तो उन्होंने अपना जीवन दे डाला है । ऐसे पुरुषकी भी यदि जैनसमाज इस समय सहायता न करेगा तो उसका दयाधर्मका - परसेवाका बाना कहाँ रहेगा ? यदि एक परोपकारी सधर्मी भाईकी — जैनीकी भी सहायता न हुई तो उसका वात्सल्य अंग कहाँ रहेगा ? ८५ एक और दृष्टिसे भी जैनसमाजको सेठीजीकी सहायता करना अपना परम कर्तव्य समझना चाहिए । इस समय जैनसमाजकी उन्नति के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि सौ पचास स्वार्थत्यागी कर्मवीर पुरुष तैयार होवें और वे समाजकी सेवा के लिए अपनी जीवन अर्पण कर देवें । परन्तु क्या जैनसमाज यह समझता है कि सेठीजी जैसे पुरुषोंकी ऐसी निःसहाय अवस्था देखकर भी आगे कोई पुरुष समाजसेवक बननेको उत्साहित और उत्सुक हो सकेगा ? सेठीजी सबसे पहले पुरुष हैं जिन्होंने उच्च श्रेणीकी विद्या प्राप्त करके और धर्मशास्त्रोंका गहरा अध्ययन करके अपनी जाति और धर्मकी सेवाके लिए जीवन अर्पण कर दिया है । इस पुरुष रत्नने आज सात आठ वर्ष से अपना तन-मन-धन सब कुछ लगाकर जिस उत्साहसे सेवा की है वह जैनोंके इस युगके इतिहासमें अपूर्व है । ऐसे पुरुषको इतने बड़े संकट से बचाने के लिए For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाहितैषी भी यदि हम तैयार न होंगे तो बस समझ लीजिए कि आगे शायद ही कोई भूल चूककर इस मार्ग पर पैर रक्खे । हमारे जातीय जीवन में कितना चैतन्य है-कितना सत्त्व है, इस बातकी परीक्षा इस सेठी जीके मामलेसे ही होनेवाली है। इसका सम्बन्ध केवल सेठीजीरे नहीं है-यह सारे समाजके जीवनका प्रश्न है।। ___ जो संकट आज सेठीजी पर है, यदि इसी प्रकारका संकट किसी मुसलमान, आर्यसमाज, सिक्ख या ईसाई पर आता तो क्या आप विश्वास करते हैं कि उक्त समाजोंमें आपहीके जैसी शान्ति और अलसता छाई रहती ? नहीं, उनमें सेंकड़ों पुरुष तैयार हो जाते और तब शान्त न होते जब तक अपने निरपराधी भाईको संकटमेंसे न छुड़ा लेते । इसका कारण क्या है ? यही कि उनमें जीवनी शक्ति है, कर्तव्यज्ञान है और सामाजिक वात्सल्य है। वे जानते हैं कि अपने समाजके एक व्यक्तिकी रक्षा करना सारे समाजकी रक्षा करना है। जो समाज अपने व्यक्तियोंकी रक्षा नहीं कर सकता वह अपनी भी रक्षा करनेमें असमर्थ होता है; वह चाहे जिसके पैरोंसे रोंधा जा सकता है। हमारे भाइयोंको भी अपने इन पड़ोसियोंसे सबक लेना चाहिए और संसारको बतला देना चाहिए कि हम भी एक जीवित जातिके अंग हैं। __ अब प्रश्न यह है कि सेठीनीकी सहायताके लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए । हमारी समझमें केवल स्थानस्थानसे तार अर्जियाँ दिलानेसे और इधर उधर सभायें करके प्रस्ताव पास कर लेनेसे लाभ नहीं होगा। इनसे लाभ होना होता तो अब For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठीजी और जैनसमाज । तक हो जाता। अब तो इसके लिए नियमबद्ध पद्धतिसे सम्मिलित प्रयत्न होना चाहिए । अर्थात् कुछ आदमियोंको अगुए बनकर पहले इस काम के लिए दो चार हजार रुपयेका चन्दा एकत्र कर लेना चाहिए और फिर एक दो अच्छे वकील बैरिस्टरोंको इस काम के लिए नियत करके उनके द्वारा कानूनके अनुसार कार्रवाई चलानी चाहिए। जैनसमाजमें वकील वैरिस्टरोंकी कमी नहीं है । किन्तु यदि वे इस काम में हाथ डालनेका उत्साह न दिखावें तो दूसरोंको फीस देकर काममें लगाना चाहिए। सबसे पहले तो यह अच्छा होगा कि श्रीमान् वायसराय साहबकी सेवामें सेठीजीकी स्त्रीकी ओरसे एक मेमोरियल भिजवाया जाय और उसमें इस मामलेका अथसे इति पर्यन्त तथ्य कानूनके अनुसार समझाया जाय । आरा - दिल्लीके मुकद्दमोंकी नकलें लेकर और प्रारंभसे अबतक सेठजिकेि विषयमें जो जो कार्रवाइयाँ हुई हैं - जो जो लिखापढ़ी हुई हैं उन सबको जानकर कानूनके अच्छे विद्वान् इस मेमोरियलका मजमून तैयार करें और सेठीजीकी निर्दोषता के सुबूतों का उल्लेख करें तो बहुत लाभ हो सकता है । केवल दयाकी प्रार्थना करना छोड़ देने के लिए तार देना, इनकी अपेक्षा इस प्रमाणपूर्ण मेमोरियलका प्रभाव अवश्य ही बहुत अधिक पड़ेगा ! इस विषयमें हमें सबसे अधिक भरोसा प्रजाप्रिय शासक श्रीमान् लार्ड हार्डिज साहबके ऊपर है । वे कितने उदार न्यायी और कोमलचित्त हैं इसका पता कोमागाता मारू आदिके कई मामलों से लग चुका है । यह बात निःशंक होकर कही जा सकती है कि उनका शासन बहुत ही अच्छा है। उनके समयमें भी यदि हम अपने एक भाईको बचा सकें तो और कब बचा सकेंगे ? 1 For Personal & Private Use Only ८७ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैनहितैषी हम यह नहीं कहते हैं कि मेमोरियल ही भेजा जाय । हमारा कहना तो केवल इतना ही है कि अब जो कुछ किया जाय, उन लोगोंकी सम्मतिसे किया जाय जो ऐसे मामलोंसे और कानूनोंसे परिचित हैं। ऐसे सज्जन यह अथवा ऐसे ही और जो जो उपाय उचित समझें उन्हें काममें लावें और तब तक उद्योग करते रहें जब तक कि सेठीजी छोड़ न दिये जावें अथवा उनके ऊपर कोई मुकद्दमा न चलाया जाय । ___ अन्तमें हम फिर इसी बातको दुहराते हैं कि सेठीजीकी। सहायता करनेमें गवर्नमेंटकी नाराजी या एतराज़ीका कोई कारण नहीं है। यह कोई राजद्रोहका कार्य नहीं है। प्रत्येक दुखी प्राणीकी सहायता करना हमारा धर्म है । इसी धर्मके खयालसे हमें उनकी तनसे धनसे जिसतरह बन सके उसतरह सहायता करनी चाहिए। हम यह चाहते हैं कि वे यदि निरपराधी हों तो छूट जावें; किन्तु यदि वे अपराधी सिद्ध होंगे तो सारा जैनसमाज एक स्वरसे पुकार कर कहेगा कि उन्हें अवश्य दण्ड दिया जाय । ___ अशा है कि जैनसमाज हमारे इस लेख पर बहुत जल्द ध्यान देगा और सेठीजीके प्रति जो उसका कर्तव्य है उसके सम्पादन करनेमें तत्पर हो जायगा । इस कामके लिए दो चार सज्जनोंको शीघ्र आगे आना चाहिए और चन्दा एकत्र करके कामका आरंभ कर देना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। विविध प्रसंग। . ave १ शिक्षापद्धति पर ध्यान दीजिए। जै नसमाजकी अधिकांश पाठशालाओं और शिक्षा संस्थाओंकी दशा सन्तोषप्रद नहीं है । इसका एक बड़ा भारी कारण यह है कि उनमें प्रायः - जितने अध्यापक या पण्डित रक्खे जाते हैं उन्हें पढ़ानेका ढंग या शिक्षापद्धति नहीं आती । अपने पाण्डित्यके आगे वे शिक्षापद्धतिको कोई चीज़ ही नहीं समझते हैं। विद्यार्थियोंको पुस्तकें बँचवा देना-अपनी क्लिष्ट भाषामें अर्थ समझना देना ( विद्यार्थी चाहे समझे या नहीं ), उससे याद कर लानेकी ताकीद कर देना और दूसरे दिन रटा हुआ पाठ सुन लेना, इसके सिवाय वे और कुछ नहीं जानते हैं । फल इसका यह होता है कि उनके पास विद्यार्थी वर्षों पढ़ा करते हैं, पर बेचारोंको कुछ भी बोध नहीं होता है । स्मरण शक्तिके सिवाय उनकी और किसी भी शक्तिसे काम नहीं लिया जाता है और इस तरह वे प्रतिभाहीन कल्पनाहीन रद्दू तोते बना दिये जाते हैं । हमने इस तरहके कई अभागी विद्यार्थियोंको देखा है और उनकी जीवनकी इस दुर्दशा पर अफसोस किया है । इस समय हमारे पास एक सज्जनकी चिट्ठी आई है जिसे हम यहाँ पर प्रकाशित कर देते हैं और आशा करते हैं के शिक्षासंस्थाओंके संचालकोंका ध्यान इस ओर जावेगा और वे For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - शिक्षापद्धतिकी अच्छी जानकारी रखनेवाले अध्यापकोंको ही अपने यहाँ मुकर्रर करेंगे । क्या ही अच्छा हो यदि स्याद्वाद विद्यालय काशी और जैनसिद्धान्तपाठशाला मोरेना आदिमें शिक्षापद्धति सिखलानेका प्रबन्ध कर दिया जावे और जो विद्यार्थी वहाँसे अध्यापकी करने के लिए निकलें वे शिक्षापद्धतिके जानकार होकर निकलें । इस चिट्ठीसे इस बातका भी पता लगेगा कि पढ़ानेकी पद्धतिमें भेद होनेसे विद्यार्थियोंकी योग्यतामें कितना आकाश-पातालका अन्तर हो जाता है | ९० महाशय, मेरे गाँवसे दो लड़के विशेष शिक्षाप्राप्त करने के लिए लगभग एकही समयमें दो स्थानोंको भेजे गये थे । दोनों लड़के हिन्दीकी पाँच कक्षायें पढ़े हुए थे और स्कूलमें दोनोंकी योग्यता लगभग एकही सी समझी जाती थी । इनमेंसे एक लड़का जयपुरकी शिक्षाप्रचारक समितिमें भरती हुआ और दूसरा एक प्रसिद्ध जैनसंस्कृतपाठशाला में भरती हुआ जिसका कि मैं उल्लेख नहीं करता चाहता हूँ । इस पाठशालाका मासिक खर्च लगभग २५०१ रुपया है और कई बड़ी बड़ी तनख्वाह पानेवाले अध्यापक हैं । पाठशाला के साथ एक छात्रालय भी है। लगभग तीन तीन वर्ष पढ़कर उक्त दोनों विद्यार्थी यहाँ अपने घर आये हुए हैं। मैंने समझा था कि इन दोनोंकी योग्यता लगभग एकसी ही होगी; परन्तु जब मैंने परीक्षा ली तब मेरे आश्चर्यका ठिकाना न रहा। यहाँ मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूँ यह परीक्षा एक या दो दिनमें कुछ प्रश्न करके ही नहीं कर ली गई हैं; बल्कि इनके " For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। साथ महीनों रह करके मैंने इनकी योग्यताका पता लगाया है । समितिका विद्यार्थी अँगरेजी तो चौथी कक्षातक पढ़ा है-तीसरी अँगरेजीमें तो वह सरकारी स्कूलमें भरती ही हो गया है। संस्कृतमें उसकी इतनी योग्यता है कि हितोपदेश आदिकी सरल संस्कृत सुगमतासे समझ लेता है । धर्मविषयमें वह रत्नकरंडश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह आदि पुस्तकें पढ़ा है । इसके सिवाय जैनधर्मकी स्थूल बातोंका उसे अच्छा ज्ञान है, उसकी धर्मविषयक शंकायें सुनने योग्य होती हैं। हिन्दीकी उसकी इतनी अच्छी योग्यता है कि उसने बीसों अच्छी अच्छी पुस्तकें पढ़ डाली हैं, सरस्वती आदि उच्च श्रेणीके पत्रोंको पढ़नेका उसे बड़ा शोक है, छोटी छोटी तुकबन्दियाँ कर लेता है और निबन्ध लिख लेता है । भूगोल, इतिहास, सायन्स आदिका भी उसे ज्ञान है। उसे फुटबाल क्रिकेट आदि खेल खेलना आता है और शुद्ध सभ्य वार्तालाप करना आता है। यद्यपि उसका नैतिक चरित बहुत अच्छा है तथापि उसमें चापल्य बहुत है । जैनसमाजमें क्या हो रहा है, देशमें किन बातोंका आन्दोलन जारी है, इसका भी उसे ज्ञान है । मैं इस लड़केकी योग्यतासे इतना सन्तुष्ट हुआ हूँ कि यदि आज समितिका अस्तित्व होता, तो मैं उसमें अपने यहाँके दशबीस लड़कोंको भरती कराये बिना न रहता-उनके निर्वाहके लिए मैं घरघर भखि माँगकर भी रुपये संग्रह कर देता । दूसरा लड़का व्याकरणमें लघुकौमुदी पलिंग पर्यन्त पढ़ा है और साहित्यमें हितोपदेशके : १० पृष्ठ पढ़ा है । मैंने कई श्लोकोंका अर्थ पूछा; परन्तु वह अच्छी तरह न बता सका। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी धर्मशास्त्र उसे बिलकुल नहीं पढ़ाया गया; धर्मकी स्थूल बातें भी वह नहीं समझता है । पहले वह बहुत चंचल था; परन्तु · अब सुस्तसा हो गया है । तन्दुरुस्ती भी खराब हो गई है । हिन्दी जितनी स्कूलमें पढ़ा था उससे एक अक्षर अधिक नहीं जानता । देश समाज और साहित्यका उसे जरा भी परिचय नहीं है । पाठशालाका संचालन किस ढंगसे होता होगा और उसके अध्याप. कोंका शिक्षापद्धतिसे कहाँ तक परिचय है इसका ज्ञान भी उक्त विद्यार्थीकी दिनचर्यासे हो जाता है । पाठशालाके छात्रालयमें रहते समय वह सबेरे ६ बजे सोकर उठता था, ८ बजेसे पाठ याद करनेको बैठता था, ९॥ के बाद १०-१५ मिनिटमें उसे पाठ दे दिया जाता था और पिछला सुन लिया जाता था। फिर भोजन करता था। आगे २ बजेसे ४॥ बजे तक .फिर रटता था । बस, इस तरह दिन समाप्त हो जाता था! यह एक गरीबका लड़का है । इसके पिताको आशा थी कि यह बाहर रहकर पढ़ेगा तो सुयोग्य हो जायगा; परन्तु उस बेचारेकी आशा पर पानी फिर गया । मुझे भी बहुत दुःख हुआ । अब मैंने कोशिश करके उसे एक अँगरेजी स्कूलमें भरती होनेका प्रबन्ध करा दिया है । यदि रातदिनकी रटन्तकी मारसे उसकी बुद्धिमें कुछ चेतनता शेष रही होगी, तो शायद इस प्रयत्नमें उसे कुछ सफलता प्राप्त हो जाय । न जाने उक्त संस्कृतपाठशालाने ऐसे कितने होनहार लड़कोंकी बुद्धिकी बाढको इस तरह हानि पहुँचाई होगी। क्या आप इस विषयमें कुछ आन्दोलन नहीं कर सकते हैं ? मेरी समझमें तो इस तरहकी पाठशालाओंकी अपेक्षा पाठशालाओंका For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग | ९३ 1 न होना अच्छा है । संस्कृतशिक्षाकी इस तरह बदनामी करने से क्या लाभ है ? क्या ऐसी ही संस्थाओंसे संस्कृतकी और जैनधर्मकी उन्नति होगी ? क्या कोरे व्याकरण और न्यायसे ही हमारी अवश्यकताओंकी पूर्ति हो जायगी । जो शिक्षापद्धति से सर्वथा अनभिज्ञ हैं और संसारमें क्या हो रहा है इसकी जिन्हें कभी हवा भी नहीं लगती है, ऐसे लोगों के हाथमें मालूम नहीं हमारा समाज भी क्यों इतनी बड़ी बड़ी संस्थायें सौंप देता है । क्या पाठ दे देना और सुन लेना, बस इतना ही काम अध्यापकोंका है ? संस्कृतशिक्षापद्धतिका मतलब क्या यही है कि विद्यार्थियोंको सारी दुनिया से अलग खींचकर केवल न्याय और व्याकरणके सूत्र रटा देना ? यदि आप उचित समझें तो मेरी इस चिट्ठीको जैनहितैषीमें प्रकाशित कर दें और समाजका ध्यान इस ओर आकर्षित करनेकी कृपा करें कि संस्थाओंके चलानेवाले शिक्षाक्रम और शिक्षापद्धतिको अच्छी बनानेका यत्न करें, नहीं तो उनकी संस्थाओंसे समाजका कोई लाभ न होगा । - एक स्कूलमास्टर २ सहायक फण्ड । जैनधर्म सर्व धम्म श्रेष्ठ इसी कारणसे माना जाता है कि " अहिंसा परमो धर्मः ' के नियमको हम जैनी अधिक काममें लाते "" हैं। अपना धन आहार, औषध, विद्या तथा अभयदानमें लगाकर सफल करते हैं। इससे हमको भी आनन्द होता है और पात्रोंको For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैनहितैषी भी आनन्द मिलता है; परन्तु बहुतसे लोगोंका संकट मालूम नहीं होता है तथा जो मनुष्य संकटमें होते हैं उनको इस बातका पता लगानेमें भी बड़ा संकट होता है कि कहाँ सहायता मिल सकता है। इसलिए ' भारतजैनमहामण्डल' एक सहायक फण्ड खोलता है जिससे जो महाशय दुःखनिवारणमें सहायता देना चाहते हों वे अपना धन पुण्यमें लगा सकें और जिनको सहायता लेनी हो वे आसानीसे सहायता पासकें । इस संसारमें दुःख बहुत बहुत प्रकारके हैं और हरएक प्राणी किसी न किसी दुःखसे ग्रसित है। यह असम्भव है कि हर एकको हर प्रकार सहायता मिल सके। इस फण्डसे केवल जैनधर्मियोंका अचानक संकट या आपत्ति निवारण करनेका यत्न किया जावेगा । दुष्कालमें निर्धनोंकी सहायता और पशुरक्षा इसमें शामिल है । औषधसे सहायता देना, जो बिना रोज़गार हो उसको रोजगारमें लगाना, इस फण्डका साधारण काम होगा । एकाएक मकान गिर जाने पर, आग लग जाने पर, या लुटजाने पर जो संकट आजावे उसको मिटानेमें इस फंडका उपयोग किया जावेगा। ' दया धर्मका मूल है।' जो साधर्मी दुखित हैं उनकी सहायता करना सबसे बड़ा दयाका काम है । इसलिए आशा है कि सर्व भाई जो सहायता इस फंडमें दे सकते हैं वे अवश्य करेंगे और इस फंडमें द्रव्य भेजेंगे । हम विश्वास दिलाते हैं कि यह द्रव्य बहुत विचारके साथ खर्च होगा । जो भाई द्रव्य भेजेंगे उनको रसीद मिलेगी और इसका हिसाब छठे महीने प्रकाशित किया जावेगा । जिस समय कोई महाशय किसी प्रकारका दान करें वे इस दुःखनिवारक फण्डको For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। न भूलें । यह सबसे प्रार्थना है कि जहाँ कहीं किसीको यह जान पड़े कि इस फण्डसे सहायता मिलनी चाहिए वह नीचे लिखे पतेपर पूरा हाल लिखकर सूचित करें चेतनदास बी. ए., सहारणपुर । ३ जैकोबीका अन्तिम व्याख्यान । श्वे०जैन-कान्फरस-हेरल्डमें डा० जैकोबीका अन्तिम व्याख्यान अँगरेजीमें प्रकाशित हुआ है। उसमें कई बातें जानने । योग्य हैं । पट्टणके भंडारमें ग्रन्थोंका निरीक्षण करते समय उन्हें अकस्मात् एक ग्रन्थ हाथ लग गया । यह · अपभ्रंश भाषा' का है और धनपालका बनाया हुआ है । अब तक इससे पहले अपभ्रंश-भाषाका कोई भी ग्रन्थ न मिला था । इसके बाद उन्हें राजकोटमें एक — नेमिनाथचरित' भी मिला जिसका कुछ भाग अपभ्रंश भाषामें लिखा हुआ है। इन दो ग्रन्थोंके मिल जानेसे साहित्य-संसारमें एक नई चर्चा शुरू हो जायगी । डा० जैकोबी इन ग्रन्थोंको अपने साथ ले गये हैं। वे इन्हें बहुत जल्दी अपभ्रंश भाषाके व्याकरणसहित प्रकाशित करेंगे । यहाँ कई विद्वानोंके पास उनके पत्र आये हैं जिनमें उन्होंने अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थोंके विषयमें बहुत कुछ पूछताछ की है । बस अब उन्हें अपभ्रंश भाषाकी धुन सवार हो गई है । इन यूरोपियन विद्वानोंमें यह . बड़ा गुण है कि हर चीज़की खूब ही खोज करते हैं और उसके लिए बड़ा परिश्रम करते हैं। दूसरी वात व्याख्यानमें यह कही For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी गई है कि पट्टणमें मेरी भेट हिम्मतविजयजीसे हुई। ये जैनशिल्पशास्त्रके बहुत अच्छे ज्ञाता हैं । जैनमन्दिरोंके ढाँचे, उनके भाग आदिका हाल उन्हें खूब मालूम है । बहुत से भागोंके. उन्हेंखास खास नाम मालूम हैं। उनके पास एक पुस्तकालय है जिसमें सैकड़ों संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थ केवल मन्दिर-निर्माणविद्याके ही विषयके हैं । ( खेद है कि ये महाशय न तो उन ग्रन्थोंको ही प्रकाशित करते हैं और न अपने ज्ञानको ही। हमारे देश-वासियोंकी यही तो विशेषता है।) -संशोधक। ४ सर्वसाधारणजनोंमें शिक्षाका प्रचार । यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैनसमाजका भी भारतवर्षके-अपने प्यारे देशके साथ वही सम्बन्ध है जो दूसरे समाजोंका है । अर्थात् हम केवल जैन ही नहीं हैं, भारतवासी भी हैं । इसलिए जिस तरह हमारा यह कर्तव्य है कि अपने समाजमें शिक्षाका प्रचार करें, उसी तरह यह भी है कि अपने देशमें—देशकें तमाम मनुप्योंमें भी शिक्षाका विस्तार करें । यह बात हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जबतक अन्य सभ्य देशोंकी भाँति हमारे यहाँ भी शिक्षाका प्रचार बहुलताके साथ न होगा तबतक हमारा देश जीवनकी दौड़में दूसरोंकी बराबरी कदापि न कर सकेगा । हम यह नहीं चाहते हैं कि अपने समाजमें शिक्षाप्रचारके लिए हम जो उद्योग कर रहे हैं उसमें किसी तरह शिथिलता आ जावे; नहीं, उसे ते For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग | ९५ हमें बढ़ाते ही जाना चाहिए साथ ही सर्वसाधारणजनोंकी शिक्षाके कार्यमें भी हमें हाथ बँटाना चाहिए। सबसे पहले तो हमें यह चाहिए कि जहाँ जहाँ हमारी निजी संस्थायें हैं वहाँ यदि अन्य लोगोंके पढ़ने लिखनेका कुछ प्रबन्ध नहीं है - कोई अन्य स्कूल पाठशाला नहीं है तो अपनी पाठशालामें ही औरोंके लिखाने पढ़ानेका प्रबन्ध कर देना चाहिए । यदि अन्य विद्यार्थी हमारी धर्मशिक्षा लेना पसन्द न करें तो उन्हें केवल लिखना पढ़ना सिखलाने का ही प्रबन्ध कर देना चाहिए । जहाँ हमारी रात्रिकालमें लगनेवाली पाठशालायें हैं वहाँ अडोस-पड़ोसके उन जैनेतर लड़के-लड़कियोंको लिखना पढ़ना सिखलानेका इन्तजाम कर देना चाहिए जो दिन भर काम धंदा या मज़दूरी करके अपने माबापोंकी सहायता करते हैं और इस कारण दिनके स्कूलोंमें पढ़ने नहीं जा सकते हैं । इस तरहके प्रयत्नोंसे हमारा दूसरोंके साथ प्रेमभाव बढ़ेगा और हमारे अल्प व्यय और परिश्रमसे ही दूसरोंको बहुत लाभ पहुँचेगा । इसके बाद जिन स्थानोंमें हमारी संख्या थोड़ी हो और दूसरोंकी भी शक्ति पाठशालायें स्थापित करनेकी न हो वहाँ हमें उनके साथ मिलकर साधारण लिखना पढ़ना सिखलाने योग्य पाठशालायें खोलकर अपना और उनका हित करना चाहिए । जहाँ कोई पाठशालादि स्थापित करनेका प्रबन्ध बिलकुल न हो सकता हो वहाँ हमें चाहिए कि यदि हम थोड़ा बहुत जितना कुछ पढ़े-लिखे हैं वही अपने अड़ोस - पडोसके १०-५ लड़कोंको घंटे आधघंटे के लिए एकट्ठा करके पढ़ा दिया करें । शिक्षित व्यक्ति मात्रको प्रत्येक निरक्षर बालक-बालिका, I ७ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी स्त्री-पुरुषको पढ़ाने लिखानेका व्रत ग्रहण कर लेना चाहिए । जो पढ़े लिखे नहीं हैं किन्तु समर्थ हैं उन्हें धनकी सहायता करके एक दो बालकोंको शिक्षित बनानेकी प्रतिज्ञा करना चाहिए । नगरों और कस्बोंकी अपेक्षा गाँव-खेड़ोंमें शिक्षाप्रचारके उद्योगकी बड़ी जरूरत है। इसके लिए यदि कुछ चलते-फिरते शिक्षक रक्खे जावें और यदि वे प्रत्येक गाँवमें दो दो चार चार महीने ठहरकर वहाँके लड. कोंको पढ़ना लिखना सिखलावें तो बहुत लाभ हो सकता है । यदि कुछ छोटी छोटी सुन्दर प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें तैयार की जावें और वे बहुत ही सस्ती लागतके मूल्यमें या मुफ्तमें बाँटी जावें तो बहुत लाभ हो । इस तरह जैसे बने तैसे प्रत्येक देशवासीको देशमें शिक्षा प्रचारके लिए यत्न करना चाहिए। ... ५ एक स्त्रीरत्नका अन्त । मिशन कालेज इन्दौरके प्रोफेसर बाबू रघुवरदयालजी जैनी एम. ए. की सुशीला गृहिणी श्रीमती कुन्दनबाईकी मृत्युका संवाद सुनकर हमें बहुत दुःख हुआ । बाबू साहब हमारे मित्र हैं। उनके द्वारा हमें विदित हुआ कि स्वर्गीया कुन्दनबाई एक स्त्रीरत्नथीं। उनका स्वभाव बहुत ही अच्छा था । शिक्षा भी उन्हें बहुत अच्छी मिली थी। उनमें अपने विद्वान् पतिको सब तरहसे प्रसन्न रखने योग्य योग्यता भी थी। उनका रहन-सहन देशी ढंगका था और वह बहुत ही पवित्र सादा और मोहक था । वे दयाल, उदार, और धर्मसे प्रेम रखनेवाली थीं । धार्मिक पुस्तकोंके स्वाध्याय करने और संग्रह करनेका उन्हें बहुत शौक था। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। ~ अपनी अड़ोस पड़ोसकी दूसरी बहनोंको भी वे पुस्तकें पढ़नेके लिए देती थी। उनकी मृत्युसे बाबू साहबके हृदय पर गहरी चोट लगी है। बाबू साहबने उनकी स्मृतिमें २५ रु० की जैनधर्मकी पुस्तकें वितरण करके उनके एक प्रारे कार्यका सम्पादन किया है। ६ चन्द्रगुप्तका जैनत्व । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि० विन्सेंट ए. स्मिथने अपने बहुमूल्य ग्रन्थ * भारतवर्षका प्राचीन इतिहास' का तीसरा संस्करण संशोधन करके प्रकाशित किया है । इसमें उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्यके जैन होने और राजपाट छोड़कर जैनमुनि हो जानेकी ‘संभावना':को स्वीकार किया है। शायद आगामी अन्वेषणोंमें वे इस बातको बिलकुल सत्य स्वीकार कर लें। -संशोधक। ७ शाकटायनके विषयमें खोज । प्रो० पाठकने इंडियन एंटिक्वेरीमें एक लेख प्रकाशित करवाया है जिसमें उन्होंने जैन-शाकटायनको महाराज अमोघवर्षका समकालीन बतलाया है । इस विषयमें उन्होंने कई प्रमाण भी दिये हैं। अमोघवृत्ति नामक टीका स्वयं शाकटायनकी ही बनाई हुई है। उसे उन्होंने महाराज अमोघवर्षके नाम स्मरणार्थ बनाया था । शाकटायनके विषयमें उनका विश्वास है कि वे श्वेताम्बरी थे । विद्वानोंको उक्त लेख पर विचार करना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी ... क्या जैनजति जीवित रह सकती है ? जि स समय सारा संसार अपनी उन्नतिकी आशा करता MEINS है, समस्तजतियाँ अपने सुधारके स्वप्न देखती हैं और म सब कोई अपने समृद्धिशाली भविष्यकी ओर प्रसन्न चित्त दृष्टिपात करते हैं, उस समय उपर्युक्त प्रश्न असंगत प्रतीत होता है । अवश्य उस प्रश्नके उपस्थित करनेमें कुछ ' फैशन ' के विचारकी आवश्यकता नहीं है; अपनी वास्तविक दशाका चित्रा सदैव अपने सामने रखना ही अपनी त्रुटियोको पूर्तिमें सहायता दे सकता है। परन्तु क्या जाति भी कभी मृत्युको प्राप्त हो सकती है ? जिस प्रकार मनुष्यकी शारीरिक शक्तियोंके दौर्बल्यसे उसकी जीवनलीलाका अंत होना हम नित्यप्रति देखते हैं उस ही प्रकार समाज और जातिके अस्तित्वका भी अंत होना कुछ आश्चर्यकारी नहीं है । जातिमें भी ऐसी शक्तियाँ हैं कि जिनमें दुर्बलता आ जाने पर जाति मृत्युपथ पर वेगसे अग्रसर होने लगती है। हम देखते हैं कि प्रतिवर्ष जैनधर्मानुयायियोंकी सख्या घट रही है । २० वर्ष १४ लाखसे १२ लाख हो जाना इस घटतीके वेगको सूचित करता है । जरा विचारकी बात है कि यदि इसही प्रकार घटती होती रही तो अबसे सौ सवा सौ वर्षमें क्या ऐसी कोई जाति शेष रह जायगी जो अपने आपको जैनी कहे ? इसका कारण जाननेका बहुतोंने प्रयत्न किया है और उन्होंने अपनी सम्मति. समय समय पर प्रगट भी की है । अनक्य, बालविवाह, वृद्धविवाह, और परस्पर 'विवाहसम्बन्ध न होनेसे इस जैनजातिके अन्र्तगत बहुतसी अल्पसंख्यक जातियोंका सर्वनाश होचुका है और बड़ी बड़ी जातियोंकी संख्या भी वेगसे घट रही है। इन विषयों पर बहुत विचार प्रकट किये जाचुके हैं; परन्तु आज जैनजातिकी जिस शक्तिके रोगग्रस्त होनेका वृत्तान्त सुनानके लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ उस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है और अवसर ऐसा आगया है कि यह रोग बढ़कर उस शक्तिका सर्वथा नाश करनेहीवाला प्रतीत होता है। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैनजाति जीवित रह सकती है ? मनुष्यके शरीरमें भी यह शक्ति होती है और यदि इसमें कुछ भी न्यूनता आ जाय तो मनुष्यका इस संसार में जीवित रहना यदि नितान्त असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य ही होजाय । परन्तु प्रकृति ऐसी बुद्धिमती है कि उसने इस शक्तिमें न्यूनाधिक करने का अधिकार मनुष्यों को दिया ही नहीं और इस कारण मनुष्यके शरीर में इसकी कमी कभी दृष्टिगोचर नहीं होती । तो भी हम यह आसानीसे समझ सकते हैं कि इसकी न्यूनताका परिणाम मनुष्य के शरीर पर क्या होगा । परन्तु इससे प्रथम इस शक्तिको जान लेना अत्यावश्यक है । शरीर में हाथ, पाँव, नाक, कान, आदि पृथक् पृथक् अंगोपांग हैं । प्रकृतिका नियम है कि प्रत्येक दूसरेसे सहानुभूति रखता है, उसका आदर करता है, और समय पड़ने पर बिना संकोच सहायता करता है । यह आदर, यह सहानुभूति और यह सहायता ऐसी शक्ति है कि प्रत्येक अंग इसके कारण अपना कार्य निःसंशय प्रतिपादन करता है । पाँव शरीरको एक स्थानसे दूसरे स्थान पर लेजाने में यह विचार नहीं करता कि कहीँ ठोकर लगकर मुझे चोट न लग जाय, कहीं गढ़में गिरकर मैं अपना नुकसान न कर लूँ | क्योंकि उसे दृढ़ विश्वास है कि आँखें सदैव उसे ठोकर खानेसे बचावेंगी और हाथ उसको गिरने पर भी सहायता देंगे । काँटा लगने पर पाँवको विशेष चिंता नहीं होती । क्योंकि आँख और हाथ विना प्रार्थना किये ही स्वयं कष्ट निवारण करनेको प्रस्तुत रहते हैं । आँख को भी कभी इस बात की चिंता करने क अवसर नहीं मिलता है कि कोई वस्तु आकर मुझ पर आघात न कर दे । क्योंकि वह जानती है कि पलकें तुरन्त ही उसे आघात से बचाने के लिए अपना शरीर तक छोड़ने से न चूकेंगी । इसही प्रकार प्रत्येक अंग अपना अपना कार्य शरीर के वास्ते निडर होकर सम्पादन करता है । १०१ " परन्तु मान लीजिए कि किसी प्रकार इस आदरका इस सहानुभूतिका और इस सहायता के भावका अभाव हो जाय तो क्या शरीर कुछ भी कार्य कर सकेगा ? क्या पाँव बिना हाथ और आँखकी सहायता के शरीर को चला सकता है; और चलावेहीगा क्यों ? यदि चलाया भी तो कहीं ठोकर खाकर, या गढ़े में गिरकर, अपनी हानिके साथ साथ सारे शरीरकी हानि करेगा | क्या पेट बिना दाँतोंके भोजन पचा सकता है ? यदि कभी हिम्मत करे भी, तो क्या अजीर्ण आदि रोगों से अपने आपको और सारे शरीरको नुकसान नहीं पहुँचावेगा ? गरज यह है कि इस सहानुभूतिके अभाव से कोई भी अंग शरीरकी सेवा नहीं कर सकता । For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनहितैषी ठीक इसही प्रकार जातिके सुसंगठित रहने के लिए इस सहानुभूतिकी अत्यन्त आवश्यकता है । यह ही वह शक्ति है जिसके भरोसे प्रत्येक मनुष्य अपनी जातिके लिए कुछ काम कर सकता है । इसहीके सहारे मनुष्य जातिके लिए. अपने स्वार्थका त्याग कर सकता है और यही उसे अपने कार्यसे विचलित होनेसे रोक रखती है। वह जानता है कि यदि उस पर कुछ कठिनाई पडेगी तो समाज उसको दूर करनेका प्रयत्न करेगा। उसे विश्वास है कि अवसर आने पर जाति उसे अकेला नहीं छोड़ देगी। उसे इसका भी भरोसा है कि यदि वह जातिको अपना जीवन समर्पण कर चुका है तो जाति भी उसके जीवनको बहुमूल्य समझती है और इस लिए वह उसे कदापि दुःख नहीं पाने देगी। वह जानता है. कि उस पर कष्ट आने पर उसके बालबच्चों की रक्षा करना जाति अपना परम कर्तव्य समझेगी । इसी विश्वास पर निश्चिन्त होकर वह जातिकी सेवा करता है, अपने स्त्री पुत्रादिकोंकी कुछ भी परवा न कर, अपने स्वास्थ्यकी भी उपेक्षा कर. वह कर्तव्यका पालन करता है और तब ही जाति सुसंगठित रह सकती है। तब है? जातिको शिक्षाप्रचार, सामाजिक सुधार इत्यादि आवश्यक कार्योंके लिए प्रयत्न करनेवाला एक सेवक मिलता है और वह जाति कालसे युद्ध करनेमें सफल हो सकती है। ___ अब मान लीजिए कि किसी समाजमें इस ही शक्तिका अस्तित्व न हो, सेवकों में और जातिमें सहानुभूति न हो, समय पड़ने पर जाति अपने उद्धारकका साथ न दे, कष्टमें उसे अकेला छोड़ दे और उसकी असमर्थतामें उसके स्त्री पुत्रोंका पालन न करे तो उस महान् आत्माका तो अवश्य कुछ न बिगड़ेगा; परन्तु अन्य जो कोई जातिसेवा करनेका विचार करता हो और यह चाहता हो कि स्वार्थका त्यागकरके समाजसुधारके लिए कुछ काम करना चाहिए, कहिए उस पर इस सहानुभूतिके अभावका क्या प्रभाव पड़ेगा? माना कि यदि वह वास्तवम उच्च आत्मा है, यदि वास्तवमें उसकी इच्छा प्रबल है तो वह कदापि इससे पीछे न हटेगा; परन्तु साधारणतःहमारे दुर्भाग्यसे ऐसी उच्च आत्मायें अधिक नहीं होता और जो आत्मायें बहुत उन्नत न होकर भी समाजसेवा करनेको उद्यत होती हैं उनके लिए यह नितान्त कठिन है कि वे अपने आपको बिना सहायता और सहानुभतिके कष्टमें डाल दें। और यदि डाल भी दिया तो जातिको विशेष लाभ न होगा, वरन् होनहार नवयुवकोंके सामने दु:ख और कठिनाईयोंका चित्रः आवश्यकतासे भी अधिक सजीव भावसे खिंच जायगा और इसकारण उनको कभी For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैनजति जीवित रह सकती है ? १०३ समाजके लिए कार्य करनेका साहस न होसकेगा और बिना ऐसे आत्मत्यागियोंके असम्भव है कि जाति समयकी आवश्यकताओंको पूरी कर सके । निःसदेह वह सबसे पीछे रहकर नाशको प्राप्त होजायगी।। क्या जैनसमाजकी ऐसी दशा है ? क्या जनजाति अपने लिए सर्वस्व त्याग करनेवालोंकी सहायता नहीं करती ? क्या उनके कष्ट निवारण करनेका प्रयत्न नहीं करती ? इनका उत्तर केवल एक बातसे दिया जा सकता है कि पं० अर्जुनलालजी सेठी आज प्रायः १० माससे जेलमें सड़ाये जा रहे हैं । किस अपराध पर ? किस कुसूर पर ? परमात्मा जाने ! क्यों कि आजतक न कोई अभियोग चलाया गया और न कहीं प्रमाणित हुआ कि उन्होंने अमुक अपराध किया है। ऐसी दशा होने पर भी जैनसमाजने क्या किया? क्या सरकारतक अपनी पुकार सुनाई ? क्या श्रीमान् लार्ड हार्डिजके कानोंतक बात पहुँचाई ? क्या न्यायशीला गवर्नमेंटका ध्यान इस ओर अकर्षित कराया ? क्या इसके लिए सभायें की और तार भेजे ? क्या किसी प्रकारका अन्दोलन किया ? बड़े दुःखके साथ कहना पड़ता है कि इनमेंसे कुछ भी नहीं किया। क्यों? कुछ लोग कहते हैं कि यह सब 'सिडीशन' (राजद्रोह) समझा जाता है और सरकार अप्रसन्न होती है, इस कारण चुप रहना ही ठीक था। यह ठीक है कि आजकल मामूली सी बातें भी सिडीशन समझ ली जाती हैं; परन्तु न्यायके लिए प्रार्थना करना, अत्याचारसे बचानेकी पुकार करना और निर्दोषीकी सहायताके लिए सरकार तथा जनताको उत्तेजित करना भी यदि सिडीशन समझा जा सके तो कहना होगा कि इस बीसवीं शताब्दिमें भी अभी न्यायप्रियता नहीं आई। जब एक छोटे राज्यको पड़ौसी जर्मनीके अत्याचारसे बचानेके लिए इंग्लेंड अब्जों रुपये खर्च कर सकता है और लाखों मनुष्योंकी क्षति भी सहनेके लिए तैयार है, तब क्या वह न्यायप्रिय राज्य हमारे क्रन्दनको सिडीशन समझेगा ? नहीं, कदापि नहीं । यह केवल बहाना मात्र है और ऐसा बहाना यही सूचित करता है कि सहानुभूति हमारे यहाँसे हवा हो गई। जब जेलके दुःखोंसे भी हृदय नहीं पिघला, जब स्त्री-पुत्रादिकोंका वियोगदृश्य भी कठोर हृदयोंको न हिला सका, जब जिनदर्शन करनेकी मनाई भी धार्मिकोंको दुःखित न कर सकी, जब ८ दिन निराहार रहने पर भी जातिको रुलाई न आई, जब निरपराध ५ वर्षकी कैदकी आज्ञाने भी आँखें न खोली तो कहना होगा कि यद्यपि दयट For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनहितैषी और वात्सल्य किसी समय जैनजातिके भूषण थे, परन्तु आज उन हृदयोंसे जिनमें उन्हीं महर्षियोंके रक्तका संचार है धर्म और दयाका निरादरपूर्वक बहिष्कार कर दिया गया है। - भारतसरकारसे इस विषयमें हमें यही पूछना है कि क्या इसीको न्याय कहते हैं ? क्या इस शताब्दीमें भी बिना अदालतमें मुकद्दमा चलाये किसी व्यक्तिको अधिकार है कि किसी भी मनुष्यकी स्वतंत्रता छीन ले ? क्या आज भी ब्रिटिश छत्रकी छायामें ऐसा हो सकता है ? तो क्या यह ब्रिटिश न्यायकी दुहाई प्रवञ्चना मात्र है ? यदि सेठीजी अपराधी हैं तो क्यों नहीं प्रमाणित किये जाते ? यह कहनेसे काम न चलेगा कि यह तो जयपुर राज्यका मामला है, हम कुछ नहीं कर सकते । क्योंकि प्रथम तो जनताको निश्चय है खास सरकारने ही पकड़कर उनको पीछेसे जयपुर भेज दिया था और दूसरे वह यह भी जानती है कि जब जब देशी राज्योंने अन्याय किया है तब तब भारतसरकारने हस्तक्षेपकर ब्रिटिश साम्राज्यको कलंकसे बचाया है । फिर इस बार देर क्यों ? जैनियो, यदि तुम्हें अपनी जातिको जीवित रखना है, यदि तुम्हें अपना नाम इस संसारसे सदाके लिए मिटा नहीं देना है, यदि तुम्हें जैनधर्मसे प्रीति है और उसके लिए मरनेवालोंसे भी स्नेह है तो यह अवसर हाथसे न जाने दो। सेठीजी जैसा सच्चा सुहृद तुम्हें न मिलेगा। तुम सच्चे हितैषीकी आशा ही करते रहोगे; परन्तु कदापि उसे न पा सकोगे। तुम सेटीजी पर दया न करो, उनके पुत्रके जीवन बिगड़ जानेका भी खयाल न करो; परन्तु अपनी जाति पर तो दया करो; उसे तो सर्वनाशसे बचानेका प्रयत्न करो । जैनजाति भी संसारमें रहकर एक उद्देश्य पूरा कर सकती है-उस उद्देश्य-जैनधर्म-की ओर तो उपेक्षाकी दृष्टिसे न देखो। क्या तुम चाहते हो कि अब कोई युवक जातिसेवा करनेके लिए उद्यत न हो ? क्या तुम्हें यह रुचिकर होगा कि होनहार उत्साही पुरुष जैनजातिकी सेवाको छोड़कर अन्य किसी कार्यमें अपनी शक्तियोंका प्रयोग करने लगें ? यदि नहीं, तो साहस करके उस महत्पुरुषकी सहायताके लिए तैयार हो जाओ। समाचारपत्रों द्वारा अपना रोना सरकारको सुनाओ, सभाओं द्वारा अपना करुणनाद दिल्ली तक पहुँचाओ, डेपूटेशन द्वारा श्रीमान् वाइसरायके कानोंतक अपनी पुकार पहुँचाओ, इसतरह अपना कर्तव्य पालन करो; फिर यह सम्भव नहीं कि सुनाई न हो,-भरे हुए हृदयोंकी आहको संसारकी कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती। -चिन्तितहृदय । For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियोंके विचार । १०५ सहयोगियोंके विचार । न ये वर्षके इस अंकसे उक्त स्तंभ शुरू किया जाता है। इसमें जैन और जैनेतर सामयिक पत्रोंमें प्रकाशित हुए - लेख, लेखांश, उनके अनुवाद या संक्षिप्त सार प्रका ANESSINशित किये जावेंगे। जैनहितैषीके पाठकोंको यह ज्ञान होता रहे कि दूसरे पत्रोंमें इस समय किस प्रकारके विचार प्रकट हो रहे हैं, उनमें किस ढंगका साहित्य प्रकाशित हो रहा है और जैनधर्मके विषयमें कहाँ कहाँ क्या . चर्चा हो रही है, इसी अभिप्रायसे यह स्तंभ प्रारंभ किया गया है । जहाँ तक होगा, इसमें वे ही लेख प्रकाशित किये जायँगे जो बहुत महत्त्वके होंगे अथवा जिनकी ओर जैनसमाजकी दृष्टि विशेषरूपसे आकर्षित करनेकी आवश्यकता होगी। इससे एक बड़ा भारी लाभ यह भी होगा कि जो भाई दूसरे पत्र नहीं पढ़ते हैं उनको एक जैनहितैषीके पढ़नेसे ही जैनसंसारकी प्रायः सब ही जाननेयोग्य बातोंका ज्ञान होता रहेगा। परन्तु पाठकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि इस स्तंभके लेखोंका किसी भी प्रकारका उत्तरदायित्व हम पर न रहेगा। लेखोंका परिचय करा देना भर हमारा काम है, उनकी और सब जिम्मेवारियाँ उनके लेखकों पर हैं। आशा है कि हमारा यह नया प्रयत्न पाठकोंको पसन्द आयगा और वे इस स्तंभसे बहुत लाभ उठावेंगे । उच्चश्रेणीके अँगरेज़ी बंगला आदिके मासिक पत्र इस स्तंभके द्वारा अपने पाठकोंकी ज्ञानवृद्धिमें बहुत बड़ी सहायता पहुँचाते हैं। -सम्पादक । प्रार्थना। हे सर्वज्ञ, आप हमें सम्यग्ज्ञानकी भीख दीजिए, जिसके द्वारा हम अपने पवित्र धर्मप्रचारके लिए यत्न करें-उसके निर्दोष तत्त्वोंका संसारमें प्रचार करें। हमारे देश और जातिको अज्ञानरूपी बादलोंकी घनघोर काली घटाओंने ढक रक्खा है उन्हें नष्टकर ज्ञानका उज्ज्वल प्रकाश हो । उस सुन्दर प्रकाशसे देश और जातिका कष्ट दूर हो, उनकी आर्थिक, नैतिक दशा सुधरे, परस्परमें प्रेमतत्त्वका प्रसार हो For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनहितैषी - और सारे संसार में दया, अहिंसा, शान्ति, उदारता, वीरता, शालीनता आदिकी प्रकाशमान ज्योति जगमगे । हे अनन्त शक्तिशालिन्, आप हमें कुछ शक्तियोंका दान दीजिए, जिससे हम अपनी शताब्दियोंकी निर्बलता और कायरताको नष्टकर बलवान् बनें । हम अपने देश और जातिकी सेवामें अपने जीवनका भोग दे सकने में समर्थ हों । हमारा जीवन - प्रवाह स्वार्थकी ओर न जाकर परार्थकी ओर जाए। हम विषय-वासना के गुलाम न बनकर जयी, साहसी और कर्तव्यशील बनें । हे दयासागर, आप हमें दयाकी भी कुछ भीख दीजिए, जिससे हम पहले अपने हृदयमें दयाका सोता बहावें और फिर उसे अनन्त हृदयरूपी क्यारियों में लेजाकर सारे संसार में दयादेवीका पवित्र साम्राज्य स्थापित कर दें । यद्यपि आपने दया करना हमारे जीवनका मुख्य लक्ष्य बताया था, पर अज्ञानसे उसे हम भूलकर निर्दयता के उपासक बन गये- दूसरों के दुःखों पर सहानुभूति बतला - कर उन्हें दूर करना हमने सर्वथा छोड़ दिया । इसलिए हे नाथ, हमारे लिए उक्त गुणोंकी बड़ी ज़रूरत है | आप हमारी इन जरूरतों को पूरी कीजिए ( सभापतिका व्याख्यान ) - सत्यवादी अंक १० । निर्माल्य द्रव्य | जैनमित्रमें बहुत समय से निर्माल्य द्रव्यकी चर्चा चल रही है । नहीं कहा जा सकता कि आगे यह चर्चा और कब तक चलती रहेगी; परन्तु ऐसा मालूम होता है कि आगे अब इस विषयसे पाठक ऊब जावेंगे । हमारे पिछले समय के आचार्योंने क्रियाकांडको इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया था इस विषय में हम आगे विस्तारसहित लिखना चाहते हैं । इस समय हम इतना ही कहते हैं कि यदि क्रियाकाण्डको एक ओर रखकर – गौण मानकर ज्ञानकाण्डको अधिक महत्त्व दिया जाय और उसके अनुसार समाजका भी रुख बदला जाय तो फिर निर्माल्य द्रव्यकी इतनी चर्चा करनेकी अवश्यकता ही न रहे। पंचकल्याण पूजा, ३६० विधान, अष्टद्रव्यपूजा आदि सब मिलकर सम्यग्दर्शन के ( ? ) एक अंग हैं वास्तवमें जैनधर्मके नियमानुसार क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि सद्गुणोंको धारण करके संसार में जिस शान्तिसुख की प्राप्ति करना चाहिए उसको एक ओर रखकर अथवा उन गुणोंकी प्राप्ति करनेके लिए प्रयत्न करना छोड़कर हमारे भाई मालूम होता है: For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों के विचार । १०७ कि केवल कर्माधीन हो रहे हैं । यदि भगवान के आगे टोकरी भर फूल या सेरभस् चावल चढ़ाये गये अथवा किसीने ५० रुपया देकर भक्तामर विधान करवाया, तो वह देवके सम्मुख अर्पण किया हुआ द्रव्य निर्माल्य हो गया, इसमें कोई सन्देह नहीं; परन्तु इस पर एक आदमी कहता है कि उस निर्माल्यको खाना नहीं चाहिए, दूसरा कहता है कि खावें नहीं तो क्या करें ? और तीसरा कहता है कि क्यों ? खाने में हानि क्या है ? परन्तु हमारी समझमें इतनी चर्चा करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि क्रियाकाण्डका जो अतिरेक हो गया है उसे धीरे धीरे कम करके ज्ञानका मार्ग विस्तृत किया जाय । इससे स्वयं ही निर्माल्य द्रव्यकी उलझन सुलझ जायगी । शास्त्र भी क्या हैं ? अपने अपने समयको सामाजिक परिस्थितिके अनुसार उनकी रचना की जाती है । हमारे बड़े बड़े चैत्यालयों में जो प्राचीन कालकी मूर्तियाँ हैं ज़रा उनकी ओर तो अच्छी तरह से देखो । वे तुमसे यह. नहीं कह रही हैं " हमारे आगे पूजन सामग्री की राशि लगाया करो और निर्माल्यद्रव्यसम्बन्धी चर्चामें सिरपच्ची किया करो। " वे यह कहती हैं कि भक्तजनो, हम सरीखे वीतराग बननेका प्रयत्न करो । रागी बनकर पूजनसामग्रीके ढेर लगानेको ही सब कुछ मत समझ बैठो । पूजनसामग्री यदि न हो. तो हानि नहीं; परन्तु रागरहित हुए बिना तुम्हें हम अपनी बराबरीके नहीं समझ सकेंगी । रागरहित होनेके लिए अपने में उत्कृष्ट दशधर्म पालन करने के योग्य शक्ति संचय करो। " गरज यह कि क्रियाकाण्डको अधिक महत्त्व न देकर जिन उपायोंसे ज्ञानका और सद्गुणोंका प्रसार अधिकाधिक हो उनको काममें लाओ इससे निर्माल्यद्रव्यचर्चाका फैसला स्वयं ही हो जायगा, नहीं तो इस व्यर्थवादकी समाप्ति होना असंभव है । प्रगति आणि जिनविजय ता. ८ नवम्बर १९१४ । गोत्रीय चर्चा | << गोत्रों की उत्पत्ति एक गाँव में रहनेके कारण, एक ऋषिका उपदेश मानने के कारण अथवा ऐसे ही और कारणोंसे हुई है । जैसे पाटन के रहनेवाले पाटनी, गर्गऋषिके अनुयायी गार्गीय, और सोने लोहेके व्यापारी सोनी लहाड़ा आदि इससे यह नहीं सिद्ध होता कि एक गोत्रके सब लोग एक ही कुटुम्बके हैं और इस लिए उनमें पारस्परिक विवाहसम्बन्ध नहीं होनेके विषय में कोई सबल कारण नहीं है । क्या एक गाँव के रहनेवाले लड़के-लड़कियों का विवाह नहीं For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनहितैषी होता ? लेखककी रायमें इस गोत्रकल्पनाको उठा देना चाहिए और प्रत्येक जैनीको चाहे वह किसी भी जातिका या गोत्रका हो यदि अपना कुटुम्बी नहीं है तो बे-रोकटोक आपसमें विवाहसम्बन्ध करना चाहिए । पद्मावती पुरवारोंमें गोत्र नहीं हैं, इस कारण उनमें ऐसा होता भी है। गोत्रकल्पनाका शास्त्रोंमें उल्लेख नहीं मिलता। यह आधुनिक है। जैनजातिके -हासमें गोत्रोंका झगड़ा भी एक कारण है। किसी किसी जातिमें तो छह छह सात सात गोत्र बचाये जाते हैं। इससे बहुत हानि हो रही है । इस विषयमें विद्वानोंको शान्तितापूर्वक विचार करना चाहिए । -रूपचन्द अचरजलाल। जैनमित्र अंक १, २ । सूर्यकी धूपकी उपकारिता । सूर्यकी धूपको सेवन करनेसे अनेक प्रकारके रोग दूर होते हैं। आजकल अनेक विलायती चिकित्सक दुर्बल बालकों और युवक पुरुषोंको स्वास्थ्योन्नतिके लिए धूपसेवनकी सलाह देते हैं । जनेवा नगरके डा० प्रोफेसर रोगेटने रोगी बालकोंके लिए एक 'आलोक चिकित्सालय' स्थापित किया है । इसमें नित्य बालकोंको बिना वस्त्र-खुले शरीर धूपसेवन कराया जाता है। इससे थोड़े ही दिनोंमें बालक आरोग्य और बलवान् बन जाते हैं। सवेरे नौ दश बजे और तीसरे पहर तीन चार बजे धूपसेवनका उत्तम समय है। किसी किसी रोगीको दो पहरकी तीक्ष्ण धूपमें भी रखनेकी आवश्यकता होती है । एकबारमें १० मि. निटसे लेकर एक घंटातक धूपका सेवन टीक हो सकता है। हमारे देश में शीतकालमें धूपमें बैठनेकी प्रथा बहुत समयसे प्रचलित है ।-वैद्य, सं० ११ ॥ भगवान महावीरका सेवामयजीवन और सर्वो पयोगी मिशन । ज्ञातिभेद, अज्ञानमूलक क्रियाओं और बहमोंको देशसे निकाल बाहर करनेके लिए जिस महावीर नामक महान् सुधारक और विचारकने तीस वर्षतक उपदेश दिया था वह उपदेश प्रत्येक देश, प्रत्येक समाज और प्रत्येक व्यक्षिका उद्धार करनेके लिए समर्थ है। परन्तु धर्मगुरुओं या पण्डितोंकी अज्ञानता और श्रावकोंकी अन्धश्रद्धाके कारण आज वे महावीर और वह जैनधर्म अनादृत हो रहा है । सायन्सका हिमायती, सामान्य बुद्धि (Common Sense) For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियोंके विचार | १०९ को विकसित करनेवाला, अन्तःशक्तिको प्रकाशित करनेकी चावी देनेवाला, प्राणिमात्रको बन्धुत्वक साँकलसे जोड़नेवाला, आत्मबल अथवा स्वात्मसंश्रयका पाठ सिखला कर रोवनी और कर्मवादिनी दुनियाको जवाँमर्द तथा कर्मवीर बनानेवाला, एक नहीं किन्तु पचीस दृष्टियोंसे प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक घटना पर विचार करनेकी विशालदृष्टि अर्पण करनेवाला और अपने लाभको छोड़कर दूसरोंका हित साधन करनेकी प्ररेणा करनेवाला - इस तरहका अतिशय उपकारी व्यावहारिक ( Practical ) और सीधासादा महावीरका उपदेश भले ही आज जैनसमुदाय समझनेका प्रयत्न न करे, परन्तु ऐसा समय आ रहा है कि वह प्रार्थनासमाज, ब्रह्मसमाज, थिओसोफिकल सुसाइटी और यूरोप अमेरिका के संशोधकोंके मस्तक में अवश्य निवास करेगा । " सारे संसार को अपना कुटुम्ब माननेवाले महावीर गुरुका उपदेश न पक्षजैनधर्म पाती है और न किसी खास समूह के लिए है । उनके धर्मको कहते हैं, परन्तु इसमें 'जैन' शब्द केवल 'धर्म' का विशेषण है । जडभाव, स्वार्थबुद्धि, संकुचित दृष्टि, इन्द्रियपरता, आदि पर जय प्राप्त कराने की चावी देनेवाला और इस तरह संसार में रहते हुए भी अमर और आनन्दस्वरूप तत्त्वका स्वाद चखानेवाला जो उपदेश है उसीको जैनधर्म कहते हैं और यही महावीरोपदेशित धर्म है । तत्त्ववेत्ता महावीर इस रहस्य से अपरिचित नहीं थे कि वास्तविक धर्म, तत्त्व, सत्य अथवा आत्मा काल, क्षेत्र, नाम आदिके बन्धन या मर्यादाको कभी सहन नहीं कर सकता और इसी लिए उन्होंने कहा था कि " धर्म उत्कृष्ट मंगल है और धर्म और कुछ नहीं अहिंसा, संयम और एकत्र समावेश है | " उन्होंने यह नहीं कहा कि 'जैनधर्म ही उत्कृष्ट मंगल है ' अथवा 'मैं जो उपदेश देता हूँ वही किन्तु अहिंसा ( जिसमें दया, निर्मल प्रेम, भ्रातृभावका समावेश होता है ), संयम ( जिससे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर आत्मरमणता प्राप्त की जाती है ) और तप ( जिसमें परसेवाजन्य श्रम, ध्यान और अध्यययनका समावेश होता हैं ) इन तत्त्वों का एकत्र समावेश ही धर्म अथवा जैनधर्म है और वही मेरे शिष्योंको तथा सारे संसारको ग्रहण करना चाहिए, यह जताकर उन्होंने इन तीनों तत्त्वोंका उपदेश विद्वानोंकी संस्कृत भाषा में नहीं; परन्तु उस समयकी तपका For Personal & Private Use Only उत्कृष्ट मंगल है 1 5 ; Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनहितैषी जनसाधारणकी भाषामें प्रत्येक वर्णके स्त्रीपुरुषोंके सामने दिया था और जातिभेदको तोड़कर क्षत्रिय महाराजाओं, ब्राह्मण पण्डितों और अधमसे अधम गिने जानेवाले मनुष्योंको भी जैन बनाया था तथा स्त्रियोंके दर्जेको भी ऊँचा उठाकर वास्तविक सुधारकी नीव डाली थी। उनके 'मिशन ' अथवा 'संघ' में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों हैं और स्त्री-उपदेशिकायें पुरुषोंके सामने भी उपदेश देती हैं। इन बातोंसे साफ मालूम होता है कि महावीर किसी एक समूहके गुरु नहीं, किन्तु सारे मनुष्यसमाजके सार्वकालिक गुरु हैं और उनके उपदेशों से वास्तविक सुधार और देशोन्नति हो सकती है। इस लिए इस सुधारमार्गके शोधक समयको और देशको तो यह धर्म बहुत ही उपयोगी और उपकारी है। इसलिए केवल श्रावककुलमें जन्मे हुए लोगोंमें ही छुपे हुए इस धर्मरत्नको यत्नपूर्वक प्रकाशमें लानेकी बहुत ही आवश्यकता है । प्राचीन समय में इतिहास इतिहासकी दृष्टिसे शायद ही लिखे जाते थे। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायके जुदा जुदा ग्रन्थोंसे, पाश्चात्य विद्वानोंकी पुस्तकोंसे तथा अन्यान्य साधनोंसे महावीरचरित तैयार करना पड़ेगा। किसी भी सूत्रमें या ग्रन्थ महावीर भगवान्का पूरा जीवनचरित नहीं है और जुदा जुदा ग्रन्थकारोंका मतभेद भी है। उस समय दन्तकथायें, अतिशयोक्तियुक्त चरित और सूक्ष्म बातोंको स्थूलरूपमें बतलाने के लिए उपमामय वर्णन लिखनेकी आधिक पद्धति थी और यह पद्धति केवल जैनोंमें ही नहीं किन्तु ब्राह्मण, ईसाई आदिके सभी ग्रन्थों में दिखलाई देती है । इस लिए यदि आज कोई पुरुष पूर्वके किसी महापुरुषका बुद्धिगम्य चरित लिखना चाहे तो उसके लिए उपयुक्त स्थूल वर्णनों, दन्तकथाओं और भक्तिवश लिखी हुई आश्चर्यजनक बातोंमेंसे खोज करके वास्तविक मनुष्यचरित लिखनेकायह बतलानेका कि अमुक महात्मा किस प्रकार और कैसे कामोंसे उत्क्रान्त होते गये और उनकी उत्क्रान्ति जगतको कितनी लाभदायक हुई-काम बहुत ही जोखिमका है। मगधदेशके कुण्डग्रामके राजा सिद्धार्थकी रानी त्रिशलादेवीके गर्भसे महावीरका जन्म ई० स० से ५९८ वर्ष ( ? ) पहले हुआ। श्वेताम्बर ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि पहले वे एक ब्राह्मणीके गर्भ आये थे; परन्तु पीछे देवताने उन्हें त्रिशला क्षत्रियाणीके गर्भमें ला दिया ! इस वातको दिगम्बरग्रन्थकर्ता स्वीकार नहीं करते For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों के विचार। ऐसा मालूम होता है कि ब्राह्मणों और जैनोंके बीच जो पारस्परिक स्पर्धा बढ़ रही थी उसके कारण बहुतसे ब्राह्मण विद्वानोंने जैनोंको और बहुतसे जैनाचार्योंने ब्राह्मणोंको अपने अपने ग्रन्थों में अपमानित करनेके प्रयत्न किये हैं। यह गर्भसंक्रमणकी कथा भी उन्ही प्रयत्नोंमेंका एक उदाहरण जान पड़ता है। इससे यह सिद्ध किया गया है कि ब्राह्मणकुल महापुरुषोंके जन्म लेनेके योग्य नहीं है। इस कथाका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि महावीर पहले ब्राह्मण और पीछे क्षत्रिय बने, अर्थात् पहले ब्रह्मचर्यकी रक्षापूर्वक शक्तिशाली विचारक (Thinker) बने, पूर्व भवोंमें धीरे धीरे विचार बलको बढ़ाया-ज्ञानयोगी बने और फिर क्षत्रिय अथवा कर्मयोगी-संसारके हितके लिए स्वार्थत्याग करनेचाले वीर बने। बालक महावीरके पालन पोषणके लिए पाँच प्रवीण धायें रक्खी गई थीं और उनके द्वारा उन्हें बचपनसे वीररसके का योंका शौक़ लगाया गया था। दिगम्बरोंकी मानताके अनुसार उन्होंने आठवें वर्ष श्रावकके बारह व्रत अंगीकार किये और 'जगत्के उद्धारके लिए दीक्षा लेनेके पहले उद्धारकी योजना हृदयंगत करनेका प्रारंभ इतनी ही उम्रसे कर दिया । अभिप्राय यह कि वे बालब्रह्मचारी रहे । श्वेताम्बरी कहते हैं कि उन्होंने ३२ वर्षकी अवस्था तक इन्द्रियोंके विषय भोगेब्याह किया, पिता बने और उत्तम प्रकारका गृहवास ( जलकमलवत् ) किस प्रकारसे किया जाता है इसका एक उदाहरण वे जगतके समक्ष उपस्थित कर गये। जब दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की तब मातापिताको दुःख हुआ, इससे वे उनके स्वर्गवासतक गृहस्थाश्रममें रहे । २८ वें वर्ष दीक्षाकी तैयारी की गई किन्तु बड़े भाईने रोक दिया। तब दो वर्ष तक और भी गृहस्थाश्रममें ही ध्यान तप आदि करते हुए रहे । अन्तिम वर्षमें श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार करोड़ों रुपयोंका दान दिया। महावीर भगवानका दान और दीक्षामें विलम्ब ये दो बातें बहुत विचारणीय हैं। दान, शील, तप और भावना इन चार मागोंमेंसे पहला मार्ग सबसे सहज है। अंगुलियोंके निर्जीव नखोंके काट डालनेके समान ही 'दान' करना सहज है। कच्चे नखके काटनेके समान ' शील ' पालना है । अंगुली काटनेके समान 'सप' है और सारे शरीरपरसे स्वत्व उठाकर आत्माको उसके प्रेक्षकके समान · तटस्थ बना देना 'भावना' है । यह सबसे कठिन है। इन चारोंका क्रमिक रहस्य For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनहितैषी अपने दृष्टान्तसे स्पष्टकर देनेके लिए भगवानने पहले दान किया, फिर संयम अंगीकार किया और संयमकी ओर लौ लग गई थी तो भी गुरुजनोंकी आज्ञा जबतक न मिली तब तक बाह्य त्याग नहीं लिया । वर्तमान जैनसमाज इस पद्धतिका अनुकरण करे तो बहुत लाभ हो। ३० वर्षकी उम्नमें भगवानने जगदुद्धारकी दीक्षा ली और अपने हाथसे केशलोच किया । अपने हाथोंसे अपने बाल उखाड़नेकी क्रिया आत्माभिमुखी दृष्टिकी एक कसौटी है । प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका मेरी कोरेलीके 'टेम्पोरल पावर' नामक रसिकग्रंथमें जुल्मी राजाको सुधारनेके लिए स्थापित की हुई एक गुप्तमण्डलीका एक नियम यह बतलाया गया है कि मण्डलीका सदस्य एक गुप्त स्थानमें जाकर अपने हाथ की नसमेंसे तलवारके द्वारा खून निकालता था और फिर उस खूनसे वह एक प्रतिज्ञापत्रमें हस्ताक्षर करता था ! जो मनुष्य जरासा खून गिरानेमें डरता हो वह देशरक्षाके महान कार्यके लिए अपना शरीर अर्पण कदापि नहीं कर सकता । इसी तरह जो पुरुष विश्वोद्धारके 'मिशन'में योग देना चाहता हो उसे आत्म और शरीरका भिन्नत्व इतनी स्पष्टताके साथ अनुभव करना चाहिए कि बाल उखाड़ते समय ज़रा भी कष्ट न हो। जब तक मनोबलका इतना विकास न हो जाय तब तक दीक्षा लेनेसे जगत्का शायद ही कुछ उपकार हो सके। महावीर भगवान् पहले १२ वर्ष तक तप और ध्यानहीमें निमग्न रहे। उनके किये हुए तप उनके आत्मबलका परिचय देते हैं । यह एक विचारणीय बात है कि उन्होंने तप और ध्यानके द्वारा विशेष योग्यता प्राप्त करनेके बाद ही उपदेशका कार्य हाथमें लिया। जो लोग केवल 'सेवा करो,-सेवा करो'की पुकार मचाते हैं उनसे जगतका कल्याण नहीं हो सकता । सेवाका रहस्य क्या है, सेवा कैसे करना चाहिए, जगतके कौन कौन कामोंमें सहायताकी आवश्यकता है. थोडे समय और थोड़े परिश्रमसे अधिकसेवा कैसे हो सकती है, इन सब बातोंका जिन्होंने ज्ञान प्राप्त नहीं किया-अभ्यास नहीं किया, वे लोग संभव है कि लाभके बदले हानि करनेवाले हो जाय। 'पहले ज्ञान और शक्ति प्राप्त करो, पीछे सेवाके लिए तत्पर होओ' तथा 'पहले योग्यता और पीछे सार्वजनिक कार्य' ये अमूल्य सिद्धान्त भगवानके चरितसे प्राप्त होते हैं । इन्हें प्रत्येक पुरुषको सीखना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों के विचार । ११३ योग्यता सम्पादन करनेके बाद भगवानने लगातार ३० वर्षों तक परिश्रम करके अपना 'मिशन ' चलाया। इस 'मिशन ' को चिरस्थायी बनानेके लिए उन्होंने 'श्रावक-श्राविका ' और 'साधु-साध्वियों का संघ या स्वयंसेवकमण्डल बनाया । क्राइस्टके जैसे १२ एपोस्टल्स थे वैसे उन्होंने ११ गणधर बनाये और उन्हें गण अथवा गुरुकुलोंकी रक्षाका भार दिया। इन गुरुकुलोंमें ४२०० मुनि, १० हजार उम्मेदवार मुनि, और ३६ हजार आर्यायें शिक्षा लेती थीं। उनके संघमें १५९००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थी। रेल. तार, पोस्ट आदि साधनोंके बिना तीस वर्षमें जिस पुरुषने प्रचारका कार्य इतना अधिक बढ़ाया था, उसके उत्साह, धैर्य, सहनशीलता, ज्ञान, वीर्य, तेज कितनी उच्चकोटिके होंगे इसका अनुमान सहज ही हो सकता है। पहले पहल भगवानने मगधमें उपदेश दिया। फिर ब्रह्मदेशसे हिमालय तक और पश्चिम प्रान्तोंमें उग्र विहार करके लोगोंके बहमोंको, अन्धश्रद्धाको, अज्ञानतिमिरको, इन्द्रियलोलुपताको और जड़वादको दूर किया। विदेहके राजा चेटक, अंगदेशके राजा शतानीक, राजगृहके राजा श्रेणिक और प्रसन्नचन्द्र आदि राजाओंको तथा बड़े बड़े धनिकोंको अपना भक्त बनाया । जातिभेद और लिंगभेदका उन्होंने बहिष्कार किया । जंगली जातियोंके उद्धारके लिए भी उन्होंने उद्योग किया और उसमें अनेक कष्ट सहे। महावीर भगवान् एटोमेटिक (Automatic) उपदेशक न थे, अर्थात् किसी गुरुकी बतलाई हुई बातों या विधियों को पकड़े रहनेवाले (conservative) कन्सरवेटिव पुरुष नहीं थे; किन्तु स्वतंत्र विचारक बनकर देशकालके अनुरूप स्वांगमें सत्यका बोध करनेवाले थे । श्वेताम्बरसम्प्रदायके उत्तराध्ययन सूत्रमें जो केशी स्वामी और गौतमस्वामीकी शान्त-कान्फरेंसका वर्णन दिया है उससे मालूम होता है कि उन्होंने पहले तीर्थकरकी बाँधी हुई विधिव्यवस्थामें फेरफार करके उसे नया स्वरूप दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने उच्च श्रेणीके लोगोंमें बोली जानेवाली संस्कृत भाषामें नहीं किन्तु साधारण जनताकी मागधी भाषामें अपना उपदेश दिया था। इस बातसे हम लोग बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमें अपने शास्त्र, पूजापाठ, सामायिकादिके पाठ, पुरानी, साधारण लोगोंके लिए दुर्बोध Jain Educaton International For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनहितैषी - भाषामें नहीं किन्तु उनके रूपान्तर, मूलभाव कायम रखके वर्तमान बोलचालकी भाषाओं में, देशकालानुरूप कर डालना चाहिए । महावीर भगवान्का ज्ञान बहुत ही विशाल था । उन्होंने षड्द्रव्य के स्वरू पमें सारे विश्वकी व्यवस्था बतला दी है । शब्दका वेग लोकके अन्त तक जाता हैं, इसमें उन्होंने बिना कहे ही टेलीग्राफी समझा दी है । भाषा पुद्गलात्मका होती है, यह कह कर टेलीफोन और फोनोग्राफ के अविष्कार की नीव डाली है। मल, मूत्र आदि १४ स्थानोंमें सूक्ष्मजीव उत्पन्न हुआ करते हैं, इसमें छूतके रोगोंका सिद्धान्त बतलाया है । पृथ्वी, वनस्पति आदिमें जीव है, उनके इस सि• द्धान्तको आज डाक्टर वसुने सिद्ध कर दिया है । उनका अध्यात्मवाद और स्याद्वाद वर्तमानके विचारकों के लिए पथप्रदर्शकका काम देनेवाला है । उनका बतलाया हुआ लेश्याओंका और लब्धियोंका स्वरूप वर्तमान थिओसोफिस्टों. की शोधोंसे सत्य सिद्ध होता है । पदार्थविज्ञान, मानसशास्त्र और अध्यात्म• के विषय में भी अढाई हजार वर्ष पहले हुए महावीर भगवान् कुशल थे । वे पदार्थविज्ञानको मानसशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र के ही समान धर्मप्रभः वनाका अंग मानते थे । क्योंकि उन्होंने जो आठ प्रकारके प्रभावक बतलाये । उनमें विद्या-प्रभावकोंका अर्थात् सायन्स के ज्ञानसे धर्मकी प्रभावना करनेवालों क भी समावेश होता है । भगवानका उपदेश बहुत ही व्यवहारी ( प्राक्टिकल ) है और वह आजकल लोगोंकी शारीरिक, नैतिक, हार्दिक, राजकीय और सामाजिक उन्नतिके लि बहुत ही अनिवार्य जान पड़ता है। जो महावीर स्वामी के उपदेशोंका रहस्य सम झता है वह इस वितंडवादमें नहीं पड़ सकता कि अमुक धर्म सच्चा है औ दूसरे सब झूठे हैं। क्योंकि उन्होंने स्याद्वादशैली बतलाकर नयनिक्षेपादि २ दृष्टियों से विचार करनेकी शिक्षा दी है । उन्होंने द्रव्य ( पदार्थप्रकृति ), क्षेः ( देश ), काल ( जमाना ) और भाव इन चारोंका अपने उपदेशमें आद किया है। ऐसा नहीं कहा कि ‘'हमेशा ऐसा ही करना, दूसरी तरहसे नहीं । ' मनु ष्यात्मा स्वतंत्र है, उसे स्वतंत्र रहने देना - केवल मार्गसूचन करके और अमु देश कालमें अमुक रीति से चलना अच्छा होगा यह बतलाकर उसे अपने देश कालादि संयोगों में किस रीति से वर्ताव करना चाहिए यह सोच लेनेकी स्वतन्त्रत For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियोंके विचार । ११५ दे देना—यही स्याद्वादशैलीके उपदेशकका कर्तव्य है । भगवानने दशवैकालिक सूत्रमें सिखलाया है कि खाते-पीते, चलते, काम करते, सोते हुए, हरसमय यत्नाचार पालो अर्थात् “ Work with attentiveness or bala. nced mind " प्रत्येक कार्यको चित्तकी एकाग्रता पूर्वक समतोलवृत्तिपूर्वक करो । कार्यकी सफलताके लिए इससे अच्छा नियम कोई भी मानसतत्त्वज्ञ नहीं बतला सकता । उन्होंने पवित्र और उच्चजीवनको पहली सीढ़ी न्यायोपार्जित द्रव्य प्राप्त करनेकी शक्तिको बतलाया है और इस शक्तिसे युक्त जीवको ‘मार्गानुसारी' कहा है । इसके आगे ' श्रावक'वर्ग बतलाया है जिसे बारह व्रत पालन करना पड़ते हैं और उससे अधिक उत्क्रान्त-उन्नत हुए लोगोंके लिए सम्पूर्ण त्यागवाला 'साधु-आश्रम' बतलाया है। देखिए, कैसी सुकर स्वाभाविक और प्राक्टिकल योजना है। श्रावकके बारह व्रतोंमें सादा, मितव्ययी और संयमी जीवन व्यतीत करनेकी आज्ञा दी है । एक व्रतमें स्वदेशरक्षाका गुप्त मंत्र भी समाया हुआ है, एक व्रतमें सबसे बन्धुत्व रखनेकी आज्ञा है, एक व्रतमें ब्रह्मचर्यपालन ( स्वस्त्रीसन्तोष ) का नियम है जो शरीरबलकी रक्षा करता है, एक व्रत बालविवाह, वृद्धविवाह और पुनर्विवाहके लिए खड़े होनेको स्थान नहीं देता है, एक व्रत जिससे आर्थिक, आत्मिकं या राष्ट्रीय हित न होता हो ऐसे किसी भी काममें, तर्क वितर्कमें, अपध्यानमें, चिन्ता उद्वेग और शोकमें, समय और शरीरबलके खोनेका निषेध करता है और एक व्रत आत्मामें स्थिर रहनेका अभ्यास डालनेके लिए कहता है । इन सब व्रतोंका पालन करनेवाला श्रावक अपनी उत्क्रान्ति और समाज तथा देशकी सेवा बहुत अच्छी तरह कर सकता है। जब भगवान्की आयुमें ७ दिन शेष थे तब उन्होंने अपने समीप उपस्थित हुए बड़े भारी जनसमूहके सामने लगातार ६ दिन तक उपदेशकी अखण्ड. धारा बहाई और सातवें दिन अपने मुख्य शिष्य गौतम ऋषिको जान बूझकर आज्ञा दी कि तुम समीपके गाँवोंमें धर्मप्रचारके लिए जाओ । जब महावीर. का मोक्ष हो गया, तब गौतम ऋषि लौटकर आये । उन्हें गुरुवियोगसे शोक होने लगा । पीछे उन्हें विचार हुआ कि "अहो मेरी यह कितनी बड़ी भूल है ! भला, महावीर भगवानको ज्ञान और मोक्ष किसने दिया था ? मेरा मोक्ष भी मेरे ही हाथमें है। फिर उनके लिए व्यर्थ ही क्यों अशान्ति भोगूं ? " इस पौरुष या मर्दानगीसे For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनहितैषी भरे हुए विचारसे—इस स्वावलम्बनकी भावनासे उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया और देवदुन्दुभी बज उठे ! " तुम अपने पैरों पर खड़े रहना सीखो; तुम्हें कोई दूसरा सामाजिक, राजकीय या आत्मिक मोक्ष नहीं दे सकता, तुम्हारा हरतरहका मोक्ष तुम्हारे ही हाथमें है।" यह महामंत्र महावीर भगवान् अपने शिष्य गौतमको शब्दोंसे नहीं किन्तु बिना कहे सिखला गये और इसी लिए उन्होंने गौतमको बाहर भेज दिया था। समाजसुधारकोंको, देशभक्तों और आत्ममोक्षके अभिलाषियोंको यह मंत्र अपने प्रत्येक रक्तबिन्दुके साथ प्रवाहित करना चाहिए। महावीर भगवान्के उपदेशोंका विस्तृत विवरण करनेके लिए महीनों चाहिए। उन्होंने प्रत्येक विषयका प्रत्यक्ष और परोक्षरीतिसे विवेचन किया है । उनके उपदेशोंका संग्रह उनके बहुत पीछे देवर्धिगणिने-जो उनके २७ वें पट्टमें हुए हैं-किया है और उसमें भी देशकाल और लोगोंकी शक्ति वगैरहका विचार करके कितनी ही तात्त्विक बातों पर स्थूल अलंकारोंकी पोशाक चढ़ा दी है जिससे इस समय उनका गुप्त भाव अथवा Mysticism समझनेवाले पुरुष बहुत ही थोड़े हैं । इन गुप्त भावोंका प्रकाश उसी समय होगा जब कुशाग्रबुद्धिवाले और आत्मिक आनन्दके अभिलाषी सैकड़ों विद्वान् सायन्स, मानसशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदिकी सहायतासे जैनशास्त्रोंका अभ्यास करेंगे और उनके छुपे हुए तत्त्वोंकी खोज करेंगे । जैनधर्म किसी एक वर्ण या किसी एक देशका धर्म नहीं; किन्तु सारी दुनियाके सारे लोगोंके लिए स्पष्ट किये हुए सत्यों का संग्रह है । जिस समय देशविदेशोंके स्वतंत्र विचारशाली पुरुषोंके मस्तक इसकी ओर लगेंगे, उसी समय इस पवित्र जैनधर्मकी जो इसके जन्मसिद्ध ठेकेदार बने हुए लोगोंके हाथसे मिट्टी पलीद हो रही है वह बन्द होगी और तभी यह विश्वका धर्म बनेगा। (प्रार्थनासमाज-बम्बईके वार्षिकोत्सवके समय दिया हुआ श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाहका संक्षिप्त व्याख्यान । ) -जैनकान्फरेंस हेरल्ड, अंक १०-११-१२ । For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-परिचय। ११७ wwwww पुस्तक-परिचय । १ स्वप्नवासवदत्तम् । स्वीसन्से पहले 'भास' नामके एक कवि हो गये हैं। वे महाकवि कालिदाससे भी पहले हुए हैं । कालिदासादिने अपने ग्रन्थोंमें उनका स्मरण किया है। अभीतक उनका कोई भी ग्रन्थ प्राप्य नहीं था; परन्तु - अब त्रावणकोरके प्राचीन पुस्तकालयमें उनके एक साथ तेरह ग्रन्थ मिल गये हैं और उनमेंसे १० ग्रन्थ उक्त राज्यने उत्तम रीतिसे सम्पादन कराके प्रकाशित भी करा दिये हैं । ये तेरहों ग्रन्थ नाटक हैं और संस्कृत साहित्यके प्रशंसनीय रत्न हैं । हर्षका विषय है कि पं० बाबूलाल मयाशंकर दुबे, राजनांदगांव ( सी. पी. ) ने उक्त नाटकोंमेंसे इस एक नाटकका हिन्दी गद्यपद्यमय अनुवाद भी प्रकाशित कर दिया और इस तरह उनकी कृपासे अब हिन्दीभाषाभाषी भी भासकी कृतिका कुछ परिचय पा सकेंगे। अनुवाद साधारणतः अच्छा हुआ है। भूमिकामें भासके सम्बन्धकी बहुतसी जानने योग्य बातें लिखी गई हैं। प्रारंभमें भासके नाटकोंकी संस्कृतसूक्तियोंका जो संग्रह किया गया है वह बहुत अच्छा है। हिन्दीभाषियोंके उपकारके लिए उनका अर्थ भी लिखदेना चाहिए था । पुस्तकका मूल छह आना है । २ कार्यविवरण पहला और दूसरा भाग। कलकत्तेके तृतीय हिन्दी साहित्यसम्मेलनका विवरण दो भागोंमें प्रकाशित हुआ है । पहले भागमें सभापति महाशयका विशाल व्याख्यान और दूसरे कामोंका क्रमबद्ध वर्णन है। दूसरे भागमें उन लेखोंका संग्रह है जो सम्मेलनमें पढ़े गये थे अथवा पढ़नेके लिए आये थे। इनमें कई अच्छे अच्छे विद्वानोंके लिखे हुए हैं। हिन्दीहितैषी मात्रको ये विवरण पढ़ना चाहिए । इनसे बहुत ज्ञान प्राप्त होगा और हिन्दीकी वर्तमान अवस्था पर विचार करनेमें सुभीता होगा। बहुत करके ये हिन्दीसाहित्यसम्मेलन कार्यालय इलाहाबादसे मिल सकेंगे । मूल्य मालूम नहीं। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनहितैषी ३ नवनीत । हिन्दीका मासिक पत्र है । इसे बनारसकी ग्रन्थप्रकाशक समिति निकालती है। दूसरे वर्षकी तीसरी संख्या हमारे सामने है । इसमें यूरोपके वर्तमान युद्ध के सम्बन्धकी सभी जानने योग्य बातें लिखी गई हैं जो बड़े परिश्रमसे संग्रह की गई हैं । इस युद्धके विषयमें जिन्हें कुछ जानना हो, वे इस अंकको अवश्य ही आद्यन्त पाठ कर जायें । इस अंकमें एक १०पेजके उपन्यासको छोड़कर शेष ७०पेज युद्धकी ही बातोंसे भरे हुए हैं । वार्षिक मूल्य २।और एक अंकका मूल्य ।। है। ४ वैष्णवसर्वस्व । यह वैष्णवोंके निम्बार्क सम्प्रदायका मासिक पत्र है। हाल ही निकला है। प्रकाशक, श्रीछबीलेलाल गोस्वामी, सुदर्शन प्रेस वृन्दावन । वार्षिक मूल्य दो रुपया । जो महाशय इस सम्प्रदायके सम्बन्धमें कुछ जानना चाहें वे इसे अवश्य मँगावें। __५ स्वामी-शिष्यसंवाद । इसमें स्वामी विवेकानन्द और उनके शिष्यके बीचमें जो वार्तालाप हुए थे वें लिखे गये हैं । गुजरातीमें स्वर्गीय भग्गूभाई फतेहचन्द जी ( सम्पादक जैन ) ने इसका अनुवाद किया था। मेसर्स मेघजी हीरजी कम्पनी, पायधूनी, बम्बई इसके प्रकाशक हैं । श्रीयुत मेघजी भाईने अपने विवाहके समय अपने इष्टमित्रोंमें वितरण करनेके लिए यह पुस्तक छपाई थी। बड़ी ही अच्छी पुस्तक है । धार्मिक राष्ट्रीय भावोंसे सराबोर है । हमने इसके प्रारंभके दो लेख पढ़े, पर हमें उनमें कोई बात ऐसी न मालूम हुई जो जैनधर्मके विरुद्ध हो। हमारी समझमें यह प्रत्येक भारतवासीके पढ़ने और मनन करनेके योग्य पुस्तक है। जैनभाईयोंके द्वारा इसप्रकारके सार्वजनिक विचारोंका प्रचार होना बहुत ही आशाजनक है। ६ दिगम्बरजैनका खास अंक । पिछले वर्षों की नाई इस वर्ष भी दिगम्बरजैनका दीपमालिकाका विशाल अंक खूब ठाटवाटसे निकला है । सब मिलाकर. ५० चित्र हैं ; एक चित्र रंगीन हैं । लेख भी पहलेके ही समान अँगेरजी, संस्कृत, प्राकृत, For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक- परिचय | ११९ हिन्दी, गुजराती और मराठी इन छह भाषाओंके हैं। अबकी बार दो चार लेख और चित्र महत्त्वके हैं । इसमें सन्देह नहीं कि कापड़ियाजी बड़े ही परिश्रम; अध्यवसाय और अर्थव्ययसे खास अंक तैयार कराते है; और इस विषय में उनके उत्साहकी सभी प्रशंसा करते हैं; परन्तु हमारी समझमें उनका परिश्रम और अर्थव्यय बहुत ही कम सफल होता है । साधारणजनता अन्तरंगकी अपेक्षा बहिरंग ही अधिक पसन्द करती है, चित्रादि नयनाभिराम चीज़ों का सर्वत्र ही अधिक आदर होता है, और उपहारकी पुस्तकें भी उसके ग्राहकोंको बहुत मिलती हैं इसलिए संभव है कि दिगम्बर जैन की ग्राहकसंख्या संतोषप्रद हो; परन्तु हमारी समझमें ग्राहकसंख्या अधिक होना ही सफलताका प्रमाण नहीं है । पहले भी हम कई बार लिख चुके हैं और अब भी मित्रभावसे लिखते हैं कि सहयोगीको बाहरी ठाटवाटके साथ अपना अन्तरंग भी अच्छा बनाना चाहिए । अच्छे लेखों और प्रगतिशील साहित्यके प्रचारकी ओर उसे विशेष दृष्टि देना चाहिए । इस समय जैनसमाजको चित्रोंकी ज़रूरत नहीं है, उसे चाहिए अपनी उन्नतिका मार्ग दिखानेवाले समयोपयोगी लेख, और हम देखते हैं कि सहयोगीका इस ओर बहुत ही कम ध्यान है । इस अंकका अधिकांश ऐसे लेखोंसे भरा गया है जो इस बहुमूल्य अंकके लिए सर्वथा अयोग्य हैं । कुछ हिन्दीकी कवितायें ऐसी हैं जो हिन्दी के प्रसिद्ध पत्रोंसे उड़ाकर काट छाँटकर कई जैनकवियों ने (?) अपने नामसे प्रकाशित करा दी हैं । जो दोचार अच्छे लेख हैं, वे बहुतसे घास-फूस के भीतर बिलकुल छुप गये हैं । हम नहीं कह सकते कि अन्य भाषाओंकी शुद्धताकी ओर कितना ध्यान दिया गया है, पर बेचारी हिन्दीकी तो बहुत ही दुर्दशा की गई है । प्राकृतके लेखोंसे क्या लाभ होगा, यह हम नहीं समझ सके । संस्कृत के लेख भी विशेष लाभदायक नहीं हो सकते । उनमें कुछ तथ्य भी नहीं है । अनेक भाषाओं की गड़बड़की अपेक्षा यदि कोई एक ही भाषाका प्राधान्य रक्खा जाय तो अधिक लाभ हो । उपहारकी पुस्तकों में भी सहयोगीको इस बातका ध्यान रखना चाहिए । जहाँतक हम जानते हैं उसके हिन्दी जाननेवाले ग्राहकोंकी संख्या आधी से अधिक होगी । ऐसी दशा में जिन ग्राहकों की मातृभाषा गुजराती है वे तो हिन्दी पुस्तकोंसे थोड़ा बहुत लाभ उठा भी सकते होंगे; परन्तु जिनकी मातृभाषा हिन्दी है उनमें सौ पचास ही ऐसे होंगे जो गुजराती पुस्तकोंसे कुछ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनहितैषी लाभ उठा सकें। ऐसी अवस्थामें सहयोगीको या तो उपहारकी समस्त पुस्तकें हिन्दीमें ही निकालना चाहिए, या हिन्दी ग्राहकोंको हिन्दी और गुजराती ग्राहकोंको गुजरातीकी पुस्तकें देना चाहिए । उपहारकी पुस्तकें भी कुछ समझ बूझकर निकालना चाहिए । चित्रोंके विषयमें भी सहयोगी सीमासे अधिक उदारता दिखलाता है । जिस श्रेणीके लोगोंके चित्रोंको वह स्थान दे देता है उससे हम समझते हैं कि अभी नहीं तो थोड़े ही समयमें लोगोंके हृदयसे इस बातका महत्त्व ही उठ जायगा कि किसी पुरुषका चित्र प्रकाशित होना उसके श्रेष्ठत्व या गौरवका भी द्योतक है । आशा है कि सम्पादक महाशय हमारी इन सूचना ओं पर ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और इन्हें किसी बुरे अभिप्रायसे लिखी हुई न समझेंगे। ७ जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा इटावाके ट्रेक्ट । सृष्टिवादपरीक्षा, जैनधर्म, जैनफिलासफी, जैनियोंका तत्त्वज्ञान और चारित्र, वृद्धविवाह, बालविवाह, और ईश्वरास्तित्व ये सात ट्रेक्ट हमें समालोचनाके लिए मिले हैं। इनमेंसे पहले चार ट्रेक्ट जैनहितैषीमें प्रकाशित हो चुके हैं। प्रकाशक महाशय इन पर यह लिखना भूल गये हैं कि ये जैनहितैषीसे उद्धत किये गये हैं। इतना लिख देने में कुछ हर्ज न था। पाँचवें ट्रेक्टमें वृद्धविवाहकी और छठेमें बाल्यविवाहकी एक एक कल्पित कहानी उपन्यासके ढंग पर लिखी गई है । ये अच्छे नहीं हैं—कई जगह अश्लीलता आगई है । सातवेंमें पं० पुत्तूलालजीका लिखा हुआ एक निबन्ध है । पाँचों ट्रेक्ट प्रचार करनेके योग्य हैं । मिलते भी बहुत सस्ते हैं । बाबू चन्द्रसेनजी मंत्रीसे मैंगाना चाहिए। ८ सप्तव्यसननिषेध। - इसे वीरपुत्र आनन्दसागरजीने लिखा है और रायसाहब सेठ केसरीसिंहजी रतलामने प्रकाशित कराया है। प्रकाशक, ग्रन्थकर्ता और उनके गुरुके चित्र भी हैं । पुस्तककी भाषा अच्छी नहीं है । जगह जगह अंगरेज़ीके शब्द बिना कारण दिये हैं। इसमें पानीका अर्थ 'वाटर' लिखनेका इसके सिवाय और क्या कारण हो For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-परिचय। १२१ सकता है कि ग्रन्थकर्ताको लोग अँगरेज़ीका जानकार समझें । जो कुछ हो पुस्तक बिना मूल्य मिलती है, इस लिए अच्छे अभिप्रायसे ही प्रकट की गई जान पड़ती है । साधारण पढ़े लिखे भाइयोंको इससे लाभ उठाना चाहिए । ९ दयास्वीकार मांसतिरस्कार । इसे बाबू बुद्धमलजी पाटणीने लिखा है और रायबहादुर सेठ कल्याणमलजी इन्दोरवालों की सहायतासे भारतजनमहामंडलके जीवदयाविभागके मंत्री बाबू दयाचन्द्रजी बी. ए. लखनऊने छपाया है। हितैषीके आकारके ११२ पृष्ठ हैं । अभीतक इस विषयके जितेन ट्रेक्ट निकले हैं उन सबसे यह पुस्तक बड़ी है। इसकी रचनाशैली कुछ शास्त्रीय ढंगकी हो गई है और बहुतसी बातें विषयसे बाहरकी लिख दी गई हैं । जैसे जैनधर्मकी उत्कृष्टताके विषयमें लोकमान्य पं० बालगंगाधर तिलककी सम्मति; इसकी जरूरत न थी क्योंकि यह पुस्तक विशेषकर जैनेतरों के लिए लिखी गई है। तो भी दया और मांसके त्यागके सम्बन्धकी सैकड़ों : बातोंका इसमें संग्रह कर दिया गया है । इसके लिए लेखक महाशयने अच्छा परिश्रम किया है । ऐसी पुस्तकोंका जितना ही प्रचार किया जासके उतना ही अच्छा है। बहुत करके यह पुस्तक मुफ्तमें बाँटी जाती है । आरंभमें सेठ कल्याणमलजीका संक्षिप्त जीवनचरित दिया गया है जिससे उनकी उदारताका परिचय मिलता है। __१० प्रभुजन्मोत्सवगीत। हितैषीके पाठकोंको श्रीयुत दत्तात्रय भीमाजी रणदिवेका परिचय कईबार कराया जा चुका है । आप मराठीके नामी कवियोंमेंसे एक हैं । यह बहुत ही छोटी सी पुस्तक आपहीकी रचना है । इसे पढ़कर जान पड़ता है कि आप कैसे प्रतिभाशाली कवि हैं। इसमें आदिनाथ भगवानके जन्मोत्सवका और अभिषेकका बिलकुल नयी शैलीका वर्णन है । जहाँतक हम जानते हैं जैनधर्मके पिछले साहित्यमें इस जोड़की कविता शायद ही कोई हो । हमारे हिन्दीके पाठक इस कविताके रसका कुछ आस्वादन कर सकें, इसलिए हम यहाँ पर इसकी कुछ पंक्तियोंका भावार्थ लिख देते हैं: For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनहितैषीwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww mmmmmmmmwwwwwwwwwwwm हे जीवदया, आज यह तेरा मुख प्रसन्न क्यों हो उठा है ? तेरे अधर पर यह मुसकुराहट और गालों पर ललाई क्यों झलक रही है ? हे बुद्धिदेवी, आज तू. आनन्दके मारे नृत्य क्यों कर रही है ? सदासे तेरे पैरोंमें जो गुलामीकी बेड़ी पड़ी हुई थी, वह कैसे टूट गई ? भाई विवेक, आज तू आकाशमें उड़ाने क्यों भर रहा है ? ये सुन्दर पंखे तुझे फिरसे किसने दे दिये ? चिरकालकी निद्रासे आज तू जाग कैसे उठा ? क्या तेरे कानोंमें किसीने शंख फूंक दिया है ? प्यारी समता, आज तेरे शरीर पर ये हर्षके अंकुर क्यों उठ रहे हैं ? इतना सुख तुझे किस कारण हो रहा है ? हे अनाथ पशुओ और दीन जन्तुओ, तुम इस तरह आशाके नेत्रोंसे किसकी ओर देख रहे हो ? तुम्हारे दुःखोंको दूर करनेवाला कौन आ गया ? भला बतलाओ तो सही कि तुम्हारा मूकरोदन किसके कानोंतक पहुँच गया और तुम्हारी गूंगी पुकार सुनकर किसका हृदय पिघल गया ? अरे भाई, तुम यह क्या पूछे रहे हो ? जिस तरह तुम्हें तुम्हारी बुद्धिने छोड़ दिया है उस तरह क्या कानोंने भी छोड़ दिया ? सुनते नहीं हो कि आज सम्पूर्ण अनाथोंका संरक्षक और दुर्बलोंका सहायक प्रभु स्वर्गसुखोंको छोड़कर पददलितों-पतितोंको ऊपर उठानेके लिए, भयभीतोंको अभय देनेके लिए, जीवमात्रके साथ मित्रता रखना सिखलानेके लिए और अखिल प्राणियोंको जीवनदान देनेके लिए नीचे उतरा है । वसन्त ऋतुके समान उससे सारी जडचेतन--सृष्टि प्रफुल्लित हो जायगी । सुनो, उसके ये जन्ममहोत्सवके बाजोंकी धुनि सुनाई दे रही है और देखो, यह अयोध्यापुरी आनन्दसे किस तरह नृत्य कर रही है । समस्त जनोंका प्यारा वसन्त अपने आगमनसे सबको सुखी कर रहा था । सृष्टिसुन्दरी आनन्दमें तल्लीन हो रही थी। उसकी गोदीमें ऐसा कोई न था जो हीन दीन हो-सभी प्रसन्न थे । वृक्ष और लताये पत्तों और फूलोंसे लद रही थीं। वायु भी फूलोंकी सुगन्धिसे भरा हुआ मन्द मन्द. बह रहा था और इन सबको ही नीचा दिखलानेके लिए मानों निसर्ग-गायकोंके नायक पिव For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक परिचय। १२३ ( कोयल ) मीठे स्वर अलाप रहे थे ! इस तरहके इस अत्यन्त सुखप्रद और मंगलमय समयमें मानों मूर्तिमती मांगल्य देवता ही सन्तानवती हुई-नाभिराजाकी रमणी रमणीभूषण मरुदेवीने एक अनुपम सुतमणिको जन्म दिया; जिस तरह पूर्वदिशा वासरमणि ( सूर्य ) को जन्म देती है । इत्यादि । पुस्तकका मूल्य 'तीन पैसा' है। यह लेखकके पास 'रास्त्याची पेठ घर नं० १०२, पूने ' के पतेसे मिल सकेगी। ११ महावीर अंक ( उत्तरार्ध)। श्वे० जैनकान्फरेंस हेरल्डके महावीर अंकका परिचय हम पहले दे चुके हैं; अब उसका दूसरा भाग भी उसके विद्वान् सम्पादकने प्रकाश किया है । इसमें भी कई अच्छे अच्छे लेख प्रकाशित हुए हैं । जो सज्जन महावीर भगवान्के सम्बधमें विशेष ज्ञान सम्पादन करना चाहें और गुजराती जानते हों उन्हें यह अंक और इसके पहलेका अंक मँगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। इसमें कई लेख जैनेतर विद्वानोंके लिखे हुए भी हैं । इस अंकके एक लेखका संक्षिप्त अनुवाद हमने अन्यत्र प्रकाशित किया है। महावीरका विस्तृत चरित लिखनेमें इन सब लेखोंसे बहुत सहायता मिलेगी । विद्वानोंको इनका संग्रह कर रखना चाहिए। इस अंकका मूल्य आठ आना है। नीचे लिखी पुस्तकें सादर स्वीकार की जाती हैं:१ रिपोर्ट-स्याद्वाद महाविद्यालय काशीकी, दश वर्षकी । २ रिपोर्ट-जैनपाठशाला सदर बाजार मेरठकी, द्वितीय वर्षकी । ३ रिपोर्ट-जैनविद्यालय कूचा सेठ देहलीकी, तीसरे वर्षकी। ४ रिपोर्ट-जैन सेन्ट्रल लायब्रेरी और संस्कृत पाठशाला बम्बईकी, चौथी। ५ उपदेशक भजनावली-प्रकाशक, वैश्यसभा भिवानी ( हिसार )। ६ अव्ययवृत्तिः-प्र०, उमादत्त हंसराज, कसूर ( हिसार )। ७ साक्षात् मोक्ष-प्र०, जैनज्ञानप्रसारक मंडल, सिरोही। ८ साधुगुणपरीक्षा-प्र०, साधुमार्गी जैन सभा, बड़नगर । ९-१० बाल्यविवाह, वृद्धविवाह-प्र०, मालवा प्रान्तिक सभा, बड़नगर । ११ प्रार्थनास्तोत्र-प्र०, मंत्री जैनविद्यालय कूचा सेठ, देहली। १२ गुणस्थानदर्पण-मिलनेका पता, रावत शेरसींग गौडवंशी, रतलाम । For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनहितैषी १३ दानवीर सेठ माणिकचन्द यांचे जीवनचरित्र-प्र०, बन्दे जिनवरम् प्रेस, निपाणी (बेळगांव)। १४ श्रीमद्विजयानन्द द्वात्रिंशिका (संस्कृत)-सोहनलाल बत्तनलाल जौहरी, देहली। १५ महावीरचरित्र-ले०, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी। प्र०, पं०. पन्नालालजी जैन, मैदागिनी जैनमन्दिर, बनारस । १६ दशलक्षण धर्म कथासहित (हिन्दी) प्रकाशक, १७ त्रेपन क्रिया विवरण दिगम्बर जैन पुस्तकालयं १८ उपदेश माला सूरत। १९ भारतीय किसान प्रकाशक, बाबू नारायण२० मनुष्य के कर्तव्यका परिचय ' प्रसाद अरोड़ा बी. ए. २१ अमेरिकाका गृहप्रबन्ध J कानपुर २२ सप्तव्यसननिषेध-प्र०, मूलचन्द बड़कुर, दमोह ( सी. पी.) २३ तीन वर्षकी रिपोर्ट-जैन अनाथरक्षक सुसाइटी, देहली। २४ जैनपुष्पमाला-प्र०, पन्नालाल जैनी, बिसाना, हाथरस । २५ रत्नाकरपच्चीसी-प्र०, मावजी दामजी शाह, जैन हाईस्कूल, बम्बई । २६ देवपरीक्षा-प्र०, आत्मानन्द पुस्तकप्रचारक मंडल, देहली। २६ हूँढकमतके नेता-प्र०, वसन्त, सिकन्दराबाद ( बुलन्दशहर )। समाचार । -श्रीयुत बाबू जुगमंदरलालजी जैनी एम. ए. बैरिस्टर एट्ला इन्दौरकी चीफ कोर्टके सेकिन्ड जज नियत हुए हैं। -इटावाका 'जैनतत्त्व प्रकाशक' फिर निकलने गगा है । तीन चार अंक निकल गये हैं । बाबूचन्द्रसेनजी सम्पादन करते हैं । -सत्यवादीका सम्पादन-कार्य पं० उदयलालजीने छोड़ दिया है । अब पं० खूबचन्द्रजी शास्त्री उसका सम्पादन करेंगे। -यूरोपका महाभारत खूब जोरशोरसे जारी है । फिलहाल शान्तिकी कोई आशा नहीं। -इन्दौरका श्राविकाश्रम भी खुल गया। -स्याद्वादपाठशालाका वार्षिकोत्सव सफलताके साथ पूर्ण हुआ । For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर सेठ माणिकचन्दजीका स्मारक । दानवीर सेठ माणिकचन्दजीका स्मारक | · यह जानकर पाठकों को प्रसन्नता होगी कि स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द जे. पी. के स्मरणार्थ एक · ग्रन्थमाला ' निकालने का निश्चय किया गया है । इसमें संस्कृत और प्राकृतके प्राचीन जैनग्रन्थ प्रकाशित होगें और लागत मात्रके मूल्य पर बेचे जायेंगे । प्रत्येक ग्रन्थकी कुछ प्रतियाँ मुफ्त भी बाँटी जावेंगी । ऐसा प्रबन्ध किया जा रहा है कि बहुत जल्दी एक दो ग्रन्थ प्रकाशित कर दिये जावें । शास्त्रदान करनेवालोंके सुभीते के लिए एक योजना यह भी की जायगी कि जो धर्मात्मा किसी ग्रन्थकी सो दोसौ या इससे अधिक प्रतियाँ दानके लिए खरीदना चाहेंगे उनका स्मरणपत्र भी उन प्रतियोंमें छपवा दिया जायगा । ग्रन्थप्रचार और ग्रन्थोद्धार यह स्वर्गीय सेठजीका बहुत ही प्यारा कार्य था । इसलिए यह ' ग्रन्थमाला ' का निकलना उनका बहुत ही अनुरूप और उचित स्मारक होगा । जो सज्जन सेठजीके उपकारोंको भूले नहीं हैं - उनके प्रति जिनकी आदरबुद्धि है आशा है कि उन्हें यह कार्य बहुत पसन्द आयगा और वे इसमें हर तरहसे सहायता पहुँचायेंगे । अभी तक स्मारक फंडमें लगभग चार हजार रुपयेका चन्दा हुआ है जो लगभग वसूल हो चुका है । हम चाहते हैं कि यह फंड कमसे कम दशहजार रुपयेकी अवश्य हो जाय जिससे थोड़ेही समय में इसके द्वारा सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थोंका उद्धार हो जाय और उनके दर्शन घर घर होने लगे । ग्रन्थमालाकी नियमावली बन रही है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगी । जो महाशय इस विषय में कुछ सूचनायें करना चाहें या सम्मतियाँ देनेकी इच्छा करें वे मुझसे से पत्रव्यवहार करें । १२५ नाथूराम प्रेमी, हीराबाग पो० गिरगांव - बम्बई | For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनहितैषी आवश्यक प्रार्थना। जैनहितैषीके पाठकोंको यह बतलानेकी जरूरत नहीं है कि यह पत्र जैनसमाजकी और जैनसाहित्यकी कितनी सेवा कर रहा है और इसका प्रचार अधिकता. के साथ होनेकी कितनी आवश्यकता है। इस सालका उपहार तो ग्राहकोंके हाथमें मौजूद ही है। इसे देखकर यह भी मालूम किया जा सकता है कि जैनहितैषीका वास्तविक उद्देश्य क्या है ? यह जैनसमाजकी भलाई के लिए निकलता है या कमाईके लिए । यदि पाठकोंकी समझमें हितैषीसे वास्तवमें ही समाजका कुछ हित होता हो तो हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे इस समय इसके कुछ ग्राहक बढ़ानेका प्रयत्न अवश्य करें । आपलोग यदि थोड़ी सी भी कोशिश करेंगे तो सहज ही इसके दोसौ चारसौ ग्राहक बढ़ जावेंगे। इस सालके साधारणोपयोगी उपहार ग्रन्थोंका जुदा मूल्य डाँकखर्चसहित २) है। इस लिए जैनहितैषी केवल १२ पैसोंमें मिलेगा जो कि १२ अंकोंके डाँकखर्च में ही लग जावेंगे। ये ग्रन्थ जिस किसीको भी बतलाये जावेंगे वही थोडीसी प्रेरणा करनेपर ग्राहक बननेको तैयार हो जायगा । केवल जैनी ही नहीं, इन ग्रन्थरत्नोंके मोहसे अजैनी भी ग्राहक बन जावेंगे । इस लिए पाठकोंसे बारबार प्रार्थना है कि वे इस वर्ष ग्राहक बढ़ानेकी काशिश जरूर करें। इस वर्ष लड़ाईके कारण कागज और छपाईका भाव बहुत बढ़ गया है इसलिए ग्राहकोंकी संख्या यथेष्ट न होगी तो हमें बहुत घाटा उठाना पड़ेगा। __ ग्राहक जितने ही अधिक होंगे, पत्रकी पृष्ठ संख्या हम उतनी ही आधिक बढ़ानेका प्रबन्ध करेंगे। ग्राहकसंख्या बढ़े बिना कोई भी पत्र तरक्की नहीं कर सकता। इस वर्ष हमें कोई भी महाशय जनहितैषीको मुफ्तमें या आधे पौने मूल्यमें मँगानेके लिए लाचार न करें। जिन संस्थाओंमें हितैषी विनामूल्य जाता है उनके संचालकों और विद्यार्थियोंसे खास तौरसे प्रार्थना है कि वे परिश्रम करके हमें इस वर्ष कुछ ग्राहक जुटा देनेकी कृपा करें। ___मैनेजर, जैनहितैषी। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) नये छपे हुए जैन ग्रन्थ । भक्तामरचरित । इसमें प्रत्येक श्लोक, उसका अर्थ, प्रत्येक श्लोककी विस्तृत कथा, हिन्दी कविता, प्रत्येक श्लोकका मंत्र और यंत्र ये सब बातें छपाई गई हैं । कथायें बड़ी विलक्षण हैं । उनमें किस पुरुषने किस मंत्रका किस तरह जाप किया, उसको कैसी कैसी तकलीफें भोगनी पड़ी और फिर अन्तमें उसे किस तरह मंत्रकी सिद्धि हुई इन सब बातोंकी आश्चर्यजनक घटनाओंका वर्णन किया है। भाषा बहुत सरल बनाई गई है। यह मूल संस्कृत ग्रन्थका नया अनुवाद है । कपड़ेकी सुन्दर जिल्द बँधी हुई पुस्तक है । मूल्य सवा रुपया। श्रेणिकचरित । यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान्के परम भक्त महाराजाश्रेणिकका जो इतिहासज्ञोंमें बिम्बिसारके नामसे विख्यात हैं-चरित है । इसे श्रेणिकपुराण भी कहते हैं । इसका अनुवाद मूल संस्कृत ग्रन्थ परसे पं. गजाधरलालजीने किया है । आज कलकी बोलचालकी भाषामें है, पुष्ट चिकना कागज़, उत्तम छपाई, कपड़ेकी पक्की जिल्द, पृष्ठ संख्या ४०० । मूल्य १॥) धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार । श्रीसकलकीर्ति आचार्यके संस्कृत ग्रन्थका सरल अनुवाद । इसमें प्रश्न और उत्तरके रूपमें श्रावकाचारकी सारी बातें बड़ी ही सरलतासें समझाई गई हैं । सब भाईयोंको मँगाकर पढ़ना चाहिए । साधारण पढ़े लिखे लोगोंके बड़े कामका ग्रन्थ है । मूल्य दो रुपया। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) नाटक समयसार भाषाटीकासहित । कविवर पं० बनारसीदासजीके भाषा नाटकसमयसारको कौन नहीं जानता । उनकी भाषा कविता जैनसाहित्यमें शिरोमणि समझी जाती है । इस अध्यात्मकी कविताका अर्थ सबकी समझ में नहीं आता था, इस कारण श्रीयुत नाना रामचन्द्र नाग ( जैन ब्राह्मण ) ने भाषा बचनिका सहित इस ग्रन्थको खुले पत्रों में छपाया है । छपाई सुन्दर है । मूल्य २ ॥ ) बालक-भजनसंग्रह ( द्वितीयभाग ) । इसमें नई तर्ज़के, नई चालके २१ भजनोंका संग्रह है । इसके बनानेवाले लाला भूरामलजी ( बालक ) मुशरफ जयपुर निवासी हैं । मूल्य डेड़ आना । महेन्द्रकुमार नाटकके गायन । जयपुरकी शिक्षाप्रचारकसमिति जो महेन्द्रकुमार नामका नवीन विचारोंसे परिपूर्ण नाटक खेलती थी उसमेंके गायन छपाये गये हैं। बड़े अच्छे हैं । मूल्य एक आना । विश्वतत्त्व चार्ट | यह बढ़िया काग़ज़ पर छपा हुआ नकशा है । इसमें जैनधर्मके अनुसार सात तत्त्व और उनका विस्तार बतलाया है । जैनधर्मकी सारी बातें इसमें आ गई हैं । प्रत्येक मन्दिरमें जड़वाकर टाँगने लायक है । मूल्य दो आना । आराधना कथाकोश । जैनकथाओं का भंडार । मूल संस्कृतसहित सुन्दरतासे छपा है । भाषा बोलचालकी सबके समझने योग्य है । पहले भागका मूल्य १ | ) For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) अनित्यभावना । श्रीपद्मनन्दि आचार्यका अनित्यपंचाशत मूल और उसका अनुवाद | अनुवाद बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ने हिन्दी कविता में किया है । शोक दुःख के समय इस पुस्तकके पाठसे बड़ी शान्ति मिलती है । मूल्य डेड़ आना । पंचपरमेष्ठीपूजा । संस्कृतका यह एक प्राचीन पूजाग्रन्थ है । इसके कर्त्ता श्रीयशोनन्दि आचार्य हैं। इसमें यमक और शब्दाडम्बरकी भरमार है । पढ़ने में बड़ा ही आनन्द आता है । जो भाई संस्कृत पूजापाठके प्रेमी हैं उन्हें यह अवश्य मँगाना चाहिए । अच्छी छपी है । मूल्य चार आना । चौवीसी पाठ (सत्यार्थयज्ञ ) । यह कवि मनरंगलालजीका बनाया हुआ है । इसकी कविता पर मुग्ध होकर इसे लाला अजितप्रसादजी एम. ए. एल एल. बी. ने छपाया है । कपड़ेकी जिल्द बँधी है । मूल्य | ) जैनार्णव । इसमें जैनधर्मकी छोटी बड़ी सब मिलाकर १०० पुस्तकें हैं । सफ़र में साथ रखनेसे पाठादिके लिए बड़ी उपयोगी चीज़ है | बहुत सस्ती है । कपड़े की जिल्द सहित मूल्य १ ) श्री पालचरित । पहले यह ग्रन्थ छन्द बंध छपा था । अब पं. दीपचन्दजीने सरल बोलचाल की भाषा में कर दिया है जिससे समझने में कठिनाई नहीं पड़ती । क्की कपड़ेकी जिल्द बँधी है । मूल्य १) For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) धर्मरत्नोद्योत। यह ग्रन्थ आरा निवासी बाबू जगमोहनदासका बनाया हुआ है। क. वितामें है। जैनधर्मसम्बन्धी पचासों बातें कवितामें समझाई गई हैं। कविता सरल और अच्छी है। निर्णयसागर प्रेसमें बढिया एन्टिक कागज़ पर छपाया गया है। मूल्य एक रुपया। जैनगीतावली। विवाहादिके समय स्त्रियोंके गाने योग्य गीत । ये गालियोंकी चालमें धार्मिक गीत हैं । बुन्देलखंडकी स्त्रियोंमें बहुत प्रचार है । मूल्य ।) सुशीला उपन्यास। इस उपन्यासकी प्रशंसाकी ज़रूरत नहीं। दूसरी बार सुन्दरतासे छपा है। इसमें मनोरंजनके साथ जैनधर्मका सार भर दिया गया है।' पक्की कपड़ेकी जिल्द । मू० ११) कर्नाटक- जैनकवि। कर्नाटक देशमें जो नामी नामी जैन कवि हुए हैं उनका इसमें ऐतिहासिक परिचय दिया गया है। सब मिलाकर ७५ कवियोंका इतिहास है। बड़े महत्त्वकी पुस्तक है । मूल्य लागतसे भी कम आधा आना है। जिनशतक। यह श्रीमान् समन्तभद्र स्वामीका बिलकुल अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। बहुत ऊँचे दर्जेका संस्कृत चित्रकाव्य है। हिन्दीजाननेवाले भी इसका कुछ अभिप्राय समझ सकें इस लिए मूल श्लोकोंका भावार्थ भी लिख दिया है। इस ग्रन्थकी संस्कृत टीकायें लिखनमें बड़े बड़े आचार्योंकी अक्ल चकराई है। मूल्य ॥) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामीचरित। यह भी कवितासे बदलकर सादी बोलचालकी भाषामें कर दिया गया है । अन्तिम केवली जम्बूस्वामीका पवित्र चरित्र है । मूल्य ।) दशलक्षणधर्म । इसमें उत्तम क्षमादि दशधर्मोंका विस्तृत व्याख्यान है। रत्नकरंडवचनिका आदिग्रन्थोंके आधारसे नये ढंगसे लिखा गया है। भाषा बोलचालकी है । साथमें दशलक्षण व्रत कथा भी है । शास्त्रसभामें बाँचने योग्य है । भादोंके तो बड़े कामकी चीज़ है। मूल्य पाँच आना। आत्मशुद्धि। । यह पुस्तक लाला मुंशीलालजी एम. ए. की लिखी हुई हालही प्रकाशित हुई है । विषय नामसे ही स्पष्ट है । जैनग्रन्थोंके आधारसे लिखी गई है। इसमें ‘शील और भावना' भी शामिल है । मूल्य।) गृहिणीभूषण । स्त्रियोंके लिए बड़ी ही उपयोगी पुस्तक है । जैनस्त्रियोंके सिवाय दूसरी स्त्रियाँ भी लाभ उठा सकती हैं । स्त्रियोंके कर्तव्य, व्यवहार, विनय, लज्जा, शील, गृहप्रबन्ध, बच्चोंका लालनपालन, पातिव्रत, परोपकार आदि-सभी विषयोंकी इसमें सुन्दर शिक्षा दी गई है । भाषा शुद्ध और सरल है। जैनसमाजमें स्त्रीशिक्षाकी इससे अच्छी और कोई पुस्तक प्रचलित नहीं । मूल्य आठ आना । शान्तिकुटीर। यह बहुत ही सुन्दर और शिक्षाप्रद उपन्यास है । प्रतिभा उपन्यासके लेखककाही यह लिखा हुआ है । इससे इसकी प्रशंसा करना व्यर्थ है। १५ जनवरी तक तैयार हो जायगा । मूल्य १) __मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, गिरगाँव, बम्बई। For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसाधारणोपयोगी हिन्दी ग्रन्थ । ___ स्वर्गीय जीवन । यह अमेरिकाके आध्यात्मिक विद्वान डा० राल्फ वाल्डो ट्राइनके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ In Tune with the infinite का हिन्दी अनुवाद है। पवित्र, शान्त, नीरोगी और सुखमय जीवन कैसे बन सकता है, मानसिक प्रवृत्तियोंका शरीर पर और शारीरिक प्रकृतियोंका मन पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि बातोंका इसमें बड़ा हृदयग्राही वर्णन है। प्रत्येक सुखाभिलाषी स्त्रीपुरुषको यह पुस्तक पढ़ना चाहिए। इसमें विश्वका उत्कृष्ट तत्त्व, मनुष्यजीवनका परम सत्य, शारीरिक आरोग्यता और शक्ति, प्रेमका परिणाम, पूर्ण शान्तिकी सिद्धि, पूर्ण शक्तिकी प्राप्ति, समृद्धिशाली होनेका नियम, महात्मा सन्त और दूरदर्शी बननेके नियम, सब धर्मोका असली तत्त्व, सर्वश्रेष्ठ धन प्राप्त करनेकी रीति, ये दश अध्याय हैं। इसके विषयमें सरस्वतीके सम्पादक महाशय लिखते हैं:-" जगदात्मासे ऐक्य स्थापना और आत्मानन्दका सुखानुभव प्राप्त करनेके विषयमें ट्राइन महोदयको जो अनुभव हुए हैं उन्हींका इसमें वर्णन है । पुस्तक दिव्य विचारोंसे परिपूर्ण है । अध्यात्मका थोडासा भी ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवालोंको अवश्य अवलोकन करना चाहिए।” मूल्य ॥३) ग्यारह आने । बाबू मैथलीशरणजी गुप्तके काव्य ग्रन्थ । हिन्दीके सुप्रसिद्ध कवि बाबू मैथिलीशरणजीको कौन नहीं जानता । अपने ग्राहकोंके सुभीतके लिए हमने उनके सब प्रन्थ विक्रीके लिए मँगाकर रक्खे हैं । बाजिब मूल्य पर भेजे जाते हैं:भारतभारती, सादी १) रंगमें भंग ) , राजसंस्करण २) पद्यप्रबन्ध ॥3) जयन्द्रथवध काव्य ) मौर्यविजय ।) For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जयन्त नाटक। कविशिरोमाण शेक्सपियरके 'हेम्लेट' का हिन्दी अनुवाद । इस नाटककी प्रशंसा करना व्यर्थ है। अनुवादके विषयमें इतना कह देना काफी होगा कि इसे बिलकुल देशी पोशाक पहना दी गई है और इस कारण इस देशवासियोंके लिए यह बहुत ही रुचिकर होगा । रूपान्तरित होने पर भी यह अपने मूलके भावोंकी खूब सफलताके साथ रक्षा कर सका है। रंगमंच पर अच्छी तरह खेला जा सकता है । मूल्य ॥) चित्रशाला प्रेसके हिन्दी ग्रन्थ । पूनके चित्रशाला प्रेससे हिन्दीके जो अच्छे अच्छे ग्रन्थ प्रकाशित 'हुए हैं उनके विक्रय करनेका भी हमने प्रबन्ध किया है। इस प्रेसके ग्रन्थ सुन्दर और उत्तम होने पर भी कम मूल्यमें बेचे जाते हैं: १ दासबोध-महाराष्ट्रके सुप्रसिद्ध साधु रामदासका बनाया हुआ राष्ट्रीय ग्रन्थ है । ये वे ही साधु हैं जो वीरकेसरी शिवाजीके गुरु थे और जिनके उपदेशसे शिवाजीने महाराष्ट्र साम्राज्य स्थापित किया था । हिन्दीके प्रसिद्ध लेखक पं० माधवराव सप्रे बी. ए. ने इसका अनुवाद किया है । मूल्य २) २ भारतीय युद्ध-महाभारतका यह एक तरहका सार है । इसमें कथानककी नैतिक बातोंपर बहुत जोर दिया गया है और महाभारतकी कूटनीतिका बहुत अच्छी तरह खुलासा किया गया है । पात्रोंका आचरण बड़ी ही मार्मिकताके साथ समझाया गया है। इसमें लोकमान्य '. महात्मा तिलककी लिखी हुई एक विस्तृत प्रस्तावना है। भिन्न भिन्न प्रसंगोंके १७ सुन्दर चित्र भी दिये गये हैं । मुल्य १) For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) ३ अँगरेजी प्रवेश - मूल्य आठ आना । ४ सचित्र अक्षर बोब - बालकों के लिए बहुत ही उपयोगी | = ) ५ चित्रमय जापान - जापान सम्बन्धी ८४ चित्र और उनका परिचय | मूल्य १) ६ राजा रविवर्मा प्रसिद्ध चित्र - विवरणसहित | मूल्य १ ) ७ वर्णमाला के रंगीन ताश - चार आने । ८ सचित्र भगवद्गीता - रेशमी जिल्द 1= ), सादी ।) हिन्दी -- ग्रन्थरत्नाकर --सीरीजकी नई पुस्तकें स्वदेश - जगत्प्रसिद्ध कविसम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टागोर के ८ निबन्धों का संग्रह | जो लोग असली भारतवर्षके दर्शन करना चाहते हैं, ' भारतके समाजतंत्र और राष्ट्रतंत्रा रहस्य समझना चाहते हैं, पूर्व और पश्चिमके भेदको हृदयंगम करना चाहते हैं और सच्चे स्वदेशसेवक बनना चाहते हैं उन्हें यह निबन्धावली अवश्य पढ़ना चाहिए । यह सीरीजकी आठवीं पुस्तक है । मूल्य दश आने । चरित्रगठन और मनोवल - यह प्रसिद्ध अमेरिकन विद्वान् राल्फ वाल्डो ट्राइनके अंगरेजी ग्रन्थ' कैरेक्टर बिल्डिंग - थाट पावर' का हिन्दी अनुवाद है । इसमें इस बातको बहुत अच्छी तरहसे बतला दिया है कि मनुष्य अपने चरित्रको जैसा चाहे वैसा बना सकता है । मानसिक विचारोंका चरित्र पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । प्रत्येक बालक युवक वृद्ध बाँचने लायक है । इसमें कोई भी बात जैनधर्मसे विरुद्ध नहीं है | सीरीजकी यह नवीं पुतक है। मूल्य तीन आने । मैनेजर, हिन्दी - मन्थरत्नाकर कार्यालय हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) सनातन जैन ग्रंथमाला के नये नियम | इस ग्रंथमाला में, जैनदर्शन, सिद्धांत, न्याय, अध्यात्म, काव्य, साहित्य, पुराण, इतिहासादि जैनाचार्यकृत सर्व प्रकार के प्राचीन ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत, तथा संस्कृत टीका सहित बड़ी शुद्धतापूर्वक छपते हैं वा छपेंगे। प्रत्येक खंड रायल वा सुपररायल १० फारमसे ( ८० पृष्टसे ) कमका नहिं होता । इसकी न्योछावर १२ अंकोंकी सर्वसाधारण जैनी भाइयोंसे वा जैनमंदिर वा जैन संस्थाओंसे १० ) रुपये और फुटकर एक एक अंककी २) रु. की जाती है । धनाढ्य रईसों से उनके पदस्थानुसार अधिक ली जाती है। डांक खर्च जुदा है सो प्रत्येक अंक ( खो जाने के डर से ) प/टेज वी. पी. से भेजा जाता है । इस ग्रंथमाला के १६ अंकों में नीचे लिखे आठ ग्रंथ पूर्ण हो गये वा हो जायँगे । आगेको शाकटायन व्याकरण, पद्मपुराण व श्लोकवार्तिकादि छपेंगे। यह ग्रंथमाला प्रत्येक जिनवाणी भक्त जैनीके सिवाय प्रत्येक मंदिरजी पाठशाला, पुस्तकालय संस्था में संग्रह करके भगवान की प्रतिमाजीकी तरह इनका भी नित्य दर्शन पूजन विनय करना चाहिये । ये ग्रंथ संस्कृत हैं हमारे कामके नहीं ऐसा समझ इनकी उपेक्षा व अविनय नहिं करना चाहिये | देवगुरु शास्त्र की बराबर भक्तिपूजा विनय करना चाहिये । इन आर्षग्रंथोंकी रक्षा व प्रचार करना ही जैनधर्म की रक्षा है । 1 ग्रंथमाला ग्राहक न होकर फुटकर ग्रंथ लेनेवालोंके लिये मूल्यका नियम | १ - २ । आप्तपरीक्षा सटीक और पत्र परीक्षा मूल एक साथ ३ | समयप्राभृत दो टीकासहित ४। राजवार्तिकजी पांच अध्याय ४। शेष पांच अध्याय 99 ५) जैनेन्द्रप्रक्रिया गुणनंदी कृत प्राचीन ६। शब्दार्णव, चंद्रिका जैनेंद्रव्या करणकी लघुवृत्ति ગુ ५ ૩ १०। जैनेन्द्रसूत्रपाठ असली छपता है || शाकटायन प्रक्रिया पूर्ण सूत्र पाठसहित ३ । ] शाकटायन धातुपाठ ५] | गणरत्नमहोदधि *J मिलने का पता --- पन्नालाल बाकलीवाल, ठि. मदागिन जैनमंदिर पो. बनारस सिटी. नोट- ये सब ग्रन्थ जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बई में भी मिलते हैं । २ ७ । आप्तमीमांसा (देवागम ) अकलंक भाष्य और वसुनंदिवृत्ति सहित तथा प्रमाणपरीक्षा ९। शब्दानुशासनकी ( शाकटायन व्याकरणकी चिंतामणि नामक ) लघुवृत्ति प्रथम खंड १|| For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) - राष्ट्रीय ग्रन्थः १ सरल-गीता। इस पुस्तकको पढ़कर अपना और अपने देशका कल्याण कीजिये । यह श्रीमद्भगवद्गीताका सरल-हिन्दी अनुवाद है। इसमें महाभारतका संक्षिप्त वृत्तान्त, मूल श्लोक, अनुवाद और उपसंहार ये चार मुख्य भाग हैं। . सरस्वतीके सुविद्वान संपादक लिखते हैं कि यह 'पुस्तक दिव्य है।' मूल्य ॥ २ जयन्त । शेक्सपियरका इंग्लैंडमें इतना सम्मान है कि वहांके साहित्यप्रेमी अपना सर्वस्व उसके ग्रन्थोंपर न्योछावर करने के लिए तैयार होते हैं। उसी शेक्सपियरके सर्वोत्तम 'हैम्लैट' नाटकका यह बड़ा ही सुन्दर अनुवाद है। मूल्य ॥3; सादी जिल्द । ३ धर्मवीर गान्धी । इस पुस्तकको पढ़कर एक बार महात्मा गान्धीके दर्शन कीजिये, उनके जीवनकी दिव्यताका अनुभव कीजिये और द० अफ्रिकाका मानचित्र देखते हुए अपने भाइयोंके पराक्रम जानिये । यह अपूर्व पुस्तक है। मूल्य।। ४ महाराष्ट्र-रहस्य । महाराष्ट्र जातिमें कैसे सारे भारतपर हिन्दू साम्नाज्य स्थापित कर संसारको कंपा दिया इसका न्याय और वेदान्तसंगत ऐतिहासिक विवेचन इस पुस्तकमें है । परन्तु भाषा कुछ कठिन है। मूल्य-॥ ५ सामान्य-नीतिकाव्य । सामाजिक रीतिनीतिपर यह एक अनूठा काव्य प्रन्थ है। सब सामयिक पत्रोंने इसकी प्रशंसा की है । मूल्य ] इन पुस्तकोंके अतिरिक्त हम हिन्दीकी चुनी हुई उत्तम पुस्तकें भी अपने यहाँ विक्रयार्थ रखते हैं। नवनीत-मासिक पत्र । राष्ट्रीय विचार । वा० मूल्य २] यह अपने ढंगका निराला मासिक पत्र है । हिन्द देश, जाति और धर्म इस पत्रके उपास्य देव हैं। आत्मिक उन्नति इसका ध्येय है। इतना परिचय पर्याप्त न हो तो ।। के टिकट भेजकर एक नमूनेकी कापी मंगा लीजिये। प्रन्थप्रकाशक समिति, नवनीत पुस्तकालय. पत्थरगली, काशी. For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र असली ( १२ ) आजमूदा विषका सैकड़ों प्रशंसा पत्र प्राप्त हाजमेकी प्रसिद्ध अक्सीर दवा नमक सलेमानी कि ।) सी एक दर्जन ५) रुन्ट फायदा न करे तो दाम वापस. मिलने का पता चन्द्रसेन जैन वैद्य इटावा. वह ट्रेड मार्क देखे दद्रदमन- दादकी अकसर दवा की दन्तकुमार-- इतिकी रामबाण दवा | देवी नोट - सब रोगोंकी तत्काल गुण दिखनेवाली दवाओंकी बड़ी सूची मँगा देखिये ! For Personal & Private Use Only देख खरिदे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१२) चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटिकी .. अनोखी पुस्तकें । चित्रमयजगत्-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है । " इलेस्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइजमें निकलता है । एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं । चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं । साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रोंका मनोहर अलबम बन जाता है। जनवरी १९१३ से इसमें विशेष उन्नति की गई है। रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं। आर्टपेपरके संस्करणका वार्षिक मूल्य ५॥) डाँ० व्य० सहित और एक संख्याका मूल्य ॥ ) आना है । साधारण कागजका वा० मू० ३॥) और एक संख्याका ।-) है। राजा रविवर्मा के प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारमरभरमें नाम पा चुके हैं। उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपरप० पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है। इस पुस्तकमें ८८ चित्र मय विवरणके हैं। राजा साहबका सचित्र चरित्र भी है। टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है। मूल्य है सिर्फ १) रु.। . चित्रमय जापान-घर बैठे जापानकी सैर । इस पुस्तकमें जापानके सृष्टिसौंदर्य, रीतिरवाज, खानपान, नृत्य, गायनवादन, व्यवसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयोंके ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं । पुस्तक अव्वल नम्बरके आर्ट पेपर पर छपी है । मूल्य एक रुपया। सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ बच्चोंको वर्णपरिचय करानेमें यह पुस्तक बहुत नाम पा चुकी है । अक्षरों के साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है। पुस्तकका आकार बड़ा है। जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पड़ते हैं । मूल्य छह आना। वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं। सब ताशोंमें अक्षरोंके साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं । अवश्य देखिये । फी सेट चार आने । For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) सचित्र अक्षरलिपि - यह पुस्तक भी उपर्युक्त “ सचित्र अक्षरबोध ढंगकी है । इसमें बाराखडी और छोटे छोटे शब्द भी दिये हैं । वस्तुचित्र सब रंगीन हैं । आकार उक्त पुस्तकसे छोटा है । इसीसे इसका मूल्य दो आने हैं । सस्ते रंगीन चित्र - श्रीदत्तात्रय, श्रीगणपति, रामपंचायतन, भरतभेट हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, गुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपीचन्द, अहिल्या, शकुन्तला, मेनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजेंद्रमोक्ष, हरिहर भेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषशायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र | आकार ७४५, मूल्य प्रति चित्र एक पैसा । श्री सयाजीराव गायकवाड बड़ोदा, महाराज पंचम जार्ज और महारानी मेरी, कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्ड के रंगीन चित्र, आकार ८x१० मूल्य प्रति संख्या एक आना । लिथोके बढ़ियाँ रंगीन चित्र - गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह सन्ध्या, सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र . ) और चारों मिलकर ॥ ) नानक पंथके दस गुरू, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन, महाराज जार्ज, महारानी भेरी । आकार १६ X २० मूल्य प्रति चित्र ।) आने । "> अन्य सामान्य- इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंगीन और सादे, स्वदेशी बढेन, स्वदेशी दियासलाई, स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलने के तारा, आधुनिक देशभक्त, ऐतिहासिक राजा महाराजा, बादशाह, सरदार, अंग्रेजी राजकता, गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे चित्र उचित और सस्ते मूल्य पर मिलते हैं । स्कूलों में किंडरगार्डन रीतिसे शिक्षा देनेके लिये जानवरों आदिके चित्र सब प्रकार के रंगीन नकशे, ड्राईंगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है । इस पते पर पत्रव्यवहार कीजिये । मैनेजर चित्रशाला प्रेस, पूना सिटी । For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैनहितैषीके नियम । १ इसका वार्पिक मूल्य पोस्टेजसहित १॥ है। - २ उपहार लेनेवाले ग्राहकोंको उपहार खर्च जुदा देना पड़ता है । इस वर्ष यह खर्च ॥ दश आना रक्खा गया है। अर्थात् जो भाई उपहारके ग्रन्थोंसहित वी. पी. मँगावेंगे उन्हें २ दो रुपया तीन आना देना होगा। - ३ इसका वर्ष दिवालीसे शुरू होता है। शुरू सालसे ही ग्राहक बनाये जाते हैं, बीचसे नहीं । जो सजन बीचमें ग्राहक बनेंगे उन्हें तब तकके निकले हुए अंक भी लेना होंगे। ४ जो भाई खोया हुआ अंक फिरसे मँगावें उन्हें तीन आनेके टिकिट भेजना चाहिए। ५ प्रबन्धसम्बन्धी पत्रव्यवहारादि इस पतेसे करना चाहिए: मैनेजर, जैनहितैषी जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय हीराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई । पवित्र केशर । . काश्मीरकी अच्छी और पवित्र पवित्र केशर हमसे मँगाया कीजिए । हरवक्त तैयार रहती है । मू० १] तोला। सूतकी मालायें। जाप देनेकी मालायें एक रुपयेकी दश । मैनेजर, जैनमन्थरत्नाकरकार्यालय हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ते के प्रसिद्ध डाक्तर बर्मन की कठिन रोंगों की सहज दवाएं। गत ३० वर्ष से सारे हिन्दुस्थानमें घर घर प्रचलित हैं। विशेष • विज्ञापन की कोई आवश्यक्ता नहीं है, केवल कई एक दवाइयों का नाम नीचे देते हैं। हैजा गर्मी के दस्त में असल अर्ककपूर मोल ।] डा:मः-] १ से ४ शीशी पेचिश, मरोड़, पेठन, शूल, आंब के दस्तमें क्लोरोडिन मोल [2] दर्जन ४] रुपया कलेजे की कमजोरी मिटाने में और बल बढ़ाने में - कोला टौनिक पेट दर्द, बादीके लक्षण मिटाने में अर्कपूदीना [ सब्ज] मोल [] डाःमः [-] आने । अन्दरके अथवा बाहरी दर्द मिटाने में पेन हीलर मोल || डाः मः - पांच आने सहज और हलका जुलाब के लि. जुलाबकी गोली २ गोली रातको खाकर सोवे सबेरे खुलासा दस्त होगा । १६ गोलियों की डिब्बी - ]डाःमः १ से ८ तक 1] पांच आने. मोल १ ) डाः -] आने । पूरे हाल की पुस्तक विना मूल्य मिलती है दवा सब जगह हमारे एजेन्ट और दवा फरोशोंक पास मिलेगी अथवा डा. एस. के वचन ५. 9 ष्ट्रट, For Personal & Private Use Only: Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ಅಆಆಆಅಆಆ उपहारकी सूचना।। DYASCAAYAA. जिन ग्राहकोंने हमारे पास उपहार रवाना करनेकी आज्ञा भेज दी थी उनकी सेवामें इस अंकके साथ उपहारके ग्रन्थ बी. पी. से भेज दिये गये हैं। परन्तु जिन्होंने उपहारके विषयमें कुछ भी सूचना नहीं दी थी उनके पास केवल जैनहितैषी ही एक रुपया नौ जानेके बी. पी. से भेज दिया गया है। बिना मँगाये उपहार में भेजनेका कारण यह है कि यदि वी. पी. वापस हो आता तो हमें उपहारके त्रन्थोंका डाकखर्च-जो लगभग तीन आनेके होता. है-व्यर्थ ला जाता। परन्तु इससे उन्हें अधीर न होना चाहिए, उपहारको अन्थ भेजने के लिए हम अब भी तैयार हैं / इस सूचनाको पढ़ते ही हमें एक काईसे सूचित कर देखें कि उपहारके अमुक तरहके अन्य हमारे त भेज दो। न तत्काल ही // ग्यारह आनेका वी.पी. करके उपहारगः भेज देंगे / पर कार्ड लिखते समय कौनसा उपहार भेजा जाने सो सास देना चाहिए ! या तो धर्मविलास और नेमिचरित येाजनाथ मेंगा लीजिए या आत्मोद्धार और कठिनाईमें विद्याभ्यास इन दो सर्वसाधारण अन्थों के लिए लिखिए। एक त्राहकको एकही तरहके दो ग्रन्थ मिल सकते हैं। दोनों तरहके चारों नहीं मिल सकते। उपहारके ग्रन्थ इतने अच्छे और बहुमूल्य है कि उन्हें देखकर अवश्य ही लोगोंकी इच्छा होगी और वे इन्हें मॅगाये बिना न रहेंगे। परनु उपहारके अन्यों की कापियाँ हमारे पास इतनी कम हैं कि हम इन्हें बहुत समय तक न दे सकेंगे / इसलिए जो भाई ग्राहक होना चाहें उन्हें शोधता करना चाहिए। 31 जनवरी के बाद जिनकी सूचना मिलेगी उनसे चार आये अधिक शिक्षा जावेंगे अथात् रा दो मया सात आनेका वी. पी किया जायगा। -मैनेजर, जनहितैषी। Printed by Nathuram Premi at the Bombay Vaibhay Press, Servante of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon Bombay, & Published by him at Hiratag, Near C.P. Tank Girgaon Bombay For Personal & Private Use Only