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जैनहितैषी
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कह दी गई हैं। इस आदर्शको स्वीकार कर लेनेसे प्राचीनता
और अर्वाचीनताके अभिमानियोंकी पारस्पारिक खींचाखींची बहुत कुछ कम हो सकती है। जैनसाहित्यकी रक्षा और प्रसारके लिए बाबू साहबने बहुत अधिक जोर दिया है। कहा है कि, “जैनग्रन्थ इस प्रचुरताके साथ छपवाकर वितीर्ण किये जावें कि सारा संसार उनसे पूर्ण हो जावे और लोग उन्हें पढनेके लिए मजबूर हो ।' आराके सिद्धान्त भवनके सम्बन्धमें जो जातिकी उदासीनता दिखलाई गई है हमारी समझमें उसके साथ साथ उसके संचालकोंकी भी उदासीनता और आलस्यका उल्लेख करना चाहिए था । संचालक यदि उत्साही प्रयत्नशील और सुयोग्य हों तो वे लोगोंकी उदासीनताको बहुत कुछ कम कर सकते हैं । सिद्धान्त भवनके कार्यकर्ता अभी तक अपने संग्रहीत पदार्थों और ग्रन्थोंकी एक सूची भी प्रकाशित नहीं कर सके हैं । तीनवर्षसे तो उसकी रिपोर्ट भी प्रकाशित नहीं हुई है। आगे उन्होंने जैनसमाजकी शिक्षासंस्थाओंकी आलोचना की है। वे कहते हैं कि-" एक दोको छोड़कर हमारी इन शिक्षासम्बन्धी संस्थाओंसे हमारी कौमको न वास्तविक लाभ हुआ है और न हो रहा है। इसका प्रधान कारण यह है कि हम इस कार्यको शिक्षासम्बन्धी उचित प्रणाली निश्चित किये विना कर रहे हैं। हमारी शिक्षाप्रणाली आवश्यकताओंके अननुरूप और समयके विपरीत है। ऐसी कोई भी शिक्षाप्रणाली सर्वसाधारणको प्रिय तथा स्वीकृत नहीं हो सकती जो उन्हें लौकिक शिक्षा प्रदान कर उनको लौकिक लाभ तथा लौकिक उन्नतिके और जीवननिर्वाहके मार्ग
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