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विविध प्रसंग |
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न होना अच्छा है । संस्कृतशिक्षाकी इस तरह बदनामी करने से क्या लाभ है ? क्या ऐसी ही संस्थाओंसे संस्कृतकी और जैनधर्मकी उन्नति होगी ? क्या कोरे व्याकरण और न्यायसे ही हमारी अवश्यकताओंकी पूर्ति हो जायगी । जो शिक्षापद्धति से सर्वथा अनभिज्ञ हैं और संसारमें क्या हो रहा है इसकी जिन्हें कभी हवा भी नहीं लगती है, ऐसे लोगों के हाथमें मालूम नहीं हमारा समाज भी क्यों इतनी बड़ी बड़ी संस्थायें सौंप देता है । क्या पाठ दे देना और सुन लेना, बस इतना ही काम अध्यापकोंका है ? संस्कृतशिक्षापद्धतिका मतलब क्या यही है कि विद्यार्थियोंको सारी दुनिया से अलग खींचकर केवल न्याय और व्याकरणके सूत्र रटा देना ? यदि आप उचित समझें तो मेरी इस चिट्ठीको जैनहितैषीमें प्रकाशित कर दें और समाजका ध्यान इस ओर आकर्षित करनेकी कृपा करें कि संस्थाओंके चलानेवाले शिक्षाक्रम और शिक्षापद्धतिको अच्छी बनानेका यत्न करें, नहीं तो उनकी संस्थाओंसे समाजका कोई लाभ न होगा ।
- एक स्कूलमास्टर
२ सहायक फण्ड ।
जैनधर्म सर्व धम्म श्रेष्ठ इसी कारणसे माना जाता है कि
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अहिंसा परमो धर्मः ' के नियमको हम जैनी अधिक काममें लाते
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हैं। अपना धन आहार, औषध, विद्या तथा अभयदानमें लगाकर सफल करते हैं। इससे हमको भी आनन्द होता है और पात्रोंको
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