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________________ जैनहितैषी धर्मशास्त्र उसे बिलकुल नहीं पढ़ाया गया; धर्मकी स्थूल बातें भी वह नहीं समझता है । पहले वह बहुत चंचल था; परन्तु · अब सुस्तसा हो गया है । तन्दुरुस्ती भी खराब हो गई है । हिन्दी जितनी स्कूलमें पढ़ा था उससे एक अक्षर अधिक नहीं जानता । देश समाज और साहित्यका उसे जरा भी परिचय नहीं है । पाठशालाका संचालन किस ढंगसे होता होगा और उसके अध्याप. कोंका शिक्षापद्धतिसे कहाँ तक परिचय है इसका ज्ञान भी उक्त विद्यार्थीकी दिनचर्यासे हो जाता है । पाठशालाके छात्रालयमें रहते समय वह सबेरे ६ बजे सोकर उठता था, ८ बजेसे पाठ याद करनेको बैठता था, ९॥ के बाद १०-१५ मिनिटमें उसे पाठ दे दिया जाता था और पिछला सुन लिया जाता था। फिर भोजन करता था। आगे २ बजेसे ४॥ बजे तक .फिर रटता था । बस, इस तरह दिन समाप्त हो जाता था! यह एक गरीबका लड़का है । इसके पिताको आशा थी कि यह बाहर रहकर पढ़ेगा तो सुयोग्य हो जायगा; परन्तु उस बेचारेकी आशा पर पानी फिर गया । मुझे भी बहुत दुःख हुआ । अब मैंने कोशिश करके उसे एक अँगरेजी स्कूलमें भरती होनेका प्रबन्ध करा दिया है । यदि रातदिनकी रटन्तकी मारसे उसकी बुद्धिमें कुछ चेतनता शेष रही होगी, तो शायद इस प्रयत्नमें उसे कुछ सफलता प्राप्त हो जाय । न जाने उक्त संस्कृतपाठशालाने ऐसे कितने होनहार लड़कोंकी बुद्धिकी बाढको इस तरह हानि पहुँचाई होगी। क्या आप इस विषयमें कुछ आन्दोलन नहीं कर सकते हैं ? मेरी समझमें तो इस तरहकी पाठशालाओंकी अपेक्षा पाठशालाओंका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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