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सहयोगियों के विचार ।
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योग्यता सम्पादन करनेके बाद भगवानने लगातार ३० वर्षों तक परिश्रम करके अपना 'मिशन ' चलाया। इस 'मिशन ' को चिरस्थायी बनानेके लिए उन्होंने 'श्रावक-श्राविका ' और 'साधु-साध्वियों का संघ या स्वयंसेवकमण्डल बनाया । क्राइस्टके जैसे १२ एपोस्टल्स थे वैसे उन्होंने ११ गणधर बनाये और उन्हें गण अथवा गुरुकुलोंकी रक्षाका भार दिया। इन गुरुकुलोंमें ४२०० मुनि, १० हजार उम्मेदवार मुनि, और ३६ हजार आर्यायें शिक्षा लेती थीं। उनके संघमें १५९००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थी। रेल. तार, पोस्ट आदि साधनोंके बिना तीस वर्षमें जिस पुरुषने प्रचारका कार्य इतना अधिक बढ़ाया था, उसके उत्साह, धैर्य, सहनशीलता, ज्ञान, वीर्य, तेज कितनी उच्चकोटिके होंगे इसका अनुमान सहज ही हो सकता है।
पहले पहल भगवानने मगधमें उपदेश दिया। फिर ब्रह्मदेशसे हिमालय तक और पश्चिम प्रान्तोंमें उग्र विहार करके लोगोंके बहमोंको, अन्धश्रद्धाको, अज्ञानतिमिरको, इन्द्रियलोलुपताको और जड़वादको दूर किया। विदेहके राजा चेटक, अंगदेशके राजा शतानीक, राजगृहके राजा श्रेणिक और प्रसन्नचन्द्र आदि राजाओंको तथा बड़े बड़े धनिकोंको अपना भक्त बनाया । जातिभेद और लिंगभेदका उन्होंने बहिष्कार किया । जंगली जातियोंके उद्धारके लिए भी उन्होंने उद्योग किया और उसमें अनेक कष्ट सहे।
महावीर भगवान् एटोमेटिक (Automatic) उपदेशक न थे, अर्थात् किसी गुरुकी बतलाई हुई बातों या विधियों को पकड़े रहनेवाले (conservative) कन्सरवेटिव पुरुष नहीं थे; किन्तु स्वतंत्र विचारक बनकर देशकालके अनुरूप स्वांगमें सत्यका बोध करनेवाले थे । श्वेताम्बरसम्प्रदायके उत्तराध्ययन सूत्रमें जो केशी स्वामी और गौतमस्वामीकी शान्त-कान्फरेंसका वर्णन दिया है उससे मालूम होता है कि उन्होंने पहले तीर्थकरकी बाँधी हुई विधिव्यवस्थामें फेरफार करके उसे नया स्वरूप दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने उच्च श्रेणीके लोगोंमें बोली जानेवाली संस्कृत भाषामें नहीं किन्तु साधारण जनताकी मागधी भाषामें अपना उपदेश दिया था। इस बातसे हम लोग बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमें अपने शास्त्र, पूजापाठ, सामायिकादिके पाठ, पुरानी, साधारण लोगोंके लिए दुर्बोध
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