SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ जैनहितैषी - भाषामें नहीं किन्तु उनके रूपान्तर, मूलभाव कायम रखके वर्तमान बोलचालकी भाषाओं में, देशकालानुरूप कर डालना चाहिए । महावीर भगवान्का ज्ञान बहुत ही विशाल था । उन्होंने षड्द्रव्य के स्वरू पमें सारे विश्वकी व्यवस्था बतला दी है । शब्दका वेग लोकके अन्त तक जाता हैं, इसमें उन्होंने बिना कहे ही टेलीग्राफी समझा दी है । भाषा पुद्गलात्मका होती है, यह कह कर टेलीफोन और फोनोग्राफ के अविष्कार की नीव डाली है। मल, मूत्र आदि १४ स्थानोंमें सूक्ष्मजीव उत्पन्न हुआ करते हैं, इसमें छूतके रोगोंका सिद्धान्त बतलाया है । पृथ्वी, वनस्पति आदिमें जीव है, उनके इस सि• द्धान्तको आज डाक्टर वसुने सिद्ध कर दिया है । उनका अध्यात्मवाद और स्याद्वाद वर्तमानके विचारकों के लिए पथप्रदर्शकका काम देनेवाला है । उनका बतलाया हुआ लेश्याओंका और लब्धियोंका स्वरूप वर्तमान थिओसोफिस्टों. की शोधोंसे सत्य सिद्ध होता है । पदार्थविज्ञान, मानसशास्त्र और अध्यात्म• के विषय में भी अढाई हजार वर्ष पहले हुए महावीर भगवान् कुशल थे । वे पदार्थविज्ञानको मानसशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र के ही समान धर्मप्रभः वनाका अंग मानते थे । क्योंकि उन्होंने जो आठ प्रकारके प्रभावक बतलाये । उनमें विद्या-प्रभावकोंका अर्थात् सायन्स के ज्ञानसे धर्मकी प्रभावना करनेवालों क भी समावेश होता है । भगवानका उपदेश बहुत ही व्यवहारी ( प्राक्टिकल ) है और वह आजकल लोगोंकी शारीरिक, नैतिक, हार्दिक, राजकीय और सामाजिक उन्नतिके लि बहुत ही अनिवार्य जान पड़ता है। जो महावीर स्वामी के उपदेशोंका रहस्य सम झता है वह इस वितंडवादमें नहीं पड़ सकता कि अमुक धर्म सच्चा है औ दूसरे सब झूठे हैं। क्योंकि उन्होंने स्याद्वादशैली बतलाकर नयनिक्षेपादि २ दृष्टियों से विचार करनेकी शिक्षा दी है । उन्होंने द्रव्य ( पदार्थप्रकृति ), क्षेः ( देश ), काल ( जमाना ) और भाव इन चारोंका अपने उपदेशमें आद किया है। ऐसा नहीं कहा कि ‘'हमेशा ऐसा ही करना, दूसरी तरहसे नहीं । ' मनु ष्यात्मा स्वतंत्र है, उसे स्वतंत्र रहने देना - केवल मार्गसूचन करके और अमु देश कालमें अमुक रीति से चलना अच्छा होगा यह बतलाकर उसे अपने देश कालादि संयोगों में किस रीति से वर्ताव करना चाहिए यह सोच लेनेकी स्वतन्त्रत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy