SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ जैनहितैषी और वात्सल्य किसी समय जैनजातिके भूषण थे, परन्तु आज उन हृदयोंसे जिनमें उन्हीं महर्षियोंके रक्तका संचार है धर्म और दयाका निरादरपूर्वक बहिष्कार कर दिया गया है। - भारतसरकारसे इस विषयमें हमें यही पूछना है कि क्या इसीको न्याय कहते हैं ? क्या इस शताब्दीमें भी बिना अदालतमें मुकद्दमा चलाये किसी व्यक्तिको अधिकार है कि किसी भी मनुष्यकी स्वतंत्रता छीन ले ? क्या आज भी ब्रिटिश छत्रकी छायामें ऐसा हो सकता है ? तो क्या यह ब्रिटिश न्यायकी दुहाई प्रवञ्चना मात्र है ? यदि सेठीजी अपराधी हैं तो क्यों नहीं प्रमाणित किये जाते ? यह कहनेसे काम न चलेगा कि यह तो जयपुर राज्यका मामला है, हम कुछ नहीं कर सकते । क्योंकि प्रथम तो जनताको निश्चय है खास सरकारने ही पकड़कर उनको पीछेसे जयपुर भेज दिया था और दूसरे वह यह भी जानती है कि जब जब देशी राज्योंने अन्याय किया है तब तब भारतसरकारने हस्तक्षेपकर ब्रिटिश साम्राज्यको कलंकसे बचाया है । फिर इस बार देर क्यों ? जैनियो, यदि तुम्हें अपनी जातिको जीवित रखना है, यदि तुम्हें अपना नाम इस संसारसे सदाके लिए मिटा नहीं देना है, यदि तुम्हें जैनधर्मसे प्रीति है और उसके लिए मरनेवालोंसे भी स्नेह है तो यह अवसर हाथसे न जाने दो। सेठीजी जैसा सच्चा सुहृद तुम्हें न मिलेगा। तुम सच्चे हितैषीकी आशा ही करते रहोगे; परन्तु कदापि उसे न पा सकोगे। तुम सेटीजी पर दया न करो, उनके पुत्रके जीवन बिगड़ जानेका भी खयाल न करो; परन्तु अपनी जाति पर तो दया करो; उसे तो सर्वनाशसे बचानेका प्रयत्न करो । जैनजाति भी संसारमें रहकर एक उद्देश्य पूरा कर सकती है-उस उद्देश्य-जैनधर्म-की ओर तो उपेक्षाकी दृष्टिसे न देखो। क्या तुम चाहते हो कि अब कोई युवक जातिसेवा करनेके लिए उद्यत न हो ? क्या तुम्हें यह रुचिकर होगा कि होनहार उत्साही पुरुष जैनजातिकी सेवाको छोड़कर अन्य किसी कार्यमें अपनी शक्तियोंका प्रयोग करने लगें ? यदि नहीं, तो साहस करके उस महत्पुरुषकी सहायताके लिए तैयार हो जाओ। समाचारपत्रों द्वारा अपना रोना सरकारको सुनाओ, सभाओं द्वारा अपना करुणनाद दिल्ली तक पहुँचाओ, डेपूटेशन द्वारा श्रीमान् वाइसरायके कानोंतक अपनी पुकार पहुँचाओ, इसतरह अपना कर्तव्य पालन करो; फिर यह सम्भव नहीं कि सुनाई न हो,-भरे हुए हृदयोंकी आहको संसारकी कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती। -चिन्तितहृदय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy