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________________ ४२ जैनहितैषी ___ ध्यानके भेद मार्ग आदिके सम्बन्धमें बहुत कुछ जानने और सीखने योग्य है; किन्तु इस छोटेसे लेखमें सब बातोंका समावेश नहीं किया जा सकता । पाश्चात्य विद्वानोंने ध्यानके सिद्धान्तसे दर्द मिटाना, बुरी आदतें सुधारना, एक जगह बैठे बैठे दूरका संदेशा मँगाना आदि अद्भुत और उपयोगी कार्य साधे हैं और आर्यविचारकोंने इस ही ध्यानके बलसे मुक्तिका मार्ग सिद्ध किया है । इस लिए यह अद्भुत शास्त्र बुद्धिशालियोंको, विशेषकर धर्मशिक्षकोंको अवश्य सीखना चाहिए। (६) ध्यानसे आगेकी एक स्थिति कायोत्सर्ग है। इसमें कायाकोस्थूल शरीरको बिलकुल मृतवत् बनाकर सूक्ष्म देहोंके साथ आत्माको उच्च प्रदेशों में ले जाना होता है । इस अवस्थामें शरीर जल जायर, छिद जाय, तो भी उसका भान नहीं रहता । क्योंकि जिस मनको भान होता है वह मन अथवा मानसिक शरीर आत्माके साथ उच्च प्रदेशोंमें चला जाता है । इसको कोई कोई समाधि भी कहते हैं। यह विषय इतना गहरा है कि इसमें तर्क और वाचन कुछ काम नहीं दे सकता; यह 'अनुभव' का विषय है और मुझमें इतनी योग्यता है नहीं, इसलिए इस विषयमें मुझे मौन ही धारण करना चाहिए। कृष्णलाल वर्मा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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