SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तपका रहस्य। मिनिट पर्यन्त अपनी इच्छानुसार थकावट दूर करनेवाली नींद ले लेता था : ऐसे मनुष्य यदि विजयश्रीको मुट्ठीमें बाँध रक्खें तो क्या आश्चर्य है ? खोई हुई चित्तशान्ति पुनः प्राप्त करनेके लिए, व्यापार ' या परमार्थके कामोंमें आई हुई कठिनाइयोंका निराकारण करनेके लिए, वस्तुम्वरूपकी पहचानके लिए, और मोक्षमार्गकी प्राप्तिके हेतु भी ध्यानकी उपयोगिता अनिवार्य है। शास्त्रकार ठीक कहते हैं: निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः। तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥ अर्थात् कर्मोंको झड़ानेके कार्यमें बाह्य तपकी अपेक्षा अभ्यन्तर तप विशेष उपयोगी और उत्तम हैं और उसमें भी ध्यान तपका तो एकछत्रपन है, अर्थात् यह तो तपोंमें चक्रवर्ती है । क्योंकि: अन्तर्मुहूर्तमात्रं यदेकाग्रचित्ततान्वितम् । तयानं चिरकालीनां कर्मणां क्षयकारणम् ॥ अर्थात् अन्तर्मुहूर्त मात्र चित्तके एकाग्र होनेको ध्यान कहते हैं। ऐसा ध्यान चिरकालके मंचित कर्मोके भयका कारण होता है। जह चिअसंचियनिधणमणलो य पवणसहिओ दुअं डहइ । तह कमिंधणममि खणेण झाणाणलो डहइ ॥ अर्थात् जिस प्रकार बहुत समयके एकडे-किये हुए काष्ठको पवनसहित अग्नि तत्काल ही जला देती है उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि अनन्त कर्मरूपी ईधनको एक क्षण मात्रमें जला देती है। सिद्धाः सिद्ध्यन्ति सेत्स्यन्ति यावन्ताः केपि मानवाः। ध्यानतपोबलेनैव ते सर्वेपि शुभाशयाः ॥ अर्थात् , जितने सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होवेंगे, सो सब शुभाशययुक्त ध्यान तपका ही बल समझना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy