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________________ आँखें। आँखें । तुम्हें देखनेको ये दोनों आँखें अब भी जीती हैं, आशा-वश शरीर रखनेको केवल पानी पीती हैं। सूख गये सब अङ्ग अचानक ये तीती भी रीती है, साती नहीं, स्वप्नमें रहती, कितनी रातें बीती हैं ! (२) पानी में रहकर भी दोनों आँखे प्यासी रहती हैं, डव नहीं जाती है उसमें, व्याकुल होकर बहती हे । पडकर प्रवल-पलक-जालोंमें पर-वश पीड़ा सहती हैं, केवल मौन, मनोभाषामें, 'पाहि पाहि ही कहती हैं । आँखाको पानी दे देकर मानस सूखा जाता है, स्वयं सूखकर क्यों वह इनको इतना आर्द्र बनाता है ? इनसे तुम्हें देखने की वह आशा रखता आता है, देखें उसका पूर्ति-योग वह कब तक तुमसे पाता है ! निज पवित्र जलसे ये आँखें अब किसका अभिषेक करें ? विना तुम्हारे किसे देखकर अपने मनमें धैर्य धरें? इन्हें इट यह है कि तुम्हारे रूप-सिन्धुमें सदा तरे, .. तुम्हें इष्ट क्या है कि उसीमें पार न पाकर डूब मरें ? पलक-कपाट खोलकर आँख मार्ग तुम्हारा देख रहीं, बाढ़ आरही है सम्मुख ही उसका भी कुछ सोच नहीं। पर तुम ऐसे निर्दय निकले-जहाँ गये रम गये वहीं भूलो तुम, पर क्या ये तुमको भूल सकेंगी कभी कहीं! फँसी तुम्हार प्रवल-गुणोंमें सतत शून्यमें झुली हुई, मनकी अमिलाषाके ऊपर तुल्य भावसे तुली हुई ? कोध कहाँ, अभिमान कहाँ अव, अविरल जलसे धुली हुई हाय : खुली ही रह जावेगी क्या ये आँखें खुली हुई ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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