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________________ जैनहितैषी ... क्या जैनजति जीवित रह सकती है ? जि स समय सारा संसार अपनी उन्नतिकी आशा करता MEINS है, समस्तजतियाँ अपने सुधारके स्वप्न देखती हैं और म सब कोई अपने समृद्धिशाली भविष्यकी ओर प्रसन्न चित्त दृष्टिपात करते हैं, उस समय उपर्युक्त प्रश्न असंगत प्रतीत होता है । अवश्य उस प्रश्नके उपस्थित करनेमें कुछ ' फैशन ' के विचारकी आवश्यकता नहीं है; अपनी वास्तविक दशाका चित्रा सदैव अपने सामने रखना ही अपनी त्रुटियोको पूर्तिमें सहायता दे सकता है। परन्तु क्या जाति भी कभी मृत्युको प्राप्त हो सकती है ? जिस प्रकार मनुष्यकी शारीरिक शक्तियोंके दौर्बल्यसे उसकी जीवनलीलाका अंत होना हम नित्यप्रति देखते हैं उस ही प्रकार समाज और जातिके अस्तित्वका भी अंत होना कुछ आश्चर्यकारी नहीं है । जातिमें भी ऐसी शक्तियाँ हैं कि जिनमें दुर्बलता आ जाने पर जाति मृत्युपथ पर वेगसे अग्रसर होने लगती है। हम देखते हैं कि प्रतिवर्ष जैनधर्मानुयायियोंकी सख्या घट रही है । २० वर्ष १४ लाखसे १२ लाख हो जाना इस घटतीके वेगको सूचित करता है । जरा विचारकी बात है कि यदि इसही प्रकार घटती होती रही तो अबसे सौ सवा सौ वर्षमें क्या ऐसी कोई जाति शेष रह जायगी जो अपने आपको जैनी कहे ? इसका कारण जाननेका बहुतोंने प्रयत्न किया है और उन्होंने अपनी सम्मति. समय समय पर प्रगट भी की है । अनक्य, बालविवाह, वृद्धविवाह, और परस्पर 'विवाहसम्बन्ध न होनेसे इस जैनजातिके अन्र्तगत बहुतसी अल्पसंख्यक जातियोंका सर्वनाश होचुका है और बड़ी बड़ी जातियोंकी संख्या भी वेगसे घट रही है। इन विषयों पर बहुत विचार प्रकट किये जाचुके हैं; परन्तु आज जैनजातिकी जिस शक्तिके रोगग्रस्त होनेका वृत्तान्त सुनानके लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ उस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है और अवसर ऐसा आगया है कि यह रोग बढ़कर उस शक्तिका सर्वथा नाश करनेहीवाला प्रतीत होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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