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________________ क्या जैनजाति जीवित रह सकती है ? मनुष्यके शरीरमें भी यह शक्ति होती है और यदि इसमें कुछ भी न्यूनता आ जाय तो मनुष्यका इस संसार में जीवित रहना यदि नितान्त असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य ही होजाय । परन्तु प्रकृति ऐसी बुद्धिमती है कि उसने इस शक्तिमें न्यूनाधिक करने का अधिकार मनुष्यों को दिया ही नहीं और इस कारण मनुष्यके शरीर में इसकी कमी कभी दृष्टिगोचर नहीं होती । तो भी हम यह आसानीसे समझ सकते हैं कि इसकी न्यूनताका परिणाम मनुष्य के शरीर पर क्या होगा । परन्तु इससे प्रथम इस शक्तिको जान लेना अत्यावश्यक है । शरीर में हाथ, पाँव, नाक, कान, आदि पृथक् पृथक् अंगोपांग हैं । प्रकृतिका नियम है कि प्रत्येक दूसरेसे सहानुभूति रखता है, उसका आदर करता है, और समय पड़ने पर बिना संकोच सहायता करता है । यह आदर, यह सहानुभूति और यह सहायता ऐसी शक्ति है कि प्रत्येक अंग इसके कारण अपना कार्य निःसंशय प्रतिपादन करता है । पाँव शरीरको एक स्थानसे दूसरे स्थान पर लेजाने में यह विचार नहीं करता कि कहीँ ठोकर लगकर मुझे चोट न लग जाय, कहीं गढ़में गिरकर मैं अपना नुकसान न कर लूँ | क्योंकि उसे दृढ़ विश्वास है कि आँखें सदैव उसे ठोकर खानेसे बचावेंगी और हाथ उसको गिरने पर भी सहायता देंगे । काँटा लगने पर पाँवको विशेष चिंता नहीं होती । क्योंकि आँख और हाथ विना प्रार्थना किये ही स्वयं कष्ट निवारण करनेको प्रस्तुत रहते हैं । आँख को भी कभी इस बात की चिंता करने क अवसर नहीं मिलता है कि कोई वस्तु आकर मुझ पर आघात न कर दे । क्योंकि वह जानती है कि पलकें तुरन्त ही उसे आघात से बचाने के लिए अपना शरीर तक छोड़ने से न चूकेंगी । इसही प्रकार प्रत्येक अंग अपना अपना कार्य शरीर के वास्ते निडर होकर सम्पादन करता है । १०१ " परन्तु मान लीजिए कि किसी प्रकार इस आदरका इस सहानुभूतिका और इस सहायता के भावका अभाव हो जाय तो क्या शरीर कुछ भी कार्य कर सकेगा ? क्या पाँव बिना हाथ और आँखकी सहायता के शरीर को चला सकता है; और चलावेहीगा क्यों ? यदि चलाया भी तो कहीं ठोकर खाकर, या गढ़े में गिरकर, अपनी हानिके साथ साथ सारे शरीरकी हानि करेगा | क्या पेट बिना दाँतोंके भोजन पचा सकता है ? यदि कभी हिम्मत करे भी, तो क्या अजीर्ण आदि रोगों से अपने आपको और सारे शरीरको नुकसान नहीं पहुँचावेगा ? गरज यह है कि इस सहानुभूतिके अभाव से कोई भी अंग शरीरकी सेवा नहीं कर सकता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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