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________________ तपका रहस्य । उत्पन्न हो जाते हैं और ऐसे विनयसे उस मनुष्यका हृदय अपने अन्दर दूसरोंके सद्गुणोंका आकर्षण करने योग्य बन जाता है ! ६उपर जो धर्म, धर्मगुरु, धर्मप्रचारक, धर्मरक्षक, धार्मिकमंस्थायं आदिके प्रति विनय करनेको कहा गया है उन सबका विनय करके ही चुप नहीं रह जाना चाहिए, किन्तु इससे आगे बढ़कर यथाशक्ति उनकी सेवा करना अर्थात् उनके उपयोगी बनना चाहिए । यही यावृत्य तप कहलाता है। (४) पश्चात्ताप. विनय और मेवान पर ना इन तीन गुणोंके धारकका मस्तक और हृदय इतना निर्मल हो जाता है कि उसको ज्ञान प्राप्त करनेमें कुछ भी कठिनाई नहीं पड़ती है. इसी में चौथे नम्बर पर · स्वाध्याय तप' अथवा ज्ञानाभ्याम रखा गया है । ज्ञान प्राप्त करना यह आवश्यकीय तप है: इसको कभी न भूलना चाहिए । इसके लिए पाँच मीढ़ियाँ बताई गई हैं , वाचना' अर्थात् शिक्षक अथवा गुरुके पासमे कोई गार टना अथवा गरुका योग न मिले तो पुस्तकका कोई अंश पर लेना।। २, पृच्छना अर्थात् उतने अंशमें जो कठिनाईयां प्रतीत होता हो उनको गुरुसे अथवा किसी अनुभवी पुरुषमे पूछ लन! ।। ६ ) · परावर्तना' अर्थात् सीखा हुआ पाट फिर याद कर लेना । ( ४ ) ' अनुप्रेक्षा ' अर्थात् अभ्यस्त विषय पर गम्भीर विचार और मनन करना । ( ५ ) · धर्मकथा ' अर्थात् प्राप्त ज्ञान दूसरोंको मुनाना. समझाना. व्याख्यान, बातचीत, ग्रन्थरचना. तथा चर्चा इत्यादिके द्वारा दूसरोंको ज्ञान देनेका उद्यम करना । इसमे अपना ज्ञान बढ़ता है और दूसरोंमें भी ज्ञानका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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