SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितैषी उनके द्वारा हमको जो ज्ञान मिलता है, वह पापको निवारण करनेमें बहुत उपयोगी होता है । इसी लिए गम्भीर विद्वान् और पवित्र पुरुषोंके समक्ष पाप प्रगट करके प्रायश्चित्त लेनेका धर्मशास्त्रोंने निर्देश किया है। किन्तु ध्यान रखना चाहिए कि प्रायश्चित्त तप बाह्य तपका नहीं, किन्तु अभ्यन्तर तपका भेद है और इस ही लिए इसमें बाह्य क्रियाओंका महत्त्व नहीं हैं। इसमें आन्तरिक पश्चात्ताप और भूल सुधारनेके लिए यथाशक्ति यत्न करनेका निश्चय, ये दो बातें अवश्य होनी चाहिए । हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि जो मनुष्य अपने किये हुए अपराधोंके लिए हार्दिक खेद करने, और कृत अपराधके असरका यथाशक्ति निवारण करनेको तत्पर नहीं होता है वह ध्यान या कायोत्सर्ग जैसे उच्चकोटिके तपके लिए भी योग्य नहीं हो सकता। (२) झूठे खयालों और संकुचित बुद्धिको जडमूलसे उखा डनेकी शक्तिवाले सत्य धर्मकी फिलासफी, उस धर्मके निर्देशानु सार आचरण करनेवाले पवित्रहृदय सद्गुरु, उस धर्मके शुद्ध स्वरूपके प्रचार करनेवाले पुरुष, उस धर्मके प्रचारार्थ और रक्षार्थ स्थापित की हुई संस्थायें-इन सबकी ओर सत्कार दृष्टिसे देखने और सामान्यतया गुणीजनोंके प्रति नम्रता प्रकट करनेको ‘विन. य तप ' कहते हैं । जहाँ गुण दोष समझनेकी शक्ति, अर्थात् विवेकबुद्धि नहीं है वहाँ विनयतपका अस्तित्व भी असम्भव है। जिसके हृदयमें गुण दोष पहचाननेकी शक्ति है, उसके हृदयमें अपने आप ही गुणियोंके प्रति नम्रता या विनय दिखानेके भाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy