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दुर्बुद्धि।
उपाय किये गये, परन्तु लाभ कुछ भी नहीं हुआ । अन्तमें दवाइयोंकी शीशियाँ जमीन पर पटककर मैं भागा और हरनाथके पैरों पड़कर गिड़गिड़ाकर कहने लगा-" बाबा, क्षमा करो, इस पापीको क्षमा करो ! सावित्री मेरी एक मात्र कन्या है । संसारमें इसे छोड़कर मेरा और कोई नहीं है।" ___ हरनाथ मेरे कथनका कुछ भी मतलब नहीं समझा; वह घबड़ाकर बोला-" डाक्टर साहब, आप यह क्या करते हैं? मैं आपके उप कारसे दबा हुआ हूँ; मेरे पैरोंको मत छुओ !"
मैंने कहा--" बाबा, तुम निरपराध थे तो भी मैंने तुम्हारा सर्वनाश किया है । मेरी कन्या उसी पापसे मर रही है।" .. यह कहकर मैं सब लोगोंके सामने चिल्लाकर कहने लगा" भाइयो, मैंने मनमाने रुपया लूटकर इस वृद्ध ब्राह्मणका सर्वनाश कर डाला है, अब मैं उसका फल भोग रहा हूँ। भगवन् , मेरी सावित्रीकी रक्षा करो।" इसके बाद मैं हरनाथके जूते उठाकर अपने सिरमें चटाचट मारने लगा; वृद्ध घबड़ा गया, उसने मेरे हाथसे जूते छीन लिये। ___ दूसरे दिन १० वजे हरिद्रा-रंग-रंजित सावित्री इस लोकसे विदा हो गई !
इसके दूसरे ही दिन दारोगा साहबने कहा-" डाक्टर साहब, क्या चिन्ता कर रहे हो ? घर-गिरस्तीकी सारसंभालके लिए एक आदमी तो चाहना ही पड़ेगा; फिर अब विवाह क्यों नहीं कर डालते?"
मनुप्यके मर्मान्तिक दुःखशोकके प्रति इस तरहकी निष्ठुर अश्रद्धा किसी शैतानको भी शोभा नहीं दे सकती! इच्छा तो हुई कि दारोगा
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