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________________ जिनाचार्यका निर्वाण । कहा 'बस ! अब बहुत हुआ, छुरी की जगह दया धारण करो।' नाटपुत्र निर्ग्रन्थ ने यहांके मनुष्येतर प्राणियों को निर्ग्रन्थ-स्वतंत्र किया । भागलपुर के पास एक छोटे से पंचायती राज्याणराज्य के एक ठाकुर के बेटे के मन में दया की दिग्विजय की कामना उठी । उस समय भारतवर्ष में चारों ओर राज्यनैतिक दिग्विजय की कामना हवा पानी पेड़ पत्ते में भर रहीं थी । छोटे छोटे राज्य पाण्डवों के महाराज्य सा राज्य बनाना चाहते और आसमुद्र एकचक्र, एकछत्र राज्य स्थापित किया चाहते थे; उसी फसल में अङ्ग के खेत में एक निराला फूल खिला। उसे हम 'अहिंसाविजय' कहेंगे । विजय और साथ ही अहिंसा ! जिन अर्थात् विजेता और 'साथ ही चींटी तक न दवे ! नाटपुत्र की विजय हुई। ' साई चले पउला पउला चिंउटी बचाय के ' ग्राम की बात है । चींटी को चारा देनेवाले, पिंजरापोल बनानेवाले, नीलकंठ कोः व्याध के हाथ से मुक्त करनेवाले हिन्दू, अपनी अलौकिक दया पर घमंड करने वाले हिन्दू, नाटपुत्र की बात मान गए । ऐसे बहादर को जिसने अपने से निर्बल को मारना कायरता और पाप मनवा दिया, हिन्दू लोगों ने ठीक ही — महावीर ' की उपाधि से भूषित किया । वह भारत के नहीं, संसार के महावीरों में जब तक चन्द्र और सूर्य है गिना जायगा। वेदद्रोही बुद्ध का आदर हिन्दुओं ने उन्हें अवतार मान कर किया । पर क्या हिन्दू अपने महावीर नाटपुत्र को भूल गए ? नहीं, उसकी याद वे हर साल करते हैं । हिन्दूजाति अपना इतिहास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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