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________________ १७ सातवाँ व्रत है उसमें आज्ञा दी गई है कि मनुष्यको नियमित और मिताहारी होना चाहिए। इससे उसके स्थूल सूक्ष्म शरीरोंकी निर्मलता बढ़ती है। यदि वह कभी स्वादके वशीभूत होकर भोजन कर ले और चित्ताकर्षक दृश्योंके देखनेके लिए बहुत रात तक जागता रहे और इस तरहकी भूल बार बार करता रहे तो बीमार पड़ जायगा । परन्तु यदि इस अपराधका दण्ड या इस भूलका प्रायश्चित्त शीघ्र कर लिया जायगा, तो अनिष्ट परिणाम न होगा । पेटपर पड़े हुए बोझेको कम करनेके लिए लंघन या उपवास कर लिया जाय अथवा विश्राम लिया जाय तो इतनेहीसे बुरा असर दब जायगा । इस तरह जो दोष ज्ञात अवस्थामें बन गये हैं उनका असर अधिक न बढ़ने पावे, इसके लिए प्राकृतिक ओषधि अथवा तपकी आवश्यकता है । इसी तरह सांसारिक काम धंधोंमें पडे रहनेसे आत्मभान नहीं रहता है और विभावरमणता हो जाती है। असत्य बोला जाता है, अयोग्य काम बन जाते हैं और मानसिक शान्ति खो दी जाती है। परन्तु यदि उसके बाद एकान्तमें बैठकर स्वाध्याय अर्थात् ज्ञानदायक पुस्तकोंका वाचन मनन किया जाय, ध्यान पश्चात्ताप और जनसेवाकार्य किये जावें तो खोई हुई मानसिक शान्ति फिर प्राप्त हो जाती है और लगे हुए दोष न्यूनाधिक रूपसे दूर हो जाते हैं । इसके सिवाय पूर्वजन्मकृत कर्मोंको भस्म करने के लिए भी तपकी आवश्यकता रहती है । इस तरह पूर्वके तथा वर्तमानके दोषोंको निवारण करनेके लिए - शारीरिक और मानसिक अतिक्रमणके अनिष्ट प्रभाव नष्ट या न्यून करनेके लिए तपकी बड़ी भारी आवश्यकता है । तपका रहस्य | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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