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________________ जैनहितैषी यह तप शरीरके तथा मनके भीतरके मलको जला डालनेके लिए शक्तिशालिनी आँच या अग्नि है और इसी लिए जगद्गुरु तीर्थकरोंने इसके दो भाग किये हैं-एक बाह्य तप और दूसरा अन्तरंग तप । ___ आजकल लोगोंमें बाह्यतपके सम्बन्धमें जितनी अज्ञानता या बेसमझी फैली हुई है उतनी शायद ही किसी अन्य विषयके सम्बन्धमें फैली होगी। जो शरीरशास्त्र और वैद्यकशास्त्रसे सर्वथा अपरिचित हैं, अँगरेजीका भाषाज्ञान मात्र प्राप्त कर लेनेसे जो आपको विद्वान् समझने लगते हैं, वे तो इस बाह्यतपको केवल बहम, पागलपन, Humbag या शारीरिक अपराध समझते हैं और जो धर्मके रहस्योंसे अनभिज्ञ साधु नामधारियोंके गतानुगतिक पूजक हैं वे केवल लंघनको ही आत्मकल्याणका मार्ग समझ बैठे हैं और शारीरिक तथा मानसिक स्थितिका जरा भी खयाल किये बिना शक्तिसे बाहर तपस्या करके निर्बल बनजानेको ही सब कुछ मान लेनेकी मूर्खता करते हैं। • अज्ञानतासे होनेवाली इन दो प्रकारकी भूलोंसे, चतुर पुरुषोंको अलग रहना चाहिए । बाह्यतपका प्रारम्भ उपवाससे नहीं किन्तु स्वादत्याग, ऊनोदर ( भूखसे कम खाना ) एकासन, व्यसनत्याग आदिसे करना चाहिए । जिसे अधिक मसाला खानेकी आदत पड़ रही हो, उसको कुछ दिन तक स्वाद परित्यागरूप तप करना चाहिए; जिससे जिह्वाको वशमें रखनेकी आदत पड़े, अधिक मसालेके खानेसे जो हानि होती है उससे बचा रहै और थोडासा कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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