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________________ पुस्तक- परिचय | ११९ हिन्दी, गुजराती और मराठी इन छह भाषाओंके हैं। अबकी बार दो चार लेख और चित्र महत्त्वके हैं । इसमें सन्देह नहीं कि कापड़ियाजी बड़े ही परिश्रम; अध्यवसाय और अर्थव्ययसे खास अंक तैयार कराते है; और इस विषय में उनके उत्साहकी सभी प्रशंसा करते हैं; परन्तु हमारी समझमें उनका परिश्रम और अर्थव्यय बहुत ही कम सफल होता है । साधारणजनता अन्तरंगकी अपेक्षा बहिरंग ही अधिक पसन्द करती है, चित्रादि नयनाभिराम चीज़ों का सर्वत्र ही अधिक आदर होता है, और उपहारकी पुस्तकें भी उसके ग्राहकोंको बहुत मिलती हैं इसलिए संभव है कि दिगम्बर जैन की ग्राहकसंख्या संतोषप्रद हो; परन्तु हमारी समझमें ग्राहकसंख्या अधिक होना ही सफलताका प्रमाण नहीं है । पहले भी हम कई बार लिख चुके हैं और अब भी मित्रभावसे लिखते हैं कि सहयोगीको बाहरी ठाटवाटके साथ अपना अन्तरंग भी अच्छा बनाना चाहिए । अच्छे लेखों और प्रगतिशील साहित्यके प्रचारकी ओर उसे विशेष दृष्टि देना चाहिए । इस समय जैनसमाजको चित्रोंकी ज़रूरत नहीं है, उसे चाहिए अपनी उन्नतिका मार्ग दिखानेवाले समयोपयोगी लेख, और हम देखते हैं कि सहयोगीका इस ओर बहुत ही कम ध्यान है । इस अंकका अधिकांश ऐसे लेखोंसे भरा गया है जो इस बहुमूल्य अंकके लिए सर्वथा अयोग्य हैं । कुछ हिन्दीकी कवितायें ऐसी हैं जो हिन्दी के प्रसिद्ध पत्रोंसे उड़ाकर काट छाँटकर कई जैनकवियों ने (?) अपने नामसे प्रकाशित करा दी हैं । जो दोचार अच्छे लेख हैं, वे बहुतसे घास-फूस के भीतर बिलकुल छुप गये हैं । हम नहीं कह सकते कि अन्य भाषाओंकी शुद्धताकी ओर कितना ध्यान दिया गया है, पर बेचारी हिन्दीकी तो बहुत ही दुर्दशा की गई है । प्राकृतके लेखोंसे क्या लाभ होगा, यह हम नहीं समझ सके । संस्कृत के लेख भी विशेष लाभदायक नहीं हो सकते । उनमें कुछ तथ्य भी नहीं है । अनेक भाषाओं की गड़बड़की अपेक्षा यदि कोई एक ही भाषाका प्राधान्य रक्खा जाय तो अधिक लाभ हो । उपहारकी पुस्तकों में भी सहयोगीको इस बातका ध्यान रखना चाहिए । जहाँतक हम जानते हैं उसके हिन्दी जाननेवाले ग्राहकोंकी संख्या आधी से अधिक होगी । ऐसी दशा में जिन ग्राहकों की मातृभाषा गुजराती है वे तो हिन्दी पुस्तकोंसे थोड़ा बहुत लाभ उठा भी सकते होंगे; परन्तु जिनकी मातृभाषा हिन्दी है उनमें सौ पचास ही ऐसे होंगे जो गुजराती पुस्तकोंसे कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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