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________________ सहयोगियोंके विचार | १०९ को विकसित करनेवाला, अन्तःशक्तिको प्रकाशित करनेकी चावी देनेवाला, प्राणिमात्रको बन्धुत्वक साँकलसे जोड़नेवाला, आत्मबल अथवा स्वात्मसंश्रयका पाठ सिखला कर रोवनी और कर्मवादिनी दुनियाको जवाँमर्द तथा कर्मवीर बनानेवाला, एक नहीं किन्तु पचीस दृष्टियोंसे प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक घटना पर विचार करनेकी विशालदृष्टि अर्पण करनेवाला और अपने लाभको छोड़कर दूसरोंका हित साधन करनेकी प्ररेणा करनेवाला - इस तरहका अतिशय उपकारी व्यावहारिक ( Practical ) और सीधासादा महावीरका उपदेश भले ही आज जैनसमुदाय समझनेका प्रयत्न न करे, परन्तु ऐसा समय आ रहा है कि वह प्रार्थनासमाज, ब्रह्मसमाज, थिओसोफिकल सुसाइटी और यूरोप अमेरिका के संशोधकोंके मस्तक में अवश्य निवास करेगा । " सारे संसार को अपना कुटुम्ब माननेवाले महावीर गुरुका उपदेश न पक्षजैनधर्म पाती है और न किसी खास समूह के लिए है । उनके धर्मको कहते हैं, परन्तु इसमें 'जैन' शब्द केवल 'धर्म' का विशेषण है । जडभाव, स्वार्थबुद्धि, संकुचित दृष्टि, इन्द्रियपरता, आदि पर जय प्राप्त कराने की चावी देनेवाला और इस तरह संसार में रहते हुए भी अमर और आनन्दस्वरूप तत्त्वका स्वाद चखानेवाला जो उपदेश है उसीको जैनधर्म कहते हैं और यही महावीरोपदेशित धर्म है । तत्त्ववेत्ता महावीर इस रहस्य से अपरिचित नहीं थे कि वास्तविक धर्म, तत्त्व, सत्य अथवा आत्मा काल, क्षेत्र, नाम आदिके बन्धन या मर्यादाको कभी सहन नहीं कर सकता और इसी लिए उन्होंने कहा था कि " धर्म उत्कृष्ट मंगल है और धर्म और कुछ नहीं अहिंसा, संयम और एकत्र समावेश है | " उन्होंने यह नहीं कहा कि 'जैनधर्म ही उत्कृष्ट मंगल है ' अथवा 'मैं जो उपदेश देता हूँ वही किन्तु अहिंसा ( जिसमें दया, निर्मल प्रेम, भ्रातृभावका समावेश होता है ), संयम ( जिससे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर आत्मरमणता प्राप्त की जाती है ) और तप ( जिसमें परसेवाजन्य श्रम, ध्यान और अध्यययनका समावेश होता हैं ) इन तत्त्वों का एकत्र समावेश ही धर्म अथवा जैनधर्म है और वही मेरे शिष्योंको तथा सारे संसारको ग्रहण करना चाहिए, यह जताकर उन्होंने इन तीनों तत्त्वोंका उपदेश विद्वानोंकी संस्कृत भाषा में नहीं; परन्तु उस समयकी तपका Jain Education International For Personal & Private Use Only उत्कृष्ट मंगल है 1 5 ; www.jainelibrary.org
SR No.522801
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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