Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला : ८७ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण लेखक डॉ० सागरमल जैन ान सच्चखु भ Educat प्रधान सम्पादक प्रो० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला : ८७ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण लेखक प्रो० सागरमल जैन वाराणसी जाM पुगत पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी १९९६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई. टी. आई. रोड, करौंदी, वाराणसी ५ दूरभाष: ३१६५२१ प्रथम संस्करण : १९९६ मूल्य : रु० ६०.०० HALL अक्षर-सज्जा नया संसार प्रेस बी० २ / १४३ ए, भदैनी वाराणसी · १ मुद्रक वर्द्धमान मुद्रणालय भेलूपुर, वाराणसी - १० Published by Parsvanatha Vidyapitha 1. T. I. Road, Karaundi Varanasi - 5 Phone : 316521 First Edition : 1996 Price: Rs. 60.00 Type-setting at Naya Sansar Press B. 2/143 A, Bhadaini Varanasi-5 Printed at Vardhaman Mudranalaya Bhelupura, Varanasi - 10 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रत्येक धर्म-साधना का मल उद्देश्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना होता है। विभिन्न धर्म-दर्शनों में इस आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण विविध रूपों में मिलता है। इसी क्रम में जैन धर्म-दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में हआ है। गुणस्थान सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति अपनी वासनाओं एवं कषायों को क्रमश: क्षीण करता हुआ परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। गुणस्थान सिद्धान्त का प्रतिपादन जैन आचार्यों ने अपने अनेक ग्रन्थों में किया है। मात्र यही नहीं, इस सिद्धान्त को लेकर कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी परवर्ती काल में लिखे गए हैं। प्रोफेसर सागरमल जैन ने उन ग्रन्थों का सम्यक् आलोड़न कर इस गुणस्थान सिद्धान्त को सरल और सहज ढंग से प्रस्तुत किया है । इस ग्रन्थ में उन्होंने विस्तारपूर्वक इस सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास की भी चर्चा की है। साथ ही यह भी बताया है कि भारतीय दर्शन में इस सिद्धान्त के समतुल्य कौन-कौन सी अवधारणाएँ पाई जाती हैं । इस प्रकार यह कृति गुणस्थान सिद्धान्त को उसके ऐतिहासिक विकासक्रम में तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत करती है । हम प्रोफेसर सागरमल जैन के आभारी हैं कि उन्होंने यह कृति हमें प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराई। इस कृति का मूल्य और महत्त्व क्या है, यह तो विद्वत् पाठक ही हमें बता सकेंगे। इस सन्दर्भ में हम उनके सुझावों की अपेक्षा रखते हैं। प्रस्तुत कृति के प्रणयन के लिये जहाँ हम प्रोफेसर जैन के आभारी हैं वहीं इसकी प्रूफ-रीडिंग, मुद्रण एवं प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डय, प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ के भी आभारी हैं। अन्त हम इसकी कम्प्यूटर द्वारा कम्पोजिंग के लिये नया संसार प्रेस, भदैनी एवं छपाई के लिये वर्द्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने सुन्दर और सत्वर रूप से अपने दायित्वों का निर्वहन किया है। भूपेन्द्रनाथ जैन मानद सचिव, पार्श्वनाथ विद्यापीठ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखकीय गुणस्थान सिद्धान्त जैन-दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यद्यपि इस सिद्धान्त का क्रमिक विकास परवर्ती काल में अर्थात् ईसा की प्रथम शताब्दी से पाँचवी शताब्दी के मध्य हुआ है फिर भी हम इसके महत्त्व और मूल्यवत्ता से इनकार नहीं कर सकते, क्योंकि लगभग पाँचवी शताब्दी से न केवल जैन कर्मसिद्धान्त को अपितु जैन-दर्शन की विभिन्न तात्त्विक एवं साधनात्मक अवधारणाओं को गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में ही विवेचित किया गया है। अत: यह सुस्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त को समझे बिना इनमें से किसी भी अवधारणा को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता। प्रस्तुत कृति में जहाँ हमने एक ओर गुणस्थान सिद्धान्त के पूर्व बीजों को विभिन्न प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में खोजने का प्रयास किया है वहीं दूसरी ओर यह भी बताया है कि किस प्रकार इनसे गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ है । कृति के प्रथम अध्याय में गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास कैसे हआ यह स्पष्ट किया गया है। द्वितीय अध्ययन तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के पूर्व बीजों के रूप में आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की चर्चा करता है । तृतीय अध्याय में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण श्वेताम्बर साहित्य में कहाँ-कहाँ और किस रूप में मिलता है, इसकी चर्चा की गयी है । चतुर्थ अध्याय मुख्य रूप से दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों की खोज करता है और बताता है कि दिगम्बर और यापनीय साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के ये मूल बीज किस प्रकार सुरक्षित रहे हैं और उनसे किस प्रकार चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का विकास हुआ है । पंचम अध्याय व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास-क्रम को स्पष्ट करते हुए मुख्यत: आत्मा के विकास की तीन अवस्थाओं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की चर्चा करता है । इस अध्याय में आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया के रूप में ग्रन्थि-भेद की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है । षष्ठ अध्याय में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विश्लेषण किया गया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | V ] सप्तम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त और जैनकर्म सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करता है और यह बताता है कि गुणस्थान में कर्मों की किन प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है । इस अवधारणा को ‘कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ में पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा दी गयी विभिन्न तालिकाओं के आधार पर स्पष्ट किया गया है । ____अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है । यह तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध एवं ब्राह्मण परम्परा के विविध ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है । इस अध्याय के अंत में जैनयोग और गुणस्थान सिद्धान्त का सम्बन्ध भी स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति संक्षेप में गुणस्थान सिद्धान्त का एक प्रामाणिक और शोध-परक विवरण प्रस्तुत करती है । ___ वस्तुत: इस कृति का प्रणयन अनेक किश्तों में हुआ है । गुणस्थानों के स्वरूप का विश्लेषण और उनका बौद्ध एवं ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन लेखक ने अपने शोध-प्रबन्ध के प्रणयन के अवसर पर आज से लगभग पचीस वर्षों पूर्व किया था, जिसे वहीं से लेकर यहाँ प्रस्तुत किया गया है । किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव, विकास एवं पूर्व बीजों की खोज लेखक के विगत चार-पाँच वर्षों के शोध प्रयत्नों का परिणाम है । इस शोध के कुछ अंश 'श्रमण' एवं अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं । उसी सामग्री के आधार पर इस कृति के प्रथम चार अध्यायों की विषय-वस्तु प्रस्तुत की गयी है । कर्म-सिद्धान्त एवं गुणस्थान सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को प्रस्तुत कृति के लिये ही विशेषकर लिखा गया है। लेखक उन सभी विद्वानों विशेष रूप से पंडित सुखलाल जी संघवी का आभारी है जिनकी लेखन सामग्री का प्रस्तुत कृति में विशेष रूप से उपयोग किया गया है । गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव और विकास के सन्दर्भ में लेखक की जो अवधारणा है वह उसकी अपनी मौलिक खोज का परिणाम है । इसी प्रकार गीता आदि के सन्दर्भ में गुणस्थान सिद्धान्त का जो तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है, वह भी उसकी अपनी मौलिक सोच का परिणाम है। प्रस्तुत कृति के लेखन, सम्पादन एवं प्रूफ-संशोधन में डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय एवं संस्थान के अन्य सहयोगियों का जो सहयोग मिला है उसके लिये लेखक उनका आभार प्रकट करता है। साथ ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन एवं संचालक मण्डल के अन्य सदस्यों के प्रति भी आभार प्रकट करता है जिन्होंने प्रस्तुत कृति को पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माध्यम से प्रकाशित किया है। सागरमल जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ -८ ९ - १९ विषय-सूची प्रथम अध्याय . गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास द्वितीय अध्याय तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज तृतीय अध्याय श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज चतुर्थ अध्याय दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज पञ्चम अध्याय जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास २० – २६ २७ - ४१ ४२ - ५१ षष्ठ अध्याय गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ५२ - ७० सप्तम अध्याय गुणस्थान और कर्म-सिद्धान्त ७१ - ९७ अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक ९८ – १२१ अध्ययन नवम अध्याय गुणस्थान और मार्गणा ग्रन्थ-सूची शब्दानुक्रमणिका १२२ - १२७ १२८ - १३० १३१ - १३८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास व्यक्ति के आध्यात्मिक विशुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिये जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैनधर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैन आगमों यथा -- आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायाङ्ग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है। समवायाङ्ग में यद्यपि १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान ( जीवठाण ) कहा गया है।' समवायाङ्ग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु वहाँ नामों का निर्देश होते हुए भी उन्हें गुणस्थान ( गुणठाण ) नहीं कहा गया है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मूल आवश्यकसूत्र जिसकी नियुक्ति में ये गाथाएँ आई हैं - मात्र चौदह भूतग्राम हैं, इतना बताती हैं। नियुक्ति सर्वप्रथम उन १४ भूतग्रामों का विवरण देती है, फिर उसमें इन १४ गुणस्थानों का विवरण दिया गया है। किन्तु ये गाथाएँ प्रक्षिप्त लगती हैं, क्योंकि हरिभद्र ( ८वीं शती ) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार...” कहकर इन दोनों गाथाओं को उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन आगमों और नियुक्तियों के रचनाकाल में गुणस्थान की अवधारणा नहीं थी। नियुक्तियों के गाथा क्रम में भी इन गाथाओं की गणना नहीं की जाती है। इससे यही सिद्ध होता है कि निर्यक्ति में ये गाथाएँ संग्रहणीसूत्र से लेकर प्रक्षिप्त की गई हैं। प्राचीन प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। श्वेताम्बर परम्परा में इन १४ अवस्थाओं के लिये गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि ( ७वीं शती ) में मिलता है, उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें कसायपाहुड को छोड़कर षटखण्डागम', मूलाचार, भगवती आराधना' और कुन्दकुन्द के समयसार, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण नियमसार जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि', भट्ट अकलंक के राजवार्तिक, विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक १० आदि दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। उपर्युक्त ग्रन्थों के मूल सन्दर्भों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागम को छोड़कर शेष सभी इसे गुणस्थान के नाम से अभिहित करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी आवश्यकचूर्णि तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनगणि की वृत्ति १२, हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र की टीका आदि में भी इस सिद्धान्त का गुणस्थान के नाम से विस्तृत उल्लेख पाया जाता है। ' ३ हमारे लिये आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है, वहाँ उन्होंने चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। तत्त्वार्थभाष्य, जो तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका मानी जाती है, उसमें भी कहीं गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं है। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैनधर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था ? और यदि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो चुकी थी तो फिर उमास्वाति ने अपने मूल ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में अथवा उसकी स्वोपज्ञटीका तत्त्वार्थभाष्य में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया ? जबकि वे गुणस्थान- सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दों, यथा बादर-संपराय, सूक्ष्म-संपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि का स्पष्ट रूप से प्रयोग करते हैं। यहाँ यह तर्क भी युक्तिसङ्गत नहीं है कि उन्होंने ग्रन्थ को संक्षिप्त रखने के कारण उसका उल्लेख नहीं किया हो, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में उन्होंने आध्यात्मिक विशुद्धि ( निर्जरा ) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है । ९४ पुनः तत्त्वार्थभाष्य तो उनका एक व्याख्यात्मक ग्रन्थ है, यदि उनके सामने 'गुणस्थान की अवधारणा होती तो उसका वे उसमें अवश्य प्रतिपादन करते । तत्त्वार्थभाष्य में भी गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति से यह प्रतिफलित होता है कि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की ही स्वोपज्ञ टीका है। क्योंकि यदि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका न होती, तो तत्त्वार्थसूत्र की अन्य श्वेताम्बर - दिगम्बर सभी टीकाओं की भाँति, उसमें भी कहीं न कहीं गुणस्थान की अवधारणा का प्रतिपादन अवश्य होता । इस आधार पर पुनः हमें यह भी मानना होगा कि तत्त्वार्थभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र की सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर टीकाओं की अपेक्षा प्राचीन और तत्त्वार्थसूत्र की समकालिक रचना है। क्योंकि यदि वह परवर्ती होती और अन्य दिगम्बर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास श्वेताम्बर टीकाकारों से प्रभावित होती तो उसमें कहीं न कहीं गुणस्थान की अवधारणा अथवा गुणस्थान शब्द का प्रयोग अवश्य ही होता। क्योंकि तत्त्वार्थभाष्य को छोड़कर तत्त्वार्थसूत्र की एक भी श्वेताम्बर या दिगम्बर टीका ऐसी नहीं है, जिसमें कहीं न कहीं गुणस्थान की चर्चा नहीं हुई हो । यद्यपि पं० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा तत्त्वार्थभाष्य की स्वोपज्ञता स्वीकार की गई है९५ किन्तु उनके अतिरिक्त अन्य दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा कि तत्त्वार्थभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र पर स्वयं उमास्वाति की टीका नहीं है बल्कि परवर्ती किसी अन्य उमास्वाति नामक श्वेताम्बर आचार्य की रचना है१६ से भ्रान्त सिद्ध हो जाती है । भी इन तथ्यों गुणस्थान की अवधारणा का ऐतिहासिक विकासक्रम गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है न केवल प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों में, अपितु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य कसायपाहुडसुत्त में तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञ तत्त्वार्थभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे दर्शनमोहउपशमक, दर्शनमोहक्षपक, ( चारित्रमोह ) उपशमक, ( चारित्रमोह ) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन ) आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं। मात्र यही नहीं ये तीनों ही ग्रन्थ कर्म-विशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था । ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि समवायाङ्ग और षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों के नामों का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवायाङ्गसूत्र उन्हें जीवस्थान ( जीवठाण ) कहता है, वहीं षट्खण्डागम में उन्हें जीवसमास कहा गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि ये दोनों ग्रन्थ प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों, कसायपाहुडसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से किञ्चित् परवर्ती और इन चौदह अवस्थाओं के लिये गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख करने वाली श्वेताम्बर - दिगम्बर रचनाओं से पूर्ववर्ती हैं। साथ ही ये दोनों ग्रन्थ समकालिक भी अवश्य हैं क्योंकि हम देखते हैं कि छठीं शताब्दी और उसके पश्चात् के श्वेताम्बर - दिगम्बर ग्रन्थों में विशेषरूप से कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थों तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में गुणस्थान शब्द का प्रयोग बहुलता से किया जाने लगा 4. m - ― Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण था। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि जैन परम्परा में लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर पाँचवीं शताब्दी के बीच यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया है। षट्खण्डागम, समवायांग दोनों ही इसके लिये गुणस्थान शब्द का प्रयोग न कर क्रमश: जीवस्थान और जीवसमास शब्द का प्रयोग करते हैं - यह बात हम पूर्व में भी बता चुके हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सबसे पहले गुणस्थान शब्द का प्रयोग आवश्यकचूर्णि में किया गया है, उसके पश्चात् सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति की टीका के काल तक अर्थात् ८वीं शती के पहले उस परम्परा में इस सिद्धान्त को गुणस्थान के नाम से अभिहित किया जाने लगा था। जैसा कि हम देख चुके हैं - दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम षट्खण्डागम, मूलाचार और भगवती-आराधना ( सभी लगभग पाँचवीं-छठी शती ) में गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध होता है। कसायपाहुड में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति तो देखी जाती है, परन्तु उसमें चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित अवधारणा अनुपस्थित है। षटखण्डागम में इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु इन्हें जीवसमास कहा गया। मूलाचार में इनके लिये गण नाम भी है और चौदह अवस्थाओं का उल्लेख भी है। भगवती-आराधना में यद्यपि एक साथ चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है किन्तु ध्यान के प्रसङ्ग में ७वें से १४ वें गुणस्थान तक की, मूलाचार की अपेक्षा भी, विस्तृत चर्चा हुई है। उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान ( गुणट्ठाण ) का विस्तृत विवरण मिलता है। इन सभी का ससन्दर्भ उल्लेख मेरे द्वारा पुस्तक के प्रारम्भ में किया जा चुका है। पूज्यपाद देवनन्दी ने तो सर्वार्थसिद्धि ( सत्प्ररूपणा आदि ) में मार्गणाओं की चर्चा करते हुए प्रत्येक मार्गणा के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवरण दिया है। १७ आचार्य कुन्दकुन्द की यह विशेषता है कि उन्होंने नियमसार, समयसार आदि में 'मग्गणाठाण, गुणठाण और जीवठाण' का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है।१८ इस प्रकार जीवठाण या जीवसमास शब्द क्रमश: समवायाङ्ग एवं षट्खण्डागम तक गुणस्थान के लिये प्रयुक्त होने लगा। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जीवस्थान ( जीवठाण ) का तात्पर्य जीवों के जन्म ग्रहण करने की विविध योनियों से है। इसका एक फलितार्थ यह है कि भगवती-आराधना, मूलाचार तथा कुन्दकुन्द के काल तक जीवस्थान और गुणस्थान दोनों की अलग-अलग और स्पष्ट धारणाएँ बन चुकी थीं और दोनों के विवेच्य विषय भी अलग हो गए थे। जीवस्थान या Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास जीवसमास का सम्बन्ध जीव-योनियों/जीवजातियों से और गुणस्थान का सम्बन्ध आत्मविशुद्धि/कर्मविशुद्धि से माना जाने लगा था। ज्ञातव्य है कि आचाराङ्ग आदि प्राचीन ग्रन्थों में गुण शब्द का प्रयोग कर्म / बन्धकत्व के रूप में हुआ है। ―Adid इस प्रकार यदि गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से विचार करें तो मूलाचार, भगवती आराधना, सर्वार्थसिद्धि एवं कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार आदि सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के सिद्ध होते हैं । आवश्यकनिर्युक्ति में भी संग्रहणी से लेकर जो गुणस्थान सम्बन्धी दो गाथाएँ प्रक्षिप्त की गई हैं वे भी उसमें पाँचवीं छठी शती के बाद ही कभी डाली गई होगी, क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र भी उन्हें संग्रहणी गाथा के रूप में ही अपनी टीका में उद्धृत करते हैं। हरिभद्र इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहते हैं कि ये गाथाएँ नियुक्ति की मूल गाथाएँ नहीं हैं ( देखें - आवश्यकनिर्युक्ति, टीका हरिभद्र, भाग २, पृ० १०६ - १०७ )। इस समस्त चर्चा से ऐसा लगता है कि लगभग पाँचवीं शताब्दी के अन्त गुणस्थान की अवधारणा सुव्यवस्थित हुई और इसी काल में गुणस्थान के कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, विपाक आदि से सम्बन्ध निश्चित किये गए। समवायांग में गुणस्थान की अवधारणा को जीवस्थान के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कर्मों की विशुद्धि की मार्गणा की अपेक्षा से प्रत्युत चौदह जीवस्थान प्रतिपादित किये गए हैं। समवायांग की इस चर्चा की यदि हम तत्त्वार्थसूत्र से तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि उसमें भी कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से दस अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। कम्मविसोहिमग्गणं ( समवायांगसमवाय १४ ) और असंख्येय गुणनिर्जरा ( तत्त्वार्थसूत्र ९ / ४७ ) शब्द तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसी प्रकार समवायांग में 'सुहुं सम्पराय' के पश्चात् 'उवसामएवा खवए वा' का प्रयोग तत्त्वार्थ के उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों को स्मृतिपटल पर उजागर कर देता है । इससे यह भी फलित है कि समवायांग के उस काल तक श्रेणी-विचार आ गया था। उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ कसायपाहुड में व्यवहृत असम्यक्, सम्यक्, मिश्र एवं संयत, संयतासंयत ( मिश्र ) और असंयत शब्दों के प्रयोग हमें यह स्पष्ट कर देते हैं कि कसायपाहुडसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र की कर्मविशुद्धि की अवस्थाओं के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त को विकसित किया गया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण सन्दर्भ १. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा मिच्छादिट्ठी सासायणसम्मादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरयसम्मादिट्ठी, विरयसविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहुमसंपराए, उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगीकेवली । ६ -- समवायांग ( सम्पादक - मधुकर मुनि ), १४/१५. २. मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य । अविरसंसम्मदिट्ठी विरयाविरए पत्ते य ।। तत्ते य अप्पमत्तो नियट्टि अनियट्टिबारे सुहुमे । उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य ।। • नियुक्तिसंग्रह ( आवश्यकनिर्युक्ति ), पृ० १४९ ― ३. चोद्दसहिं भूयगामेहिं ... वीसाए असमाहिठापेहि । । - ―――― ― - ४. तत्थ इमातिं चोद्दस गुणट्ठाणाणि ... अजोगिकेवली नाम सलेसीपाडिवन्नओ, सो य तीहिं जोगेहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चेताइं पंचहस्सक्खराई उच्चरिज्जंति एवतियं कालमजोगिकेवली भावितूण तोहे सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्ध भवति । आवश्यकनिर्युक्ति ( हरिभद्र ) भाग २, प्रका० श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक टस्ट, मुम्बई, वीर सं० २५९८, पृ० १०६-१०७. आवश्यकचूर्णि (जिनदासगणि), उत्तर भाग, पृ० १३३-१३६, रतलाम १९२९. ५. एदेसि चेव चोद्दसहं जीवसमासाण परुवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्वाराणि णायव्वाणि, भवंति मिच्छादिट्ठि ... सजोगकेवली अजोगकेवल सिद्धा चेदि । षट्खण्डागम ( सत्प्ररूपणा ), प्रका० जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, पुस्तक १ द्वि०सं० सन् १९७३, पृ० १५४-२०१. ६. मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सा असंजदो चेव । देसविरदो पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ।। तो अव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य । वसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणे अजोगी य ।। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास सुरणारयेसु चत्तारि होति तिरियेसु जाण पंचेव । मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणामधेयाणि ।। ___ - मूलाचार ( पर्याप्त्यधिकार ), पृ० २७३-२७९, मणिकचन्द दिगम्बर ग्रन्थमाला (२३), बम्बई, वि० सं० १९८०. ७. अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो । होइ तमपुव्वकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति ।। अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म । णिद्दाणिद्दा पयलापयला तध थीणगिद्धिं च ।। -~भगवती-आराधना, भाग २ ( सम्पादक- कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ), पृ० ८९० ( विशेष विवरण हेतु देखें, गाथा २०७२ से २१२६ ) ८. सर्वार्थसिद्धि ( पूज्यपाद देवनन्दी ) सूत्र १-८ की टीका, पृ० ३०-४० तथा ९-१२ की टीका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५५. ९. राजवार्तिक ( भट्ट अकलंक ), ९-१०/११, पृ० ४८८. १०. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् ( विद्यानन्दी ), निर्णयसागर प्रेस, सन् १९१८ देखें - गुणस्थानापेक्ष ... १०-३,... गुणस्थानभेदेन ... ९-३६-४, पृ० ४०३ ... अपूर्वकरणादीनां ... ९-३७-२, विशेष विवरण हेतु देखें - ९/३३-४४ तक की सम्पूर्ण व्याख्या। ११. आवश्यकचूर्णि ( जिनदासगणि ), उत्तरभाग, पृ० १३३-१३६. १२. एतस्य त्रयः स्वामिनश्चतुर्थ - पंचम षष्ठ गुणस्थानवर्तिनः...। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( सिद्धसेनगणि कृत भाष्यानुसारिणिका समलङ्कृतं, सं० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ) ९-३५ की टीका १३. श्री तत्त्वार्थसूत्रम् ( टीका-हरिभद्र ), ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम सं० १६६२, पृ० ४६५-४६६. १४. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तविंयोजकदर्शन मोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः। ९-४७ - तत्त्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८४, नवम अध्याय, पृ० १३६, १५. जैन साहित्य और इतिहास ( प० नाथूरामजी प्रेमी ), पृ० ५२४-५२९. १६. देखें - ( अ ) जैन साहित्य का इतिहास, द्वितीय भाग ( पं० कैलाशचन्द्र जी ), चतुर्थ अध्याय, पृ० २९४-२९९. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ( ब ) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश ( पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ), पृ० १२५-१४९. ( स ) तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( डॉ० नेमिचन्द जी ), भाग २, पृ० १६७. ( द ) सर्वार्थसिद्धि : भूमिका, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, ३१-४६. १७. देखें सर्वार्थसिद्धि, सं० पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ (१९५५) १-८, पृ० ३१ ३३, ३४, ४६, ५५-५६, ६५६७, ८४-८५, ८८. ― १८. ( अ ) णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंत्ता णेव कत्तीणं ।। पृ० नियमसार, गाथा ७७, प्रकाशक पंडित अजित प्रसाद, दि सेण्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ, १९३१. ( ब ) णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा || समयसार, गाथा ५५, प्रका० श्री म० ही ० पाटनी दि० जैन ट्रस्ट मारोठ ( मारवाड़ ), १९५३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज उसके नवें अध्याय में मिलते हैं। नवें अध्याय में सर्वप्रथम परीषहों के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विकास की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया है - "बादर-सम्पराय की स्थिति में २२ परिषह सम्भव होते हैं। सूक्ष्म सम्पराय और छद्मस्थ वीतराग ( क्षीणमोह ) में चौदह परीषह सम्भव होते हैं। जिन भगवान् में ग्यारह परीषह सम्भव होते हैं।'' इस प्रकार यहाँ बादर-सम्पराय, सूक्ष्म-सम्पराय, छद्मस्थ वीतराग और जिन इन चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। पुन: तत्त्वार्थसूत्र के ध्यान प्रसंग में यह बताया गया है – “अविरत, देशविरत और प्रमत्त-संयत - इन तीन अवस्थाओं में आर्तध्यान का सद्भाव होता है। अविरत और देशविरत में रौद्रध्यान की उपस्थिति पायी जाती है। अप्रमत्तसंयत को धर्मध्यान होता है। साथ ही यह उपशान्त कषाय एवं क्षीण कषाय को भी होता है। शुक्लध्यान, उपशान्त कषाय ( उपशान्त मोह ), क्षीण कषाय ( क्षीण मोह ) और केवली ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, पुन: कर्मनिर्जरा ( कर्मविशुद्धि ) के प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोह-क्षपक ( चारित्रमोह ) उपशमक, उपशान्त ( चारित्र ) मोह, ( चारित्रमोह ) क्षपक, क्षीणमोह और जिन ऐसी दस क्रमश: विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है। यदि हम अनन्तवियोजक को अप्रमत्त-संयत, दर्शनमोहक्षपक को अपूर्वकरण ( निवृत्ति बादर सम्पराय ) और उपशमक ( चारित्र मोह-उपशमक ) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें तो इस स्थिति में वहाँ दस गुणस्थानों के नाम प्रकारान्तर से मिल जाते हैं। यद्यपि अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्त-मोह तथा क्षपक आदि अवस्थाओं को उनके मूल भावों की दृष्टि से तो आध्यात्मिक विकास की इस अवधारणा से जोड़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें सीधा-साधा गुणस्थान के चौखटे में संयोजित करना कठिन है, क्योंकि गुणस्थान सिद्धान्त में तो चौथे गुणस्थान में ही अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय या क्षयोपशम हो जाता है। पुन: उपशम श्रेणी से विकास करने वाला तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी दर्शनमोह और Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम ही करता है, क्षय नहीं । अतः अनन्तवियोजक का अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मानने से उपशम श्रेणी की दृष्टि से बाधा आती है। सम्यग्दृष्टि, श्रावक एवं विरति के पश्चात् अनन्तवियोजक का क्रम आचार्य ने किस दृष्टि से रखा, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है । तुलनात्मक दृष्टि से दर्शनमोहक्षपक को अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के साथ योजित किया जाना चाहिये । क्षपक श्रेणी से विचार करने पर यह बात किसी सीमा तक समझ में आ जाती है, क्योंकि आठवें गुणस्थान से ही क्षपकश्रेणी प्रारम्भ होती है और आठवे गुणस्थान के पूर्व दर्शनमोह का पूर्ण क्षय मानना आवश्यक है। इसी प्रकार चारित्रमोह की दृष्टि से अपूर्वकरण ( निवृत्ति बादर सम्पराय ) को चारित्रमोह उपशमक कहा जा सकता है । क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय से भी योजित किया जा सकता है किन्तु उमास्वाति ने उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच जो क्षपक की स्थिति रखी है उसका युक्तिसंगत समीकरण कर पाना कठिन है, क्योंकि ऐसी स्थिति में उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें और क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान के बीच ही उसे रखा जा सकता है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त में ऐसी बीच की कोई अवस्था नहीं है। सम्भवतः उमास्वाति दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का प्रथम उपशम और फिर क्षय मानते होंगे। क्षीणमोह और जिन दोनों अवधारणाओं में समान हैं। सयोगी केवली को 'जिन' कहा जा सकता है। इस प्रकार क्वचित् मतभेदों के साथ दस अवस्थाएँ तो मिल जाती हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली की यहाँ कोई चर्चा नहीं है । उपशम और क्षपक श्रेणी की अलग-अलग कोई चर्चा भी यहाँ नहीं है । तुलनात्मक अध्ययन के लिये अन्त में दी गई तालिकाएँ उपयोगी होंगी। १० तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है, उसकी गुणस्थान सिद्धान्त से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ गुणस्थान सिद्धान्त में आठवें गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरोहण की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए भी यह माना है कि उपशम श्रेणी वाला क्रमशः आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थान से होकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है, जबकि क्षपक श्रेणी वाला क्रमशः आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाता है। जबकि उमास्वाति यह मानते प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शनमोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्रमोह के उपशम या क्षय का प्रश्न हो, पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है। दर्शनमोह के समान चारित्रमोह का भी क्रमशः उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय होता है। उन्होंने उपशम और क्षय को मानते हुए उनकी अलग-अलग श्रेणी का विचार नहीं किया है । उमास्वाति की कर्म-विशुद्धि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज ११ की दस अवस्थाओं में प्रथम पाँच का सम्बन्ध दर्शनमोह के उपशम और क्षपण से है तथा अन्तिम पाँच का सम्बन्ध चारित्रमोह के उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय से है। प्रथम भूमिका में सम्यग्दृष्टि का क्रमश: श्रावक और विरत इन दो भूमिकाओं में के रूप में चारित्रिक विकास तो होता है किन्तु उसका सम्यक दर्शन औपशमिक होता है, अत: वह उपशान्त दर्शनमोह होता है। ऐसा साधक चौथी अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षपण ( वियोजन ) करता है, अत: वह क्षपक होता है। इस पाँचवीं स्थिति के अन्त में दर्शनमोह का क्षय हो जाता है। अत: वह क्षीणदर्शनमोह होता है। छठी अवस्था में चारित्रमोह का उपशम होता है अत: वह उपशमक ( चारित्रमोह ) कहा जाता है। सातवीं अवस्था में चारित्रमोह उपशान्त होता है। आठवीं में उस उपशान्त चारित्रमोह का क्षपण किया जाता है, अत: वह क्षपक होता है। नवी अवस्था में चारित्रमोह क्षीण हो जाता है, अत: उसे क्षीणमोह कहा जाता है और दसवीं अवस्था में 'जिन' अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उमास्वाति के समक्ष कर्मों के उपशान्त और क्षय की अवधारणा तो उपस्थित रही होगी, किन्तु चारित्रमोह की विशुद्धि के प्रसंग में उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की अवधारणा विकसित नहीं हो पाई होगी। इसी प्रकार उपशम श्रेणी से किये गए आध्यात्मिक विकास से पुनः पतन के बीच की अवस्थाओं की कल्पना भी नहीं रही होगी। जब हम उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से कसायपाहुड की ओर आते हैं तो दर्शनमोह की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र-मोह) और सम्यग्दृष्टि तथा चारित्रमोह की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत की अवधारणाओं के साथ उपशम और क्षय की अवधारणाओं की उपस्थिति भी पाते हैं। इस प्रकार कसायपाहुड में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अधिक पाते हैं। इसी क्रम में आगे मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और अयोगी केवली की अवधारणाएँ जुड़ी होंगी और उपशम एवं क्षपक श्रेणी के विचार के साथ गुणस्थान का एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त सामने आया होगा। इस तुलनात्मक विवरण से हम पाते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण ही है, किन्तु दोनों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं। कसायपाहुड में गुणस्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द हैं - मिथ्यादृष्टि, सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ( मिश्र ), अविरत सम्यग्दृष्टि, देश-विरत/विरताविरत ( संयमासंयम ), विरत संयत, उपशान्तकषाय एवं क्षीणमोह तुलना की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि कसायपाहुडसुत्त में इस पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।* किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की 'अनन्तवियोजक' की अवधारणा कसायपाहुड में उपलब्ध नहीं है उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह उपशमक की अवधारणा पाई जाती है । तत्त्वार्थसूत्र की उपशमक, उपशान्त, क्षपक और क्षीणमोह की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से कसायपाहुडसुत्त में चारित्रमोह उपशमक, उपशान्त कषाय और चारित्रमोह क्षपक तथा क्षीणमोह के रूप में यथावत् पाई जाती हैं। यहाँ चारित्रमोह शब्द का स्पष्ट प्रयोग इन्हें तत्त्वार्थ की अपेक्षा अधिक स्पष्ट बना देता है । पुनः कसायपाहुडसुत्त में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये चारों नाम अनुपस्थित हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा इसमें सम्यक् - मिथ्यादृष्टि ( मिश्र = मिसग ) और सूक्ष्म- सम्पराय (सुहुमराग / सुहुमसम्पराय ) ये दो विशेष रूप से उपलब्ध होते हैं । पुनः उपशान्तमोह और क्षीण मोह के बीच दोनों ने क्षपक ( खवग ) की उपस्थिति मानी है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त में ऐसी कोई अवस्था नहीं है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कसायपाहुड और तत्त्वार्थसूत्र में कर्म- विशुद्धि की अवस्थाओं के प्रश्न पर बहुत अधिक समानता है मात्र मिश्र और सूक्ष्मसम्पराय की उपस्थिति के आधार पर उसे तत्त्वार्थ की अपेक्षा किंचित् विकसित माना जा सकता है। दोनों की शब्दावली, क्रम और नामों की एकरूपता से यही प्रतिफलित होता है कि दोनों एक ही काल की रचनाएँ हैं । ― १२ - मुझे लगता है कि कसायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य के काल में आध्यात्मिक- विशुद्धि या कर्म-विशुद्धि का जो क्रम निर्धारित हो चुका था, वही आगे चलकर गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में अस्तित्व में आया। यदि कसायपाहुड और तत्त्वार्थ चौथी शती या उसके पूर्व की रचनाएँ हैं तो हमें यह मानना होगा कि गुणस्थान की सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पाँचवीं शती के बीच ही कभी निर्मित हुई होगी, क्योंकि लगभग छठी शती से सभी जैन विचारक गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा करते प्रतीत होते हैं । इसका एक फलितार्थ यह भी है कि जो कृतियाँ गुणस्थान की चर्चा करती हैं, वे सभी लगभग पाँचवीं शती पश्चात् की हैं। यह बात भिन्न है कि तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुड को प्रथम - द्वितीय शताब्दी का मानकर इन ग्रन्थों का काल तीसरी चौथी शती माना जा सकता है । किन्तु इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार के कर्ता तथा आचार्य कुन्दकुन्द उमास्वाति से परवर्ती ही हैं, पूर्ववर्ती कदापि नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती इन जैन चिन्तकों, माध्यमिकों एवं प्राचीन वेदान्तियों विशेष रूप से गौड़पाद के विचारों का लाभ उठाकर जैन - - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज १३ अध्यात्म को एक नई ऊंचाई पर पहुँचाया। मात्र यही नहीं उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि अवधारणाओं से पूर्णतया अवगत होकर भी शुद्धनय की अपेक्षा से आत्मा के सम्बन्ध में इन अवधारणाओं का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है। यह प्रतिषेध तभी सम्भव था, जब उनके सामने ये अवधारणाएँ सुस्थिर होतीं। हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि आध्यात्मिक विकास के इन विभिन्न वर्गों की संख्या के निर्धारण में उमास्वाति पर बौद्ध परम्परा और योग परम्परा का भी प्रभाव हो सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि उमास्वाति ने आध्यात्मिक विशुद्धि की चतुर्विध, सप्तविध और दसविध वर्गीकरण की यह शैली सम्भवत: बौद्ध और योग परम्पराओं से ग्रहण की होगी। स्थविरवादी बौद्धों में स्रोतापत्र, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् ऐसी जिन चार अवस्थाओं का वर्णन है वे परीषह के प्रसंग में उमास्वाति की बादर-सम्पराय, सूक्ष्म-सम्पराय, छद्मस्थ वीतराग ( क्षीणमोह ) और जिन से तुलनीय मानी जा सकती हैं। योगवाशिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की ज्ञान की दृष्टि से जिन सात अवस्थाओं का उल्लेख है उन्हें ध्यान के सन्दर्भ में प्रतिपादित तत्त्वार्थसूत्र की सात अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार महायान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है, उन्हें निर्जरा की चर्चा के प्रसंग से उमास्वाति द्वारा प्रतिपादित दस अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार आजीविकों द्वारा प्रस्तुत आठ अवस्थाओं से भी इनकी तुलना की जा सकती है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण आठवें अध्याय में दिया गया है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & # * on » । । । । । आध्यात्मिक विशुद्धि का क्रम उमास्वाति के अनुसार गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार परीषहों के सन्दर्भ में | ध्यान के सन्दर्भ में । कर्मनिर्जरा के सन्दर्भ में मिथ्यादृष्टि सास्वादन सम्यक्-मिथ्यादृष्टि अविरत (सम्यग्दृष्टि) | सम्यग्दृष्टि (दर्शनमोह उपशमक) सम्यग्दृष्टि (अविरतदृष्टि) देशविरत श्रावक देशविरत - प्रमत्तसंयत विरत सर्वविरत (प्रमत्तसंयत) अप्रमत्तसंयत अनन्त वियोजक (उपशान्त दर्शनमोह) | अप्रमत्तसंयत दर्शनमोहक्षपक अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर-सम्पराय) उपशमक (चारित्रमोह) अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म-सम्पराय सूक्ष्म-सम्पराय उपशान्त कषाय उपशान्त मोहक्षपक उपशान्तमोह छद्मस्थ वीतराग क्षीण कषाय क्षीण-मोह क्षीणमोह जिन केवली (जिन) जिन सयोगी केवली अयोगी केवली गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण . ; बादर-सम्पराय 24.M Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तथ्य को निम्न तुलनात्मक तालिका से समझा जा सकता है। - कसायपाहुडसुत्त तत्त्वार्थ एवं तत्त्वार्थभाष्य तीसरी-चौथी शती गुणस्थान, जीवसमास, जीवस्थान आदि शब्दों का पूर्ण अभाव। कर्मविशुद्धि या आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण, मिथ्यात्व का गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास अन्तर्भाव करने पर ११ अवस्थाओं का उल्लेख । तीसरी-चौथी शती गुणस्थान, जीवस्थान, जीवसमास आदि शब्दों का अभाव, किन्तु मार्गणा शब्द पाया जाता है। कर्मविशुद्धि या आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि की गणना करने पर प्रकार भेद से कुल १३ अवस्थाओं का उल्लेख । समवायांग/ षट्खण्डागम ३ श्वेताम्बर - दिगम्बर तत्त्वार्थ की टीकाएँ एवं भगवती आराधना, मूलाचार, समयसार, नियमसार आदि ४ छठीं शती या उसके पश्चात् गुणस्थान शब्द की उपस्थिति । पाँचवीं शती गुणस्थान शब्द का अभाव, किन्तु जीवठाण या जीवसमास के नाम से १४ अवस्थाओं का चित्रण | १४ अवस्थाओं का उल्लेख है । । १४ अवस्थाओं का उल्लेख है । तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज १५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख है। सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवलीदशा का पूर्ण अभाव। अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर ) अनिवृत्तिकरण ( अनिवृत्ति बादर ) जैसे नामों का अभाव। उपशम और क्षय का विचार है, किन्तु ८वें गुणस्थान से उपशम और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण होता है, ऐसा विचार नहीं है। पतन की अवस्था का कोई चित्रण नहीं। सास्वादन ( सासादन ) और । सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अयोगीकेवली अवस्था का पूर्ण | ( मिश्रदृष्टि ) और अयोगी अभाव, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि | केवली आदि का उल्लेख है। की उपस्थिति। अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर ) अनिवृत्तिकरण ( अनिवृत्ति बादर ) जैसे नामों का अभाव। उपशम और क्षपण का विचार अलग-अलग श्रेणीहै किन्तु ८वें गुणस्थान से विचार उपस्थित। उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण होता है, ऐसा विचार नहीं है। पतन की अवस्था का कोई पतन आदि का मूल पाठ चित्रण नहीं। में चित्रण नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण अलग-अलग श्रेणी विचार उपस्थित। पतन आदि का व्याख्या में चित्रण है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ४. ८. तत्त्वार्थसूत्र मिथ्यात्व सम्यग्दृष्टि श्रावक विरत अनन्तवियोजक दर्शनमोह क्षपक ( चारित्रमोह ) उपशमक कसायपाहुड ३ मिच्छादिट्ठि ( मिथ्यादृष्टि ) सम्मा-मिच्छाइट्ठो ( मिस्सगं ) सम्माइट्ठी ( सम्यग्दृष्टि ) अविरदीए विरदाविरदे ( विरत - अविरत ) देसविरयी ( सागार ) संजमासंजम विरद ( संजम ) दंसणमोह उवसामगे ( दर्शन मोह उपशामक ) दंसणमोह खवगे ( दर्शन मोह - क्षपक ) चरित्तमोहस्स उपसामगे ( उवसामणा ) समवायांग/ षट्खण्डागम ४ मिच्छादिट्ठि ( मिथ्यादृष्टि ) सास्वादन सम्यग्दृष्टि ( सासायण - सम्मादिट्ठी ) सम्मा-मिच्छादिट्ठी ( सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ) अविरय सम्मादिट्ठी विरयाविरए ( विरत - अविरत ) पमत्तसंजए अपमत्तसजए निअट्टिबायरे अनि अट्टिबायरे तत्त्वार्थ की टीकाएँ ५ मिथ्यादृष्टि सास्वादन सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ( मिश्रदृष्टि ) सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज १७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सुहुमरागो . सुहुम संपराए सूक्ष्म सम्पराय ( सुहुमम्हि सम्पराये ) उपसंत कसाय खवगे उवसंत मोहे उपशान्त-मोह उपशान्त ( चारित्र ) मोह ( चारित्रमोह ) क्षपक क्षीणमोह खीणमोहे सजोगी केवली क्षीणमोह सयोगी केवली जिन खीणमोह ( छदुमत्थोवेदगो ) जिण केवली सव्वण्हू-सव्वदरिसी ( ज्ञातव्य है कि चूर्णि में ‘सजोगिजिणो' शब्द है मूल में नहीं है ) चूर्णि में योगनिरोध का उल्लेख है गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज सन्दर्भ-ग्रन्थ १. सूक्ष्मसम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ।। १० ।। एकादश जिने ।। ११ ।। बादरसम्पराये सर्वे ।। १२ ।। तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९. २. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।। ३५ ।। हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ।। ३६ ।। आज्ञाएपायविपाकसंस्थान विचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।। ३७ ।। उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ।। ३८ ।। शुक्ले चा पूर्वविदः ।। ३९ ।। परे केवलिनः ।। ४० ।। - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९. ३. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।। ४७ ।। तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९. ४. कसायपाहुडसुत्त, सं० पं० हीरालाल जैन, वीरशासन, संघ कलकत्ता १९५५ देखें - — बोद्धव्वा ।। ८२ ।। अणागारे ।। ८३ ।। रिसोभवे ।। ९१ ।। सम्मत्तदेसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण- चरित्त मोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ।। १४ ।। सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेय विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा दंसणमोहस्स उवसामगस्स परिणामो दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमि जादो सुहुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्वा ।। १२१ ।। उवसामणाखएण दु पडिवदिदो होइ सुहुम रागम्हि ।। १२२ ।। खीणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा ।। २३२ ।। संकामणमोवट्टण किट्टीखवणाए खीणमोहंते । दु ।। ११० ।। बोद्धव्वा मोहणीयस्स ।। २३३ ।। १९ खवणा य आणुपुव्वी ५. विस्तृत विवरण हेतु देखें जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, डॉ० सागरमल जैन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पृ० ३७९-४७१ एवं पृ० ४८७-४८८. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज पूर्व अध्याय में हमने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की पूर्व अवस्था के रूप में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं/गुणश्रेणियों की चर्चा की है, जिन्हें हम गुणस्थान सिद्धान्त का मूल स्रोत मानते हैं। हम इस सम्बन्ध में अपनी खोज जारी रखे हुए थे कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इन दस अवस्थाओं का आगमिक आधार क्या है और इन अवस्थाओं का प्राचीनतम उल्लेख किस ग्रन्थ में मिलता है ? अपनी इस खोज के दौरान हमने श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य का आलोडन किया किन्तु उसमें हमें कहीं भी इन दस अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका। यदि विद्वानों को इसका कोई संकेत भी उपलब्ध हो तो हमें सूचित करें। उसके बाद हमने प्राचीनतम आगमिक व्याख्याओं की दृष्टि से नियुक्तियों का अध्ययन प्रारम्भ किया और संयोग से आचारांगनियुक्ति के सम्यक्त्व पराक्रम नामक चतुर्थ अध्याय की नियुक्ति में इन दस अवस्थाओं का उल्लेख करने वाली निम्नलिखित दो गाथाएँ उपलब्ध हुईं -- सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसंते ।। २२ ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ।। २३ ।। - आचारांगनियुक्ति ( नियुक्तिसंग्रह, पृ० ४४१ ) यदि हम नियुक्ति साहित्य को तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा प्राचीन मानते हैं तो हमें यह कहना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र की इन दस अवस्थाओं का प्राचीनतम स्रोत आचारांगनियुक्ति ही है। यद्यपि आचारांगनियुक्ति में जिस स्थल पर ये गाथाएँ हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा लगता है कि ये गाथाएँ मूलत: नियुक्तिकार की नहीं हैं, अपितु पूर्व साहित्य के किसी कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थ से इन गाथाओं को इसमें अवतरित किया गया है क्योंकि सम्यक्त्व-पराक्रम की चर्चा के प्रसंग में ये गाथाएँ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं लगती हैं । फिर भी गुणश्रेणी की अवधारणा का अभी तक जो भी प्राचीनतम स्रोत उपलब्ध है, वह तो यही है । इन दोनों गाथाओं में कर्म-निर्जरा की क्रमिक अधिकता की दृष्टि से निम्नलिखित दस अवस्थाओं का चित्रण हुआ है २१ १. सम्यक्त्वोत्पत्ति, २. श्रावक, ३. विरत, ४. अनन्तवियोजक ( अणंतकम्मंसे ), ५. दर्शनमोहक्षपक, ६. उपशमक, ७. उपशान्त, ८. क्षपक, ९. क्षीणमोह और १०. जिन । इन दस अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त से किस रूप में सम्बन्ध है और कितनी समानता और विभिन्नता है इसकी विस्तृत चर्चा पूर्व अध्याय में की जा चुकी है फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से इस सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्र या सम्यक् - मिथ्यादृष्टि इन तीन अवस्थाओं की चर्चा इसमें नहीं है। इसकी प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के औपशमिक सम्यग्दृष्टि के समान है। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी श्रावक और विरत अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के पाँचवें देशव्रत और छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में क्षायिक सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति के लिये साधक यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण करता है। किन्तु इसकी पाँचवीं अवस्था दर्शनमोहक्षपक की तुलना अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान करण से नहीं की जा सकती। इसकी कषाय उपशम और उपशान्तकषाय अवस्थाओं को दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है। अगली दो अवस्थाएँ क्षपक और क्षीणमोह में क्षपक का गुणस्थान सिद्धान्त में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि क्षीणमोह, बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के समान ही है। जिन अवस्था को हम सयोगी केवली की अवस्था कह सकते हैं किन्तु इसमें अयोगी केवली का कोई उल्लेख नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में जो उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी की दृष्टि से अलग-अलग चर्चा की जाती है उसका इस अवधारणा में अभाव है। वस्तुतः इस अवधारणा में उपशम और क्षायिक श्रेणियों को अलग-अलग न करके यह माना गया कि उपशम के बाद ही क्षायिक भाव उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व - उत्पत्ति, श्रावक और विरत ये तीनों अवस्थाएँ औपशमिक सम्यक् - दर्शन और व्यवहार चारित्र की सूचक हैं। एक दृष्टि से हम इन्हें दर्शनमोह उपशमक और दर्शनमोह उपशान्त की अवस्था कह सकते हैं। अनन्त - वियोजक और दर्शनमोह क्षपक को हम क्षायिक सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति और दर्शनमोह के क्षीण होने की अवस्था Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कह सकते हैं। आगे जो चार अवस्थाएँ कही गयी हैं वे चारित्रमोह की दृष्टि से हैं। कषाय-उपशमक, कषाय-उपशान्त, कषाय-क्षपक और क्षीणकषाय या क्षीणमोह, इन चारों अवस्थाओं का सम्बन्ध अनन्तानुबन्धी को छोड़कर कषायचतुष्क की अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन चौकड़ी से और नोकषायों का पहले उपशम फिर क्षय करने से है। इन अवस्थाओं में उपशमक और उपशान्त क्षपक और क्षीण - इनका स्पष्ट और अलग-अलग उल्लेख होने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह अवधारणा उपशम और क्षायिक को अलग-अलग न मानकर उपशम के पश्चात् क्षायिक श्रेणी से विकास की चर्चा करती है। इस समग्र चर्चा का निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा इन दस अवस्थाओं का ही एक विकसित रूप है। इन दस अवस्थाओं को हम गुणस्थान सिद्धान्त के बीज की संज्ञा दे सकते हैं। इन अवस्थाओं को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में गुणश्रेणी के नाम से जाना जाता है। यहाँ गुण शब्द का प्रयोग सामान्यतया कर्मवर्गणा के पुद्गलों के लिये हुआ है। मेरी दृष्टि में इसी गुणश्रेणी से ही गुणसिद्धान्त का विकास हुआ है। आध्यात्मिक विकास या गुणश्रेणियों की इन दस अवस्थाओं की चर्चा का प्राचीनतम उपलब्ध आधार आचारांगनियुक्ति को मानने पर यह शंका उपस्थित होती है कि नियुक्तियाँ तो द्वितीय भद्रबाहु ( वराहमिहिर के भाई ) की रचनाएँ हैं। उनका काल विद्वान् लोग ईसा की पाँचवीं शताब्दी मानते हैं। जबकि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र को ईसा की प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी के बीच की रचना माना जाता है। अत: यह मानना होगा कि इन दस अवस्थाओं का सर्वप्रथम चित्रण तत्त्वार्थसूत्र में ही हुआ है, किन्तु यह मान्यता भी निर्दोष नहीं हो सकती क्योंकि परम्परागत दृष्टि से तो नियुक्तियों को प्रथम भद्रबाहु की कृति मानने पर दो समस्याएँ उपस्थित होती हैं - प्रथम तो यह कि स्वयं दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में ही नियुक्तिकार छेदसूत्रों के कर्ता भद्रबाहु प्रथम ही नियुक्तियों के रचनाकार हैं तो वे स्वयं अपने को कैसे प्रणाम कर सकते हैं ? दूसरी बाधा यह है कि आवश्यकनियुक्ति में वी० नि० सं० १८४ तक होने वाले सात निह्नवों का उल्लेख आया है साथ ही इसमें आर्यरक्षित ( वीर निर्वाण सं० ५८४ ) का उल्लेख भी है जबकि आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास तो वी० नि० सं० १७० अर्थात् ई० पू० तृतीय शती में ही हो जाता है। वे अपने से लगभग ४०० वर्ष बाद अर्थात् वीर निर्वाण ५८४ में होने वाले निह्नवों और आर्यरक्षित का उल्लेख कैसे कर सकते हैं ? इसलिये विद्वानों ने यह माना कि नियुक्तियाँ भद्रबाह द्वितीय की रचनाएँ हैं किन्तु नियुक्तियों को वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु की कृतियाँ मानने में भी कई Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज २३ कठिनाइयाँ हैं। यदि हम यह मानते हैं कि ईस्वी सन् की पाँचवीं शताब्दी में होने वाले भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई हैं तो सबसे पहला प्रश्न यह उठेगा कि वी० नि० सं० ६०९ अर्थात् ईस्वी सन् द्वितीय शती में होने वाले बोटिक निह्नव की चर्चा इसमें क्यों नहीं है ? दूसरे यह कि ईसा की पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक तो गुणस्थान की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गई थी उनका अन्तर्भाव नियुक्तियों में क्यों नहीं हो पाया, जबकि आचारांगनियुक्ति तत्त्वार्थ के समान मात्र दस अवस्थाओं की ही चर्चा करती है वह परवर्ती ग्यारह गुणश्रेणियों अथवा चौदह गुणस्थानों की चर्चा क्यों नहीं करती है ? नियुक्तियों में उपलब्ध विषयवस्तु की दृष्टि से हमें यही मानना होगा कि वे लगभग ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी की रचना है। पुन: वी० नि० सं० ५८५ तक होने वाले निह्नवों का उल्लेख और वी० नि० सं० ६०९ में होने वाले बोटिक शिवभूति का अभाव यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियाँ वी० नि० सं० ६०९/ई० सन् १४२ के पूर्व लिखी गई हैं। इस प्रकार वे ई० सन् की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में लिखी गई हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या इस काल में कोई भद्रबाहु हुए हैं ? हमने कल्पसूत्र की पट्टावली का अध्ययन करने पर यह पाया कि आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति, जिनके बीच सचेलता और अचेलता के प्रश्न को लेकर विवाद हुआ था और बोटिक सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई थी, के समकालिक एक आर्यभद्र हुए हैं। ये आर्य शिवभूति के शिष्य थे, ये आर्य नक्षत्र एवं आर्य रक्षित से ज्येष्ठ थे और इनका काल ई० सन की द्वितीय-तृतीय शताब्दी ही रहा है। अत: यह मानना होगा कि नियुक्तियाँ इन्हीं आर्यभद्र की रचनाएँ हैं और आगे चलकर नाम साम्य और भद्रबाहु की प्रसिद्धि के कारण उनकी रचनाएँ मानी जाने लगीं। जिस प्रकार प्रबन्धों के लेखकों ने प्राचीन भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु के कथानक मिला दिये हैं उसी प्रकार नियुक्तिकार आर्यभद्र से भद्रबाहु की एकरूपता कर ली गई। पुन: नियुक्ति साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति एवं तत्त्वार्थ के समान दस गुणश्रेणियों का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वे तत्त्वार्थसूत्र की समकालिक अथवा उससे क्वचित् पूर्ववर्ती रचनाएँ हैं। पुनः प्रज्ञापना जैसे विकसित आगम में गुणस्थान सिद्धान्त के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास की इन दस गुणश्रेणियों की चर्चा का अभाव है। प्रज्ञापना का रचनाकाल विद्वानों ने ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना है, अत: हमें यह मानना होगा कि नियुक्तियाँ ई० सन् की द्वितीय शताब्दी से लेकर तृतीय शताब्दी के पूर्व निर्मित हुई हैं, अत: उन्हें आर्यभद्र की रचना मानकर ई० सन् की द्वितीय शताब्दी के प्रथम चरण में रखना अनुपयुक्त नहीं होगा। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति की प्रतिक्रमणनियुक्ति में गाथा सं० १२८७ के पश्चात् की दो गाथाओं में 'चौद्दसभूतगामेहिं' के बाद चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है लेकिन ये दोनों गाथाएँ जिनमें चौदह गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है, प्रक्षिप्त हैं और इनकी गणना आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं में नहीं की जाती है। आवश्यकनियुक्ति की आठवीं शताब्दी की हरिभद्र की टीका में इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में नहीं माना गया है, अपितु जीवसमास की चर्चा के प्रसंग में इन्हें किसी संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया गया है। अत: यह सुस्पष्ट है कि नियुक्ति साहित्य में चौदह गुणस्थान की अवधारणा पूर्णतया अनुपस्थित है और उनमें तत्त्वार्थ के समान ही दस गुणश्रेणियों की चर्चा है। जैसा कि हमने संकेत किया है आचारांगनिर्यक्ति में उपलब्ध कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की चर्चा करने वाली ये गाथाएँ नियुक्तिकार की न होकर कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी पूर्व साहित्य के किसी ग्रन्थ से ली गई हैं। यद्यपि यह नियुक्ति गाथा के रूप में मान्य हैं। जिस प्रकार ये गाथाएँ षटखण्डागम के वेदना खण्ड की चूलिका में अवतरित की गईं और वहीं से आगे धवला टीका और गोम्मटसार में भी गई हैं उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी, किसी प्राचीन ग्रन्थ का अंश होकर वहाँ से नियुक्तियों में और कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी प्राचीन और अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में तथा पंचसंग्रह में ये गाथाएँ अवतरित की जाती रही हैं। नियुक्ति के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ शिवशर्मसूरि ( ई० सन् पाँचवीं शती ) प्रणीत कर्म प्रकृति में उपलब्ध होती हैं। प्रस्तुत गाथाएँ आचारांगनियुक्ति और षटखण्डागम में अवतरित गाथाओं के समान हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ हम विशेष चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते हैं केवल इतना ही बता देना पर्याप्त है कि इस शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति में इनका अवतरण प्रासंगिक है। साथ ही इनकी इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'जिणे य दुविहे' कहकर सयोगी और अयोगी ऐसे दो प्रकार के जिनों की अवधारणा आ गई है और इस प्रकार इनमें दस के स्थान पर ग्यारह गुणश्रेणियाँ मान ली गई हैं। अत: इनकी स्थिति षटखण्डागम के व्याख्या सूत्रों के अनुरूप है। शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति के पश्चात् ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ पुन: चन्द्रर्षि कृत पंचसंग्रह ( ई० सन् आठवीं शताब्दी के पूर्व ) के बन्धद्वार के उदय-निरूपण में मिलती है, वहाँ ये निम्न रूप में प्रस्तुत हैं - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज संमत्त - देस - संपुन्न-विरइ-उप्पत्ति-अण - विसंजोगे । दंसणखवणे मोहस्स समणे उवसंत खवगे य ।। खीणाइतिगे अस्संखगणियगणसेढिदलिय जहकमसो । सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखसे ।। - पंचसंग्रह बन्धद्वार, उदयनिरूपण, गाथा ११४-११५. यहाँ भी क्वचित् पाठभेद को छोड़कर ये गाथाएँ समान ही हैं। नामों की दृष्टि से यहाँ १. सम्यक्त्व, २. देशविरत, ३. सर्वविरत, ४. अनन्तानुबन्धी विसंयोजक ( अणविसंजोगे ), ५. दर्शनमोहक्षपक, ६. ( कषाय शमक ) उपशान्त, ७. क्षपक, ८.-१०. क्षीण, आदि-त्रिक् अर्थात् क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली। इन गाथाओं की विशेषता यह है कि इनके अन्त में सम्यक्त्व आदि एकादश गुणश्रेणियों का उल्लेख है। ये एकादश गुणश्रेणियाँ केवली के सयोगी और अयोगी ऐसे दो विभाग करने पर ही बनती हैं। सम्भवतः पाँचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात् गणस्थान सिद्धान्त में सयोगी और अयोगी अवधारणा के आने पर जिन नामक दसवीं अवस्था के विभाजन से गुणश्रेणी की संख्या १० से बढ़कर ११ हो गई और वह दोनों ही परम्पराओं में संरक्षित होती रही। श्वेताम्बर परम्परा में इन ११ गुणश्रेणियों का हमें अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि विरचित अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ के ८२वीं गाथा में प्राप्त होता है जो कि निम्न रूप में है - सम्मदरससव्वविरई उ अणविसंजोयदंसखवगे य । मोहसमसंतखवगे खीणसजोगियर गुणसेढी ।। प्रस्तुत गाथा की विशेषता यह है कि इसमें दो गाथाओं के विवरण को संक्षिप्त सांकेतिक शब्दों के आधार पर एक ही गाथा में समाहित कर दिया गया है, जैसे सम्यग्दृष्टि के लिये सम्म, देशव्रती के लिये दर, अनन्त-विसंयोजक के लिये अणविसंजोय, दर्शन मोहक्षपक के लिये दंसखवगे आदि इस प्रकार के संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार उपशम के लिये केवल शम, उपशान्त के लिये केवल सन्त और क्षीणमोह के लिये केवल खीण शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु जिनके स्थान पर सजोगी और इतर ऐसी दो अवस्थाओं का संकेत किया गया है। देवेन्द्रसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने इस गाथा की स्वोपज्ञ टीका में इन संक्षिप्त शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के साथ-साथ इन एकादश गुण Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण श्रेणियों का न केवल स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है अपितु इन गुणश्रेणियों की गुणस्थान की अवधारणा से निकटता भी सूचित की है। साथ ही इसके भावार्थ को भी टीका में स्पष्ट किया है। इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त के बीज रूप इन गुणश्रेणियों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में आचारांगनिर्यक्ति से लेकर नवीन कर्म ग्रन्थों तक अर्थात् ई० सन् की दूसरी शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक निरन्तर रूप से मिलता है। इन गुणश्रेणियों का गुणस्थान सिद्धान्त से क्या सम्बन्ध है यह भी देवेन्द्रसरि की टीका से स्पष्ट हो जाता है और इससे हमारी इस अवधारणा की पुष्टि होती है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार कर्मनिर्जरा के आधार पर सूचित करने वाली ये गुणश्रेणियाँ ही हैं। सन्दर्भ १. वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ।। - दशाश्रुतस्कधनियुक्ति, गाथा १. २. देखें - आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७४-७८३. ३. थेरस्स णं अज्जफग्गुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी वासिठ्ठसगुत्ते थेरस्स णं अज्जघणगिरिरस वासिठ्ठसगुत्तस्स अज्जसिवभूईथेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते। थेरस्स णं अज्जसिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। थेरस्स णं अज्जभद्दस्स काग्रवगुत्तस्स अज्जनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। - कल्पसूत्र, प्रका० श्री हंस विजय जैन, फ्री लायब्रेरी, लुणसावाडा, अहमदाबाद, पृ० १९५. ४. देखें - आवश्यकनियुक्ति ( हरिभद्रीय टीका ), भाग २, पृ० १०७. ५. सम्मत्तुप्पा सावय विरए संजोयणाविणासे य । दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगुवसंते ।। खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणा । उदयो तव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणसेढी ।। - कर्म-प्रकृति ( उदयकरण ), गाथा ३९४-३९५. ६. सम्मदरसव्वविरई, उ अणविसंजोअदंसखवगे अ । मोहसमसंतखवगे, खीणसजोगीअरगुणसेढी ।। - शतकनामा, पंचमकर्मग्रन्थ (श्रीलघुप्रकरणसंग्रहः), शा० नगीनदास करमचंद, मु० पाटण हाल, मुम्बई, सन् १९२५. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज कार्तिकेयानुप्रेक्षा के परिप्रेक्ष्य में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का मूलभूत विषय तो जैन परम्परा में सुप्रचलित बारह अनुप्रेक्षाओं अथवा बारह भावनाओं का विवेचन करना है किन्तु उसमें इस विवेचन के अन्तर्गत यथाप्रसंग जैन परम्परा के, धर्मदर्शन के सभी पक्षों को समाहित कर लिया गया है। जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र सात तत्त्वों को आधार बनाकर जैन परम्परा के सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान की चर्चा करता है, उसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी जैन तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, सृष्टिस्वरूप, मुनि-आचार, श्रावक-आचार आदि सभी पक्षों की चर्चा है। हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि उसमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा नहीं है और न उपशम श्रेणी और न क्षायिक श्रेणी के अलग-अलग विकास की बात कही गयी है। गुणस्थान सिद्धान्त के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि जो विशिष्ट नाम हैं, उसका भी उनमें कोई उल्लेख नहीं है। यदि संक्षेप में कहें तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा का अभाव हैं किन्तु जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान की अवधारणा का अभाव होते हुए भी कर्मनिर्जरा के आधार पर सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत आदि दस अवस्थाओं का चित्रण है उसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी निर्जरा-अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत कर्मनिर्जरा के आधार पर निम्नलिखित बारह अवस्थाओं का चित्रण हुआ है। --- १. मिथ्यात्वी, २. सम्यग्दृष्टि ( सदृष्टि ), ३. अणुव्रतधारी, ४. महाव्रती, ५. प्रथमकषायचतुष्कवियोजक, ६. क्षपकशील, ७. दर्शनमोहत्रिक (क्षीण), ८. कषायचतुष्क उपशमक, ९. क्षपक, १०. क्षीणमोह, ११. सयोगीनाथ और १२. अयोगीनाथ। उपर्युक्त बारह अवस्थाओं में एक-दो नामों में कुछ अन्तर को छोड़कर दस वही हैं जिनका उल्लेख हमें आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। इसमें दो नाम जो अधिक हैं - वे मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली हैं। इनमें भी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण मिथ्यादृष्टि तो तुलना की दृष्टि से दिया गया है, अत: ग्यारह अवस्थाएँ या गुणश्रेणियाँ ही शेष रहती हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् का है। आगे हम देखेंगे कि षट्खण्डागम के वेदना-खण्ड की चूलिका में जो गाथाएँ दी गई हैं, उनमें आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के अनुरूप दस अवस्थाओं का ही चित्रण है किन्तु चूलिका में उक्त गाथाओं को उद्धृत करके जो व्याख्यासूत्र बनाए गए हैं उनमें जिन के सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं/गुणश्रेणियों का चित्रण हुआ है। धवलाटीका में तो स्पष्ट रूप से ग्यारह की संख्या का उल्लेख भी है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इन ग्यारह अवस्थाओं के साथ मिथ्यात्व का भी स्पष्ट उल्लेख होने से कुल बारह अवस्थाएँ हो जाती हैं। यद्यपि यहाँ मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग कर्म-निर्जरा की सापेक्षिक अधिकता को बताने की दृष्टि से ही हुआ है, उसे गुणश्रेणी मानना ग्रन्थकार को इष्ट नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और षटखण्डागम में अवतरित चूलिका गाथाओं में जहाँ श्रावक और विरत नाम आए हैं वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में क्रमश: उनके लिये अणुव्रतधारी और ज्ञानी, महाव्रती ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। 'अणंतकम्मसे' एवं अनन्तवियोजक शब्द के स्थान पर इसमें प्रथमकषायचतुष्कवियोजक शब्द का प्रयोग हुआ है। यद्यपि इस शब्द वैभिन्न्य से अर्थ में इसे एक विकास तो माना जा सकता है यदि हम क्षपणशील और दर्शनमोहत्रिक ( क्षीण ) इन दोनों को अलगअलग करते हैं तो यहाँ एक अवस्था बढ़ जाती है क्योंकि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में दर्शनमोहक्षपक नामक एक ही अवस्था का चित्रण नहीं है। किन्तु यदि हम ‘तह य खवयसीलो य दंसणमोह तियस्स य' इस सम्पूर्ण पद को समास पद मानकर एक मानते हैं तो इसका अर्थ होगा - दर्शनमोहत्रिक क्षपणकशील और ऐसी स्थिति में इसे दर्शनमोहक्षपक से तुलनीय माना जा सकता है किन्तु आगे चलकर जहाँ आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में कषाय उपशमक, उपशान्तकषाय, क्षपक और क्षीणमोह ऐसी चार अवस्थाओं का चित्रण है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशमक, क्षपक और क्षीणमोह ऐसी तीन ही अवस्थाओं का चित्रण मिलता है। इसमें उपशान्तमोह का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। अत: यहाँ एक अवस्था कम हो जाती है अर्थात् उसमें उपशमक, क्षपक और क्षीणमोह ये तीन ही अवस्थाएँ शेष रहती हैं। अन्त में आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में जहाँ जिन का उल्लेख हुआ है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कप्तायपाहुड और षट्खण्डागम Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज २९ वेदनाखण्ड की चूलिका के व्याख्यासूत्रों के अनुरूप सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ऐसी दो अलग-अलग अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। हो सकता है कि इसकी संख्या को यथावत् रखने के लिये कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जहाँ एक ओर सयोगी और अयोगी केवली का भेद किया गया, वहीं दूसरी ओर उपशान्त अवस्था को छोड़ दिया गया हो। इस तुलनात्मक विवरण के विवेचन के पश्चात् नामों को स्पष्टता तथा सयोगी और अयोगी अवस्थाओं के विभाजन के आधार पर हम कह सकते हैं कि कार्तिकेयानप्रेक्षा का यह विवरण आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा क्वचित् परवर्ती है और कसायपाहुड और षट्खण्डागम चूलिका के व्याख्यासूत्रों के समकालिक प्रतीत होता है। फिर भी चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण हम कह सकते हैं कि यह कसायपाहुड का समकालिक और षटखण्डागम का पूर्ववर्ती है। पुन: इसमें वर्णित ये दस अवस्थाएँ गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं, इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूल ग्रन्थ में उपशान्तकषाय अवस्था का चित्रण नहीं है किन्तु शुभचन्द्र की टीका में उस अवस्था का उल्लेख किया गया है। टीका में मिथ्यात्व अवस्था का परिगणन नहीं करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। साथ ही टीकाकार ने अयोगीकेवली की चर्चा न कर स्वस्थान-केवली और समुद्घात-केवली ऐसी दो अवस्थाओं की चर्चा की है। यद्यपि षटखण्डागम के व्याख्या-ग्रन्थों में यथाप्रवृत्त-केवली और योगनिरोधकेवली ऐसी दो अवस्थाओं की चर्चा हुई है किन्तु टीकाकार ( शुभचन्द्र ) ने योगनिरोध-केवली की जगह समुद्घात-केवली की चर्चा की है। ज्ञातव्य है कि समुद्घात-केवली का अन्तर्भाव सयोगी-केवली में होता है, अयोगी-केवली में नहीं होता। यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार की अपनी विशेषता है।' यदि हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त के उल्लेख के अभाव तथा इसमें कर्म-निर्जरा के आध्यात्मिक विकास की ग्यारह अवस्थाओं के चित्रण की उपस्थिति की दृष्टि से इस ग्रन्थ का काल-निर्धारण करें तो वह चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का प्रतीत होता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रतिपाद्य विषयों का जो सरल और सुस्पष्ट विवरण है उसके आधार पर तथा उसकी भाषा की प्राचीनता के आधार पर उसे इस अवधि का मानने में सामान्य रूप से कोई बाधा नहीं आती। दिगम्बर परम्परा में बारह अनुप्रेक्षाओं का स्वतन्त्र विवरण देने वाले दो ग्रन्थ हैं -- प्रथम, कुमारस्वामी का बारस्साणुवेक्खा अपरनाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा और दूसरा आचार्य कुन्दकुन्द का बारस्साणुवेक्खा। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कार्तिकेयानुप्रेक्षा और कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा में स्पष्ट रूप से निश्चयनय की प्रधानता और दार्शनिक गम्भीरता है जबकि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं है। इससे कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा की अपेक्षा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की भाषा की तुलना करके उसकी भाषा को प्रवचनसार के निकट बताया है। अत: कार्तिकेयानुप्रेक्षा को अधिक परवर्ती नहीं माना जा सकता। मेरी दृष्टि में यह कुन्दकुन्द के पूर्व की है क्योंकि कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा की अपेक्षा भाषा, प्रस्तुतीकरण की शैली, विषय-वस्तु की सरलता आदि की दृष्टि से यह प्राचीन ही सिद्ध होती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि कुन्दकुन्द के नाम से प्रचलित द्वादशानुप्रेक्षा स्वयं उनकी ही रचना है या किसी अन्य आचार्य की, यह विवादास्पद प्रश्न है। यद्यपि निश्चयनय की प्रधानता की दृष्टि से उसे कुन्दकुन्द की रचना माना जा सकता है। ग्रन्थ के अन्त में 'मुनिनाथ कुन्दकुन्द ने ऐसा कहा', इस प्रशस्ति गाथा की उपस्थिति इसके कुन्दकुन्द का ग्रन्थ होने में बाधक बनती है क्योंकि कुन्दकुन्द स्वयं अपने को मुनिनाथ नहीं कह सकते। इस स्थिति में या तो हमें इस प्रशस्ति गाथा को प्रक्षिप्त मानना होगा या फिर यह मानना होगा कि कुन्दकुन्द के विचारों को आत्मसात करते हुए उनके किसी निकट शिष्य ने इसकी रचना की है। पुन: कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने उन्हें कुमारनन्दी का शिष्य बताया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के रचनाकार स्वामीकुमार यदि कुमारनन्दी हैं, तो ऐसी स्थिति में वे कुन्दकुन्द के पूर्व हुए हैं। पुन: इस आधार पर भी हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा को प्राचीन कह सकते हैं क्योंकि जहाँ कुन्दकुन्द गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित हैं वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा के कर्ता स्वामीकुमार उससे परिचित नहीं हैं। ये मात्र ग्यारह गुणश्रेणियों से परिचित हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार कब हुए इस सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों ने पर्याप्त परिश्रम किया है। जहाँ ए० एन० उपाध्ये उन्हें जोइन्दू ( योगीन्दु ) के बाद अर्थात् लगभग सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रखते हैं", वहाँ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार इन्हें उमास्वाति के बाद स्थापित करते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो भावनाओं का क्रम दिया गया है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थ के अनुरूप है जबकि मूलाचार, भगवती-आराधना और कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा में जो भावनाओं का क्रम दिया गया है वह भिन्न है। इन सभी गुणस्थान की अवधारणा से परिचित परवर्ती ग्रन्थों से भावना-क्रम की विभिन्नता और तत्त्वार्थ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज सूत्र की अवधारणा का अभाव और आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का उल्लेख उसे तत्त्वार्थसूत्र से क्वचित् परवर्ती सिद्ध करता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उमास्वाति के तत्त्वार्थ का अनुसरण यही सूचित करता है कि वे उमास्वाति के निकट परवर्ती रहे होंगे। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उमास्वाति के तत्त्वार्थ के समान ही गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति है और कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का चित्रण है। आध्यात्मिक विकास की इन अवस्थाओं का चित्रण क्वचित् अन्तर के साथ दोनों में समान रूप से पाया जाता है। अत: कार्तिकेयानुप्रेक्षा को उमास्वाति के पश्चात् रखा जा सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक के रूप में जिन स्वामीकुमार का उल्लेख है, यदि हम उनका समीकरण हल्सी के ताम्रपत्र में उल्लेखित यापनीय संघ के कुमारदत्त से करते हैं तो उनका काल ईसा की पाँचवीं शताब्दी सिद्ध होगा। कार्तिकेयानुप्रेक्षा को पाँचवीं शताब्दी की रचना मानने में निम्नलिखित बाधाएँ हैं - सर्वप्रथम तो यह कि इसमें नित्य एकान्त, क्षणिक एकान्त एवं ब्रह्मानन्द का निराकरण, सर्वज्ञता की तार्किक पुष्टि आदि पाए जाते हैं। इन विवरणों को देखते हुए ऐसा लगता है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है। यद्यपि समन्तभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों में अभी मतैक्य नहीं है। जहाँ पं० जुगलकिशोर आदि विद्वान उन्हें ई० सन की दूसरी-तीसरी शताब्दी का मानते हैं, वहाँ प्रो० मधुसूदन ढाकी आदि उन्हें ईस्वी सन् की सातवीं शताब्दी का मानते हैं ( प्रो० ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर )। प्रस्तुत कृति में हम इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना नहीं चाहते हैं किन्तु इतना तो माना ही जा सकता है कि ऐकान्तिक मान्यताओं के खण्डन और सर्वज्ञता की तार्किक सिद्धि की अवधारणाएँ पाँचवीं शती में अस्तित्व में आ चुकी थीं। इसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में त्रिविध आत्माओं की चर्चा उपलब्ध है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अतिरिक्त यह चर्चा कुन्दकुन्द के मोक्ष-प्राभृत, पूज्यपाद के समाधितन्त्र और योगीन्दु के योगसार एवं परमार्थप्रकाश में भी पायी जाती है। किन्तु हम देखते हैं कि जहाँ कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार ने गुणस्थान की कोई चर्चा नहीं की है। सामान्यतया दिगम्बर परम्परा के विद्वान् पूज्यपाद की अपेक्षा कुन्दकुन्द को पूर्ववर्ती मानते हैं। पुन: कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में कुमारनन्दि का उल्लेख किया है और यदि ये Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कुमारनन्दि ही कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार हैं तो इस दृष्टि से भी उनका समन्तभद्र और कुन्दकुन्द के पूर्व होना सिद्ध हो जाता है। एक अन्तिम बाधा कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की प्राचीनता के सन्दर्भ में यह है कि उसमें कुछ गाथाएँ अपभ्रंश के प्रभाव युक्त हैं और योगीन्दु के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। इस सम्बन्ध में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार आदि की कल्पना यह है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं।' पुनः अपभ्रंश का प्रभाव तो प्रतिलिपि करने के दौरान युग की भाषागत विशेषता के कारण आ सकता है। हम देखते हैं कि इस प्रकार के प्रभाव प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी आ गये हैं। हम कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा को किस काल की रचना मानते हैं यह प्रस्तुत आलेख का विवेच्य विषय नहीं है। हमारा प्रतिपाद्य मात्र इतना है कि गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की जो स्थिति है वह आचारांगनिर्युक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के बाद की है और षट्खण्डागम तथा पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका के पूर्व की है अर्थात् यह लगभग ५वीं शती के पूर्व की रचना है । हम यह भी मान लें कि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सातवीं शताब्दी की रचना है तो भी इतना तो माना ही जा सकता है कि उसमें कर्म - निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की ग्यारह अवस्थाओं की जो चर्चा है वह प्राचीन है और गुणस्थान के विकास की अवधारणा का आधार रही है, क्योंकि यह चर्चा दिगम्बर परम्परा में भी लगभग गोम्मटसार तक चलती रही है। ३२ षट्खण्डागम : दिगम्बर कर्म - साहित्य के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में प्राप्त होता है । इसका सत्प्ररूपणा खण्ड चौदह गुणस्थानों की विस्तृत विवेचना करता है । इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'गुणस्थान' शब्द के स्थान पर 'जीवसमास' शब्द ही प्रयुक्त हुआ है, अतः हम कह सकते हैं कि षट्खण्डागम उस काल की रचना है जब गुणस्थान सिद्धान्त विकसित तो हो चुका था किन्तु उसे गुणस्थान नाम प्राप्त नहीं हुआ था । श्वेताम्बर परम्परा में भी, समवायांग में चौदह गुणस्थानों के नाम तो उपलब्ध होते हैं किन्तु उन्हें जीवट्ठाण कहा गया है। आवश्यकनियुक्ति में जो दो प्रक्षिप्त गाथाएँ गुणस्थानों का विवरण देती हैं वे चौदह भूतग्रामों का उल्लेख होने के बाद दी गई हैं। उसमें इन चौदह अवस्थाओं को कोई नाम नहीं दिया गया है। इन दो गाथाओं को गाथाओं की क्रमसंख्या में परिगणित भी नहीं किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम और समवायांग तथा नियुक्ति का वह प्रक्षिप्त अंश एक ही काल की रचना है। समवायांग में यह अंश अन्तिम वाचना के समय ही जोड़ा गया है, ऐसा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज ३३ पं० दलसुखभाई आदि विद्वानों की अवधारणा है और उस वाचना का काल ईस्वी सन् की पाँचवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान शब्द सबसे पहले आवश्यकचूर्णि में और दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में उपलब्ध होता है। इन दोनों का काल विद्वानों ने छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध और सातवीं शती का पूर्वार्द्ध माना है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि षट्खण्डागम का काल लगभग पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध या छठीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध रहा होगा । इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम में 'गुणस्थान' नाम को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी समस्त अवधारणाएँ अपने विकसित रूप में हैं। यद्यपि हम अपने पूर्व अध्याय में यह बंता चुके हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का आधार आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म - निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएँ हैं, तथापि इस सम्बन्ध में खोजबीन के दौरान हमें इन दस अवस्थाओं का चित्रण षट्खण्डागम के चतुर्थ (वेदना) खण्ड के अन्तर्गत सप्तम वेदनाविधान की चूलिका में तथा आचारांगनिर्युक्ति की गाथा २२२ - २२३ में भी मिला है । षट्खण्डागम की चूलिका में प्रस्तुत गाथाएँ मूल ग्रन्थ का अंश न होकर कहीं से ली गई हैं और ये चूलिका में इनकी व्याख्या की गई है। सम्भावना यह है कि ये गाथाएँ आचारांगनिर्युक्ति से उसमें ली गई हों। हम यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों का ही क्वचित् विकास कसायपाहुड में हुआ है। मेरी दृष्टि में कसायपाहुड, उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् लगभग ५० से १०० वर्ष के बीच निर्मित हुआ है। यह बात भिन्न है कि हम उमास्वाति का काल क्या मानते हैं ? उमास्वाति के काल के आधार पर ही इन ग्रन्थों के काल का निर्धारण किया जा सकता है। हम सामान्य रूप से उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का काल तीसरी - चौथी शताब्दी मानते हैं और इसी आधार पर हमने इन तिथियों का निर्धारण किया है। वे लोग इन तिथियों को एकदो शताब्दी पूर्व ला सकते हैं । इतना निश्चित है कि प्रज्ञापना के काल अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी तक गुणस्थान सिद्धान्तों का विकास नहीं हुआ था, किन्तु उस काल तक कर्म-निर्जरा पर आधारित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की अवधारणा बन चुकी थी, क्योंकि तत्त्वार्थ के पूर्व आचारांगनिर्युक्ति में भी यह अवधारणा उपस्थित है । " यद्यपि षट्खण्डागम गुणस्थान सिद्धान्त का एक विकसित ग्रन्थ है फिर भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की बीजरूप वे गाथाएँ भी समाहित कर ली गई हैं, जिनसे गुणस्थान की यह अवधारणा विकसित हुई है । यहाँ हमारा उद्देश्य Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण षटखण्डागम के विकसित गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा करना नहीं है, अपितु यह दिखाना है कि षट्खण्डागम में विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के साथ-साथ वे बीज भी उपस्थित हैं जिनसे गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है। ___ अपने तत्त्वार्थसूत्र सम्बन्धी अध्ययन और लेखन के दौरान मुझे पं० परमानन्द शास्त्री का लेख “तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज'१० देखने को मिला। उसमें तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ के नवें अध्याय के ४५वें सूत्र, जिसमें कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की उन अवस्थाओं का चित्रण है, के स्रोत के रूप में षट्खण्डागम के २१८ से २२५ तक के सूत्रों को उद्धृत किया गया है। यह सन्दर्भ अपूर्ण था, क्योंकि ये सूत्र मूल-ग्रन्थ के किस खण्ड में हैं, यह नहीं बताया गया था। अत: यह सब देखने के लिये मैंने षटखण्डागम के मूलपाठ को देखने का प्रयत्न किया। चूँकि प्रस्तुत सन्दर्भ में दी गई सूत्र संख्या भी प्रकाशित षटखण्डागम के अनुरूप न थी, अत: मुझे पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा अथवा यदि कहें तो षट्खण्डागम के मूल सूत्रों का पूरा पारायण ही करना पड़ा। अन्त में मुझे षट्खण्डागम के चतुर्थ वेदनाखण्ड में उक्त सूत्र तो मिले, किन्तु वे ग्रन्थ का मूल भाग न होकर चूलिका के रूप में हैं। मेरा आश्चर्य तब और बढ़ा जब मैंने यह पाया कि ये सूत्र चूलिका की दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में है। इस अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि षटखण्डागम की पूर्व प्रचलित गाथाओं में से दो गाथाएँ लेकर के उसकी व्याख्यास्वरूप इन सूत्रों की रचना हुई है। तत्त्वार्थ की इन दस अवस्थाओं के सन्दर्भ में पं० परमानन्द शास्त्री ने षटखण्डागम के जिन सूत्रों को दिया है और उनका जो क्रम बताया है वह प्रकाशित षट्खण्डागम से मेल नहीं खाता है। तत्त्वार्थसत्र के बीजों की खोज में उन्होंने षटखण्डागम के जो सूत्र दिये हैं वे प्रकाशित ग्रन्थ के आधार पर नहीं हैं, क्योंकि उस समय तक षट्खण्डागम का प्रकाशन नहीं हुआ था। जैसा कि उनकी टिप्पणी से ज्ञात होता है, उन्होंने ये सारे सूत्र धवला सम्बन्धी पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार की नोट बुक से लिये थे। उन्होंने इन सूत्रों का क्रम २१८ से २२५ बताया है जबकि प्रकाशित षट्खण्डागमन में से सूत्र चतुर्थ वेदनाखण्ड के दूसरे वेदना अनुयोगद्वार के सातवें वेदनाभाव विधान की प्रथम चूलिका के सूत्र संख्या १७५-१८४ तक पाए जाते हैं। सूत्र संख्या के इस महत्त्वपूर्ण अन्तर से एक विचार यह आता है कि क्या हस्तप्रति में जो सूत्र मिले थे और उन्हें जो क्रम दिया गया था, उन्हें बदल दिया गया है या जिस प्रकार प्रथम सत्प्ररूपणा खण्ड में संयत पद हटा दिया गया था, उसी तरह से कुछ सूत्र जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं बैठते थे वे हटा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज दिये गए। यदि सम्प्रदाय-निरपेक्ष दृष्टि से मूल हस्तप्रतों से प्रकाशित षट्खण्डागम का मिलान कर यथार्थ स्थिति को समझने का प्रयास किया जाय तो उत्तम होगा। मेरी यह भी स्पष्ट अवधारणा है कि ये चूलिकासूत्र और उसमें दी गई मूल-गाथा ग्रन्थ में बाद में जोड़ी गई है, चाहे उसे स्वयं ग्रन्थकार ने ही जोड़ा हो। साथ ही ये दोनों गाथाएँ षट्खण्डागम की रचना से प्राचीन हैं। भले ही इनकी व्याख्या के रूप में जो सूत्र दिये गए हैं वे षटखण्डागम के अपने हो सकते हैं। ये गाथाएँ या तो नियुक्ति से या संग्रहणी गाथाओं से ही ली गई होंगी। फिर मैं इन गाथाओं के प्राचीन मूल स्रोत की खोज में लगा और मैंने पाया कि ये दोनों गाथाएँ आचारांगनियुक्ति में उसके चौथे अध्ययन की नियुक्ति के रूप में हैं। मुझे इनका अन्य कोई प्राचीन स्रोत प्राप्त होगा तो मैं पाठकों को अवश्य सूचित करूंगा। यद्यपि अभी तक आचारांगनियुक्ति से प्राचीन इनका अन्य कोई स्रोत उपलब्ध नहीं हो सका है। आचारांगनियुक्ति और षट्खण्डागम के वेदनाखण्ड की चूलिका की ये गाथाएँ एक ‘कसाय' शब्द को छोड़कर शब्दश: समान हैं। अत: सम्भावना यही है कि गाथाएँ उसी से ली गई होंगी। फिर भी पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भी उस तुलना में षट्खण्डागम की इन गाथाओं के व्याख्यासूत्र ही दिये थे, मूल गाथाएँ नहीं दी थीं। ये गाथाएँ निम्नवत् हैं - सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय विरदे अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते ।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तविवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ ।।१२ आचारांगनियुक्ति में ये गाथाएँ निम्नलिखित रूप में हैं - सम्मत्तुप्पत्ती सावए विरए अणंतकम्मंसे । दंसण मोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढ़ी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ।।१३ उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों की गाथाओं में कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है वे हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी उसी रूप में मिलती हैं। सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।। - तत्त्वार्थसूत्र ९/४७ ( विवेचक पं० सुखलालजी ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण विरत जिन आचारांगनियुक्ति एवं षट्खण्डागम । तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित दस चूलिकागाथा में वर्णित दस अवस्थाएँ अवस्थाएँ (१) . सम्यक्त्व उत्पत्ति सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक श्रावक (३) विरत (४) अनन्तवियोजक ( अणंतकम्मंसे ) अनन्तवियोजक (५) दर्शनमोहक्षपक दर्शनमोहक्षपक (६) कसाय उपशमक ( ज्ञातव्य है कि उपशमक आचारांगनियुक्ति में 'कसाय' शब्द नहीं है ) (७) उपशान्त उपशान्तमोह (८) क्षपक क्षपक (९) क्षीणमोह क्षीणमोह (१०) जिन इस प्रकार आचारांगनियुक्ति की एवं षट्खण्डागम चूलिका में उद्धृत उपर्युक्त गाथाओं में वर्णित दस अवस्थाओं की तत्त्वार्थसूत्र से न केवल भावगत अपितु शब्दगत भी समानता है। षट्खण्डागम में इन दोनों गाथाओं की व्याख्या के रूप में जो सूत्र बने हैं उनमें शब्द और भाव-स्पष्टता की दृष्टि से भी एक विकास देखा जाता है। साथ ही जहाँ उपरोक्त गाथाओं में दस अवस्थाओं का मूल चित्रण है वहाँ षट्खण्डागम के व्याख्या सूत्रों में ग्यारह अवस्थाओं का चित्रण है, जो स्वत: एक विकास का सूचक है। उसमें वर्णित ग्यारह अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं - (१) दर्शनमोह उपशमक, (२) संयतासंयत, (३) अधःप्रवृत्त ( यथाप्रवृत्त - ज्ञातव्य है कि 'अधापवत्त' का संस्कृत या हिन्दी रूपान्तर यथाप्रवृत्त है, अध:प्रवृत्त नहीं ), (४) अनन्तानुबंधी विसंयोजक, (५) दर्शनमोहक्षपक, (६) कषायउपशमक, (७) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, (८) कषायक्षपक, (९) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, (१०) अधःप्रवृत्त एवं (११) योगनिरोधकेवलीसंयत। इनकी पारस्परिक तुलना में हम पाते हैं आचारांगनियुक्ति से तत्त्वार्थ की यह विशेषता है कि उसमें 'अणंतकम्मंसे' शब्द के स्थान पर 'अनन्तवियोजक' शब्द है जो अधिक स्पष्ट है। पुन: जहाँ आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में छठे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज क्रम पर मात्र उपशमक शब्द है वहाँ षट्खण्डागम में मूल-गाथा में कषाय उपशमक शब्द है जो अधिक स्पष्ट है। मूल सूत्र इस प्रकार है - सव्वत्थोवो दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेडिंगुणो। संजदासंजदस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। अणंताणुबंधी विसंजोए तस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। दंसणमोहखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। कसायउवसामगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। उवसंतकसाय-वीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। कसायखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। । खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्थस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। आधापवत्तकेवलि संजलदस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। जोगणिरोधकेवलिसलदस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो। - षटखण्डागम, सम्पादक ब्र० पं० सुमतिबाई शहा, ___न्यायतीर्थ ४, २, ७, १७५-१८५. षट्खण्डागम के इन सूत्रों में दिये गए नामों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें गाथाओं में प्रयुक्त मूल शब्दों को अधिक स्पष्ट किया गया है। सम्यक्त्व उत्पत्ति के स्थान पर दर्शनमोह उपशमक शब्द का प्रयोग किया गया है जो उसे अधिक स्पष्ट कर देता है। इसी प्रकार श्रावक के स्थान पर संयतासंयत शब्द का प्रयोग हुआ है। हम यह देखते हैं कि बाद में भी गणस्थान सिद्धान्त में श्रावक शब्द का प्रयोग न होकर देशविरत, संयतासंयत या विरताविरत जैसे शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार तीसरे क्रम में विरत के स्थान पर अध:प्रवृत्तसंयत या यथाप्रवृत्तसंयत शब्द का प्रयोग हुआ है जो अपने में एक विशेषता रखता है। चौथे क्रम में जहाँ मूल गाथा में 'अणंतकम्मसे' शब्द है वहाँ व्याख्यासूत्र में अनन्तानुबन्धी विसंयोजक शब्द का प्रयोग हुआ है जो कि अधिक स्पष्ट है। पाँचवें और छठे क्रम के शब्द मूल-गाथाओं और व्याख्या दोनों में समान हैं, सातवें क्रम पर जहाँ गाथा में केवल 'उपशान्त' शब्द है वहाँ व्याख्यासूत्रों में 'उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ' शब्द दिया गया है। इसी प्रकार आठवें क्रम पर 'क्षपक' के स्थान पर 'कषायक्षपक' दिया गया है। नवें क्रम पर 'क्षीणमोह' के स्थान पर 'क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिससे अर्थ में एक स्पष्टता आ जाती है। दसवें क्रम पर मूल-गाथा में तथा तत्त्वार्थसूत्र में 'जिन' शब्द प्रयुक्त है, जबकि षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों में यथाप्रवृत्त 'केवली संयत' शब्द दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आगे चलकर गुणस्थान सिद्धान्त में यथाप्रवृत्त के स्थान पर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण 'सयोगी केवली' शब्द का प्रयोग होने लगा था। साथ ही जहाँ मूल गाथा में मात्र दस अवस्थाओं का चित्रण है, षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों में 'योगनिरोधकेवलीसंयत' नामक ग्यारहवाँ क्रम भी दिया गया है। यही आगे गुणस्थान सिद्धान्त में अयोगीकेवली बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलगाथा की अपेक्षा व्याख्यासूत्रों में विकास और अर्थ की स्पष्टता है। गुणस्थान सिद्धान्त के निर्माण की दृष्टि से यदि हम देखें तो षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों के इन ग्यारह स्थानों में मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्र ये तीन स्थान और जुड़कर चौदह गुणस्थानों का निर्माण हुआ है। विशेष रूप से ध्यान देने की बात यह है कि इन अवस्थाओं में भी अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक और कषायउपशामक के स्थान पर गुणस्थान सिद्धान्त में अप्रमत्तसंयत, अपर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन नए नाम आये हैं और उपशान्त कषाय और क्षपक इन दो के स्थान पर सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह ये दो अवस्थाएँ बनी हैं। इस प्रकार से षट्खण्डागम में उद्धृत मूल गाथाओं में वर्णित दस और व्याख्यासूत्रों में वर्णित ग्यारह अवस्थाएँ ही आगे चलकर चौदह गुणस्थानों का रूप लेती हैं। गुणस्थान सिद्धान्त की उपर्युक्त दस अथवा ग्यारह अवस्थाओं की एक सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि इन अवस्थाओं में पतन की कोई कल्पना नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में सास्वादन और मिश्र गुणस्थान पतन की चर्चा के परिणामस्वरूप ही अस्तित्व में आये हैं। इसी प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त और कर्म-निर्जरा के आधार पर विकसित इन दस अवस्थाओं में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि इन दस अवस्थाओं के चित्रण में दर्शनमोह और चारित्रमोह के सन्दर्भ में पहले उपशम और बाद में क्षय की अवधारणा स्वीकृत रही है। उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की बात इनमें नहीं है। ये अवस्थाएँ इस तथ्य की सूचक हैं कि पहले दर्शनमोह और चारित्रमोह का उपशम होता है और उसके बाद ही क्षय होता है। सीधे क्षायिक श्रेणी से आध्यात्मिक विकास करने की चर्चा इन दस अथवा ग्यारह अवस्थाओं में नहीं है। साथ ही यह भी माना गया है कि उपशमक सम्यक् दर्शन और उपशमक सम्यक् चारित्र के बाद ही क्षायिक सम्यक् दर्शन और क्षायिक चारित्र का विकास होता है। इन अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त के प्रकाश में अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का विकास इन्हीं अवस्थाओं या गुणश्रेणियों से हुआ है। यद्यपि षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त विकसित रूप में उपस्थित हैं, फिर भी उसमें उन बीजों को भी चूलिकासूत्रों के रूप में समाहित कर लिया Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज गया है जिनसे इस सिद्धान्त का विकास हुआ है । इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। यद्यपि यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त के इन मूल बीजों को संगृहीत करने की यह प्रवृत्ति दिगम्बर परम्परा में आगे गोम्मटसार के काल तक चलती रही है । षट्खण्डागम चूलिका में उद्धृत ये दोनों गाथाएँ गोम्मटसार के जीवकाण्ड में गाथा क्रमांक ६६-६७ में उपलब्ध होती हैं । ये गाथाएँ निम्नलिखित हैं ३९ सम्मत्तप्पत्तीये, सावयविरदे अतकम् । दंसणमोहक्खवगे, कसाय उवसामगे य उवसंते ।। खवगे य खीणमोहे, जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा । तविवरीया काला, संखेज्ज गुणक्कमा होंति ।। गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ६६-६७. इनमें दूसरी गाथा के दूसरे और चतुर्थ चरण में कुछ पाठभेद को छोड़कर सामान्यतया ये गाथाएँ षट्खण्डागम में उद्धृत गाथाओं के समान ही हैं। मेरी दृष्टि में ये गाथाएँ षट्खण्डागम की चूलिका से ही उसमें ली गई हैं। क्योंकि इन गाथाओं के टीकाकार भी षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों के अनुरूप ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं, जबकि मूल में आचारांगनिर्युक्ति एवं तत्त्वार्थसूत्र के समान दस अवस्थाएँ ही हैं। पुनः ये गाथाएँ गोम्मटसार में चौदह गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा के ठीक पश्चात् आई हैं और इनके बाद सिद्धों की चर्चा है। विषय की दृष्टि से प्रसंग होते हुए वहाँ ये गाथाएँ अनावश्यक ही प्रतीत होती हैं क्योंकि अयोगी केवली तक की चर्चा के बाद इन्हें दिया गया है। इनके देने का एकमात्र प्रयोजन इन गाथाओं के माध्यम से प्राचीन परम्परा को संरक्षित करना था। साथ ही यह निश्चित है कि ये गाथाएँ न तो षट्खण्डागम के कर्त्ता की अपनी रचनाएँ हैं और न गोम्मटसार के कर्ता की। गोम्मटसार के कर्ता ने इन्हें षट्खण्डागम से, जो मूलतः यापनीय कृति है, लिया है। यापनीयों में नियुक्तियों के अध्ययन की परम्परा थी यह बात मूलाचार से भी सिद्ध होती है। अतः सम्भावना यही है कि षट्खण्डागमकार ने इन्हें नियुक्ति से लिया हो । आचारांगनिर्युक्ति में भी ये दोनों गाथाएँ कहीं से अवतरित ही प्रतीत होती हैं। हो सकता है कि ये गाथाएँ पूर्व साहित्य या कर्म साहित्य के किसी प्राचीन ग्रन्थ का अंश रही हों और वहीं से नियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में गई हों। चूँकि निर्युक्ति साहित्य एवं तत्त्वार्थ में गुणस्थान सिद्धान्त पूर्णतः अनुपस्थित है और रचनाकाल की दृष्टि से भी ये प्राचीन हैं, अतः कर्म- निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं अथवा गुणश्रेणियों का चित्रण करने वाली इन गाथाओं का अवतरण Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण क्रम या पौर्वापर्य मेरी दृष्टि में इस प्रकार है (१) पूर्व साहित्य का कर्म - सिद्धान्त सम्बन्धी कोई ग्रन्थ, (२) आचारांगनिर्युक्ति – आर्यभद्र, ई० सन् दूसरी शती, (३) तत्त्वार्थसूत्र - उमास्वाति, ई० सन् तीसरी-चौथी शती, (४) कसायपाहुडसुत्त – गुणधर, ई० सन् चौथी शती, (५) षट्खण्डागम - पुष्पदंत - भूबलि, ई० सन् पाँचवीं - छठीं शती, (६) गोम्मटसार – नेमिचन्द्र, ई० सन् दसवीं शती का उत्तरार्ध । सन्दर्भ ४० १. मिच्छादोसद्दिट्ठी ― असंख-गुण-कम्म- णिज्जरा तत्तो अणुवयधारी तत्तो य महव्वई पढम कसाय- चउण्हं विजोजओ तह य खवय - सीलो य । दंसण- मोह-तियस्स य तत्तो उवसमग- चत्तारि ॥ खवगो य खीण- मोहो सजोइ - णाहो तहा अजोईया | एदे उवरिं उवरिं असंख-गुण-कम्म- णिज्जरया ।। कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ( ९/१०६ - १०८ ), स्वामीकुमार, टीका शुभचन्द्र, सं० डॉ० ए० एन० उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद्रराजचन्द्र आश्रम, अगास, स० १९७८ ई०. ― २. कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, पूर्वोक्त, ९/१०६-१०८. ३. वही । ४. वही, पूर्वोक्त, भूमिका, पृ० ६९-७२. ५. वही, पूर्वोक्त, भूमिका. ६. जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, वीरशासन संघ, कलकत्ता, सन् १९५६, पृ० ४९४-५००. होदि । णाणी ।। ७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १००, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, शोलापुर, १९५२ ई०. ८. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ४९७-४९९. ९. गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास, श्रमण, जनवरी - मार्च ९२, पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी १०. अनेकान्त, वर्ष ४, किरण १. - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज ११. षट्खण्डागम, सम्पादक पं० सुमतिभाई शाह, श्री श्रुत भंडार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फल्टन सन् १९३५, वेदनाखण्ड, वेदनाभाव विधान, प्रथम चूलिका, गाथा ७-८, पृ० ६२७. १२ . वही, गाथा ७-८, पृ० ६२७. १३. आचारांगनिर्युक्ति, २२-२३. ४१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास आध्यात्मिक विकास का प्रत्यय भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना महत्त्वपूर्ण आत्म- - पूर्णता की अवधारणा है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों का विवेचन हुआ है । यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि उसमें इन विभिन्न स्तरों का विवेचन व्यवहार दृष्टि से ही किया गया है। पारमार्थिक ( तत्त्व ) दृष्टि से तो परमतत्त्व या आत्मा सदैव ही अविकारी है । उसमें विकास की कोई प्रक्रिया होती ही नहीं है । वह तो बन्धन और मुक्ति, विकास और पतन से परे या निरपेक्ष है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं। आत्मा गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान नामक विकास - पतन की प्रक्रियाओं से भिन्न है । " इसी बात का समर्थन प्रोफेसर रमाकान्त त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक 'स्पिनोजा इन दि लाइट ऑफ़ वेदान्त' में किया है। स्पिनोजा के अनुसार आध्यात्मिक मूलतत्त्व न तो विकास की स्थिति में है और न प्रयास की स्थिति में । लेकिन जैन- विचारणा में तो व्यवहार- दृष्टि भी उतनी ही यथार्थ है जितनी कि परमार्थ या निश्चयदृष्टि, चाहे विकास की प्रक्रियाएँ व्यवहारनय ( पर्यायदृष्टि ) का ही विषय हों; लेकिन इससे उसकी यथार्थता में कोई कमी नहीं होती । आत्मा की तीन अवस्थाएँ जैन दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधना का लक्ष्य माना गया हैं । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना होता है । ये श्रेणियाँ साधक की साधना की ऊँचाइयों की मापक हैं, लेकिन विकास तो एक मध्य अवस्था है। उसके एक ओर अविकास की अवस्था और दूसरी ओर पूर्णता की। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने आत्मा की तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है। १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा । - आत्मा के इन तीन प्रकारों की चर्चा जैन साहित्य में प्राचीन काल से उपलब्ध है। सर्वप्रथम हमें आचार्य कुन्दकुन्द के 'मोक्षप्राभृत' ( मोक्खपाहुड ) में आत्मा की तीन अवस्थाओं की स्पष्ट चर्चा उपलब्ध होती है । यद्यपि इसके बीज हमें आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी उपलब्ध होते हैं । 'आचारांग' में यद्यपि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४३ स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं है किन्तु उसमें इन तीनों ही प्रकार की आत्माओं के लक्षणों का विवेचन उपलब्ध हो जाता है। बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मन्द और मूढ़ के नाम से अभिहित किया गया है। ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं और बाह्य विषयों में रस लेती हैं। अन्तर्मुखी आत्मा को पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी के नाम से चित्रित किया गया है। अनन्यदर्शी शब्द ही उनकी अन्तर्मुखता को स्पष्ट कर देता है। इनके लिये मुनि शब्द का प्रयोग भी हुआ है। आचारांग के अनुसार ये वे लोग हैं जिन्होंने संसार के स्वरूप को जानकर लोकेषणा का त्याग कर दिया है। पापविरत एवं सम्यग्दर्शी होना ही अन्तरात्मा का लक्षण है। इसी प्रकार आचारांग में मुक्त आत्मा के स्वरूप का विवेचन भी उपलब्ध होता है। उसे विमुक्त, पारगामी तथा तर्क और वाणी से अगम्य बताया गया है। आत्मा के इस त्रिविध वर्गीकरण का प्रमुख श्रेय तो आचार्य कुन्दकुन्द को ही जाता है।५ परवर्ती सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों ने इन्हीं का अनुकरण किया है। कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्द, हरिभद्र, आनन्दघन और यशोविजय आदि सभी ने अपनी रचनाओं में आत्मा के उपर्युक्त तीन प्रकारों का उल्लेख किया है. - १. बहिरात्मा : जैनाचार्यों ने उस आत्मा को बहिरात्मा कहा है, जो सांसारिक विषय-भोगों में रुचि रखता है। परपदार्थों में अपनत्व का आरोपण कर उनके भोगों में आसक्त बना रहता है। बहिरात्मा देहात्म बुद्धि और मिथ्यात्व से युक्त होता है। यह चेतना की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति है। २. अन्तरात्मा : बाह्य विषयों से विमुख होकर अपने अन्तर में झाँकना अन्तरात्मा का लक्षण है। अन्तरात्मा आत्माभिमुख होता है एवं स्व-स्वरूप में निमग्न रहता है। यह ज्ञाता-द्रष्टा भाव की स्थिति है। अन्तर्मुखी आत्मा देहात्म बुद्धि से रहित होता है क्योंकि वह आत्मा और शरीर अर्थात् स्व और पर की भिन्नता को भेदविज्ञान के द्वारा जान लेता है। अन्तरात्मा के भी तीन भेद किये गए हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि सबसे निम्न प्रकार का अन्तरात्मा है। देश-विरत गृहस्थ, उपासक और प्रमत्त मुनि मध्यम प्रकार के अन्तरात्मा हैं और अप्रमत्त योगी या मुनि उत्तम प्रकार के अन्तरात्मा हैं। ३. परमात्मा : कर्म-मल से रहित, राग-द्वेष का विजेता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के दो भेद किये गए हैं - अर्हत् और सिद्ध। जीवनमुक्त आत्मा अर्हत् कहा जाता है और विदेहमुक्त आत्मा सिद्ध कहा जाता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कठोपनिषद् में भी इसी प्रकार आत्मा के तीन भेद ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा किये गए हैं। तुलनात्मक दृष्टि से ज्ञानात्मा, बहिरात्मा, महदात्मा, अन्तरात्मा और शान्तात्मा परमात्मा है । ४४ मोक्षप्राभृत, नियमसार, रयणसार, योगसार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि सभी में तीनों प्रकार की आत्माओं के यही लक्षण किये गए हैं । - आत्मा की इन तीनों अवस्थाओं को क्रमश: १. मिथ्यादर्शी आत्मा, २. सम्यग्दर्शी आत्मा और ३. सर्वदर्शी आत्मा भी कहते हैं । साधना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः पतित अवस्था, साधक अवस्था और सिद्धावस्था कह सकते हैं। अपेक्षा - भेद से नैतिकता के आधार पर इन तीनों अवस्थाओं को १. अनैतिकता की अवस्था, २. नैतिकता की अवस्था और ३. अतिनैतिकता की अवस्था कहा जा सकता है। पहली अवस्था वाला व्यक्ति दुराचारी या दुरात्मा है, दूसरी अवस्था वाला सदाचारी या महात्मा है और तीसरी अवस्था वाला आदर्शात्मा या परमात्मा है | जैन दर्शन के गुणस्थान सिद्धान्तों में प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा की अवस्था का चित्रण है। चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा की अवस्था का विवेचन है । शेष दो गुणस्थान आत्मा के परमात्म स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं। पण्डित सुखलालजी इन्हें कमशः आत्मा की (१) आध्यात्मिक अविकास की अवस्था, (२) आध्यात्मिक विकास क्रम की अवस्था और (३) आध्यात्मिक पूर्णता या मोक्ष की अवस्था कहते हैं । ९ प्राचीन जैनागमों में आत्मा की इस नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की यात्रा को गुणस्थान की पद्धति द्वारा स्पष्ट किया गया है, जो न केवल साधक की विकासयात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करती है, वरन् विकासयात्रा के पूर्व की भूमिका से लेकर गन्तव्य आदर्श तक की समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के स्वगुणों या यथार्थ स्वरूप का आवरण करने वाले कर्मों में मोह का आवरण ही प्रधान है। इस आवरण के हटते ही शेष आवरण सरलता से हटाए जा सकते हैं। अत: जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक उत्क्रान्ति को अभिव्यक्त करने वाले गुणस्थान - सिद्धान्त की विवेचना इसी मोहशक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव के आधार पर की है। आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास का अर्थ है आध्यात्मिक या नैतिक पूर्णता की प्राप्ति । पारिभाषिक शब्दों में यह आत्मा का स्वरूप में स्थित हो जाना है। इसके लिये साधना के लक्ष्य या स्वरूप का यथार्थ बोध आवश्यक है। मोह की वह शक्ति जो स्वस्वरूप या आदर्श का यथार्थ बोध नहीं होने देती और जिसके कारण कर्तव्य-अकर्तव्य का यथार्थ भान नहीं हो पाता, उसे जैन दर्शन में दर्शन - मोह कहते हैं और जिसके कारण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४५ आत्मा स्वस्वरूप में स्थित होने के लिये प्रयास नहीं कर पाता अथवा नैतिक आचरण नहीं कर पाता, उसे चारित्रमोह कहते हैं। दर्शन-मोह विवेक बुद्धि का कुण्ठन है और चारित्र-मोह सत्प्रवृत्ति का कुण्ठन है। जिस प्रकार व्यवहार-जगत् में वस्तु का यथार्थ बोध हो जाने पर ही उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक-जगत् में भी सत्य का यथार्थ बोध होने पर उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है। आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं -- पहला स्व-स्वरूप और पर-स्वरूप या आत्म और अनात्म का यथार्थ विवेक करना और दूसरा स्वस्वरूप में स्थिति। दर्शन-मोह को समाप्त करने से यथार्थ बोध प्रकट होता है और चारित्रमोह पर विजय पाने से यथार्थ प्रयास का उदय होकर स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह में दर्शनमोह ही प्रबल है। यदि आत्मा इस दर्शनमोह अर्थात् यथार्थ बोध के अवरोधक तत्त्व को भेदकर एक बार स्व-स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् आत्मा को अपने गन्तव्य लक्ष्य का बोध हो जाता है, तो फिर वह स्वशक्ति से इस चारित्रमोह को भी परास्त कर स्वरूप लाभ या आदर्श की उपलब्धि कर ही लेता है। जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा को स्वस्वरूप के लाभ या आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिये दर्शनमोह और चारित्रमोह से संघर्ष करना होता है। अशुभ वृत्तियों से संघर्ष विकास के लिये आवश्यक है। इसी संघर्ष से आत्मा की विजय-यात्रा प्रारम्भ होती है। जैन विचारणा के अनुसार आत्मा स्वभाव से विकास के लिये प्रयत्नशील है। फिर भी इस संघर्ष में सदैव जयलाभ ही नहीं करता है, वरन् कभी परास्त होकर पुन: पतनोन्मुख हो जाता है। दूसरे, इस संघर्ष में सभी आत्माएँ विजयलाभ नहीं कर पाती हैं। कुछ आत्माएँ संघर्षविमुख हो जाती हैं, तो कुछ इस आत्मात्मिक संघर्ष के मैदान में डटी रहती हैं और कुछ विजयलाभ कर स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं। विशेषावश्यकभाष्य में इन तीनों अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन है - तीन प्रवासी अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे। मार्ग में भयानक अटवी में उन्हें चोर मिल गए। चोरों को देखते ही उन तीनों में से एक भाग खड़ा हुआ। दूसरा उनसे डरकर भागा तो नहीं, लेकिन संघर्ष में विजयलाभ न कर सका और परास्त होकर उनके द्वारा पकड़ा गया। लेकिन तीसरा असाधारण बल और कौशल्य से उन्हें परास्त कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया। विकासोन्मुख आत्मा ही प्रवासी है। अटवी मनुष्य-जीवन है। राग और द्वेष ये दो चोर हैं। जो आत्मा इन चोरों पर विजयलाभ करती है, वही अपने गन्तव्य को प्राप्त करने में सफल होती है। यहाँ पर हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्रण मिलता है। एक, । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण वे जो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधना के युद्धस्थल पर आते तो हैं, लेकिन साहस के अभाव में शत्रु की चुनौती का सामना न कर साधनारूपी युद्धस्थल से भाग खड़े होते हैं । दूसरे वे जो साधनारूपी युद्धक्षेत्र में डटे रहते हैं, संघर्ष भी करते हैं, फिर भी कौशल के अभाव में शत्रु पर विजय - लाभ करने में असफल होते हैं। तीसरे, वे जो साहस के साथ कुशलतापूर्वक प्रयास करते हुए साधना के क्षेत्र में विजय - श्री का लाभ करते हैं । वैदिक चिन्तन में भी इस बात को इस प्रकार प्रकट किया गया है कि कुछ साधक साधना का प्रारम्भ ही नहीं कर कुछ उसे मध्य में ही छोड़ देते हैं लेकिन कुछ उसका अन्त तक निर्वाह करते हुए अपने साध्य को प्राप्त करते हैं। लक्ष्य - उपलब्धि की यह प्रक्रिया जैनसाधना में ग्रन्थिभेद कहलाती है । ग्रन्थि-भेद का तात्पर्य आध्यात्मिक विकास में बाधक प्रगाढ़ मोह एवं राग-द्वेष की वृत्तियों का छेदन करना है। अगले पृष्ठों में हम इसी विषय पर विचार करेंगे। पाते, ४६ आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया और ग्रन्थि - भेद जैन नैतिक साधना का लक्ष्य स्व-स्वरूप में स्थित होना या आत्मसाक्षात्कार करना है। लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिये मोहविजय आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप इसी मोह से आवृत्त है। मोह के आवरण को दूर करने के लिये साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। एक सरल उदाहरण लें यह आत्मा जिस प्रासाद में रहता है उस पर मोह का आधिपत्य है। मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रासाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। प्रथम द्वार पर निःशस्त्र प्रहरी हैं। दूसरे द्वार पर सशस्त्र सबल और दुर्जेय प्रहरी हैं और तीसरे द्वार पर पुनः निःशस्त्र प्रहरी हैं। वहाँ जाकर आत्म-देव के दर्शन - लाभ के लिये व्यक्ति को तीनों द्वारों से उनके प्रहरियों पर विजय - लाभ करते हुए गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्म-साक्षात्कार है और यह तीन द्वार ही तीन ग्रन्थियाँ हैं और इन पर विजय - लाभ करने की प्रक्रिया ग्रन्थिभेद कहलाती है, जिसके क्रमशः नाम हैं। १. यथाप्रवृत्तिकरण १, २. अपूर्वकरण और ३. अनिवृत्तिकरण । - १. यथाप्रवृत्तिकरण : पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख - संवेदना जनित अत्यल्प आत्मशुद्धि को जैन शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण आत्मदेव के राजप्रासाद का वह द्वार है जिस पर निर्बल एवं निःशस्त्र द्वारपाल होता है । अनेक आत्माएँ इस संसाररूपी वन में भ्रमण करते हुए संयोगवश इस द्वार के समीप पहुँच जाती हैं और यदि मन नामक शस्त्र से Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४७ सुसज्जित होती हैं तो वह इस निर्बल, निःशस्त्र द्वारपाल को पराजित कर इस द्वार में प्रवेश पा लेती हैं। यथाप्रवृत्तिकरण प्रयास और साधना का परिणाम नहीं होता है, वरन् एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है। फिर भी यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है क्योंकि आत्म-शक्ति के प्रकटन को रोकने वाले या उसे कुण्ठित करने वाले कर्म-परमाणुओं में जैन विचारकों के अनुसार सर्वाधिक ७० क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम की काल-स्थिति मोहकर्म की मानी गयी है और यह अवधि जब गिरिनदी-पाषाण न्याय से घटकर मात्र १ क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम रह जाती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है, अर्थात् जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पाषाण खण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही आकृति को धारण कर लेता है, वैसे ही शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की संवेदना को झेलते-झेलते इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जब कर्मावरण का बहुलांश शिथिल हो जाता है तो आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण रूप शक्ति को प्राप्त होती है। यथाप्रवृत्तिकरण वस्तुत: एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में स्वनियन्त्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार एक बालक प्रकृति से ही चलने की शक्ति पाकर फिर उसी शक्ति के सहारे वांछित लक्ष्य की ओर प्रयाण कर उसे पा सकता है, वैसे ही आत्मा भी स्वाभाविक रूप में स्वनियन्त्रण की क्षमता को प्राप्त कर आगे प्रयास करे तो आत्मसंयम के द्वारा आत्मलाभ कर लेता है। यथाप्रवृत्तिकरण अर्धविवेक की अवस्था में किया गया आत्मसंयम है जिसमें व्यक्ति तीव्रतम ( अनन्तानुबन्धी ) क्रोध, मान, माया एवं लोभ पर अंकुश लगाता है। जैन विचारणा के अनुसार केवल पञ्चेन्द्रिय समनस्क ( मन सहित ) प्राणी ही यथाप्रवृत्तिकरण करने की योग्यता रखते हैं और प्रत्येक समनस्क प्राणी अनेक बार यथाप्रवृत्तिकरण करता भी है। जब प्राणी मन जैसी नियन्त्रक शक्ति को पा लेता है तो स्वाभाविक रूप से ही वह उसके द्वारा अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण का प्रयास करने लगता है। प्राणीय विकास में मन की उपलब्धि से ही बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता जाग्रत होती है और बौद्धिदता एवं विवेक की क्षमता से प्राणी वासनाओं पर अधिशासन करने लगता है। वासनाओं के नियन्त्रण का यह प्रयास विवेक-बुद्धि का स्वाभाविक लक्षण है और यहीं से प्राणीय विकास में स्वतन्त्रता का उदय होता है। यहाँ प्राणी नियति का दास न होकर उस पर शासन करने का प्रयास करता है। यहीं से चेतना की जड़ ( कर्म ) पर विजय-यात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में चेतन आत्मा और जड़कर्म संघर्ष के लिये एक दूसरे के सामने डट जाते हैं। आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करने के पूर्व Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आत्मा जिन चार शक्तियों (लब्धियों ) को उपलब्ध कर लेता है, वे हैं ( क ) क्षयोपशम : पूर्वबद्ध कर्मों में कुछ कर्मों के फल का क्षीण हो जाना अथवा उनकी विपाक शक्ति का शमन हो जाना, ४८ (ख) विशुद्धि, ( ग ) देशना : ज्ञानीजनों के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त करना और (घ) प्रयोग : आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति का एक कोड़ा - क्रोड़ी सागरोपम से कम हो जाना । जो आत्मा इस प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण नामक ग्रन्थि-भेद की क्रिया में सफल हो जाता है, वह मुक्ति की यात्रा के योग्य हो जाता है और जल्दी या देर से मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है । जो सिपाही शत्रु सेना के सामने डटने का साहस कर लेता है वह कभी न कभी तो विजय-लाभ कर ही लेता है। विजय यात्रा के अग्रिम दो चरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की अवस्था में आत्मा अशुभ कर्मों का अल्प स्थिति का एवं रुक्ष बन्ध करती है। यह नैतिक चेतना के उदय की अवस्था है। यह एक प्रकार की आदर्शाभिमुखता है। २. अपूर्वकरण : यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्मा में नैतिक चेतना का उदय होता है; विवेक-बुद्धि और संयम - भावना का प्रस्फुटन होता है । वस्तुतः यथाप्रवृत्तिकरण में वासनाओं से संघर्ष करने के लिये पूर्व-पीठिका तैयार होती है । आत्मा में इतना नैतिक साहस ( वीर्योल्लास ) उत्पन्न हो जाता है कि वह संघर्ष की पूर्व तैयारी कर वासनाओं से युद्ध करने के लिये सामने डट जाती है। कभी शत्रु को युद्ध के लिये ललकारने का भी प्रयास करती है, लेकिन वास्तविक संघर्ष प्रारम्भ नहीं होता । अनेक बार तो ऐसा प्रसंग आता है कि वासनारूपी शत्रुओं के प्रति मिथ्यामोह के जागृत हो जाने से अथवा उनकी दुर्जेयता के अचेतन भय के वश अर्जुन के समान यह आत्मा पलायन या दैन्यवृत्ति को ग्रहण कर मैदान से भाग जाने का प्रयास करती है, लेकिन जिन आत्माओं में वीर्योल्लास या नैतिक साहस की मात्रा का विकास होता है वे कृतसंकल्प हो संघर्षरत हो जाती हैं और वासनारूपी शत्रुओं के राग और द्वेषरूपी सेनापतियों के व्यूह का भेदन कर देती हैं। भेदन करने की क्रिया ही अपूर्वकरण है। राग और द्वेषरूपी शत्रुओं के सेनापतियों के परास्त हो जाने से आत्मा जिस आनन्द का लाभ करती है, वह सभी पूर्व अनुभूतियों से विशिष्ट प्रकार का या अपूर्व होता है । वस्तुतः इस अवस्था में मानसिक तनाव और संशय पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं, अतः आत्मा को एक अनुपम शान्ति का अनुभव होता है, यही अपूर्वकरण है । अब आत्मा अपनी शक्ति को बटोरकर विकास के अग्रिम चरण के लिये प्रस्थित हो जाती है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४९ वस्तुतः यह अवस्था ऐसी है जहाँ मानवीय आत्मा जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करती है। मनोविज्ञान की भाषा में चेतन अहं ( Ego ) वासनात्मक अहं ( Id ) पर विजय प्राप्त कर लेता है। यहीं से अनात्म पर विजययात्रा प्रारम्भ होती है। विकासगामी आत्मा को यहाँ प्रथम बार शान्ति का अनुभव होता है, इसलिये यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कही जाती है। इस अपूर्वकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कार्य राग और द्वेष की ग्रन्थियों का छेदन करना है क्योंकि यही तनाव या दु:ख के मूल कारण हैं। साधना के क्षेत्र में यही कार्य अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि यही वास्तविक संघर्ष की अवस्था है। मोह राजा के राजप्रासाद का यही वह द्वितीय द्वार है जहाँ सबसे अधिक बलवान एवं सशस्त्र अंगरक्षक दल तैनात हैं। यदि इन पर विजय प्राप्त कर ली जाती है तो फिर मोहरूपी राजा पर विजय पाना सहज होता है। अपूर्वकरण की अवस्था में आत्मा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित पाँच प्रक्रियाएँ करती हैं - ( क ) स्थितिघात : कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। ( ख ) रसघात : कर्म-विपाक एवं बन्धन की प्रगाढ़ता (तीव्रता) में कमी। (ग ) गुणश्रेणी : कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना ताकि विपाक काल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। (घ ) गुण-संक्रमण : कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर अर्थात् जैसे दु:खद वेदना को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना। ( च ) अपूर्वबन्ध : क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना। ३. अनिवृत्तिकरण : आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती है। इस भूमिका में आकर आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप पर रहे हुए मोह के आवरण को अनावरित कर अपने ही यथार्थ स्वरूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाता है। अनिवृत्तिकरण में पुन: १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है। अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शनमोहनीय कर्म को प्रथमत: दो भागों में विभाजित करती है। साथ ही अनिवृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दसरे भागों को भी तीन उपविभागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमश: १. सम्यक्त्वमोह, २. मिथ्यात्वमोह और ३. मिश्रमोह कहते हैं। सम्यक्त्वमोह सत्य के ऊपर श्वेत काँच का Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आवरण है, जबकि मिश्रमोह हल्के रंगीन काँच का और मिथ्यात्व मोह गहरे रंग के काँच का आवरण है। पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुणसंक्रमण नामक क्रिया करता है और मिथ्यात्वमोह की कर्म-प्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करता रहता है। सम्यग्दर्शन में उदयकाल की एक अन्तर्महर्त की समय-सीमा समाप्त होने पर पुन: दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि प्रथम (उदय) फलभोग सम्यक्त्व मोह का होता है तो आत्मा विशद्धाचरण करता हआ विकासोन्मुख हो जाता है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है और अपने अग्रिम विकास के लिये उसे पुनः ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करनी होती है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर ही लेती है। ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप यहाँ यह शंका हो सकती है कि ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया तो सम्यग्दर्शन नामक चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही हो जाती है, फिर सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में होने वाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कौन से हैं ? वस्तुत: ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में दो बार होती है। पहली प्रथम गुणस्थान के अन्तिम चरण में और दूसरी सातवें, आठवें और नवें गणस्थान में। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह दो बार क्यों होती है और पहली और दूसरी बार की प्रक्रिया में क्या अन्तर है ? वास्तविकता यह है कि जैन-दर्शन में बन्धन के प्रमुख कारण मोह की दो शक्तियाँ मानी गयी हैं - १. दर्शनमोह और २. चारित्रमोह। दर्शनमोह यथार्थ दृष्टिकोण ( सम्यग्दर्शन ) का आवरण करता है और चारित्रमोह नैतिक आचरण ( सम्यक्-चारित्र ) में बाधा डालता है। मोह के इन दो भेदों के आधार पर ही ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया भी दो बार होती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण को समाप्त करने से है, जबकि सातवें, आठवें और नवें गणस्थानों में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चारित्रमोह अर्थात् अनैतिकता को समाप्त करने से है। पहली बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यग्दर्शन का लाभ होता है, जबकि दूसरी बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक्-चारित्र का उदय होता है। एक में वासनात्मक वृत्तियों का निरोध होता है, जब कि दूसरी में दुराचरण का निरोध। एक से दर्शन ( दृष्टिकोण ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास शुद्ध होता है, दूसरी से चारित्र शुद्ध होता है। जैन - साधना की पूर्णता दर्शनविशुद्धि में न होकर चारित्रविशुद्धि में है । यद्यपि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि दर्शनविशुद्धि के पश्चात् यदि उसमें टिकाव रहा तो चारित्रविशुद्धि अनिवार्यतया होती है । सत्य के दर्शन के पश्चात् उसकी उपलब्धि एक आवश्यकता है। यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की चारित्रिक विशुद्धि और उसके फलस्वरूप मुक्ति अवश्य ही होती है। सन्दर्भ १. नियमसार, ७७. २. स्पिनोजा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त, पृ० ३८ टिप्पणी, १९९, २०४. ३. ( अ ) अध्यात्ममत परीक्षा, गा० १२५. ( ब ) योगावतार द्वात्रिंशिका, १७-१८. ( स ) मोक्खपाहुड, ४. ४. देखिए ५. मोक्खपाहुड, ४. ६. वही, ५, ८, १०, ११. ७. वही, ५, ९. ८. वही, ५, ६, १२. ९. विशेष विवेचन एवं सन्दर्भ के लिये देखिये (अ) दर्शन और चिन्तन, पृ० २७६-२७७. (ब) जैनधर्म, पृ० १४७. १०. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२११-१२१४. ११. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, १७. १२. वही, २५. - आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन ३-४. , ― ५१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा जैन- विचारधारा में आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गयी हैं १. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देश - विरत सम्यग्दृष्टि, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्तसंयत ( अप्रमत्तविरत ), ८. अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली और १४. अयोगीकेवली । प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यग्चारित्र से सम्बन्धित है । तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। इनमें भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास-क्रम से न होकर, मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करने से है। इन गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान इस अवस्था में आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है। इसमें प्राणी यथार्थबोध के अभाव के कारण बाह्य पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है और उसे आध्यात्मिक या आत्मा के आन्तरिक सुख का रसास्वादन नहीं हो पाता । अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म मानकर चलता है। । वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्य-विमुख हो भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है। नैतिक दृष्टि से इस अवस्था में प्राणी को शुभाशुभ या कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं होता है । वह नैतिक विवेक से तो शून्य होता ही है, नैतिक आचरण से भी शून्य होता है। इसी बात को पारिभाषिक शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा दर्शनमोह और चारित्रमोह की कर्म - प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ी होती है। मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ ( अनन्तानुबन्धी कषाय ) के वशीभूत रहता है । वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूप से हावी होती हैं जिनके कारण वह Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ५३ सत्य दर्शन एवं नैतिक आचरण से वंचित रहता है। जैन विचारधारा के अनुसार संसार की अधिकांश आत्माएँ मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहती हैं, यद्यपि ये भी दो प्रकार की आत्माएँ हैं - १. भव्य आत्मा - जो भविष्य में कभी न कभी यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो नैतिक आचरण के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास कर पूर्णत्व को प्राप्त कर सकेंगी और २. अभव्य आत्मा - वे आत्माएँ जो कभी भी आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास नहीं कर सकेंगी, न यथार्थ बोध ही प्राप्त करेंगी। मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा १. एकान्तिक धारणाओं, २. विपरीत धारणाओं, ३. वैनयिकता ( रूढ़ परम्पराओं ), ४. संशय और ५. अज्ञान से युक्त रहती है। इसलिये उसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति उसी प्रकार रुचि का अभाव होता है, जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को मधुर भोजन रुचिकर नहीं लगता। व्यक्ति को यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये जो करना है वह यही है कि वह ऐकान्तिक एवं विपरीत धारणाओं का परित्याग कर दे, स्वयं को पक्षाग्रह के व्यामोह से मुक्त रखे। जब व्यक्ति इतना कर लेता है, तो यथार्थ दृष्टिकोण वाला बन जाता है। वस्तुत: वह यथार्थ या सत्य प्राप्त करने की वस्तु नहीं है। वह सदैव उसी रूप में उपस्थित है, केवल हम अपने पक्षाग्रह और ऐकान्तिक व्यामोह के कारण उसे नहीं देख पाते हैं। जो आत्माएँ दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती हैं, वे अनन्त काल तक इसी वर्ग में बनी रहती हैं और अपना आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाती हैं। फिर भी इस प्रथम वर्ग की सभी आत्माएँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से समान नहीं हैं। उनमें भी तारतम्य है। पण्डित सुखलालजी के शब्दों में --- प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असद्दृष्टि कहलाती है, तथापि वह सद्दृष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गयी हैं। आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किये हैं, जिन्हें क्रमश: मित्रा, तारा, बला और दीपा कहा गया है। यद्यपि इन वर्गों में रहने वाली आत्माओं की दृष्टि असत् होती है, तथापि उनमें मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती जो अन्य आत्माओं में होती है। मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आत्मा पूर्ववर्णित यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण नामक ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है । ५४ २. सास्वादन गुणस्थान यद्यपि सास्वादन गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुत: यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है । कोई भी आत्मा इसमें प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती, वरन् जब आत्मा ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तो इस अवस्था से गुजरती है । पतनोन्मुख आत्मा को गुणस्थान तक पहुँचने की मध्यावधि में जो क्षणिक ( छ: अवली ) समय लगता है, वही इस गुणस्थान का स्थितिकाल है। जिस प्रकार फल को वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है वही समयावधि सास्वादन गुणस्थान के नाम से जानी जाती है। जिस प्रकार मिष्ठान्न खाने के अनन्तर वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता ( मिथ्यात्व ) का ग्रहण किया जाता है तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिये उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही पतनोन्मुख अवस्था में होने वाला यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन 'सास्वादन गुणस्थान' है। ३. सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान यह गुणस्थान भी विकास श्रेणी का सूचक न होकर पतनोन्मुख अवस्था काही सूचक है, जिसमें अवक्रान्ति करने वाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है । यद्यपि उत्क्रान्ति करने वाली आत्माएँ भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती हैं यदि उन्होंने कभी भी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो । जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुन: पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं वे ही आत्माएँ अपने उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं। लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व ( यथार्थ बोध ) का स्पर्श नहीं किया है वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं। क्योंकि संशय उसे हो सकता है जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थ बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झूलता रहता है। नैतिक दृष्टि से कहें तो यह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ५५ एक ऐसी स्थिति है जबकि व्यक्ति वासनात्मक जीवन और कर्तव्यशीलता के मध्य अथवा दो परस्पर विरोधी कर्तव्यों के मध्य उसे क्या करना श्रेय है, इसका निर्णय नहीं कर पाता) वस्तुत: जब व्यक्ति सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अनिर्णय की स्थिति में व्यक्ति को न सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है, न मिथ्यादृष्टि। यह भ्रान्ति की एक ऐसी अवस्था है जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि व्यक्ति यह पहचान नहीं कर पाता कि इनमें से सत्य कौन है ? फिर भी इस वर्ग में रहा हुआ व्यक्ति असत्य को सत्य रूप में स्वीकार नहीं करता है। यह अस्वीकृत भ्रान्ति है, जिसमें व्यक्ति को अपने भ्रान्त होने का ज्ञान रहता है, अत: वह पूर्णत: न तो भ्रान्त कहा जा सकता है न अभ्रान्त। जो साधक सन्मार्ग या मुक्ति पथ में आगे बढ़ते हैं, लेकिन जब उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, वे चौथी श्रेणी से गिरकर इस अवस्था में आ जाते हैं। अपने अनिश्चय की अल्प कालावधि में इस वर्ग में रहकर, सन्देश के नष्ट होने पर या तो पुन: चौथे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं या पथ-भ्रष्ट होने से पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह पाशविक एवं वासनात्मक जीवन के प्रतिनिधि इदम् ( अबोधात्मा ) और आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन ( आदर्शात्मा ) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है जिसमें चेतन मन ( बोधात्मा ) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिये स्थगित रखता है। यदि चेतन मन वासनात्मकता का पक्ष लेता है तो व्यक्ति भोगमय जीवन की ओर मुड़ता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है और यदि चेतन मन आदर्शों या नैतिक मूल्यों के पक्ष में अपना निर्णय देता है, तो व्यक्ति आदर्शों की ओर मुड़ता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है। मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है, जिसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ अथवा मानव में निहित पाशविक वृत्तियों और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है। लेकिन जैनविचारधारा के अनुसार यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट ) से अधिक नहीं रहती। यदि आध्यात्मिक एवं नैतिक पक्ष विजयी होता है तो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह चतुर्थ अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान में चला जाता है, किन्तु जब पाशविक वृत्तियाँ विजयी होती हैं तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित हो पुन: पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। इस प्रकार नैतिक प्रगति की दृष्टि से Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है; क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जागृत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक आचरण नहीं कर पाता है। इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुभ के सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति रहती है, अतः इस अवस्था में नैतिक आचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तृतीय मिश्र गुणस्थान में अर्थात् अनिश्चय की अवस्था में मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध हो सके। इस तृतीय गुणस्थान में भावी आयुकर्म का बंध नहीं होता, अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती । इस सन्दर्भ में डॉक्टर कलघाटगी कहते हैं कि इस अवस्था में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण को अपना लेता है या सम्यक् दृष्टिकोण को अपना लेता है। यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की स्थिति में अधिक नहीं रहा जा सकता। लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श करते हुए यह अनिश्चय की स्थिति दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन के चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है। आंग्ल साहित्य में शेक्सपीयर ने अपने हेमलेट नामक नाटक में राजपुत्र हेमलेट के चरित्र का जो शब्दांकन किया है वह भी सत् और असत् के मध्य अनिश्चयावस्था का अच्छा उदाहरण है। ४ ५६ ४. अविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है जिसमें साधक को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन हो जाता है । वह सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में जानता है । उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है, फिर भी उसका आचरण नैतिक नहीं होता है । वह अशुभ को अशुभ तो मानता है, लेकिन अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता । दूसरे शब्दों में वह बुराई को बुराई के रूप में जानता तो है, फिर भी पूर्व संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं पाता है। उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ( यथार्थ ) होने पर भी आचरणात्मक पक्ष असम्यक् होता है। ऐसे साधक में वासनाओं पर अंकुश लगाने की या संयम की क्षमता क्षीण होती है । वह सत्य, शुभ या न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अन्याय या अशुभ का साथ छोड़ नहीं पाता । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा महाभारत में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश हैं । जैन विचार इसी को अविरत सम्यग्दृष्टित्व कहता है। इस स्थिति की जैन व्याख्या यह है कि दर्शनमोह कर्म को शक्ति के दब जाने या उसके आवरण के विरल या क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ बोध तो हो जाता है लेकिन चारित्रमोह कर्म की सत्ता के बने रहने के कारण व्यक्ति नैतिक आचरण नहीं कर पाता। वह एक अपंग व्यक्ति की भाँति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा नैतिक मार्ग को, श्रेय के मार्ग को, जानते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाता। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अनैतिक मानते हुए भी उनसे विरत नहीं होता । फिर भी अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा में भी किसी अंश तक आत्म-संयम या वासनात्मक वृत्तियों पर संयम होता है, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि में भी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के स्थायी तथा तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है। क्योंकि जब तक कषायों के इस तीव्रतम आवेगों अर्थात् अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता तब तक उसे सम्यग्दर्शन भी प्राप्त नहीं होता। जैनविचार के अनुसार सम्यक् - अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आत्मा को निम्न सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है। १. अनन्तानुबन्धी क्रोध ( स्थायी तीव्रतम क्रोध ), २. अनन्तानुबन्धी मान ( स्थायी तीव्रतम मान ), ३. अनन्तानुबन्धी माया ( स्थायी तीव्रतम कपट ), ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ( स्थायी तीव्रतम लोभ ), ५. मिथ्यात्व मोह, ६. मिश्र मोह और ७. सम्यक्त्व मोह | आत्मा जब इन सात कर्म - प्रकृतियों को पूर्णतः नष्ट (क्षय) करके इस अवस्था को प्राप्त करता है तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है और ऐसा आत्मा इस गुणस्थान से वापस गिरता नहीं है, वरन् अग्रिम विकास - श्रेणियों से होकर अन्त में परमात्मा स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । उसका सम्यक्त्व स्थायी होता है, लेकिन जब आत्मा उपर्युक्त कर्म-प्रकृतियों का दमन कर आगे बढ़ता है और इस अवस्था को प्राप्त करता है तब उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। इसमें वासनाओं को नष्ट नहीं किया जाता, वरन् उन्हें दबाया जाता है, अतः ऐसे यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायित्व होता है और आत्मा अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट ) के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रकटीकरण पर उनके प्रबल आवेगों के वशीभूत हो यथार्थता से विमुख हो जाता है। इसी प्रकार जब वासनाओं को आंशिक रूप में क्षय करने पर और आंशिक रूप में दबाने पर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यथार्थता का जो बोध या सत्य-दर्शन होता है उसमें भी अस्थायित्व होता है क्योंकि दमित वासनाएँ पन: प्रकट होकर व्यक्ति को यथार्थ दृष्टि के स्तर से गिरा देती हैं। वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन (उपशम) पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में इस अवस्था की तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। जिस प्रकार औपशमिक एवं क्षायोपशमिक की अवस्था से सम्यक् मार्ग से पराङ्मुख होने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार स्रोतापन्न साधक भी मार्गच्युत हो सकता है। महायानी बौद्ध साहित्य में इस अवस्था की तुलना 'बोधि प्रणिधिचित्त' से की जा सकती है। जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा यथार्थ मार्ग को जानती है, उस पर चलने की भावना भी रखती है, लेकिन वास्तविक रूप में उस मार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं कर पाती, उसी प्रकार ‘बोधि प्रणिधिचित्त' में भी यथार्थ मार्गगमन की या लोकपरित्राण की भावना का उदय हो जाता है, लेकिन वह उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद से की है। बोधिसत्व का साधारण अर्थ है - ज्ञान-प्राप्ति का इच्छुक। इस अर्थ में बोधिसत्व सम्यग्दृष्टि से तुलनीय है, लेकिन यदि बोधिसत्व के लोक-कल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना की जाय तो बोधिसत्व पद उस सम्यग्दृष्टि आत्मा से तुलनीय है जो तीर्थङ्कर होने वाला है।' ५. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वैसे यह आध्यात्मिक विकास की पाँचवीं श्रेणी है, लेकिन नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है, जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है। चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्य-पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता, जबकि इस पाँचवें देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रारम्भिक प्रयास प्रारम्भ कर देता है। इसे देशविरति सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान कहा जा सकता है। देशविरति का अर्थ है – वासनामय जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति। हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ आदि कषायों से आंशिक रूप में विरत होना ही देशविरति है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा-बहुत यथाशक्ति नियन्त्रण करने का प्रयास करता है। जिसे वह उचित समझता है उस पर आचरण करने की कोशिश भी करता है। इस गुणस्थान में स्थित साधक श्रावक के बारह व्रतों का आचरण करता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती व्यक्तियों में वासनाओं एवं कषायों के आवेगों का प्रकटन तो होता है और वे उन पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, मात्र उनकी वासनाओं एवं कषायों में स्थायित्व नहीं होता। वे एक अवधि के पश्चात् उपशान्त हो जाती हैं। जैसे तृणपुंज में अग्नि तीव्रता से प्रज्वलित होती है और उस पर काबू पाना भी कठिन होता है, फिर भी एक समय के पश्चात् वह स्वयं ही उपशान्त हो जाती है। किन्तु जब तक व्यक्ति में कषायों पर नियन्त्रण की क्षमता नहीं आ जाती, तब तक वह पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिये अप्रत्याख्यानी ( अनियन्त्रणीय ) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है। जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं होती वह नैतिक आचरण नहीं कर सकता। इसी कारण नैतिक आचरण की इस भूमिका में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियन्त्रण की क्षमता का विकास होना आवश्यक समझा गया। पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें सँभलने की क्षमता भी होती है। यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो और फिसलने के अवसरों पर इस क्षमता का समुचित उपयोग करता रहे तो वह विकास-क्रम में आगे बढ़ता जाता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण अपने स्थान से गिर भी सकता है। ऐसे साधक के लिये यह आवश्यक है कि क्रोधादि कषायों की आन्तरिक एवं बाह्य अभिव्यक्ति होने पर उनका नियन्त्रण करे एवं अपनी मानसिक विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे। जो व्यक्ति चार मास के अन्दर उनका परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, वह इस श्रेणी से गिर जाता है। ६. प्रमत्त सर्वविरति सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान प्रमत्त-संयत गुणस्थान – यथार्थ बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन अदि अनैतिक आचरण से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते हैं। यह गुणस्थान सर्वविरति गुणस्थान कहा जाता है, अर्थात् इस गुणस्थान में स्थित साधक अशुभाचरण अथवा अनैतिक आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाता है। ऐसे साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का भी अभाव-सा होता है, यद्यपि आन्तरिक रूप में एवं बीज रूप में वे बनी रहती हैं। उदाहरण के रूप में क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्य रूप से तो शान्त बना रहता है तथा क्रोध को बाहर अभिव्यक्त भी नहीं होने देता और इस रूप में वह उस पर नियन्त्रण भी करता है, फिर भी क्रोधादि कषाय वृत्तियाँ उनके अन्तर-मानस को झकझोरती रहती हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ऐसी दशा में भी साधक अशुभाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णत: विजय प्राप्त करने के लिये दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। जब-जब वह कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर लेता है तब-तब वह आगे की श्रेणी ( अप्रमत्त संयत गुणस्थान ) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं तब-तब वह उस आगे की श्रेणी से पुन: लौटकर इस श्रेणी में आ जाता है। वस्तुत: यह उन साधकों का विश्रान्ति-स्थल है जो साधना-पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे बढ़ नहीं पाते। अत: इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए शक्ति-संचय करते हैं। इस प्रकार यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरत है। इसमें अशुभ मनोवृत्तियों को क्षीण करने का भरसक प्रयास किया जाता है। इस अवस्था में प्राय: आचरण-शुद्धि तो हो जाती है, लेकिन विचार (भाव) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है। इस गुणस्थानवर्ती साधनापथ में परिचारण करते हुए साधक आगे बढ़ना तो चाहता है, लेकिन प्रमाद उसमें अवरोधक बना रहता है। ऐसे साधकों को साधना के लक्ष्य का भान तो रहता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत जागरुकता की अपेक्षा है, उसका उनमें अभाव होता है।। श्रमण छठे और सातवें गुणस्थान के मध्य परिचारण करते रहते हैं। गमनागमन, भाषण, आहार, निद्रा आदि जैविक आवश्यकताओं एवं इन्द्रियों की अपने विषय की ओर चंचलता के कारण जब-जब वे लक्ष्य के प्रति सतत जागरुकता नहीं रख पाते तब-तब वे इस गुणस्थान में आ जाते हैं और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरुक बनकर सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं। वस्तुत: इस गुणस्थान में रहने का कारण देहभाव होता है। जब भी साधक में देहभाव आता है, वह सातवें से इस छठे गुणस्थान में आ जाता है। फिर भी इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में मूर्छा या आसक्ति नहीं होती। ___गुणस्थान में आने के लिये साधक को मोह-कर्म की निम्नलिखित पन्द्रह प्रकृतियों का क्षय, उपशम, क्षयोपशम करना होता है - १. स्थायी प्रबलतम ( अनन्तानुबन्धी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, २. अस्थायी किन्तु अनियन्त्रणीय ( अप्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, ३. नियन्त्रणीय ( प्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, ४. मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ६१ इस अवस्था में आत्म-कल्याण के साथ लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पदगलासक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्व-स्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करती है, लेकिन देह-भाव या प्रमाद अवरोध करता है, अत: इस अवस्था में पूर्ण आत्मजागृति सम्भव नहीं होती है, इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान आत्म-साधना में सजग वे साधक इस वर्ग में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीतभाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर नियन्त्रण कर लेते हैं। यह पूर्ण सजगता की स्थिति है। साधक का ध्यान अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती हैं। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनट से अधिक देहातीतभाव में नहीं रह पाता। दैहिक उपाधियाँ उसे विचलित कर देती हैं, अत: इस गुणस्थान में साधक का निवास अल्पकालिक ही होता है। इसके पश्चात् भी यदि वह देहातीतभाव में रहता है तो विकास की अग्रिम श्रेणियों की ओर प्रस्थान कर जाता है या देहभाव की जागृति होने पर लौटकर पुन: नीचे के छठे दर्जे में चला जाता है। अप्रमत्त-संयत गुणस्थान में साधक समस्त प्रमाद के अवसरों ( जिनकी संख्या ३७,५०० मानी गयी है- ) से बचता है। ' सातवें गुणस्थान में आत्मा अनैतिक आचरण की सम्भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिये शक्ति-संचय करती है। यह गणस्थान नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाले संघर्ष की पूर्व तैयारी का स्थान है। साधक अनैतिक जीवन के कारणों की शत्रु-सेना के सम्मुख युद्धभूमि में पूरी सावधानी एवं जागरुकता के साथ डट जाता है। अग्रिम गुणस्थान उसी संघर्ष की अवस्था के द्योतक हैं। आठवाँ गुणस्थान संघर्ष के उस रूप को सूचित करता है जिसमें प्रबल शक्ति के साथ शत्रु सेना के राग-द्वेष आदि सेना प्रमुखों के साथ ही साथ वासनारूपी शत्रु-सेना को भी बहुत कुछ जीत लिया जाता है। नवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रु-सेना पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है, फिर भी उनका राजा ( सूक्ष्म लोभ ) छद्मरूप से बच निकलता है। दसवें गणस्थान में उस पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यह विजय-यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह जिसमें शत्रु-सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह जिसमें शत्रु-सेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है। दूसरी अवस्था Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण में शत्रु - सैनिकों को पूर्णत: विनष्ट नहीं किया जाता, मात्र उनके अवरोध को समाप्त कर दिया जाता है, वे तितर-बितर कर दिये जाते हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में क्रमशः क्षायिक श्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। क्षायिक श्रेणी में मोह, कषाय एवं वासनाओं को निर्मूल करते हुए आगे बढ़ा जाता है, जबकि उपशम श्रेणी में उनको निर्मूल नहीं किया जाता, मात्र उन्हें दमित कर दिया जाता है। लेकिन यह दूसरे प्रकार की विजय यात्रा अहितकर ही सिद्ध होती है। वे वासनारूपी शत्रु - सैनिक समय पाकर एकत्र हो उस विजेता पर उस समय हमला बोल देते हैं जबकि विजेता विजय के बाद की विश्रान्ति की दशा में होता है और उसे पराजित कर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं । यह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्त मोह की अवस्था है, जहाँ से साधक पुनः पतित हो जाता है। लेकिन जो विजेता शत्रु सेना को निर्मूल करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी विजय के बाद की विश्रान्ति उसके अग्रिम विकास का कारण बनती है। इस अवस्था को क्षीण-मोह नामक बारहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। इस प्रकार सातवें गुणस्थान के बाद साधक की विजय यात्रा दो रूपों में चलती है। - ८. अपूर्वकरण यह आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हलका हो जाने के कारण आत्मा एक विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करती है । ऐसी अनुभूति पूर्व में कभी नहीं हुई होती है, अत: यह अपूर्व कही जाती है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है। मात्र बीजरूप ( संज्वलन ) माया और लोभ ही शेष रहते हैं। शेष अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषायों की तीनों चौकड़ियाँ तथा संज्वलन की चौकड़ी में से भी संज्वलन - क्रोध एवं संज्वलन - मान भी या तो क्षीण हो जाते हैं अथवा दमित (उपशमित) कर दिये जाते हैं और इस प्रकार साधक वासनाओं से काफी ऊपर उठ जाता है। अतः न केवल वह एक आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करता है, वरन् उसमें एक प्रकार की आत्मशक्ति का प्रकटन भी हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और तीव्रता को कम कर सकता है और साथ ही उसके नवीन कर्मों का बंध भी अल्पकालिक एवं अल्पमात्रा में ही होता है। इस अवसर का लाभ उठाकर इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्म-वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही फलभोग किया जा सके। साथ ही वह अशुभ फल देने वाली कर्म-प्रकृतियों को शुभ फल देने वाली कर्म - प्रकृतियों में परिवर्तित - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ६३ करता है एवं उनका मात्र अल्पकालीन बन्ध करता है। इस प्रक्रिया को जैन पारिभाषिक शब्दों में १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुण-श्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपर्व स्थितिबन्ध कहा जाता है और यह समस्त प्रक्रिया 'अपूर्वकरण' के नाम से जानी जाती है। इस गुणस्थान का यह नामकरण इसी अपूर्वकरण नामक प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। बन्धनों से बँधा हुआ कोई व्यक्ति उन बन्धनों में से अधिकांश के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है। साथ ही पहले वह जहाँ अपनी स्वशक्ति से उन बन्धनों को तोड़ने में असमर्थ था, वहीं अब वह अपनी स्वशक्ति से उन शेष रहे हए बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बन्धन-मुक्ति की निकटता से प्रसन्न होता है। ठीक इसी प्रकार इस गुणस्थान में आने पर आत्मा कर्मरूप बन्धनों के अधिकांश भाग का नाश हो जाने से एवं कषायों के विनष्ट होने से भावों की विशुद्धिरूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा स्वत: ही शेष कर्मावरणों को नष्ट करने का सामर्थ्य अनुभव कर उनको नष्ट करने के प्रयास करता है। इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकार-क्षेत्र की वस्तु मान लेता है। सदाचरण की दृष्टि से वस्तुत: सच्चे पुरुषार्थ भाव का प्रकटीकरण इसी अवस्था में होता है। यद्यपि जैन दर्शन नियति (देव) और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में एकान्तिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है, फिर भी यदि पुरुषार्थ और नियति के प्राधान्य की दृष्टि से गुणस्थान-सिद्धान्त पर विचार किया जाय तो प्रथम से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है। जैन परम्परा यह स्वीकार करती है कि यथाप्रवृत्तिकरण की पूर्व अवस्था तक जो कि सम्यक् आचरण की दृष्टि से सातवें गुणस्थान में होती है, नैतिक या चारित्रगत विकास मात्र गिरि-नदी-पाषाण न्याय से होता है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि इस गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास में संयोग की ही प्रधानता रहती है। उसमें आत्मा का स्वत: का प्रयास सापेक्षतया अल्प ही होता है। आत्मा कर्मों की श्रृंखला तथा तज्जनित वासनाओं में इतनी बुरी तरह जकड़ी होती है कि उसे स्वशक्ति के उपयोग का अवसर ही प्राप्त नहीं होता है। यहाँ तक कर्म आत्मा को शासित करते हैं। लेकिन आठवें गुणस्थान से यह स्थिति बदल जाती है। अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा अब आत्मा कर्मों पर शासन करने लगती है। अन्तिम सात गुणस्थानों में कर्मों पर आत्मा का प्राधान्य होता है। दूसरे शब्दों में प्राणि-विकास की चौदह श्रेणियों में प्रथम सात श्रेणियों तक अनात्म का आत्म पर अधिशासन होता है और अन्तिम सात श्रेणियों में आत्म का अनात्म पर अधि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण शासन होता है। गुणस्थान का सिद्धान्त आत्म और अनात्म के व्यावहारिक संयोग की अवस्थाओं का निदर्शन है। विशुद्ध अनात्म और विशुद्ध आत्म दोनों ही उसके क्षेत्र से परे हैं। ऐसे किसी उपनिवेश की कल्पना कीजिये जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो - यही प्रथम गुणस्थान है। उस पराधीनता की अवस्था में ही शासक वर्ग के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठा कर वहीं की जनता में स्वतन्त्रता की चेतना का उदय हो जाता है - यही चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में वह जनता कुछ अधिकारों की माँग प्रस्तुत करती है और कुछ प्रयासों और परिस्थितियों के आधार पर उनकी यह माँग स्वीकृत होती है। यही पाँचवाँ गुणस्थान है। इसमें सफलता प्राप्त कर जनता अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उनकी वह माँग स्वीकृत भी हो जाती है - यह छठाँ गुणस्थान है। औपनिवेशिक स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वतन्त्रता-प्राप्ति का प्रयास करती है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती है - यही सातवाँ गुणस्थान है। आगे वह अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ कर देती है। संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकी शक्ति सीमित होती है और शत्रु-वर्ग भयंकर होता है, फिर भी अपने अदभुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है - यही आठवाँ गुणस्थान है। नवाँ गुणस्थान वैसा ही है जैसे युद्ध के बाद आन्तरिक अवस्था को सुधारने और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन किया जाता है। ९. अनिवृत्तिकरण ( बादर-सम्पराय गुणस्थान ) आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ ( संज्वलन ) को छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है तथा उसके कामवासनात्मक भाव, जिन्हें जैन परिभाषा में 'वेद' कहते हैं, समूलरूपेण नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में साधक में मात्र सूक्ष्म लोभ तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा के भाव शेष रहते हैं। ये भाव नोकषाय कहे जाते हैं। साधना की इस अवस्था में भी इन भावों या नोककषायों की समुपस्थिति से कषायों के पुन: उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, क्योंकि उनके कारण अभी शेष हैं। यद्यपि साधक का उच्चस्तरीय आध्यात्मिक विकास हो जाने से यह सम्भावना भी अत्यल्प ही होती है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा १०. सूक्ष्म- सम्पराय आध्यात्मिक साधना की इस अवस्था में साधक कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा इन पूर्वोक्त छ: भावों को भी नष्ट (क्षय) अथवा दमित ( उपशान्त ) कर देता है और उसमें मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रहता है। जैन पारिभाषिक शब्दों में मोहनीय कर्म की अट्ठाइस कर्म - प्रकृतियों में से सत्ताइस कर्म-प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है, तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है। इस गुणस्थान को सूक्ष्मसम्पराय इसलिये कहा जाता है कि इसमें आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ ही शेष रहता है। लोभ के सूक्ष्म अंश के रहने के कारण ही इसका नाम सम्पराय है। डॉक्टर टाटिया के शब्दों में आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अवचेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ में की जा सकती है । " ६५ ११. उपशान्त- मोह गुणस्थान जब अध्यात्म-मार्ग का साधक पूर्व अवस्था में रहे हुए सूक्ष्म लोभ को भी उपशान्त कर देता है, तब वह इस विकास श्रेणी पर पहुँचता है। लेकिन आध्यात्मिक विकास में अग्रसर साधक के लिये यह अवस्था बड़ी खतरनाक है। विकास की इस श्रेणी में मात्र वे ही आत्माएँ आती हैं जो वासनाओं का दमन कर या उपशम श्रेणी से विकास करती हैं। जो आत्माएँ वासनाओं को सर्वथा निर्मूल करते हुए क्षायिक की श्रेणी से विकास करती हैं, वे इस श्रेणी में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में जाती हैं। यद्यपि यह नैतिक विकास की एक उच्चतम अवस्था है, लेकिन निर्वाण के आदर्श से संयोजित नहीं होने के कारण साधक का यहाँ से लौटना अनिवार्य हो जाता है। यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है, जहाँ से पतन निश्चित होता है। प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है ? वस्तुतः नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दो विधियाँ हैं एक क्षायिक विधि और दूसरी उपशम विधि। क्षायिक विधि में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है और उपशम विधि में उनको दबाकर आगे बढ़ा जाता है। एक तीसरी विधि इन दोनों के मेल से बनती है, जिसे क्षयोपशम विधि कहते हैं, जिसमें आंशिक रूप में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करके और आंशिक रूप में उन्हें दबाकर आगे बढ़ा जाता है। सातवें गुणस्थान तक तो साधक क्षायिक, औपशमिक अथवा उनके संयुक्त रूप क्षयोपशम विधि में से किसी एक द्वारा अपनी विकास-यात्रा कर लेता है, लेकिन आठवें गुणस्थान से इन विधियों का तीसरा संयुक्त रूप समाप्त हो जाता है और साधक को क्षय और उपशम विधि में से किसी एक को अपनाकर ― Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आगे बढ़ना होता है। जो साधक उपशम विधि से वासनाओं एवं कषायों को दबाकर आगे बढ़ते हैं वे क्रमशः विकास करते हुए इस ग्यारहवें उपशान्त मोह नामक श्रेणी में आते हैं । उपशम अथवा दमन के द्वारा आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों का पूर्ण निरोध हो जाता है। लेकिन उपशम या निरोध साधना का सच्चा मार्ग नहीं है। उसमें स्थायित्व नहीं होता । दुष्प्रवृत्तियाँ यदि नष्ट नहीं हुई हैं तो उन्हें कितना ही दबाकर आगे बढ़ा जाय उनके प्रकटन को अधिक समय के लिये रोका नहीं जा सकता, वरन् जैसे-जैसे दमन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उनके अधिक वेग से विस्फोटित होने की सम्भावना बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जो साधक उपशम या दमन मार्ग से आध्यात्मिक विकास करता है उसके पतन की सम्भावना निश्चित होती है। यह श्रेणी वासनाओं के दमन की पराकाष्ठा है, अतः उपशम या निरोध-मार्ग का साधक स्वल्पकाल ( ४८ मिनट ) तक इस श्रेणी में रहकर निरुद्ध वासनाओं एवं कषायों के पुनः प्रकटन के फलस्वरूप नीचे गिर जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार में लिखते हैं कि जिस प्रकार शरद् ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्ममल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्म शुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं । १० अथवा जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि वायु योग से राख के उड़ जाने पर पुनः प्रज्वलित होकर अपना काम करने लगती है, उसी प्रकार दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित हो जाती हैं और साधक पुनः पतन की ओर चला जाता है। इस सम्बन्ध में गीता और जैनाचारदर्शन का मतैक्य है । दमन अथवा निरोध एक सीमा के पश्चात् अपना मूल्य खो देते हैं। गीता कहती है दमन या निरोध से विषयों का निर्वतन तो हो जाता है, लेकिन विषयों का रस अर्थात् वैषयिक वृत्ति का निर्वतन नहीं होता । वस्तुत: उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होते हैं, संस्कारों के सर्वथा निर्मूल न होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है। इसलिये कहा गया है कि उपशम श्रेणी या दमन के द्वारा आध्यात्मिक विकास करने वाला साधक साधना के उच्च स्तर पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है । यह ग्यारहवाँ गुणस्थान पुनः पतन का है । ६६ - १२. क्षीणमोह गुणस्थान जो साधक उपशम या दमन विधि से आगे बढ़ते हैं वे ग्यारहवें Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ६७ गुणस्थान तक पहुँच कर पुन: पतित हो जाते हैं, लेकिन जो साधक क्षायिक विधि अर्थात् वासनाओं एवं कषायों का क्षय करते हुए, उन्हें निर्मूल करते हुए विकास करते हैं, वे दसवें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे बारहवें गुणस्थान में आ जाते हैं। इस वर्ग में आने वाला साधक मोह-कर्म की अट्ठाइस प्रवृत्तियों को पूर्णरूपेण समाप्त कर देता है और इसी कारण इस गणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। यहाँ पहुँचने पर साधक के लिये कोई नैतिक कर्तव्य शेष नहीं रहता है। उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाला संघर्ष सदैव के लिये समाप्त हो जाता है, क्योंकि संघर्ष के कारणरूप कोई भी वासना शेष नहीं रहती। उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णत: मुक्त हो जाता है, क्योंकि राग-द्वेष के कारण मोह समाप्त हो जाता है। इस नैतिक पूर्णता की अवस्था को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। जैन विचारणा के अनुसार मोहकर्म अष्टकर्मों में प्रधान है। वह बन्धन में डालने वाले कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति है। इसके परास्त हो जाने पर शेष कर्म भी भागने लग जाते हैं। मोह कर्म के नष्ट हो जाने के पश्चात् थोड़े ही समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण, अन्तराय ये तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं। क्षायिक मार्ग पर आरूढ़ साधक दसवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश को नष्ट कर इस बारहवें गुणस्थान में आते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त जितने अल्पकाल तक इसमें स्थित रहते हुए इसके अन्तिम चरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और. अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं। विकास की इस श्रेणी में पतन का कोई भय ही नहीं रहता। व्यक्ति विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। यह नैतिक पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो आध्यात्मिक पूर्णता भी उपलब्ध हो जाती है। विकास की शेष दो श्रेणियाँ उसी आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन नैतिकता में आध्यात्मिकता, धर्म और नैतिकता तीनों अलग-अलग तथ्य न होकर एक दूसरे से संयोजित हैं। नैतिकता क्रिया है, आचरण है और आध्यात्मिकता उसकी उपलब्धि या . फल है। विकास की यह अवस्था नैतिकता के जगत् से आध्यात्मिकता के जगत् में संक्रमित होने की है। यहाँ साधक नैतिकता की सीमा का अतिक्रमण कर विशुद्ध आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश पा जाता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १३. सयोगीकेवली गुणस्थान ___इस श्रेणी में आने वाला साधक अब साधक नहीं रहता, क्योंकि उसके लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता। लेकिन उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में अभी कुछ कमी है। अष्टकर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार घाती कर्म तो क्षय हो ही जाते ... हैं, लेकिन चार अघाती कर्म शेष रहते हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार कर्मों के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती। यहाँ बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग इन पाँच कारणों में योग के अतिरिक्त शेष चार कारण तो समाप्त हो जाते हैं, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार जिन्हें जैन दर्शन में 'योग' कहा जाता है, होते रहते हैं। इस अवस्था में मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ होती हैं और उनके कारण बन्धन भी होता है, लेकिन कषायों के अभाव के कारण टिकाव नहीं होता। पहले क्षण में बन्ध होता है, दूसरे क्षण में उसका विपाक ( प्रदेशोदय के रूप में ) होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। इस अवस्था में योगों के कारण होने वाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्म-सिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिये। इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है। यह साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैनदर्शन में अर्हत्, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है। यह वेदान्त के अनुसार जीवनमुक्ति या सदेह-मुक्ति की अवस्था है। १४. अयोगीकेवली गुणस्थान सयोगीकेवली गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने से शारीरिक उपाधियाँ (कष्ट) तो लगी रहती हैं। प्रश्न होता है कि इन शारीरिक उपाधियों को समाप्त करने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता ? इसका एक उत्तर यह है कि बारहवें गुणस्थान में साधक की सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, उसमें न जीने की कामना होती है, न मृत्यु की। वह शारीरिक उपाधियों को नष्ट करने का भी कोई प्रयास नहीं करता। दूसरे साधना के द्वारा उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है जो उदय में नहीं आये हैं अर्थात् जिनका फल-विपाक प्रारम्भ नहीं हुआ है। जिन कर्मों का फलभोग प्रारम्भ हो जाता है उनको फलभोग की मध्यावस्था में परिवर्तित या क्षीण नहीं किया जा सकता। वेदान्तिक विचारणा में भी यह तथ्य स्वीकृत है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ६९ लोकमान्य तिलक लिखते हैं -- “जिन कर्म-फलों का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला उनके भोगे बिना छुटकारा नहीं है - 'प्रारब्धकर्मणा भोगादेव क्षयः'।'' नाम ( शरीर ), गोत्र एवं आयुष्य कर्म का विपाक साधक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। साथ ही शरीर की उपस्थिति तक शारीरिक अनुभूतियों ( वेदनीय ) का भी होना आवश्यक है। अत: पुरुषार्थ एवं साधना के द्वारा इनमें कोई परिवर्तन करना सम्भव नहीं। यही कारण है कि जीवन्मुक्त भी शारीरिक उपाधियों का निष्काम भाव से उनकी उपस्थिति तक भोग करता रहता है। लेकिन जब वह इन शारीरिक उपाधियों की समाप्ति को निकट देखता है तो शेष कर्मावरणों को समाप्त करने के लिये यदि आवश्यक हो तो प्रथम केवली समुद्घात करता है और तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों का निरोध कर लेता है तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर त्याग कर निरुपाधि सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है। (इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पाँच ह्रस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, लु को मध्यम स्वर से उच्चारित करने में लगता है उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मा रहती है। यह गुणस्थान अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है, इसका अर्थ यह है कि इस अवस्था में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णत: निरोध हो जाता है। वह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म-स्थिति कहा है।१९ सन्दर्भ १. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका ( पूज्यपाद ), ८/१. २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १७. ३. योगदृष्टि समुच्चय. ४. ( अ ) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), २४, २५. ( ब ) सम प्रॉब्लम्स ऑफ जैन साइकोलॉजी, पृ० १५६. ५. योगबिन्दु, २७०. ६. बोधिपंजिका, पृ० ४२१, उद्धृत बौद्धदर्शन, आचार्य नरेन्द्रदेव, पृ० ११९. ७. योगबिन्दु, २७३-२७४. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ८. २५ विकथाएँ, २५ कषाय और नोकषाय, ६ मन सहित पाँचों इन्द्रियाँ, ५ निद्राएँ, २ राग और द्वेष, इन सबके गुणनफल से यह ३७५०० की संख्या बनती है। ९. स्टडीज़ इन जैन फिलॉसफी, पृ० २७८. १०. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गाथा ६१. ११. ज्ञानसार त्यागाष्टक ( दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० २७५ पर उद्धृत ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त गुणस्थान सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त दोनों एक दूसरे से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के बन्धन का कारण कर्म है और कर्मों के बन्ध, विपाक आदि का विवेचन कर्मसिद्धान्त करता है, अत: आत्मा की बन्धन से विमुक्ति तक की यात्रा को कर्मसिद्धान्त के अभाव में नहीं समझाया जा सकता। पुन: गुणस्थान सिद्धान्त आत्मा के आध्यात्मिक विकासक्रम को या उसकी बन्धन से विमुक्ति की यात्रा को स्पष्ट करता है। अत: गुणस्थान सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त को एक दूसरे के अभाव में नहीं समझा जा सकता है। दार्शनिक चिन्तन के इतिहास की दृष्टि से भी गुणस्थान सिद्धान्त का विकासक्रम कर्मसिद्धान्त के विकासक्रम का सहगामी है। जैसे-जैसे कर्मसिद्धान्त गहन और सूक्ष्म होता गया वैसे-वैसे गुणस्थान सिद्धान्त में गहनता और सूक्ष्मता आती गयी। कसायपाहुड और षटखण्डागम ( महाकर्मप्रकृतिशास्त्र ) मूलतः कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थ हैं, किन्तु उनकी चर्चा का प्रारम्भ गुणस्थानों के रूप में वर्णित कर्मविमुक्ति की विभिन्न अवस्थाओं से ही होता है। कसायपाहुड में चाहे स्पष्टत: गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख न हो, किन्तु उसमें सास्वादन आदि कुछ गुणस्थानों को छोड़कर अधिकांश गुणस्थानों का निर्देश उपलब्ध है। षट्खण्डागम के प्रारम्भ में भी चाहे 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु उसके 'सत्प्ररूपणा' नामक प्रथम खण्ड की सम्पूर्ण विवेचना का आधार चौदह गुणस्थानों की अवधारणा ही है। प्रारम्भ में उसमें गुणस्थानों को जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है, किन्तु आगे चलकर उसमें गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग भी मिलता है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि विभिन्न गुणस्थानों की व्याख्या के लिये उनमें होने वाले कर्मों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, क्षय, उपशम आदि की विभिन्न अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि में और श्वेताम्बर परम्परा में पाँच कर्मग्रन्थों में से दूसरे कर्मग्रन्थ – 'कर्मस्तव' में इन चौदह गुणस्थानों के प्रसंग में ही कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विचार किया गया है। कर्मस्तव नामक यह दूसरा कर्मग्रन्थ तो वस्तुत: इसी चर्चा से भरा पड़ा है कि किस गुणस्थान में कितनी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कर्मप्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम, क्षयोपशम और क्षय होता है। ७२ जैन दर्शन के अनुसार कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ लौह पिण्ड में समाविष्ट अग्नि के समान एक दूसरे में समाविष्ट हो जाना ही बन्ध है। बन्ध के पश्चात् और अपने फलविपाक अर्थात् उदय के पूर्व कर्मों की जो अवस्था होती है उसे कर्म का सत्ताकाल कहते हैं। जब कर्मवर्गणा के पुद्गल अपने सत्ताकाल के समाप्त होने पर अपना फल प्रदान करते हैं तो यह अवस्था उदय के नाम से जानी जाती है । किन्तु कर्मवर्गणा के पुद्गलों को उनके सत्ताकाल के समाप्त होने के पूर्व ही उदय में लाकर उनके फलों का भोग कर लेना उदीरणा कहा जाता है। उदय काल-लब्धि के परिपूर्ण होने पर स्वतः ही होता है, उसमें व्यक्ति का अपना कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं होता है, किन्तु उदीरणा कालावधि के पूर्व वैयक्तिक पुरुषार्थ से होती है । उदय या उदीरणा के पश्चात् जो कर्म निर्जरित या समाप्त हो जाते हैं उन्हें क्षय कहा जाता है। किन्तु कभी-कभी व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उदय में आने वाले कर्मों को अपना विपाक या परिणाम देने से रोक देता है तो वह अवस्था उपशम कहलाती है। कर्मों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम और क्षय की यह चर्चा यहाँ इसलिये आवश्यक है कि इसी के आधार पर जैन कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को समझा जा सकता है, क्योंकि कोई भी आत्मा गुणस्थानों की इन अभिन्न अवस्थाओं में आरोहण तभी कर सकता है, जब वह विभिन्न कर्मप्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करता है । किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और क्षय होता है इसे समझने के पूर्व जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्मों की बन्ध, सत्ता, उदय और उदीरणा योग्य कर्मप्रकृतियाँ कौन-कौन सी और कितनी हैं, इसे समझ लेना आवश्यक है। बन्ध - योग्य १२० कर्म - प्रकृतियाँ - ( १ ) ज्ञानावरण कर्म की पाँच कर्म प्रकृतियाँ - १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण। ( २ ) दर्शनावरण कर्म की नौ कर्म प्रकृतियाँ १. चक्षुदर्शनावरण, २. अचक्षुदर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचलाप्रचला और ९. स्त्यानर्द्धि । १. सातावेदनीय और ( ३ ) वेदनीय कर्म की दो कर्म - प्रकृतियाँ २. असातावेदनीय । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ७३ (४) मोहनीय कर्म की छब्बीस कर्म-प्रकृतियाँ - १. मिथ्यात्वमोहनीय, २. अनन्तानुबन्धी-क्रोध, ३ अनन्तानुबन्धी-मान, ४. अनन्तानुबन्धीमाया, ५. अनन्तानुबन्धी-लोभ, ६. अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, ७. अप्रत्याख्यानावरण-मान, ८. अप्रत्याख्यानावरण-माया, ९. अप्रत्याख्यानावरण-लोभ, १०. प्रत्याख्यानावरण-क्रोध, ११. प्रत्याख्यानावरण-मान, १२. प्रत्याख्यानावरण-माया, १३. प्रत्याख्यानावरण-लोभ, १४. संज्वलन-क्रोध, १५. संज्वलन-मान, १६. संज्वलन-माया, १७. संज्वलन-लोभ, १८. स्त्रीवेद, १९. पुरुषवेद, २०. नपुंसकवेद, २१. हास्य, २२. रति, २३. अरति, २४. शोक, २५. भय और २६. जुगुप्सा। (५) आयु कर्म की चार कर्म-प्रकृतियाँ - १. नारक-आयु, २. तिर्यञ्च-आयु, ३. मनुष्य-आयु और ४. देव-आयु। (६) नामकर्म की सड़सठ कर्म-प्रकृतियाँ -- १. नरक-गतिनामकर्म, २. तिर्यञ्च-गतिनामकर्म, ३. मनुष्य-गतिनामकर्म और ४. देव-गतिनामकर्म - ये चार गतिनामकर्म; ५. एकेन्द्रिय-जातिनामकर्म, ६. द्वीन्द्रिय-जातिनामकर्म, ७. त्रीन्द्रिय-जातिनामकर्म, ८. चतुरेन्द्रिय-जातिनामकर्म, ९. पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म - ये पाँच जातिनामकर्म; १०. औदारिक-शरीरनामकर्म, ११. वैक्रिय-शरीरनामकर्म, १२. आहारक्शरीरनामकर्म, १३. तैजस-शरीरनामकर्म और १४. कार्मण-शरीरनामकर्म - ये पाँच शरीरनामकर्म; १५. औदारिकअङ्गोपाङ्गनामकर्म, १६. वैक्रिय-अङ्गोपाङ्गनामकर्म, १७. आहारक-अङ्गोपाङ्गनामकर्म - ये तीन अङ्गोपाङ्गनामकर्म; १८. वज्रऋषभनाराच-संहनननामकर्म, १९. ऋषभनाराच-संहनननामकर्म, २०. नाराच-संहनननामकर्म, २१. अर्धनाराच-संहनननामकर्म, २२. कीलिका-संहनननामकर्म, २३. सेवार्त-संहनननामकर्म - ये छ: संहनननामकर्म, २४. समचतुरस्र-संस्थाननामकर्म, २५. न्यग्रोधपरिमंडल-संस्थाननामकर्म, २६. सादि-संस्थाननामकर्म, २७. वामनसंस्थाननामकर्म, २८. कुब्ज-संस्थाननामकर्म और २९. हुंडक-संस्थाननामकर्म - ये छ: संस्थाननामकर्म; ३०. वर्ण-नामकर्म, ३१. गन्ध-नामकर्म, ३२. रस-नामकर्म, ३३. स्पर्श-नामकर्म ३४. नरकानुपूर्वीनामकर्म, ३५. तिर्यगानुपूर्वीनामकर्म, ३६. मनुष्यानुपूर्वी-नामकर्म और ३७. देवानुपूर्वी-नामकर्म - ये चार आनुपूर्वीनामकर्म; ३८. शुभ-विहायोगतिनामकर्म और ३९. अशुभविहायोगतिनामकर्म - ये दो विहायोगतिनामकर्म। ये कुल उन्तालीस भेद बारहपिण्ड-प्रकृतियों के होते हैं। बन्धन-नामकर्म और संघातन-नामकर्म – इन दो पिण्ड-प्रकृतियों का समावेश शरीर-नामकर्म में ही किया जाता है। ४०. पराघात Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण नामकर्म, ४१. उपघात - नामकर्म, ४२. उच्छास- नामकर्म, ४३. आतप - नामकर्म, ४४. उद्योत - नामकर्म, ४५. अगुरुलघु- नामकर्म, ४६. तीर्थङ्कर नामकर्म, ४७. निर्माण - नामकर्म ये आठ प्रत्येक नामकर्म हैं; ४८ त्रस - नामकर्म, ४९. बादर - नामकर्म, ५० पर्याप्त नामकर्म, ५१. प्रत्येक नामकर्म, ५२. स्थिरनामकर्म, ५३. शुभ-नामकर्म, ५४. सुभग-नामकर्म, ५५. सुस्वर - नामकर्म, ५६. आदेय - नामकर्म और ५७. यशः कीर्त्ति नामकर्म ये त्रसदशकनामकर्म हैं; ५८. स्थावर - नामकर्म, ५९. सूक्ष्म-नामकर्म, ६० अपर्याप्त नामकर्म, ६१. साधारणनामकर्म, ६२. अस्थिर नामकर्म, ६३. अशुभ नामकर्म, ६४. दुर्भग- नामकर्म, ६५. दु:स्वर - नामकर्म, ६६. अनादेय-नामकर्म और ६७. अयश: कीर्तिनामकर्म ये स्थावरदशकनामकर्म हैं। इस प्रकार नामकर्म की कुल सड़सठ प्रकृतियाँ हुईं। ७४ नीचगोत्र | - ―――― ( ७ ) गोत्र - कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - ( ८ ) अन्तराय - कर्म की पाँच कर्म- प्रकृतियाँ हैं २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, और ५. १. उच्चगोत्र और २. इस प्रकार ज्ञानवरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयुष्यकर्म की ४, नामकर्म की ६७, गोत्रकर्म की २ और अन्तराय की ८, ऐसी कुल १२० कर्म - प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। ―― उदय एवं उदीरणा योग्य १२२ कर्म प्रकृतियाँ जहाँ बन्धयोग्य कर्म-प्रकृतियों की संख्या १२० हैं, वहाँ उदययोग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या १२२ है । इस अन्तर का कारण यह है कि जहाँ मोहनीय कर्म में बन्ध मात्र मिथ्यात्वमोह का होता है, वहाँ उसका उदय मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह इन तीन रूपों में होता है। मिथ्यात्व मोह के स्थान पर इन तीनों को समाहित करने पर मोहनीय कर्म की उदययोग्य कर्मप्रकृतियाँ २६ के स्थान पर २८ हो जाती हैं। इस प्रकार उदययोग्य कुल कर्मप्रकृतियाँ १२२ हो जाती हैं। इनमें जिन दो की वृद्धि हुई है, वे हैं सम्यक्त्व - मोह और मिश्र - मोह | १. दानान्तराय, वीर्यान्तराय। सत्तायोग्य १४८ कर्म - प्रकृतियाँ जैन कर्म-सिद्धान्त में जहाँ बन्ध योग्य कर्म - प्रकृतियाँ १२० और उदय योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२२ हैं, वहाँ सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियाँ १४८ हैं। इस प्रकार सत्ता योग्य कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कर्म - प्रकृतियों की अपेक्षा संख्या में २८ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ७५ अधिक और उदय योग्य कर्म-प्रकृतियों की अपेक्षा संख्या में २६ अधिक हैं। ये अधिक कर्म-प्रकृतियाँ कौन सी हैं, इसका स्पष्टीकरण पं० सुखलालजी ने द्वितीय कर्मग्रन्थ ( कर्मस्तव ) की व्याख्या में निम्न प्रकार से किया है - ___सत्ता में योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १४८ मानी जाती हैं। बन्ध योग्य या उदय योग्य कर्म-प्रकृतियों की चर्चा में पाँच बन्धनों और पाँच संघातनों की विवक्षा अलग से नहीं की गई है, किन्तु उन दसों कर्म-प्रकृतियों का समावेश पाँच शरीरनामकर्मों में किया गया है। इसी प्रकार उस चर्चा में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्म की एक-एक प्रकृति ही विवक्षित है। परन्तु इस सत्ता-प्रकरण में बन्धन तथा संघातन-नामकर्म के पाँच-पाँच भेद शरीर-नामकर्म से भिन्न माने गए हैं। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-नामकर्म की एक-एक प्रकृति के स्थान पर वर्ण की पाँच, गन्ध की दो, रस की पाँच और स्पर्श नामकर्म की आठ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गई हैं। यथा - १. औदारिक-बन्धननामकर्म, २. वैक्रिय-बन्धननामकर्म, ३. आहारक-बन्धननामकर्म, ४. तैजस-बन्धननामकर्म और ५. कार्मणबन्धननामकर्म – ये पाँच बन्धननामकर्म हैं; ६. औदारिक-संघात-नामकर्म, ७. वैक्रिय-संघातनामकर्म, ८. आहारक-संघातनामकर्म, ९. तैजस-संघातनामकर्म और १०. कार्मण-संघातनामकर्म – ये पाँच संघातनामकर्म हैं; ११. कृष्णनामकर्म, १२. नीलनामकर्म, १३. लोहितनामकर्म, १४. हरिद्र- नामकर्म और १५. शुक्लनामकर्म -- ये पाँच वर्णनामकर्म हैं; १६. सुरभि-गन्धनामकर्म और दुरभिगन्धनामकर्म - ये दो गन्धनामकर्म हैं; १८. तिक्त-रसनामकर्म, १९. कटुक-रसनामकर्म, २०. कषाय-रसनामकर्म, २१. अम्ल-रसनामकर्म, २२. मधुर-रसनामकर्म - ये पाँच रसनामकर्म हैं; २३. कर्कश-स्पर्शनामकर्म, २४. मृदु-स्पर्शनामकर्म, २५. लघु-स्पर्शनामकर्म, २६. गुरु-स्पर्शनामकर्म, २७. शीत-स्पर्शनामकर्म, २८. उष्ण-स्पर्शनामकर्म, २९. स्निग्ध-स्पर्शनामकर्म, ३०. रुक्ष-स्पर्शनामकर्म - ये आठ स्पर्शनामकर्म हैं। इस तरह उदययोग्य १२२ कर्म-प्रकृतियों में बन्धन-नामकर्म तथा संघात-नामकर्म के पाँच-पाँच भेदों को और वर्णादिक के सामान्य चार भेदों के स्थान पर उक्त २० भेदों के गिनने से कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ ( १२२+१०+१०+२०-४=१४८ ) सत्ताधिकार में होती ह प्रत्येक गुणस्थान में किन-किन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि सम्भव होते हैं, इन्हें समझने के लिये आगे कुछ तालिकाएँ दी जा रही हैं। इन तालिकाओं के सम्बन्ध में कुछ बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो प्रत्येक गुणस्थान की प्रारम्भिक और अन्तिम अवस्था में बन्ध, सत्ता, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण उदय, उदीरणा के योग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या में कभी-कभी अन्तर आ जाता है । अतः तालिका में रेखा के ऊपर दी हुई संख्या प्रारम्भिक अवस्था की सूचक है और रेखा के नीचे दी गई संख्या उस गुणस्थान के अन्तिम अवस्था की सूचक है । पुनः विकास-यात्रा में दो गुणस्थानों के बीच एक संक्रमण की अवस्था भी होती है, जो पूर्ववर्ती गुणस्थान की समाप्ति और उत्तरवर्त्ती गुणस्थान के प्रारम्भ की सूचक है। प्रस्तुत तालिकाओं में संक्रमण की अवस्था को उत्तरवर्ती गुणस्थान की प्रारम्भिक अवस्था मानकर ही चर्चा की गयी है। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान देने योग्य है कि सातवें गुणस्थान के पश्चात् जब आत्मा उपशम अथवा क्षायिक में से किसी एक श्रेणी का आश्रय लेकर अपना आध्यात्मिक विकास करता है, तो उन गुणस्थानों में श्रेणियों के अनुसार सत्ता आदि की अपेक्षा से कर्म-प्रकृतियों की संख्या में अन्तर होता है, जिन्हें भी इन तालिकाओं में स्पष्ट कर दिया गया है। सर्वप्रथम हमने एक सामान्य तालिका प्रस्तुत की है, उसके पश्चात् आठों कर्मों की उत्तर - प्रकृतियों के विवरण युक्त बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि की अलगअलग तालिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं, जिससे पाठकों को यह समझने में सुविधा होगी कि बन्ध, सत्ता आदि की अपेक्षा से अष्ट कर्मों में से किस-किस कर्म की कितनी-कितनी उत्तर - प्रकृतियाँ किस-किस गुणस्थान में होती हैं। प्रथम तालिका को छोड़कर शेष तालिकाएँ द्वितीय कर्मग्रन्थ ( कर्मस्तव ) की पं० सुखलालजी की व्याख्या से उद्धृत की जा रही हैं ७६ ―――――――― Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ७७ सत्ता क्रम गुणस्थान सत्ता क्षय/उपशम (मोहनीय की अपेक्षा) उदय उदीरणा बन्ध | सत्ता योग्यता की अपेक्षा सत्ता उपशम श्रेणी थपक ० ओघ (सामान्य) ० १. | मिथ्यात्व ० | सास्वादन ० ० ३. / मिश्र १४७ ४. | अविरत १३८ १४५ | देशविरत १३८ १४५ ६. | प्रमत्तसंयत १३८ १४५ १४८ ७. | अप्रमत्तसंयत ८. | अपूर्वकरण १४८ | अनिवृत्तिकरण १४२ ४८ १०. सूक्ष्म सम्पराय ११. उपशान्तमोह १४२ २८ का ४८ उपशम १४२ १२. | क्षीणमोह चारों घातीय कर्मों ८ की ४७ प्रकृतियों की अपेक्षा से १३. | सयोगी केवली १४. | अयोगी केवली | ४७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । - - ८. ه م س به م ه क्रम ७८ १४. अयोगी गुणस्थान १३. सयोगी गुणस्थान क्षीणमोह गुणस्थान ११. | उपशान्तमोह गुणस्थान १०. | सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान सामान्य गुणस्थान अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अपूर्वकरण ७. अप्रमत्त गुणस्थान ६. प्रमत्त गुणस्थान | देशविरत गुणस्थान | अविरत गुणस्थान मिश्र गुणस्थान सास्वादन गुणस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान गुणस्थानों के ° ० ० * * ० ० ० ० * ० ० 6 6 6 6 6 6 6 6 60G GGINANG * * * 152 6 , , , , , , , , , - < < < < < < < < m . . . . . , - मूल-प्रकृतियाँ | उत्तर-प्रकृतियाँ , , | ज्ञानावरणीय | . . दर्शनावरणीय वेदनीय बन्ध तालिका गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० 0 मोहनीय ० ० ० . . . . . आयुकर्म ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० " ० " ० " ० ०010 » "" "" नामकर्म गोत्रकर्म अन्तरायकर्म ० ० ० ० 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C MER: . क्रम १४. | अयोगी | सयोगी क्षीणमोह | उपशांतमोह सूक्ष्मसम्पराय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के नौ भागों में अपूर्वकरण अप्रमत्त | प्रमत्तसंयत देशविरत अविरत मिश्र सास्वादन मिथ्यात्व सामान्य के नाम गुणस्थानों RG MANA . . . मूल-प्रकृतियाँ aair IRRRRRRRRRRRRRRRRRRRIER उत्तर-प्रकृतियाँ ।। । । ० ० ० ० | उपशमश्रेणी Jalaika RARREAR • • • • क्षपकश्रेणी । । 5 5 5 5 5 5 5 | ज्ञानावरणीय । । in mmmmmmmmmm 0 ० ० ० ० ० ० ० ० ० दर्शनावरणीय सत्ता सम्बन्धी तालिका गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ها مر ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ة ا ه 444 ।। । IRRIRIKName : RRORI ५ . . : | मोहनीयकर्म . आयुकर्म नामकर्म 1080610016..... . بها مر به به به به به ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه naf । । . . ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ अन्तरायकर्म ७९ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० क्रम गुणस्थानों के नाम ० सामान्य १. मिथ्यात्व गुणस्थान २. सास्वादन गुणस्थान ३. मिश्र गुणस्थान ४. अविरत गुणस्थान | देशविरत गुणस्थान ५. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण उदय सम्बन्धी तालिका ६. प्रमत्त गुणस्थान ७. अप्रमत्त गुणस्थान ८. अपूर्वकरण गुणस्थान ९. अनिवृत्ति गुणस्थान ० सामान्य १. मिथ्यात्व गुणस्थान २. सास्वादन गुणस्थान ३. मिश्र गुणस्थान ४. अविरत गुणस्थान ५. देशविरत गुणस्थान ६. प्रमत्त गुणस्थान ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ८ ११. उपशान्तमोह गुणस्थान ७ ५९ ५७ ७ १२. क्षीणमोह गुणस्थान १३. सयोगीकेवली गुणस्थान ४ १४. अयोगीकेवली गुणस्थान ४ १२ ० ७. अप्रमत्त गुणस्थान ८. अपूर्वकरण गुणस्थान ९. अनिवृत्ति गुणस्थान मूल- प्रकृतियाँ उत्तर - प्रकृतियाँ J ज्ञानावरणाय दर्शनावरणीय १२२ ५ ११७५ १११ | ५ १००/५ १०४५ 22 ८७ ८१ ५ www w 5 Jr0 ५ ގ ގ ގ ७६ ५ ७२ ५ ६६ ५ ६० ५ ६ ६ ६९ ६ ६३ १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ६ ५७ ११. उपशान्तमोह गुणस्थान ५ ५६ १२. क्षीणमोह गुणस्थान ५ ५४ ५२ १३. सयोगीकेवली गुणस्थान २ ३९ १४. अयोगीकेवली गुणस्थान ० ० ५ ५ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८७ ५ ८ ८१ ५ 55 १००५ ९ १०४५ ९ ००२ mmm m m mm.00000 5 5 3550 o ५ ५ ० ७३ ५ ६ now www www w/o0 वेदनीय मोहनीय आयुकर्म नामकर्म ६ DY Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y २ उदीरणा सम्बन्धी तालिका ६ २ C २ ० २ ९ २ २ १२२५ ११७ ५ ९ २ २६ १११ ५ WWWWW २८ ४ २६ ४ ४ ५९ ४ ४ ५५ २५ २२ २२ ९ २ २८ ० ० ० x १४ १४ ० १३ ७ v w x x ≈ ~ x 2 m 9 or ०० १८ २ ४४ ० ० ० ० २ २२ २ १८ २५ ६ ० ७ २२ १४ १३ १ ० ० ० ० १ or or or or १ १ ނ އ १४ १ १ १ ३९ १ ३९ ㄨㄨㄨ १ ३९ ܡ ४ ४ 2 or २ ६७ १ १ ९ ०० ० wo6MY M ० ६४ o ५१ ० ४४ o ४२ ३९ ३८ 2002 2 ४४ ३७ १ ४२ गोत्रकर्म अन्तरायकर्म ३९ 22 २ २ २ १ ० Now ६७ ६४ ५९ ५१ २ ५५ २ ४४ २ १ १ १ १ or १ or or or १ १ ३९ १ ३९ १ ३९ १ ३७ १ or ० ३८ १ २ २ २ ५ 5 5 5 5 5 ० ५ 5 ގ ގ ގ ގ ގގ ५ 50 ० ५ ގ ގ ގ ގ ގ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ० ० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ८१ उपरोक्त तालिकाओं के आधार पर यहाँ प्रत्येक गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों की बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, क्षय आदि की अपेक्षा से क्या स्थिति होती है, इसका संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - १. मिथ्यात्व गुणस्थान - बन्धयोग्य कुल कर्म-प्रकृतियाँ १२० मानी गई हैं। इनमें से प्रथम मिथ्यात्व नामक गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म तथा आहारकद्विक् इन तीन कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष ११७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है। उदय तथा उदीरणा की अपेक्षा से उत्तरकर्म-प्रकृतियों की संख्या १२२ होती है क्योंकि बन्ध तो मात्र मिथ्यात्व मोह का होता है किन्तु उदय मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह का भी होता है। अत: उदययोग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२२ होती हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिश्रमोह, सम्यक्त्वमोह, आहारकद्विक् और तीर्थङ्कर नामकर्म इन पाँच की उदय या उदीरणा सम्भव नहीं है, अत: इस गुणस्थान में शेष ११७ कर्म-प्रकृतियों की ही उदय अथवा उदीरणा सम्भव होती है। जहाँ तक सत्ता का प्रश्न है मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि जब बन्ध योग्य प्रकृतियाँ १२० ही हैं तो फिर सत्ता योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १४८ कैसे हो सकती हैं ? इसका उत्तर यह है कि बन्ध की अपेक्षा से तो नामकर्म की प्रकृतियाँ ६७ होती हैं, किन्तु सत्ता की अपेक्षा से वे ९३ हैं। इस प्रकार नामकर्म में सत्ता की अपेक्षा से २६ कर्म-प्रकृतियाँ अधिक मानी गई हैं। उसी प्रकार मोहनीयकर्म में भी मिश्रमोह और मिथ्यात्वमोह इन दो कर्म-प्रकृतियों की सत्ता अधिक होती है। अत: नामकर्म की उपरोक्त २६ और मोहनीय कर्म की २ कुल २८ प्रकृतियाँ सत्ता में अधिक होती हैं। इस प्रकार १२० + २८ = १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। जहाँ तक मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान का प्रश्न है उसमें उन सभी १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है, क्योंकि मिथ्यात्व अवस्था में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता भी सम्भव होती है। वह जीव जिसने सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन तो कर लिया है, किन्तु यदि वह पूर्व में नरकायु का बन्ध कर चुका है तो अपने मृत्यु-काल में वह नियम से मिथ्यात्व को ग्रहण करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के अभाव में नरक में गमन सम्भव नहीं है, यद्यपि नरक में वह पुनः सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेता है। उसी अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। जहाँ तक क्षय और उपशम का प्रश्न है, मिथ्यात्व गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति का पूर्णतः क्षय या उपशम नहीं होता। यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में, जो जीव सम्यक्त्व गुणस्थान में आरोहण करते हैं, वे जीव अनन्तानुबन्धी कषाय आदि का उपशम या क्षय करते हैं। वे जीव सात कर्म-प्रकृतियों अर्थात् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह ऐसी सात कर्म - प्रकृतियों का उपशम या क्षय करके चतुर्थ गुणस्थान में आरोहण कर जाते हैं। क्षय और उपशम की जो प्रक्रिया घटित होती है, वह मिथ्यात्व गुणस्थान के चरम समय में ही घटित होती है, किन्तु उनके क्षय का उपशम होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं रह जाता है । अत: प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा से कर्म-प्रकृतियों के क्षय और उपशम की कोई चर्चा नहीं की जा सकती है। २. सास्वादन गुणस्थान प्रथम गुणस्थान के अन्त में जब जीव मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर संक्रमण करता है और वहाँ से पुनः गिरकर जब तक मिथ्यात्व को ग्रहण नहीं कर लेता तब तक नरक-त्रिक अर्थात् नरकायु, नरकगति और नरकानुपूर्वी, जाति-चतुष्क, स्थावर- चतुष्क अर्थात् स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण नामकर्म, हुंडक-संस्थान, आतपनामकर्म, सेवार्त संहनन, नपुंसक वेद और मिथ्यात्व मोह इन सोलह कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, क्योंकि ये प्रकृतियाँ मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में ही बँधती हैं, अतः सास्वादन गुणस्थान में १०९ कर्म - प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव होता है। सत्ता की अपेक्षा से तीर्थङ्कर नामकर्म को छोड़कर शेष १४७ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता सास्वादन गुणस्थान में होती है । उदय और उदीरणा की अपेक्षा से द्वितीय गुणस्थान में मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह, सम्यक्त्वमोह, तीर्थङ्करनामकर्म, आहारकद्विक, सूक्ष्मशरीर, अपर्याप्त अवस्था, साधारणशरीर, आतपनामकर्म तथा नरकानुपूर्वी इन ग्यारह कर्म-प्रकृतियों का अनुदय होने से इस गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों के उदय की सम्भावना होती है। ८२ -T ३. मिश्र गुणस्थान मिश्र गुणस्थान में सास्वादन गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ कर्म - प्रकृतियों में से भी तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानर्द्धि- त्रिक ( अर्थात् स्त्यानर्द्धि, प्रचला और प्रचलाप्रचला, दुर्भगनामकर्म, दुस्स्वरनामकर्म, अनादेय नामकर्म, अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क, मध्यम- संस्थान - चतुष्क ( मध्य के चार संस्थान ), मध्यम संहनन चतुष्क ( मध्य के चार संहनन ), नीचगोत्र, उद्योतननामकर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद इन २५ कर्म - प्रकृतियों का छेद तथा देवायु और मनुष्यायु इन दो का बन्ध सम्भव न होने से (१०१ – २७ = ७४) शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। सत्ता की अपेक्षा से तीर्थङ्कर-नामकर्म को छोड़कर इसमें भी १४७ कर्म - प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। तृतीय गुणस्थान के प्रारम्भ में उदययोग्य १२२ कर्म - प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, स्थावरनामकर्म, एकेन्द्रियनामकर्म और तीन विकलेन्द्रियनामकर्म का छेद तथा तिर्यञ्च, मनुष्य और देवानुपूर्वी का अनुदय तथा मिश्रमोह का उदय होने से शेष १११ कर्म-प्रकृतियों के उदय - उदीरणा की सम्भावना होती है । ―――― - — Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में बन्ध के योग्य १२० कर्म-प्रकृतियों में से मात्र ७७ कर्म-प्रकृतियों के बन्ध की सम्भावना होती है। वैसे तृतीय गुणस्थान में बन्ध-योग्य ७४ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गई हैं - उनमें तीर्थङ्कर-नामकर्म, मनुष्य-आयु और देव-आयु इन तीन के बन्ध की सम्भावना इस गुणस्थान में होने से इसमें बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ ७७ होती हैं। इसमें जिन ४३ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है, वे निम्नलिखित हैं - आहारकद्विक (२), नरकत्रिक (३), जातिचतुष्क (४), तिर्यश्चत्रिक (३), स्त्यानद्धित्रिक अर्थात् स्त्यानर्द्धि, प्रचला और प्रचला-प्रचला (३), हुंडकसंस्थान (१), मध्यमसंस्थानचतुष्क (४), आतपनामकर्म (१), उद्योतनामकर्म (१), स्त्रीवेद (१), नपुंसकवेद (१), सेवार्त संहनन (१), मध्यमसंहननचतुष्क (४), नीचगोत्र (१), अशुभविहायोगति (१), अनन्तानुबन्धीचतुष्क (४), स्थावरचतुष्क (४), दुर्भगत्रिक (३) और मिथ्यात्वमोह (१)- इन ४३ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, किन्तु इस अवस्था में तीर्थङ्कर-नामकर्म के बन्ध की सम्भावना रहती है। जहाँ तक विभिन्न गुणस्थानों में कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का प्रश्न है यह हम बता चुके हैं कि प्रथम गुणस्थान में १४८, द्वितीय एवं तृतीय गुणस्थानों में तीर्थङ्कर नामकर्म की असम्भावना होने से १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है। पुन: चतुर्थ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक इन सभी गुणस्थानों में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है, किन्तु इस सत्ता को जीव की बन्धन या बन्ध सम्भावना योग्यता की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। वस्तुत: तो किसी भी जीव में एक समय में दो आयु अर्थात् वर्तमान आयु और भावी जीवन की आयु से अधिक की सत्ता नहीं रहती, किन्तु उसमें यह सामर्थ्य अवश्य होती है कि वह विकल्प से किसी भी आयु का बन्ध कर सके। इस प्रकार उसमें रही हुई कर्मबन्ध की योग्यता की अपेक्षा से ही इन गुणस्थानों में भी १४८ ही कर्म-प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता मानी जाती है। यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान में सम्भव-सत्ता की अपेक्षा से तो सामान्य जीव, जिसने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है, में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता मानी जाती है, किन्तु जो चरम शरीरी आत्मा क्षपक श्रेणी का आरोहण कर उसी भव में मोक्ष जाने वाली है, फिर भी जिन्होंने अभी आरोहण प्रारम्भ किया नहीं है, उसमें १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है, क्योंकि उसमें नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु - इन तीन का विच्छेद होता है। जिस आत्मा ने चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, किन्तु अभी उसका भवभ्रमण शेष है, उसमें अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शन मोह-त्रिक का विच्छेद हो जाने से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है। जिस चरमशरीरी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जीव ने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया उसमें अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क, दर्शनमोह-त्रिक और मनुष्यायु छोड़कर आयुत्रिक - इन १० कर्म-प्रकृतियों का विच्छेद हो जाने से मात्र १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान में अधिकतम १४८ और न्यूनतम १३८ की सत्ता हो सकती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से चतुर्थ अविरति सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में १०४ कर्म-प्रकृतियों के उदय एवं उदीरणा की सम्भावना होती है। उदय और उदीरणा के योग्य १२२ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गयी हैं। चतुर्थ गुणस्थान में स्थित जीव को ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दोनों प्रकृतियों का तथा इसी प्रकार आयुष्य की चारों, गोत्र की दोनों और अन्तराय की पाँचों - इस प्रकार छह कर्मों की सभी सत्ताईस अवान्तर कर्म-प्रकृतियों का उदय तो सम्भव ही है किन्तु शेष मोहनीय कर्म की उदय-योग्य २८ प्रकृतियों में से २२ का ही उदय होता है। उसे अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का और मोहत्रिक में से मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह इन दो को मिलाकर कुल छ: प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय हो सकता है। इस प्रकार उसमें मोहनीय कर्म की २२ प्रकृतियों का ही उदय होता है। इसी प्रकार नामकर्म की भी उदय योग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से ५५ कर्म-प्रकृतियों का ही उदय होता है। नामकर्म की जिन बारह कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं होता, वे हैं - १. सूक्ष्म नामकर्म, २. अपर्याप्त नामकर्म, ३. साधारण नामकर्म, ४. आतप नामकर्म, ५. स्थावर नामकर्म, ६. एकेन्द्रियजाति नामकर्म, ७. द्वीन्द्रियजाति नामकर्म, ८. त्रीन्द्रियजाति नामकर्म, ९. चतुरेन्द्रियजाति नामकर्म, १०. आहारक शरीर, ११. आहारक अङ्गोपाङ्ग और १२. अर्धनाराच नामकर्म। इस प्रकार उदय योग्य १२२ में से मोहनीय की छह और नामकर्म की १२ – कुल १८ कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं होता है और मात्र १०४ कर्मप्रकृतियों का उदय होता है और उतनी ही उदीरणा भी सम्भव है। चतुर्थ गुणस्थान में उदय-योग्य और उदीरणा-योग्य कर्म-प्रकृतियों की संख्या समान होती है। ५. देशविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में बन्ध-योग्य १२० कर्म-प्रकृतियों में से ६७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ही सम्भव है। इसमें ज्ञानावरणीय की तो पाँचों कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है किन्तु मोहनीय कर्म की बन्ध-योग्य २६ कर्म-प्रकृतियों में से मात्र १५ का ही बन्ध होता है। इसमें मोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और अप्रत्याख्यानी कषायचतुष्क, मिथ्यात्वमोह, नपुंकसकवेद और स्त्रीवेद इन ग्यारह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, शेष पन्द्रह का होता है। आयुष्क कर्म की चार में से केवल एक देवायु का बंध ही होता है, शेष तीन नरकायु, तिर्यश्चायु और मनुष्यायु का बन्ध इनमें नहीं होता है तथा नामकर्म Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की ६७ कर्म-प्रकृतियों में से निम्नलिखित मात्र ३२ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध इस गुणस्थान में होता है - १. देवगति नामकर्म, २. पञ्चेन्द्रिय-जाति नामकर्म, ३. वैक्रिय-शरीर नामकर्म, ४. तैजसशरीर नामकर्म, ५. कार्मणशरीर नामकर्म, ६. वैक्रियअङ्गोपांग नामकर्म, ७. वज्रऋषभनाराच संहनन नामकर्म, ८. समचतुरस्र संस्थान नामकर्म, ९. हुंडकसंस्थान नामकर्म, १०. वर्ण नामकर्म, ११. गन्ध नामकर्म, १२. रस नामकर्म, १३. स्पर्श नामकर्म, १४. देवानुपूर्वी नामकर्म, १५. शुभविहायोगति नामकर्म, १६. पराघात नामकर्म, १७. उपघात नामकर्म, १८. उच्छास नामकर्म, १९. उद्योत नामकर्म, २०. अगुरुलघु नामकर्म, २१. तीर्थङ्कर नामकर्म, २२. निर्माण नामकर्म, २३. त्रस नामकर्म, २४. बादर नामकर्म, २५. पर्याप्त नामकर्म, २६. प्रत्येक नामकर्म, २७. स्थिर नामकर्म २८. शुभ नामकर्म, २९. सुभग नामकर्म, ३०. सुस्वर नामकर्म, ३१. आदेय नामकर्म एवं ३२. यश:कीर्ति नामकर्म। शेष गतित्रिक (देवगति को छोड़कर शेष तीन गति), आनुपूर्वीत्रिक (देवगति को छोड़कर), जातिचतुष्क, औदारिक द्विक, आहारक द्विक, पंच संहनन, संस्थान चतुष्क, अशुभ विहायोगति, आतप नामकर्म और स्थावर दशक इन ३५ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध इसमें नहीं होता है। गोत्रकर्म में मात्र उच्च गोत्रकर्म और अन्तराय कर्म में पाँचों की अन्तरायों का बन्ध इस गुणस्थान में सम्भव है। इस प्रकार इस गुणस्थान में क्रमश: ५+६+२+१५+१+३२+१+५ = ६७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है। सत्ता योग्य १४८ कर्म-प्रकृतियों में सम्भव-सत्ता की दृष्टि से तो इस गणस्थान में भी १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गयी है। यद्यपि अचरमशरीरी क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव में अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय होने से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है। जो जीव चरम शरीरी हैं उनमें मनुष्य आयु को छोड़कर तीन आयु की भी सत्ता नहीं रहती। इसलिये उनकी अपेक्षा से इस गुणस्थान में भी १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही गयी है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ८७ कर्म-प्रकृतियों की ही उदय और उदीरणा सम्भव मानी गयी है। इसमें ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ और वेदनीय की दो, जो उदय योग्य कर्म-प्रकृतियाँ हैं उन सभी का उदय सम्भव है। मोहनीय कर्म की उदय योग्य २८ कर्म-प्रकृतियों में से इस गुणस्थान में १८ कर्म-प्रकृतियों का ही उदय सम्भव होता है। इसमें अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और अप्रत्याख्यानी कषायचतुष्क तथा मिथ्यात्व मोह और मिश्र मोह इन दस कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं होता। आयुष्य कर्म में भी मनुष्य आयु अथवा तिर्यञ्च आयु का ही उदय सम्भव Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण है, शेष दो का नहीं । नामकर्म की ६७ कर्म - प्रकृतियों में से निम्नलिखित २३ कर्म-प्रकृतियों का उदय उसमें नहीं होता १. देवगति, २. देव आनुपूर्वी, ३. नरकगति, ४. नरक आनुपूर्वी, ५. मनुष्य आनुपूर्वी, ६ तिर्यञ्च आनुपूर्वी, ७ . - १०. एकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय जाति नामकर्म चतुष्क, ११. आहारक शरीर, १२. आहारक अंगोपांग, १३. वैक्रिय शरीर, १४. वैक्रिय अंगोपांग, १५. स्थावर नामकर्म, १६. सूक्ष्म नामकर्म, १७. साधारण नामकर्म, १८. अपर्याप्त नामकर्म, १९. दुर्भग नामकर्म, २०. आनादेय नामकर्म, २१. अयशकीर्ति नामकर्म, २२. आतप नामकर्म और २३. अर्धनाराच संहनन । अत: मात्र नामकर्म की ४४ कर्म - प्रकृतियों का ही उदय माना गया है। यद्यपि गोत्र कर्म की दोनों और अन्तराय कर्म की पाँचों कर्म-प्रकृतियों का उदय सम्भव है । इस प्रकार इस गुणस्थान में ५+९+२+१८+२+४४ +२+५ = ८७ कर्म - प्रकृतियों का उदय सम्भव है । यही स्थिति उदीरणा के सम्बन्ध में भी है। क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक उदय और उदीरणा की कर्म - प्रकृतियाँ समान ही होती हैं । ८६ ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्रमत्तसंयत गुणस्थान में देशविरत गुणस्थान में स्वीकृत ६७ कर्म - प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानी कषायचतुष्क का भी बन्ध नहीं होता। इस प्रकार इसमें मात्र ६३ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध माना गया है। ज्ञानावरणीय की पाँचों, दर्शनावरणीय की स्सानगृद्धि त्रिक को छोड़कर शेष छह, वेदनीय की दोनों, मोहनीय की अट्ठाईस में मात्र ग्यारह ( संज्वलन चतुष्क और नपुंसक वेद एवं स्त्रीवेद को छोड़ कर शेष ७ नोकषाय, ४+७ = ११), आयुष्य कर्म की एकमात्र देवायु, नामकर्म की पञ्चम गुणस्थान में वर्णित बत्तीस, गोत्रकर्म की एकमात्र उच्चगोत्र और अन्तराय की पाँचों, इस प्रकार ५ +६+२+११+१+ ३२+ १+५ = ६३ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध ही सम्भव होता है । जहाँ तक सत्ता का प्रश्न है पूर्व गुणस्थान के समान ही इसमें भी सम्भव - सत्ता की अपेक्षा से तो १४८ ही कर्म-प्रकृतियों की सम्भव - सत्ता है, यद्यपि चरम शरीरी जीव में मनुष्य आयु के अतिरिक्त अन्य आयुत्रिक ( देवायु, तिर्यञ्चायु एवं नरकायु ) की अपेक्षा से १४५ कर्म - प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता होती है। अचरम शरीरी क्षायिक श्रेणी वाले जीव में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय होने से १४१ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता होती है । जो चरम शरीरी जीव क्षायिक सम्यक्त्व के धारक होकर क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है, उनमें इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, दर्शनत्रिक और मनुष्यायु को छोड़कर शेष आयुत्रिक की सत्ता नहीं होती है। इस अपेक्षा से इनमें १३८ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता भी मानी गयी है । उदय और उदीरणा की अपेक्षा से प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ८१ कर्मप्रकृतियों का उदय अथवा उदीरणा सम्भव है। इसमें मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ८७ में से १४ का ही उदय होता है, शेष अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, अप्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क, प्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क तथा मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह आदि १४ कर्म-प्रकृतियों का उदय अथवा उदीरणा सम्भव नहीं होती। इसी प्रकार नामकर्म की उदययोग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से इस गणस्थान में ४४ का ही उदय सम्भव होता है। इसमें पूर्ववर्ती देशविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान की नामकर्म की उदययोग्य ४४ में से तिर्यञ्च गति और उद्योत नामकर्म का उदय नहीं होता है, किन्तु आहारक द्विक का उदय होने से नामकर्म की उदययोग्य ४४ प्रकृतियाँ ही होती हैं। शेष ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, आयुष्य की एक मनुष्य-आयु, गोत्र की एक उच्चगोत्र और अन्तराय की पाँच -- इस प्रकार कुल ८१ कर्म-प्रकृतियों का उदय या उदीरणा सम्भव है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - इस सातवें गुणस्थान में छठे गुणस्थान की बन्धयोग्य ६३ कर्म-प्रकृतियों में से प्रारम्भ में ५९ या ५८ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव है। क्योंकि चरमशरीरी जीव किसी भी आयुष्य का बन्ध नहीं करता है। इस गुणस्थान में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की निद्रात्रिक को छोड़कर शेष छह का, वेदनीय में साता वेदनीय का, मोहनीय में नौ नोकषायों का, आयुष्यकर्म में देवआयु का, गोत्र कर्म में उच्चगोत्र का तथा पाँचों अन्तरायों का तथा नामकर्म की ३१ प्रकृतियों का, इस प्रकार कुल ५० कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है। इस गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ तो साधक नहीं करता है किन्तु यदि पूर्व गुणस्थान में उसका प्रारम्भ किया हो तो यहाँ उसका अन्त करता है और इस अपेक्षा से इस गुणस्थान के प्रारम्भ में ५९ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव होता है। अन्यथा चरमशरीरी या जो आयुष्यकर्म का बन्ध कर चुका है उसे तो ५८ का ही बन्ध होता है। सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान में भी उपशम श्रेणी वाले जीव में मोहत्रिक और कषायचतुष्क का उपशम होने से १४१ अनुपशमित कर्म-प्रकृतियों की और तीर्थङ्कर व्यतिरिक्त क्षपक श्रेणी वाले जीव में प्रारम्भ में मोहत्रिक का क्षय होने से १४५ की और अन्त में मोहत्रिक, गतित्रिक, आयुत्रिक, तीर्थङ्कर- नामकर्म इन १० का विच्छेद होने से १३८ कर्म-प्रकृतियाँ की सत्ता शेष रहती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से इस गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ८१ प्रकृतियों में से निद्रा-त्रिक और आहारकद्विक ये ५ प्रकृतियाँ कम होने से अधिकतम ७६ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है किन्तु उदीरणा मात्र ७३ कर्म-प्रकृति की ही होती है। इस गुणस्थान में ऐसे अध्यवसाय सम्भव नहीं हैं, जिनसे वेदनीय द्विक और आयुष्यकर्म की उदीरणा हो सके। अत: सातवें गुणस्थान में उदय की अपेक्षा से उदीरणा की कर्म-प्रकृतियों की संख्या में तीन की कमी हो जाती है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ८. अपूर्वकरण - इस गुणस्थान के प्रारम्भ में तो ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है किन्तु मध्य में ५६ का और अन्त में मात्र २६ कर्म- प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव रह जाता है, क्योंकि इसके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार ( पाँचों निद्राओं को छोड़कर ), वेदनीय की एक ( मात्र सातावेदनीय ), मोहनीय की नौ नोकषाय तथा नामकर्म की एक, गोत्रकर्म की एक तथा अन्तरायकर्म की पाँच कर्म-प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य रह पाती हैं। इस प्रकार इस गुणस्थान के अन्त में बन्धयोग्य कर्म-प्रकृतियाँ मात्र २६ रह जाती हैं। इस गणस्थान में बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियों में सबसे बड़ी कमी नामकर्म की प्रकृतियों में होती है। इसकी पूर्व गुणस्थान में बन्धयोग्य ३१ में मात्र एक कर्म-प्रकृति ही शेष रहती है। सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान के प्रारम्भ में अधिकतम १४८ और न्यूनतम १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। यद्यपि जो साधक श्रेणी प्रारम्भ कर लेते हैं उनमें उपशम श्रेणी वालों में १३९ और क्षपक श्रेणी वालों को १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता प्रारम्भ में रहती है किन्तु क्षपक श्रेणी वाले जीवों में इस गुणस्थान के अन्त में मात्र १०३ कर्म-प्रकृतियों की ही सत्ता शेष रहती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ७६ कर्म-प्रकृतियों में से सम्यक्त्व मोह और अन्त के तीन संहनन कम होने से इस गुणस्थान में उदययोग्य ७२ और उदीरणायोग्य ६९ कर्म-प्रकृतियाँ ही शेष रहती हैं। ९. अनिवृत्तिकरण - अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान के प्रारम्भ में अधिकतम २२ कर्म-प्रकृतियाँ का बन्ध सम्भव होता है। किन्तु इस गुणस्थान के अन्त में मात्र १८ कर्म-प्रकृतियों के बन्ध की ही सम्भावना रहती है। उनमें ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार, वेदनीय की एक (सातावेदनीय), मोहनीय की एक (सूक्ष्मलोभ), नामकर्म की एक और गोत्रकर्म की एक (उच्चगोत्रकर्म) तथा अन्तराय की पाँच इस प्रकार कुल १८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। जहाँ तक सत्ता का प्रश्न है इसके प्रारम्भ में १३८ और अन्त में १०३ कर्म-प्रकृतियों की ही सत्ता शेष रह सकती है। ज्ञातव्य है कि इस गणस्थान के प्रारम्भ में जहाँ मोहनीय कर्म की २१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है वहाँ इस गुणस्थान के अन्त में मात्र मोहनीय कर्म की २ कर्मप्रकृतियों की सत्ता शेष रह सकती है। एक सूक्ष्मलोभ और दूसरा तीन वेदों में से कोई एक वेद। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ७२ कर्म-प्रकृतियों में से हास्यषटक् कम होने से इस गुणस्थान में उदय की अपेक्षा से ६६ कर्म-प्रकृतियों का उदय और उदीरणा की अपेक्षा से ६३ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है। उदय का विवरण इस प्रकार है --- ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की छह ( स्त्यानगृद्धि-त्रिक को छोड़कर ), वेदनीय की दो, मोहनीय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की सात ( तीन वेद और संज्वलन चतुष्क ), आयुष्य की एक, नामकर्म की उन्तालिस, गोत्र की एक, अन्तराय की पाँच - इस प्रकार कुल ६६ कर्मप्रकृतियों का उदय सम्भव होता है। उदय की अपेक्षा उदीरणा में तीन प्रकृतियाँ इसलिये कम होती हैं कि सातवें गुणस्थान से आगे उदीरणा में वेदनीय द्विक और मनुष्य-आयु की उदीरणा सम्भव नहीं होती है, क्योंकि ऐसे अध्यवसाय ही नहीं होते हैं, जिससे उनकी उदीरणा की जा सके। १०. सूक्ष्मसम्पराय - सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार, वेदनीय की एक, नामकर्म की एक, गोत्रकर्म की एक और अन्तराय की पाँच - इस प्रकार कुल १७ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव है। सत्ता की अपेक्षा से अधिकतम १४८ और न्यूनतम उपशम श्रेणी में १३९ और क्षपकश्रेणी में १०२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है इसमें उदय की अपेक्षा से ६० और उदीरणा की अपेक्षा से ५७ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है। इस गुणस्थान में नवें गुणस्थान की उदययोग्य ६६ कर्म-प्रकृतियों में से संज्वलनत्रिक और वेदत्रिक का विच्छेद होने से मात्र ६० कर्म-प्रकृतियों का ही उदय सम्भव होता है। उदीरणा में वेदनीय द्विक और मनुष्य आयु इन तीन की उदीरणा न होने से मात्र ५७ कर्मप्रकृतियाँ ही उदीरणा योग्य रहती हैं। ११. उपशान्तमोह - उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा से मात्र सातावेदनीय नामक एक कर्मप्रकृति का बन्ध सम्भव होता है। शेष किसी कर्म-प्रकृति का बन्ध इस गुणस्थान में नहीं होता। यद्यपि सत्ता में योग्यता की अपेक्षा से इस गुणस्थान में भी अधिकतम १४८ और उपशम श्रेणी की अपेक्षा से १३९ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। इस गुणस्थान में क्षपक श्रेणी नहीं होती। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, सूक्ष्म लोभ के समाप्त हो जाने से इस गुणस्थान में उदय की अपेक्षा से पूर्व गुणस्थान से एक कम अर्थात् ५९ और उदीरणा की अपेक्षा से ५६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है। उदय की दृष्टि से इसमें ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की छः, वेदनीय की दो, नामकर्म की उन्तालीस, आयुष्य की एक, गोत्र की एक और अन्तराय की पाँच - इस प्रकार कुल ५९ कर्म-प्रकृतियों का उदय सम्भव होता है। इसमें वेदनीय द्विक और मनुष्यायु इन तीन की उदीरणा सम्भव नहीं होती है। अत: उदीरणा तो ५६ कर्मप्रकृतियों की ही होती है। १२. क्षीणमोह - क्षीणमोह नामक इस बारहवें गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा से तो मात्र सातावेदनीय नामक एक कर्मप्रकृति का ही बन्ध सम्भव है। यद्यपि सत्ता की अपेक्षा से इसमें भी अधिकतम १०१ और न्यूनतम ९९ कर्म Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इसमें ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की छ: अथवा चार, वेदनीय की दो, मोहनीय की शून्य, आयुष्य की १, नामकर्म की ८०, गोत्र की २ और अन्तराय की ५ - इस प्रकार १०१ अथवा ९९ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। ज्ञातव्य है कि उपशम श्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान का स्पर्श नहीं करता है। मात्र क्षपक श्रेणी वाला जीव ही इस गणस्थान का स्पर्श करता है। अत: कर्म-प्रकृतियों की यह सत्ता भी क्षपक श्रेणी वाले जीव की योग्यता की अपेक्षा से है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, इस गुणस्थान के प्रारम्भ में पूर्व गुणस्थान की ५९ में से नामकर्म की २ प्रकृति-ऋषभनाराच और नाराच संहनन कम होने से शेष ५७ और उदीरणा की अपेक्षा से उदय से तीन कम अर्थात् ५४ कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती हैं। किन्तु इस गुणस्थान के अन्त में निद्राद्विक का भी विच्छेद हो जाने से मात्र ५५ कर्म-प्रकृतियों का उदय और ५२ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है। १३. सयोगीकेवली - इस गणस्थान में बंध की अपेक्षा से मात्र एक सातावेदनीय का ही बन्ध सम्भव है, शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं होता। सत्ता की अपेक्षा इसमें वेदनीय की दो, आयुष्य की एक, नामकर्म की अस्सी और गोत्रकर्म की दो, ऐसी ८५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, इस गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ५५ प्रकृतियों में से ज्ञानावरण पञ्चक, दर्शनावरण चतुष्क और अन्तराय पञ्चक ऐसी १४ प्रकृति कम होने से और तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय होने से कुल ४२ कर्म-प्रकृतियों का उदय और ३९ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है। १४. अयोगीकेवली - इस गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा से योग भी समाप्त हो जाने के कारण किसी भी कर्म-प्रकृति का बन्ध सम्भव नहीं होता है। सत्ता की अपेक्षा से चौदहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में तो वेदनीय की दो, आयुष्य की एक (मनुष्यायु), नामकर्म की अस्सी और गोत्रकर्म की दो, ऐसी पचासी कर्म-प्रकृतियों की ही सत्ता है किन्तु चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मात्र मनुष्य त्रिक, वसत्रिक, यशनामकर्म, आदेयनामकर्म, शुभगनामकर्म, तीर्थङ्कर नामकर्म, उच्चगोत्र नामकर्म, पंचेन्द्रिय नामकर्म और सातावेदनीय तथा असातावेदनीय में से कोई एक -- इस प्रकार बारह कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती हैं किन्तु अन्त में इनका भी विच्छेद हो जाता है और जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, चौदहवें गुणस्थान में उदीरणा सम्भव नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशनामकर्म, वेदनीय की कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, उच्चगोत्र तथा तीर्थङ्कर नामकर्म, इन बारह कर्म-प्रकृतियों का उदय इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक __Jain Educरहता है। इनका उदय समाप्त होते ही जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ... ate & Personal use on Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ९१ इस चर्चा के पश्चात् हम द्वितीय कर्मग्रन्थ की पं० सुखलाल जी की व्याख्या में प्रस्तुत वह तालिका दे रहे हैं, जिसमें यह बताया गया है कि किसकिस कर्मप्रकृति के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्तायोग्य कितने-कितने गुणस्थान १४८ कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का गुणस्थान-दर्शक यन्त्र क्रम क्रम से १४८ उत्तरप्रकृतियों के नाम बन्धयोग्य | गुणस्थान उदययोग्य गुणस्थान उदीरणायोग्य गुणस्थान सत्तायोग्य गुणस्थान - or a vi ni si j ज्ञानावरणीय - ५ मतिज्ञानावरणीय श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय मन:पर्ययज्ञानावरणीय केवलज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय - ९ चक्षुदर्शनावरणीय अचक्षुदर्शनावरणीय अवधिदर्शनावरणीय केवलदर्शनावरणीय निद्रा निद्रा-निद्रा प्रचला १३. प्रचला-प्रचला १४. स्त्यानर्द्धि ० w g vaca ० १२ G- १ समय न्यून-१२ १ समय न्यून-१२ १२. १समय न्यून-१२ १ समय न्यून-१२ * इसमें ७ को पूरा अङ्क और १/७ को एक सप्तमांश, अर्थात् ७वें गुणस्थान और आठवें गुणस्थान के सात हिस्सों में से एक हिस्सा समझना चाहिये। इस प्रकार दूसरे अङ्कों में भी समझ लेना चाहिये। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण | ४ १४ चौथे से सात चौथे से सात तक-४ | तक-४ तीसरा-१ | तीसरा-१ वेदनीय कर्म - २ सातावेदनीय . असातावेदनीय मोहनीयकर्म - २८ सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय मिथ्यात्वमोहनीय | अनन्तानुबन्धीक्रोध अनन्तानुबन्धीक्रोध २२. अनन्तानुबन्धीमाया अनन्तानुबन्धीलोभ अप्रत्याख्यानावरणक्रोध अप्रत्याख्यानावरणमान अप्रत्याख्यानावरणमाया अप्रत्याख्यानावरणलोभ प्रत्याख्यानावरणक्रोध प्रत्याख्यानावरणमान प्रत्याख्यानावरणमाया प्रत्याख्यानावरणलोभ ३२. संज्वलनक्रोध ३३. संज्वलनमान ३४. संज्वलनमाया ३५. संज्वलनलोभ ३६.| हास्य-मोहनीय ३७. | रति-मोहनीय अरति-मोहनीय ३९. शोक-मोहनीय ww ० ० ० rrrrors 3 3 3 5 MIM33 ar rrrr x x x x 5 5 5 5 aa aar uuuu rrrr x x x x 5 5 5 5 or a rouuuu 16.olwoolwowonlolwolw - W Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. भय- मोहनीय ४१. जुगुप्सा - मोहनीय ४२. पुरुषवेद ४३. स्त्रीवेद ४४. नपुंसकवेद * आयु- कर्म ४५. | देव आयु ४६. मनुष्य आयु ४७. तिर्यञ्च- आयु ४८. - ४ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त नरक - आयु नाम - कर्म ९३ ४९. मनुष्यगति - नामकर्म ५०. तिर्यञ्चगति - नामकर्म ५१. देवगति - नामकर्म ५२. नरकगति - नामकर्म ५३. एकेन्द्रियजाति- नामकर्म ५४. द्वीन्द्रियजाति-नामकर्म ५५. त्रीन्द्रियजाति- नामकर्म ५६. चतुरेन्द्रियजाति- नामकर्म ५७. पंचेन्द्रियजाति-नामकर्म ५८. औदारिकशरीर - नामकर्म ५९. वैक्रियशरीर - नामकर्म ६०. आहारकशरीर - नामकर्म ६१. तैजसशरीर - नामकर्म ६२. कार्मणशरीर नामकर्म ६३. औदारिकअङ्गोपाङ्ग - नामकर्म ८ ८ ३ २ ४ १ ७ ७ ४ 통 ७६ ४ ८ ८ ४ १४ ५ ४ १४ २ १४ १३ ४ छठ्ठा १३ १३ १३ ८ ८ ४ w ५ سو १३ २ १३ १३ 7 ६ ९३ 9 5700 510 uto ola mar ११ 2 १४ ८३ ४ छठ्ठा १३ १४ १३ १४ १३ १४ * आयुकर्म का तीसरे गुणस्थान में बन्ध नहीं होता, इससे तीसरे को छोड़ अन्य गुणस्थानों को उसके बन्ध - योग्य समझना । 104 10 १४ ८ १४ १४ १४ १४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ३ ४ << In » ७ से ८ के ६ भाग 0 ० <<< ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० <<<<< ० ० ० ० << ० ० or <<< | वैक्रियशरीर-नामकर्म आहारकशरीर-नामकर्म औदारिकबंधन-नामकर्म वैक्रियबंधन-नामकर्म आहारकबंधन-नामकर्म तैजसबंधन-नामकर्म कार्मणबंधन-नामकर्म ७१. | औदारिकसंघातन-नामकर्म | वैक्रियसंघातन-नामकर्म आहारकसंघातन-नामकर्म | तैजससंघातन-नामकर्म | कार्मणसंघातन-नामकर्म वज्रऋषभनाराचसंहनन ऋषभनाराच-नामकर्म नाराच-नामकर्म अर्धनाराच-नामकर्म कीलिका-नामकर्म सेवार्त-नामकर्म समचतुरस्रसंस्थान न्यग्रोध० नामकर्म | सादि-नामकर्म वामन-नामकर्म ८६. हुंडक-नामकर्म हुंडक कृष्णवर्ण-नामकर्म | नीलवर्ण-नामकर्म लोहितवर्ण-नामकर्म हारिद्रवर्ण-नामकर्म | शुक्लवर्ण-नामकर्म सुरभिगन्ध-नामकर्म our or o oooooooooooooooooooooooooooo << 9 9 < ต " < or < or < or ๒ 4 4 4 < or < or 9 9 9 Wwwwwwwwwwww < or < or < or < or 1991919919 < or < ด ต or or < Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ९४. दुरभिगन्ध-नामकर्म ९५. तिक्तरस - नामकर्म ९६. कटुकरस-नामकर्म ९७. | कषायरस नामकर्म ९८. | अम्लरस नामकर्म ९९. | मधुररस - नामकर्म १००. कर्कशस्पर्श नामकर्म १०१. मृदुस्पर्श- नामकर्म १०२. गुरुस्पर्श- नामकर्म १०३. लघुस्पर्श- नामकर्म १०४. शीतस्पर्श - नामकर्म १०५. उष्णस्पर्श - नामकर्म १०६. स्निग्धस्पर्श - नामकर्म १०७. रुक्षस्पर्श-नामकर्म १०८. नरकानुपूर्वी नामकर्म १०९. तिर्यञ्चानुपूर्वी नामकर्म ११०. मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म १११. देवानुपूर्वी नामकर्म ११२. शुभविहायोगति नामकर्म |११३. अशुभविहायोगति-नामकर्म ११४. पराघात - नामकर्म ११५. उच्छ्वास- नामकर्म ११६. आतप नामकर्म ११७. उद्योत - नामकर्म ११८. अगुरुलघु-नामकर्म ११९. तीर्थङ्कर नामकर्म - - १२०. निर्माण - नामकर्म | १२१. | उपघात - नामकर्म १२२. | त्रस नामकर्म १२३. बादर-नामकर्म गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ३ 9 9 9 9 19 9119 9 9 9 १ ७६ १ १ 9w1999 1919 19 19 १ १ १ १ १ V ܘ ܟ ܡ D १) १ 19 19 GLM GLM २ ७६ चौथा से 'आठवें के 6 6 ६ भाग तक ७. ७६ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १, ४-२ १,२, ४-३ १,२,४-३ १,२,४-३ १३ १३ १३ 22 www १३ ४ १३ १४ १४ १३ १३ १३, १४ - २ तेरहवाँ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १, ४-२ १३ १३ ५ १३ १३ १३ १३ १४ ६ १४ x x x x x 2 १४ १४ १४ १.४ १४ १४ १४ x x x x xo १४ १४ १४ १४ १,२,४-३ १,२,४-३ | १४ १,२,४-३ | १४ १४ Xxx পলপগ 2 2 2 x x x x x you a १४ १४ दू० ती ० छोड़ १२ X X X X १४ १४ १४ १४ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण २. or < or 0 0 १२९. 10३१. 9999999 or or or or or uru or or or ur Wwwwwwwwr ~ ~ ~ M» » oook १३४. पर्याप्त-नामकर्म प्रत्येक-नामकर्म स्थिर-नामकर्म शुभ-नामकर्म सुभग-नामकर्म सुस्वर-नामकर्म १३०. आदेय-नामकर्म यशकीर्ति-नामकर्म ३२. | स्थावर-नामकर्म १३३. | सूक्ष्म-नामकर्म अपर्याप्त-नामकर्म १३५. साधारण-नामकर्म १३६. अस्थिर-नामकर्म १३७. अशुभ-नामकर्म दुर्भग-नामकर्म | दुःस्वर-नामकर्म १४०. अनादेय-नामकर्म १४१. अयश:कीर्ति-नामकर्म गोत्र-कर्म - २ उच्चगोत्र १४३ नीचगोत्र अन्तरायकर्म - ५ १४४. दानान्तराय लाभान्तराय १४६. | भोगान्तराय १४७. उपभोगान्तराय १४८. | वीर्यान्तराय or a or or (१३८. or १३९. or k १४२. १० । १४ । १३ । १४ or و १४० ہ १४५. ہ ہ or or or ora * * * * * ہ ہ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० | परिशिष्ट व्युच्छेद तालिका अष्टकर्मों की अवान्तर कर्म-प्रकृतियों में किस-किस गुणस्थान में किन-किन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, सत्ता, उदय और उदीरणा का अभाव होता है उसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है – ____बन्ध व्युच्छेद गुणस्थान १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ ज्ञानावरणीय ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ५ ५ ५ ५ दर्शनावरणीय ० ० ३ ३ ३ ३ ३ ३ ५ ५ ५ ५ ९ ९ ९ ९ वेदनीय ० ० ० ० ० ० १ १ १ १ १ १ १ १ १ २ मोहनीय ० २ ७ ७ ११ १५ १७ १७ १७ २१ २५ २६ २६ २६ २६ २६ । नाम ३ १६ ३१ ३५ ३५ ३५ ३६ ३६ ६६ ६६ ६६ ६६ ६७ ६७ ६७ ६७ गोत्र ० ० १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ २ २ २ २ आयुष्य ० १ ४ २ ३ ३ ३ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ अन्तराय ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ५ ५ ५ ५ • m ° G ० wr ov or ov ० | ० योग ३ १९ ४६ ४३ ५३ ५७ ६१ ६२ ९४ ९८ १०२ १०३ ११९ ११९ ११९ १२० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान १ २३ ४ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय नाम गोत्र आयुष्य अन्तराय योग ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० १ ० ० १ ० ० ० ० v ० ० ० ६ ९ औक्षा औ क्षा औ क्षा औ क्षा उ क्ष उ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० 6 ू ० ० olm ० அ2 ० ० ० ० ० o ० ० ० ० ० ० ७ ० ० Com ० 910 ० ० ० ० ० Co ० ० ० ० O ० ० ७ ० ० olm o सत्ताव्युच्छेद அஃ ० ० ० ० ० ० o ७ ० ७ ० ० o ० o ० Colm ० १० ० ० ८ ० o ० ० ० ० ० ० 67 ० o Comm ० 910 न ० ० ० ० o श्र ० ० ० ० ० ० ० २ ३ ० १० ११ १० al उ ० ० O ७ ० २७ १२ क्ष उ क्ष प्रा. सं. ० ० لله o ३ o ० १३ ० ० ० ० o ० २ ३ ० ० ० ० ० ० ० ० ० 2 ० ३ ५ ० ० o ० ० ७ २८२८ २८ २८ २८ ० १३१३ १३ १३ ० ३ ३ १३ ० ५. ५ ५ ९ ९ ९ ० १४ प्रा. अ. ० ३ ० ु १ ० ३ ३ ५ ०४६ ९ ४७४९ ६३ ६३१३६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय नाम गोत्र आयुष्य अन्तराय योग १ २ ३ ४ ० ० ० o m ० ० ० ० ० m ८ ० ० ● ० ० ० ० ० ० о ० ● m ० ० ५ ० ० ० ० ० १० १४ १४ १६ १२ २३ २४ २५ १ 2 उदय व्युच्छेद ० 5 ० ० ० ० ♡ ० 6 ू ११ २२ १८ ३५ ४१ ० m ० m ० ४६ ८ ० m ० 2 ० V ५० ० १५ २१ २८ १ m ० ० १० ५६ ० m ० 6 २८ २८ १ २७ ० ११ ० m ० २८ ल १ mr १२ ० ० 5 २८ २८ ० १ २८ २८ २८ २९ ५८ १ १ V १३ १४ ० ६२ ६३ ६५ ८० ११० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरणा व्युच्छेद गुणस्थान १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ ० | Ww ० । ० ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय नाम गोत्र आयुष्य अन्तराय ० ० ० २ ३ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ३ ६ ६ १० ८ १६ १२ २३ ० ० ० ० ० २ ० ० ० ० ० ० ० ३ ३ ० २ २ १४ १४ १५ २४ २५ २८ ० १ १ ३ ४ ४ ० ० ० ० ३ २ २१ २८ १ ४ ० ० ३ २ २७ २८ १ ४ ० ० ३ २ २८ २८ १ ४ ० ० ५ २ २८ ३० १ ४ ० ५ ९ २ २८ २९ १ ४ ५ ० ० ० । ० । ० ० ० । ० - ० | योग ५ ११ २२ १८ ३५ ४१ ४९ ५३ ५९ ६५ ६६ ७० ८३ ० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त में अत्यन्त निकट सम्बन्ध है। वस्तुत: गणस्थान सिद्धान्त व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास-क्रम को सूचित करता है और उसके आध्यात्मिक विकास-क्रम को अवरुद्ध करने वाला तत्त्व कर्म है, अतः कर्मों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय पर ही आध्यात्मिक विकास आधारित है। इससे यह फलित होता है कि एक ओर आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों पर आत्मा के अनन्त चतुष्टय को आवरित करने वाली शक्तियाँ, जिन्हें परम्परागत भाषा में हम कर्म-प्रकृति कहते हैं, किस रूप में और कितनी शेष रहती हैं, यह बताना गुणस्थान सिद्धान्त का मुख्य प्रतिपाद्य है, तो दूसरी ओर कर्म-सिद्धान्त हमें यह बताता है कि विभिन्न कर्म-प्रकृतियों के उपशमित अथवा क्षीण होने पर आध्यात्मिक विकास के किस सोपान पर आत्मा की अवस्थिति होती है। __ अत: हम कह सकते हैं कि बिना जैन कर्म-सिद्धान्त को समझे गुणस्थान सिद्धान्त को एवं बिना गुणस्थान सिद्धान्त को समझे कर्म-सिद्धान्त को नहीं जाना जा सकता, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह परस्पर सापेक्ष हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन जैन और बौद्ध साधना-पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकर मत - वैभित्र्य भले ही हो, फिर भी दोनों का आदर्श है निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा का स्पर्श करता है। जैन- परम्परा में आध्यात्मिक विकास की चौदह भूमियाँ मानी गयी हैं। बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत- वैभिन्य है । श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय, जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हत् - पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है; जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोक-मंगल की साधना है, आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ मानता है । यहाँ हम दोनों ही सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को देखने का प्रयास करेंगे। हीनयान और आध्यात्मिक विकास प्राचीन बौद्धधर्म में भी जैनधर्म के समान संसारी प्राणियों की दो श्रेणियाँ मानी गयी हैं १. पृथग्जन या मिथ्यादृष्टि तथा २. आर्य या सम्यक् - दृष्टि । मिथ्यादृष्टित्व अथवा पृथग्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकास का काल तो तभी प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यक् दृष्टिकोण को ग्रहण कर निर्वाणगामी मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है। फिर भी सभी पृथग्जन या मिथ्यादृष्टि प्राणी समान नहीं होते। उनमें तारतम्य होता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है तथा वे यथार्थ दृष्टि के अति निकट होते हैं। अतः पृथग्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है १. प्रथम अंध पृथग्जन भूमि, यह अज्ञान एवं मिथ्यादृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं २. कल्याण पृथग्जन भूमि । मज्झिम निकाय में इस भूमि का निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि भी कहा गया है। इस भूमि में साधक निर्वाण - मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं - ―――― Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ९९ करता। इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी अवस्था से की जा सकती है। हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यक्दृष्टिसम्पन्न निर्वाण-मार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य अर्हत् अवस्था को प्राप्त करने तक इन चार भूमियों ( अवस्थाओं ) को पार करना होता है -- १. स्रोतापन्न भूमि, २. सकृदागामी भूमि, ३. अनागामी भूमि और ४. अर्हत् भूमि। प्रत्येक भूमि में दो अवस्थाएँ होती हैं - १. साधक की अवस्था या मार्गावस्था तथा २. सिद्धावस्था या फलावस्था। १. स्रोतापन्न भूमि - स्रोतापन का शाब्दिक अर्थ होता है धारा में पड़ने वाला, अर्थात् साधक साधना अथवा कल्याणमार्ग के प्रवाह में गिरकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। बौद्ध-विचारधारा के अनुसार जब साधक निम्न तीन संयोजनों ( बन्धनों ) का क्षय कर देता है, तब वह इस अवस्था को प्राप्त करता है - १. सत्काय दृष्टि - देहात्म-बुद्धि अर्थात् शरीर को आत्मा मानना, उसके प्रति ममत्व या मेरापन रखना ( स्वकायेदृष्टिः : चन्द्रकीर्ति ) २. विचिकित्सा - सन्देहात्मकता तथा ३. शीलव्रत परामर्श - अर्थात् व्रत, उपवास आदि में आसक्ति। दूसरे शब्दों में मात्र कर्मकाण्ड के प्रति रुचि। इस प्रकार जब साधक दार्शनिक मिथ्या दृष्टिकोण ( सत्कायदृष्टि ) एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्यादृष्टिकोण ( शीलव्रत परामर्श ) का त्याग कर सर्व प्रकार के संशयों ( विचिकित्सा ) की अवस्था को पार कर जाता है, तब वह इस स्रोतापन्न भूमि पर आरूढ़ हो जाता है। दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोणों एवं सन्देहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमि के पतन की सम्भावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करता है। स्रोतापन साधक निम्न चार अंगों से सम्पन्न होता है - १. बुद्धानुस्मृति : बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। २. धर्मानुस्मृति : धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ३. संघानुस्मृति : संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ४. शील एवं समाधि से युक्त होता है। स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त साधक विचार ( दृष्टिकोण ) एवं आचार दोनों से शुद्ध होता है। जो साधक इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण-लाभ कर ही लेता है। जैन-विचारधारा के अनुसार क्षायिक-सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त-संयतगुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन-विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन ( दृष्टिकोण ) विशुद्धि एवं चारित्र ( आचार ) विशुद्धि से युक्त होता है। इन अवस्थाओं में सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है लेकिन उनके बीज ( राग-द्वेष एवं मोह ) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है। जैन परम्परा की इस बात को बौद्ध परम्परा यह कहकर प्रकट करती है कि स्रोतापन्न अवस्था में कामधातु ( वासनाएँ ) तो समाप्त हो जाती हैं, लेकिन रूपधातु ( आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह ) शेष रहती है। २. सकृदागामी भूमि - इस भमि में साधना का मुख्य लक्ष्य 'आस्त्रवक्षय' ही होता है। सकृदागामी भूमि के अन्तिम चरण में साधक पूर्ण रूप से कामराग ( वासनाएँ ) और प्रतिध ( द्वेष ) को समाप्त कर देता है और अनागामी भूमि की दिशा में आगे बढ़ जाता है। सकृदागामी भूमि की तुलना जैन-दर्शन के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैनधर्म क्षीण-मोह गुणस्थान और बौद्ध विचार अनागामी भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्धधर्म के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधना-काल में मृत्यु को प्राप्त साधक एक बार ही पुन: संसार में जन्म-ग्रहण करता है। दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीणमोह गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। ३. अनागामी भूमि - जब साधक प्रथम स्रोतापन्न भूमि में सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत परामर्श इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामी भूमि में कामराग और प्रतिध इन दो संयोजनों को, इस प्रकार पाँच भू-भागीय संयोजनों को नष्ट कर देता है, तब वह अनागामी भूमि को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ता है तो मृत्यु के प्राप्त होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण प्राप्त करता है। वैसे साधनात्मक दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पाँच उढ्डभागीय संयोजन - १. रूपराग, २. अरूप-राग, ३. मान, ४. औद्धत्य और ५. अविद्या के नाश का प्रयास Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०१ करे। जब साधक इन पाँचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। जो साधक इस अग्रिम भूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पाँच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं। उन्हें पुन: इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। अनागामी भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है। लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत् भूमि में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है। साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएँ इस भूमि के अन्तर्गत आती हैं। ४. अर्हतावस्था – जब साधक ( भिक्षु ) उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की सेवा के लिये क्रियाएँ करता है। समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दु:खों का प्रहाण हो जाता है। वस्तुत: यह जीवन्मुक्ति की अवस्था है। जैन-विचारणा में इस अर्हतावस्था की तुलना सयोगीकेवली गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के सम्बन्ध में काफी निकट हैं। महायान और आध्यात्मिक विकास ___ महायान सम्प्रदाय में दशभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्नलिखित दस भूमियाँ ( अवस्थाएँ ) मानी गयी हैं - १. प्रमुदिता, २. विमला, ३. प्रभाकरी, ४. अर्चिष्मती, ५. सुदुर्जया, ६. अभिमुक्ति, ७. दूरंगमा, ८. अचला, ९. साधमति और १०. धर्ममेधा। हीनयान से महायान की ओर संक्रमण-काल में लिखे गए महावस्तु नामक ग्रन्थ में १. दुरारोहा, २. बद्धमान, ३. पुष्पमण्डिता, ४. रुचिरा, ५. चित्त-विस्तार, ६. रूपमति, ७. दुर्जया, ८. जन्मनिदेश, ९. यौवराज और १०. अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं। यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है, तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन मिलता है। असंग के महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिमुक्ति चर्याभूमि कहा गया है और अन्तिम बुद्धभूमि या धर्ममेघा का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया गया है। इसी प्रकार लंकावतारसूत्र में धर्ममेघा और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण तथागत भूमियों ( बुद्धभूमि ) को अलग-अलग माना गया है। १. अधिमुक्तचर्या भूमि यों तो अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है, लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्तचर्याभूमि का विवेचन करते हैं, तत्पश्चात् प्रभुदिता भूमि का अधिमुक्तचर्याभूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय ( यथार्थ ज्ञान ) होता है। यह दृष्टि-विशुद्धि की अवस्था है। इस भूमि की तुलना जैन विचारधारा में चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है। इसे बोधिप्रणधिचित्त की अवस्था कहा जा सकता है । बोधिसत्व इस भूमि में दान - पारमिता का अभ्यास करता है । १०२ २. प्रमुदिता इसमें अधिशील शिक्षा होती है। यह शीलविशुद्धि के प्रयास की अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधना करता है। इसे बोधि प्रस्थानचित्त की अवस्था कहा जा सकता है। बोधिप्रणिधिचित्त मार्गज्ञान है, लेकिन बोधि प्रस्थानचित्त मार्ग में गमन की प्रक्रिया है। जैन परम्परा में इस भूमि की तुलना पंचम एवं षष्ठ विरताविरत एवं सर्वविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से की जा सकती है। इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाशव्यवस्था अर्थात् यह ज्ञान कि प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं होता । बोधिसत्व इस भूमि में शील- पारमिता का अभ्यास करता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता । पूर्णशीलविशुद्धि की अवस्था में वह अग्रिम विमला विहार- भूमि में प्रविष्ट हो जाता है। ३. विमला इस अवस्था में बोधिसत्व ( साधक ) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है। दुःखशीलता के मनोविकास का मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसलिये इसे विमला कहते हैं। यह आचरण की पूर्ण शुद्धि की अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व शान्ति - पारमिता का अभ्यास करता है । यह अधिचित्त शिक्षा है। इस भूमि का लक्षण है। ध्यान - प्राप्ति, इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है। जैन विचारणा में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है। - ― ४. प्रभाकरी इस भूमि में अवस्थित साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का अवभास या साक्षात्कार प्राप्त होता है एवं साधक बोधिपक्षीय धर्मों की परिणामना लोकहित के लिये संसार में करता है अर्थात् वह बुद्ध का ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में फैलाता है, इसलिये इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है। यह भी जैनों के अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के समकक्ष है। इस भूमि में क्लेशावरण और श्रेयावरण का दाह ५. अर्चिष्मती ― ――― Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन होता है। आध्यात्मिक विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक क्लेशावरण और श्रेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार आठवें गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का रसघात एवं संक्रमण करता है, इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है । ६. सुदुर्जया इस भूमि में सत्त्व - परिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है। यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को 'दुर्जया' कहते हैं। इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद के साक्षात्कार के कारण भवापत्ति ( ऊर्ध्व लोकों में उत्पत्ति ) विषयक संक्लेशों से अनुरक्षण हो जाता है । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान पारमिता का अभ्यास करता है। इस भूमि की तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है। जैन और बौद्ध दोनों विचारणाओं के अनुसार साधना के विकास की यह अवस्था अत्यन्त ही दुष्कर होती है । ---- १०३ ७. अभिमुखी प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व ( साधक ) संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिये संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिये बन्धक नहीं रहता। निर्वाण के अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है । । इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है। चौथी, पाँचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है अर्थात् प्रज्ञा का अभ्यास होता है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है । तुलना की दृष्टि से यह भूमि सूक्ष्म सम्पराय नामक बारहवें गुणस्थान की पूर्वावस्था के समान है। - ―― ८. दूरंगमा इस भूमि में बोधिसत्व साधक एकान्तिक मार्ग अर्थात् शाश्वतवाद, उच्छेदवाद आदि से बहुत दूर हो जाता है। ऐसे विचार उसके मन में उठते नहीं है। जैन परिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त अवस्था है, संकल्प शून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है। बौद्ध-विचार के अनुसार भी इस अवस्था में बोधिसत्व की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्व का कार्य प्राणियों को निर्वाण मार्ग में लगाना होता है। इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। यह भूमि जैन- विचारणा के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि जैन विचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में आकर साधक निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ९. अचला - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है। विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है। चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह भूमि तथा अग्रिम साधुमती और धर्ममेघा भूमि जैनविचारधारा के सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती १०. साधुमती -- इस भूमि में बोधिसत्व का हृदय प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। इस भूमि का लक्षण है सत्वपाक अर्थात् प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना। इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति ( विश्लेषणात्मक अनुभव करने वाली बुद्धि ) की प्रधानता होती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। ११. धर्ममेघा - जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय कमल पर स्थित दिखाई देते हैं। यह भूमि जैनधर्म के तीर्थङ्कर के समवशरण-रचना के समान प्रतीत होती है। आजीवक सम्प्रदाय एवं आध्यात्मिक विकास की अवधारणा __ बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय की बुद्धघोष कृत सुमंगलविलासिनी टीका में मिलता है। बुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है। ये आठ अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं --- १. मन्द - बुद्धघोष के अनुसार जन्म से लेकर सात दिन तक यह 'मन्द-अवस्था' होती है किन्तु मेरी दृष्टि में 'मन्द-अवस्था' का अर्थ भिन्न ही होना चाहिये। यद्यपि वर्तमान में आजीवक सम्प्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये इस सम्बन्ध में वास्तविक अर्थ बता पाना तो कठिन है, किन्तु यह भूमि जैनदर्शन के मिथ्यात्व गुणस्थान के समान ही होनी चाहिये, जिसमें प्राणी का आध्यात्मिक विकास कुण्ठित रहता है। २. खिड्डा - बुद्धघोष ने इसे बालक की रुदन और हास्य मिश्रित क्रीड़ा की अवस्था माना है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह अवस्था जैन-परम्परा के Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०५ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान होना चाहिये, जिसमें साधक आत्मरमण या आध्यात्मिक क्रीड़ा की अवस्था में रहता है। ३. पदवीमांसा - बुद्धघोष के अनुसार जिस प्रकार बालक माता-पिता के हाथ का सहारा लेकर चलने का प्रयास करता है उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है। इसे हम जैन दर्शन के पाँचवें विरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं। पदवीमांसा का अर्थ है कदम रखना, अत: यह आध्यात्मिक क्षेत्र में कदम रखना है। ४. ऋजुगत - बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे के चलने लगता है तब ऋजुगत अवस्था होती है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह गृहस्थ साधना में ही एक आगे बढ़ा हुआ चरण है, जिसमें साधक स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ता है। जैन परम्परा में जो श्रावक प्रतिमाओं की भूमि है, सम्भवत: यह वैसी ही कोई अवस्था है। ५. शैक्ष – बुद्धघोष के अनुसार यह अवस्था शिल्पकला के अध्ययन की अवस्था है, जबकि मेरी दृष्टि में इसे बौद्ध परम्परा के श्रामणेर या जैन परम्परा के सामायिक चारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिये। जैन गुणस्थान सिद्धान्त से इस अवस्था की तुलना छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से भी की जा सकती है। ६. श्रमण - बुद्धघोष ने इसे संन्यास ग्रहण की अवस्था माना है। जैन परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समकक्ष माना जा सकता है। ७. जिन - बुद्धघोष ने इसे ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह भूमि जैन परम्परा के सयोगीकेवली गुणस्थान या बौद्ध परम्परा की अर्हत् अवस्था के समकक्ष होनी चाहिये। ८. प्राज्ञ – बुद्धघोष ने इसे वह अवस्था माना है, जिसमें भिक्षु (जिन) कुछ भी नहीं बोलता। वस्तुत: यह अवस्था जैन परम्परा के अयोगीकेवली गुणस्थान के समान ही होनी चाहिये, जब साधक शारीरिक और मानसिक गतिविधियों का पूर्णतया निरोध कर लेता है। वस्तुत: बुद्धघोष ने प्रथम से लेकर पाँचवीं भूमिका तक के जो अर्थ किये हैं वे युक्तिसंगत नहीं हैं। इस बात का उल्लेख पं० सुखलालजी और प्रो० हॉर्नले ने भी किया था। क्योंकि बुद्धघोष की व्याख्या का सम्बन्ध आध्यात्मिक विकास के साथ ही बैठता था। यद्यपि मैंने इनका जो अर्थ किया है वह भी विद्वानों की दृष्टि में क्लिष्ट कल्पना तो होगी किन्तु फिर भी वह आजीवक सम्प्रदाय की मूल भावना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण के अधिक निकट होगा। वस्तुत: बुद्धघोष के समय तक इन शब्दों का मूल अर्थ विलुप्त हो गया होगा और इसलिये इनके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही कल्पना की होगी। इस प्रसंग में मैंने जो व्याख्या की है वह असंगत नहीं मानी जा सकती है। गीता के त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान-सिद्धान्त की तुलना यद्यपि गीता में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम का उतना विस्तृत विवेचन नहीं मिलता, जितना जैन-विचार में मिलता है, तथापि गीता में उसकी एक मोटी रूपरेखा अवश्य है। गीता में इस वर्गीकरण का प्रमुख आधार त्रिगुण की धारणा है। डॉ० राधाकृष्णन् भगवद्गीता की टीका में लिखते हैं - "आत्मा का विकास तीन सोपानों से होता है। यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान ( तमोगुणप्रधान अवस्था ) से भौतिक सुखों के लिये संघर्ष ( रजोगणात्मक प्रवृत्ति ) के द्वारा ऊपर उठती हई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है। गीता के अनुसार आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्त्वगुण की ओर बढ़ती हुई अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है। गीता में इन गुणों के संघर्ष की दशा का प्रतिपादन है, जिससे नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास को समझा जा सकता है। जब राजसगुण और सत्त्वगुण को दबाकर तमोगुण हावी होता है, तो जीवन में निष्क्रियता एवं जड़ता बढ़ती है। प्राणी परिवेश के सम्मुख झुकता रहता है। यह अविकास की अवस्था है। जब सत्त्व और तम को दबाकर राजस प्रधान होता है तो जीवन में अनिश्चयता, तृष्णा और लालसा बढ़ती है। इसमें अन्ध एवं आवेशपूर्ण प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है, यह अनिश्चय की अवस्था है। यह दोनों ही अविकास की सूचक हैं। जब रजस् और तमस् को दबाकर सत्त्व प्रबल होता है तो जीवन में ज्ञान का प्रकाश आलोकित होता है। जीवन यथार्थ आचरण की दिशा में बढ़ता है। यह विकास की भूमिका है। जब सत्त्व के ज्ञान-प्रकाश में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है, तो वह गुणातीत हो द्रष्टामात्र रह जाती है। इन गुणों की प्रवृत्तियों में उसकी ओर से मिलने वाला सहयोग बन्द हो जाता है। त्रिगुण भी संघर्ष के लिये मिलने वाले सहयोग के अभाव में संघर्ष से विरत हो साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं। तब सत्त्व ज्ञान-ज्योति बन जाता है। रजस् स्व-स्वरूप में रमण बन जाता है और तमस् शान्ति का प्रतीक हो जाता है। यह त्रिगुणातीत दशा ही आध्यात्मिक पूर्णता की अवस्था है। सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के आधार पर ही गीता में व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि, कर्म, कर्ता आदि का त्रिविध वर्गीकरण है। प्रश्न यह उठता है कि हम गीता में इस त्रिगुणात्मकता की धारणा को ही नैतिक विकास-क्रम का आधार क्यों मानते हैं ? Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०७ इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जैन दर्शन में बन्धन का प्रमुख कारण मोह कर्म है और उसके दो भेद दर्शनमोह और चारित्रमोह के आवरणों की तारतम्यता के आधार पर प्रमुख रूप से नैतिक विकास की कक्षाओं की विवेचना की जाती है, उसी प्रकार गीता के आचार-दर्शन में बन्धन का मूल कारण त्रिगुण है। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि सत्त्व, रज और तम इन गुणों से प्रत्युत्पन्न त्रिगुणात्मक भावों से मोहित होकर जगत् के जीव उस परम अव्यय परमात्मस्वरूप को नहीं जान पाते हैं। अत: गीता की दृष्टि से नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्रम की चर्चा करते समय इन गुणों को आधारभूत मानना पड़ता है। यद्यपि सभी गुण बन्धन हैं, तथापि उनमें तारतम्य है। जहाँ तमोगुण विकास में बाधक होता है, वहाँ सत्त्वगुण उसमें ठीक उसी प्रकार सहायक होता है, जिस प्रकार जैनदृष्टि में सम्यक्त्व मोह विकास में सहायक होता है। यदि हम नैतिक विकास दृष्टि से इस सिद्धान्त की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि जिन नैतिक विवेचनाओं में भौतिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण को स्वीकृत किया जाता है, उनमें नैतिक मूल्यांकन की दृष्टि से व्यक्ति का आचरण प्राथमिक तथ्य न होकर उसकी जीवनदृष्टि ही प्राथमिक तथ्य होती है, आचरण का स्थान द्वितीय होता है। उनमें यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में किया गया आचरण अधिक मूल्यवान् नहीं होता। उसका जो कुछ भी मूल्य है वह उसके यथार्थ दृष्टि की ओर उन्मुख होने में ही है। अत: हम गीता की दृष्टि से नैतिक विकास की श्रेणियों की चर्चा जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान ही श्रद्धा को प्राथमिक और आचरण को द्वितीयक मानकर ही करेंगे। गीता में भी यह कहा गया है कि दराचारी भी सम्यक निश्चय वाला होने से साध ही माना जाना चाहिये। इस कथन में उपर्युक्त विचारणा की पुष्टि की गयी है। अत: नैतिक विकास की श्रेणियों का विवेचन करते समय प्रथम जीवनदृष्टि, श्रद्धा एवं ज्ञान ( बुद्धि ) का सत्त्व, रज एवं तमोगण के आधार पर त्रिविध वर्गीकरण करना होगा। तत्पश्चात् उस सत्त्वप्रधान जीवन-दृष्टि का आचरण की दृष्टि से त्रिविध विवेचन करना होगा। यद्यपि प्रत्येक गुण में भी तारतम्य की दृष्टि से अनेक अवान्तर वर्ग हो सकते हैं, लेकिन प्रस्तुत सन्दर्भ में अधिक भेद-प्रभेदों की ओर जाना इष्ट नहीं है। १. प्रथम वर्ग वह है जहाँ श्रद्धा एवं आचरण दोनों ही तामस हैं. जीवन-दृष्टि अशुद्ध है। गीता के अनुसार इस वर्ग में रहने वाला प्राणी परमात्मा की उपलब्धि में असमर्थ होता है, क्योंकि उसके जीवन की दिशा पूरी तरह असम्यक् है। गीता के अनुसार इस अविकास दशा की प्रथम कक्षा में प्राणी की ज्ञान-शक्ति माया के द्वारा कुण्ठित रहती है, उसकी वृत्तियाँ आसुरी और आचरण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पापकर्मा होता है। यह अवस्था जैन विचारणा के मिथ्यात्व गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अन्धपृथक्जन भूमि के समान है। गीता के अनुसार इस तमोगुण भूमि में मृत्यु होने पर प्राणी मूढ़ योनियों में जन्म लेता है ( प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते : १४. १५ ) अधोगति को प्राप्त होता है। २. दूसरा वर्ग वह है, जहाँ श्रद्धा अथवा जीवनदृष्टि तो तामस हो, लेकिन आचरण सात्विक हो। इस वर्ग के अन्दर गीता में वर्णित वे भक्त आते हैं, जो आर्त भाव एवं किसी कामना को लेकर ( अर्थार्थी ) भक्ति ( धर्माचरण ) करते हैं। गीताकार ने इनको सुकृति ( सदाचारी) एवं उदार कहा है। लेकिन साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया है कि ऐसे व्यक्ति परमात्मा, मोक्ष या परमगति को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। गीता का स्पष्ट निर्देश है कि कामनाओं के कारण जिनका ज्ञान अपहत हो गया है वे सम्यग्दृष्टि पुरुष के समान आचरण करते हुए भी अस्थायी फल को प्राप्त होते हैं, जबकि यथार्थ दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति उसी आचरण के फलस्वरूप परमात्मरूप की प्राप्ति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि गीता के अनुसार भी ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि या श्रद्धा यथार्थ नहीं हो सकती है, क्योंकि वह बन्धन का कारण ही होती है, मुक्ति का नहीं। अत: पारमार्थिक दृष्टि से उन्हें मिथ्या दृष्टि ही मानना होगा। चाहे सदाचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख ही क्यों न मिलता हो, फिर भी वे निर्वाण-मार्ग से तो विमुख ही हैं। यह वर्ग जैन विचारणा के अनुसार सम्यक्त्व गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीवों का है। बौद्ध दृष्टि से यह अवस्था कल्याण पृथक्जन भूमि या धर्मानुसारी भूमि से तुलनीय है। ३. तीसरा वर्ग वह है जहाँ श्रद्धा अथवा बुद्धि राजस हो। श्रद्धा अथवा बुद्धि के राजस होने का तात्पर्य उसकी चंचलता या अस्थिरता से है। श्रद्धा या बुद्धि की अस्थिर या संशयपूर्ण अवस्था में आचरण सम्भव नहीं होता। अस्थिर बुद्धि किसी भी स्थायित्वपूर्ण आचरण का निर्णय नहीं ले पाती, अतः यह भूमिका जीवन-दृष्टि और आचरण दोनों ही अपेक्षा से राजस होती है। गीता में अर्जुन का व्यक्तित्व इसी धर्म से मढ़ चेतना की भूमिका को लेकर प्रस्तुत होता है। गीता के अनुसार यह संशयात्मक एवं अस्थिरता की भूमिका नैतिक एवं आध्यात्मिक अविकास की अवस्था है। गीता के अनुसार अज्ञानी एवं अश्रद्धालु ( मिथ्यादृष्टि ) जिस प्रकार विनाश को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार संशयात्मा भी विनाश को प्राप्त होती है। यही नहीं, संशयात्मा की अवस्था तो उनसे अधिक बुरी बनती है, क्योंकि वह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है, जब कि मिथ्यादृष्टि प्राणी कम से कम भौतिक सुखों का तो उपभोग कर ही लेता Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०९ है ।" यह अवस्था जैन- विचारणा के मिश्र गुणस्थान से मिलती हुई है, क्योंकि मिश्र गुणस्थान सिद्धान्त भी यथार्थ दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के मध्य अनिश्चय की अवस्था है। यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार इस मिश्र अवस्था में मृत्यु नहीं होती, लेकिन गीता के अनुसार रजोगुण की भूमिका में मृत्यु होने पर प्राणी आसक्ति प्रधान योनियों को प्राप्त करता हुआ ( रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते ) मध्य लोक में जन्म-मरण करता रहता है ( मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः - २४.१८ )। ४. चतुर्थ भूमिका वह है जिसमें दृष्टिकोण सात्विक अर्थात् यथार्थ होता है, लेकिन आचरण तामस एवं राजस होता है। इस भूमिका का चित्रण गीता के छठे एवं नवें अध्याय में है। छठे अध्याय में 'अयतिः श्रद्धयोपेतो' कहकर इस वर्ग का निर्देश किया गया है । १४ नवें अध्याय में जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन दुराचारवान् ( सुदुराचारी ) व्यक्तियों को भी, जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, साधु ( सात्विक प्रकृति वाला ) ही माना जाना चाहिये, क्योंकि उनका दृष्टिकोण सम्यग्रूपेण व्यवस्थित हो चुका है। १५ गीता में वर्णित नैतिक विकासक्रम की यह अवस्था जैन- विचार में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से मिलती है। जैन विचार के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि ऐसा व्यक्ति जिसका दृष्टिकोण सम्यक् हो गया है, वह वर्तमान में चाहे दुराचारी ही क्यों न हो, वह शीघ्र ही सदाचारी बनकर शाश्वत शान्ति ( मुक्ति ) प्राप्त करता है, " क्योंकि वह साधना की यथार्थ दिशा की ओर मुड़ गया है। इसी बात को बौद्ध - विचार में स्त्रोतापत्र भूमि अर्थात् निर्वाण मार्ग के प्रवाह में गिरा हुआ कहकर प्रकट किया गया है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन समवेत रूप से यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा साधक मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है । ९७ गीता के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की पाँचवीं भूमिका यह हो सकती है जिसमें श्रद्धा एवं बुद्धि सात्विक होती है, लेकिन रजोगुण आचरण में सत्त्वोन्मुख तो होता है, फिर भी वह चित्तवृत्ति की चंचलता का कारण होता है। साथ ही पूर्वावस्था के तमोगुण के संस्कार भी पूर्णत: विलुप्त नहीं हो जाते हैं। तमोगुण एवं रजोगुण की तारतम्यता के आधार पर इस भूमिका के अनेक उप-विभाग किये जा सकते हैं। जैन- विचारणा में इस प्रकार के विभाग किये गए हैं, लेकिन गीता में इतनी गहन विवेचना उपलब्ध नहीं है। फिर भी इस भूमिका का चित्रण गीता के छठें अध्याय में मिल जाता है। वहाँ अर्जुन शंका उपस्थित करते हैं कि हे कृष्ण, जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त ( सम्यग्दृष्टि ) होते हुए भी ( रजोगुण के कारण ) चंचल मन होने से योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता उसकी क्या गति होती है ? क्या वह ब्रह्मा ( निर्वाण ) की ओर जाने वाले मार्ग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण से पूर्णतया भ्रष्ट तो नहीं हो जाता ? १८ श्रीकृष्ण कहते हैं कि चित्त की चंचलता के कारण साधना के परम लक्ष्य से पतित हुआ ऐसा साधक भी सम्यक्-श्रद्धा से युक्त एवं सम्यक् आचरण में प्रयत्नशील होने से अपने कर्मों के कारण ब्रह्म प्राप्ति की यथार्थ दिशा में रहता है। अनेक शुभ योनियों में जन्म लेता हुआ पूर्व-संस्कारों से साधना के योग्य अवसरों को उपलब्ध कर जन्मान्तर में पापों से शुद्ध होकर अध्यवसायपूर्वक प्रयासों के फलस्वरूप परमगति ( निर्वाण ) प्राप्त कर लेता है। १९ जैन-विचारणा से तुलना करने पर यह अवस्था पाँचवें देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से प्रारम्भ होकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक जाती है। पाँचवे एवं छठे गुणस्थान तक श्रद्धा के सात्विक होते हुए भी आचरण में सत्त्वोन्मुख रजोगुण एवं तमोगुण की सत्त्वोन्मुखता बढ़ती है, वहीं सत्त्व की प्रबलता से उसकी मात्रा क्रमश: कम होते हुए समाप्त हो जाती है। वस्तुत: साधना की इस कक्षा में व्यक्ति सात्विक ( सम्यक् ) जीवन-दृष्टि से सम्पन्न होकर आचरण को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करता है, लेकिन तमोगुण और रजोगुण के पूर्व संस्कार बाधा उपस्थित करते हैं। फिर भी यथार्थ बोध के कारण व्यक्ति में आचरण की सम्यक् दिशा के लिये अनवरत प्रयास का प्रस्फुटन होता है जिसके फलस्वरूप तमोगुण और रजोगुण धीरे-धीरे कम होकर अन्त में विलीन हो जाते हैं और साधक विकास की एक अग्रिम श्रेणी में प्रस्थित हो जाता है। गीता के अनुसार विकास की अग्रिम कक्षा वह है जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों ही सात्विक होते हैं। यहाँ व्यक्ति की जीवनदृष्टि और चारण दोनों में पूर्ण तादात्म्य एवं सामंजस्य स्थापित हो जाता है। उसके मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है। गीता के अनुसार इस अवस्था में व्यक्ति सभी प्राणियों में उसी आत्मतत्त्व के दर्शन करता है।२० आसक्तिरहित होकर मात्र अवश्य ( नियत ) कर्मों का आचरण करता है।२९ उसका व्यक्तित्व, आसक्ति एवं अहंकार से शून्य, धैर्य एवं उत्साह से युक्त एवं निर्विकार होता है। २२ उसके समग्र शरीर से ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित होता है, अर्थात् उसका ज्ञान अनावरित होता है। इस सत्त्वप्रधान भूमिका में मृत्यु प्राप्त होने पर प्राणी उत्तम ज्ञान वाले विशुद्ध निर्मल ऊर्ध्व लोकों में जन्म लेता है। यह विकास-कक्षा जैनधर्म के बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के समान है। ज्ञानावरण का नष्ट होना इसी गुणस्थान का अन्तिम चरण है। यह नैतिक पूर्णता की अवस्था है, लेकिन नैतिक पूर्णता साधना की इतिश्री नहीं है। डॉ० राधाकृष्णन् कहते हैं – सर्वोच्च आदर्श नैतिक स्तर से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचता है। अच्छे ( सात्विक ) मनुष्य को सन्त ( त्रिगुणातीत ) बनना चाहिये। सात्विक अच्छाई भी अपूर्ण है, क्योंकि इस Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन अच्छाई के लिये भी इसके विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त संघर्ष समाप्त हो जाता है और अच्छाई पूर्ण बन जाती है, नहीं रहती, वह सब नैतिक बाधाओं से ऊपर उठ जाती है। सत्त्व की प्रकृति का विकास करने के द्वारा हम उससे ऊपर उठ जाते हैं। जिस प्रकार हम काँटे के द्वारा काँटे को निकालते हैं ( फिर उस निकालने वाले काँटे का भी त्याग कर देते हैं) उसी प्रकार सांसारिक वस्तुओं का त्याग करने के द्वारा त्याग को भी त्याग देना चाहिये । सत्त्वगुण के द्वारा रजस् और तमस् पर विजय पाते हैं और उसके बाद स्वयं सत्त्व से भी ऊपर उठ जाते हैं । २३ विकास की अग्रिम तथा अन्तिम कक्षा वह है, जहाँ साधक इस त्रिगुणात्मक जगत् में रहते हुए भी इसके ऊपर उठ जाता है। गीता के अनुसार यह गुणातीत अवस्था ही साधना की चरम परिणति है, गीता के उपदेश का सार है । २४ गीता में विकास की अन्तिम कक्षा का वर्णन इस प्रकार मिलता है। जब देखने वाला ( ज्ञानगुणसम्पन्न आत्मा ) इन गुणों ( कर्म - प्रकृतियों ) के अतिरिक्त किसी को कर्ता नहीं देखता और इनसे परे आत्मस्वरूप को जान लेता है तो वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् परमात्मा हो जाता है। ऐसा शरीरधारी आत्मा शरीर के कारणभूत एवं उस शरीर से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणात्मक भावों से ऊपर उठकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जन्म, जरा, मृत्यु के दुःखों से मुक्त होकर अमृत - तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वह इन गुणों से विचलित नहीं होता, वह प्रकृति ( कर्मों) के परिवर्तनों को देखता है, लेकिन उनमें उलझता नहीं, वह सुख - दुःख एवं लौह - कांचन को समान समझता है, सदैव आत्मस्वरूप में स्थिर रहता है। प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में तथा निन्दा स्तुति में वह सम रहता है। उसका मन सदैव स्थिर रहता है । मानापमान तथा शत्रु-मित्र उसके लिये समान हैं। ऐसा सर्व आरम्भों ( पापकर्मों ) का त्यागी महापुरुष गुणातीत कहा जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था जैन विचारणा के तेरहवें सयोगीकेवली मुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अर्हत्भूमि के समान है। यह पूर्ण वीतरागदशा है, जिसके स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी समालोच्य आचार-दर्शनों में काफी निकटता है । १११ त्रिगुणात्मक देह से मुक्त होकर विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेना साधना की अन्तिम कक्षा है । इसे जैन- विचार में अयोगीकेवली गुणस्थान कहा गया है। गीता में उसके समतुल्य ही इस दशा का चित्रण उपलब्ध है। गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं मैं तुझे उस परमपद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ, जिसे विद्वज्जन 'अक्षर' कहते हैं। वीतराग मुनि - लगी हुई है, ज्यों ही त्यों ही वह अच्छाई Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जिसमें प्रवेश करते हैं।२५ आगे वीतराग मुनि द्वारा उसकी प्राप्ति के अन्तिम उपाय की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि “जो शरीर के सब द्वारों का संयम करके ( काया एवं वाणी के व्यापारों को रोककर ), मन को हृदय में रोककर ( मन के व्यापारों का निरोध कर ), प्राण-शक्ति को मूर्धा ( शीर्ष ) में स्थिरकर, योग को एकाग्रकर 'ओम्' इस अक्षर का उच्चारण करता हुआ मेरे अर्थात् विशुद्ध आत्मतत्त्व के स्वरूप का स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग कर संसार से प्रयाण करता है, वह उस परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व भी इसी तथ्य का विवेचन उपलब्ध होता है। जो व्यक्ति इस संसार से प्रस्थान के समय मन को भक्ति और योगबल से स्थिर करके ( अर्थात् मन के व्यापारों को रोक करके ) अपनी प्राणशक्ति को भौंहों के मध्य सम्यक् प्रकार से स्थापित कर देहत्याग करता है, वह उस परम-दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। कालिदास ने भी योग के द्वारा अन्त में शरीर त्यागने का निर्देश किया है। यह समग्र प्रक्रिया जैन-विचार के चतुर्दश अयोगीकेवली गणस्थान के अति निकट है। इस प्रकार यद्यपि गीता में आध्यात्मिक विकास-क्रम का व्यवस्थित एवं विशद विवेचन उपलब्ध नहीं है, तथापि जैन-विचारणा के गुणस्थान प्रकरण में वर्णित आध्यात्मिक विकास-क्रम की महत्त्वपूर्ण अवस्थाओं का चित्रण उसमें उपलब्ध है, जिन्हें यथाक्रम सँजोकर नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का क्रम प्रस्तुत किया जा सकता है। जैन आचार-दर्शन के चौदह गुणस्थानों का गीता के दृष्टिकोण से विचार करने के लिये सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन-विचारणा के किन-किन शब्दों से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण हैं - अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह। रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या रजोगुण के लक्षण हैं। सत्त्वगुण ज्ञान के प्रकाश, निर्माल्यता और निर्विकार अवस्था और सुखों का उत्पादक है। इन तीनों गुणों की प्रकृतियों के बारे में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जैन विचार में बन्धन के पाँच कारणों - १. अज्ञान ( मिथ्यात्व ), २. प्रमाद, ३. अविरति, ४. कषाय और ५. योग से इनकी तुलना की जा सकती है। तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण को अविरति, कषाय और योग तथा सत्त्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चारित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है। इन तुल्य आधारों के द्वारा तुलना करने पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्नलिखित स्वरूप होगा १. मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है और रजोगुण Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११३ तमोन्मुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होता है। सत्त्वगुण इस अवस्था में पूर्णतया तमोगुण और रजोगुण के अधीन होता है। यह रज समन्वित तमोगुण-प्रधान अवस्था है। २. सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में भी तमोगुण प्रधान होता है। रजोगुण तमोन्मुखी होता है, फिर भी किंचित् रूप में सत्त्वगुण का प्रकाश रहता है। यह सत्त्वरज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। ३. मिश्र गुणस्थान में रजोगुण प्रधान होता है। सत्त्व और तम दोनों ही रजोगुण के अधीन होते हैं। यह सत्त्व-तम समन्वित रजोगुण प्रधान अवस्था है। ४. सम्यक्त्व गुणस्थान में व्यक्ति के विचार-पक्ष में सत्त्वगुण का प्राधान्य होता है। विचार की दृष्टि से तमस् और रजस् गुण सत्त्वगुण से शासित होते हैं, लेकिन आचार की दृष्टि से सत्त्वगुण तमस् और रजस् गुणों से शासित होता है। यह विचार की दृष्टि से रज-समन्वित सत्त्वगुण प्रधान और आचार की दृष्टि से रज-समन्वित तमोगुणप्रधान अवस्था है। ५. देशविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में विचार की दृष्टि से तो सत्त्वगुण प्रधान होता है, साथ ही आचार की दृष्टि से भी सत्त्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है। यद्यपि रज और तम पर उसका प्राधान्य स्थापित नहीं हो पाता है। यह तमोगुण समन्वित सत्त्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है। ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि आचार-पक्ष और विचार पक्ष दोनों में सत्त्वगुण प्रधान होता है, फिर भी तम और रज उसकी प्रधानता को स्वीकार नहीं करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने की और आचार-पक्ष की दृष्टि से सत्त्व पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते रहते हैं। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सत्त्वगुण तमोगुण का या तो पूर्णतया उन्मूलन कर देता है अथवा उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, लेकिन अभी रजोगुण पर उसका पूरा अधिकार नहीं हो पाता है। ८. अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण पर पूरी तरह काबू पाने का प्रयास करता है। ९. अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण को काफी अशक्त बनाकर उस पर बहुत कुछ काबू पा लेता है, फिर भी रजोगण अभी पूर्णतया नि:शेष नहीं होता है। रजोगुण की कषाय एवं तृष्णारूपी आसक्तियों का बहुत कुछ भाग नष्ट हो जाता है, फिर भी रागात्मक आसक्तियाँ सूक्ष्म लोभ के छद्मवेश में अवशेष रहती हैं। १०. सूक्ष्म सम्पराय नामक गुणस्थान में साधक छद्मवेशी रजस् को जो सत्त्व का छद्म स्वरूप धारण किये हुए था, पकड़कर उस पर अपना आधिपत्य Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ स्थापित करता है। ११. उपशान्तमोह नामक गुणस्थान में सत्त्व का तमस्, रजस् पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्त्व पूर्व अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १२. क्षीणमोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है जिसमें साधक पूर्वावस्थाओं के तमस् तथा रजस् का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है। यह विशुद्ध सत्त्वगुण की अवस्था है। यहाँ आकार सत्त्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है। साधक को अब सत्त्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्त्वगुण का भी परित्याग कर देता है जैसे काँटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है। यहाँ नैतिक पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं तपन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरूपी स्थान समाप्त हो जाता है। १३. सयोगीकेवली गुणस्थान आत्मतत्त्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उनसे प्रभावित नहीं होती । वस्तुतः अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में न रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं । साधना सिद्धि में परिणत हो जाती है । साधन स्वभाव बन जाता है। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में, “तब सत्त्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है । " २९ १४. गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग-प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन परम्परा में अयोगीकेवली गुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक धारणा जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त के निकट है। योगवाशिष्ठ और गुणस्थान - सिद्धान्त इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गयी हैं, जिनमें सात आध्यात्मिक 1 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११५ विकास की अवस्था को और सात आध्यात्मिक पतन की अवस्था को सूचित करती हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन परम्परा के गुणस्थान - सिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त चेतना के रूप में सातवें स्थान से ही प्रारम्भ होता है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की और सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक अविकास की हैं। योगवाशिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन परम्परा से कितनी निकटता है इसका निर्देश पं० सुखलाल जी ने भी किया है । " योगवाशिष्ठ में जो चौदह भूमिकाएँ हैं, उनमें सात का सम्बन्ध अज्ञान से और सात का सम्बन्ध ज्ञान से है। अज्ञान की अधोलिखित सात भूमिकाएँ हैं— १. बीज जाग्रत् : यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है। यह वनस्पतिजगत् की अवस्था है। २. जाग्रत् : इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है। यह पशु-जगत् की अवस्था है। ३. महाजाग्रत् : इस अवस्था में अहं और ममत्व पूर्ण विकसित हो जाते हैं। यह आत्मचेतना की अवस्था है। यह अवस्था मनुष्य - जगत् से सम्बन्धित है। ४. जाग्रत् स्वप्न : यह मनोकल्पना की अवस्था है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कह सकते हैं। यह व्यक्ति की भ्रमयुक्त अवस्था है। ५. स्वप्न : यह स्वप्न चेतना की अवस्था है। यह निद्रित अवस्था की अनुभूतियों को निद्रा के पश्चात् जानना है । ६. स्वप्न जाग्रत : यह स्वप्निल चेतना है। स्वप्न देखती हुई जो चेतना है वह स्वप्न जाग्रत है। यह स्वप्न दशा का बोध है। ७. सुषुप्ति : यह स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था है। जहाँ आत्मचेतनता की सत्ता होते हुए भी जड़ता की स्थिति है । है। ज्ञान की सात भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं। १. शुभेच्छा : यह कल्याण - कामना है। २. विचारणा : यह सदाचार में प्रवृत्ति का निर्णय है। ३. तनुमानसा : यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था ४. सत्त्वापत्ति: शुद्धात्म स्वरूप में अवस्थिति है । ५. असंसक्ति : यह आसक्ति के विनाश की अवस्था है। यह राग भाव Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण का नाश होने से सन्तोषरूपी निरतिशय आनन्द की अनुभूति की अवस्था है। ६. पदार्थाभावनी : यह भोगेच्छा के पूर्णत: विनाश की अवस्था है, इसमें कोई भी चाह या अपेक्षा नहीं रहती है, केवल देह यात्रा दूसरों के प्रयत्न को लेकर चलती है। . .७. तूर्यगा : यह देहातीत विशुद्ध आत्मरमण की अवस्था है। इसे मुक्तावस्था भी कहा जा सकता है। योग-दर्शन में आध्यात्मिक विकास-क्रम योग-साधना का अन्तिम लक्ष्य चित्तवृत्तिनिरोध है। योगदर्शन में योग की परिभाषा है - "योग: चित्तवृत्तिनिरोधः"। योगदर्शन में चित्तवृत्ति-निरोध को इसलिये साध्य माना गया कि सारे दु:खों का मल चित्त-विकल्प है। चित्त-विकल्प राग या आसक्तिजनित है। जब राग या आसक्ति होगी तो चित्त-विकल्प होंगे और जब चित्त-विकल्प होंगे तो मानसिक तनाव होगा और जब मानसिक तनाव होंगे तो समाधि सम्भव नहीं होगी। समाधि के लिये चित्त का निर्विकल्प या निरुद्ध होना आवश्यक है। योगदर्शन में चित्त की जो पाँच अवस्थाएँ बतायी गयी हैं, वे क्रमश: साधना के विकास-क्रम की ही सूचक हैं। चित्त की ये पाँच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं - १. मूढ़ : यह चित्त की तमोगुण प्रधान जड़ता की अवस्था है। इसमें अज्ञान और आलस्य की प्रमुखता रहती है। आत्माभिरुचि और ज्ञानाभिरुचि का अभाव होता है। यह अवस्था जैनधर्म के मिथ्यात्व गुणस्थान और बौद्धधर्म के अंधपृथक्जन के समान है। २. क्षिप्त : यह चित्त की रजोगुण प्रधान अवस्था है। इसमें रजोगुण की प्रमुखता के कारण चित्त में चंचलता बनी रहती है। सांसारिक विषय-वासनाओं में अभिरुचि होने के कारण मन केन्द्रित नहीं रहता। इस अवस्था में व्यक्ति अनेक चित्त होता है। वह वासनाओं का दास होता है और अपनी तीव्र आकांक्षाओं के कारण दुःखी बना रहता है। यद्यपि उसमें सत्त्वगुण का संयोग होने से कभी-कभी तत्त्व-जिज्ञासा और संसार की दुःखमयता का आभास होने लगता है। यह अवस्था भी मिथ्यात्व गुणस्थान से ही तुलनीय है। किन्तु यह उस व्यक्ति की अवस्था है जो सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में गिरा है। अत: किसी सीमा तक इसे सास्वादन और मिश्र गुणस्थान से भी तुलनीय माना जा सकता है। ३. विक्षिप्त : इसमें सत्त्वगुण की प्रधानता होती है किन्तु रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति के कारण सत्त्वगुण का इनसे संघर्ष चलता रहता है। यह Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११७ शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है। सत्त्वगुण, तमोगुण और रजोगुण अर्थात् प्रमाद और वासना को दबाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु वे भी अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं। चित्त अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करता है किन्तु प्रमाद और वासना के तत्त्व उसे विक्षोभित करते रहते हैं। इस अवस्था को जैन परम्परा के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है। यद्यपि सत्त्वगुण की प्रधानता होने से यह दशा पाँचवें और छठे गुणस्थानों से भी कुछ निकटता रखती है। इसकी तुलना बौद्ध परम्परा की स्रोतापन्न भूमि से भी की जा सकती है। ४. एकाग्र : यह चित्त की एकाग्रता की अवस्था है। वस्तुत: यह पूर्ण आत्मचेतना या जागरुकता की अवस्था है। इसमें चित्त का विषयाभिमुख हो इधर-उधर भटकना समाप्त हो जाता है। व्यक्ति की इच्छाएँ और आकांक्षाएँ क्षीण हो जाती हैं और चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है। इसकी तुलना जैन परम्परा के सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है। ५. निरुद्ध : चित्तवृत्तियों के निरुद्ध हो जाने का अर्थ है - चेतना पूर्ण निर्विकल्प दशा को प्राप्त हो गयी है। इसे स्वरूपावस्थान भी कहा गया है, क्योंकि यहाँ साधक विषयों का चिन्तन छोड़कर स्व-रूप में स्थित हो जाता है। इस अवस्था को जैनधर्म के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के समान माना जा सकता जैन योग-परम्परा में आध्यात्मिक विकास योग-परम्परा से प्रभावित होकर जैन परम्परा में भी आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकास की भूमियों की चर्चा की है। जिस प्रकार योग-परम्परा में योग के आठ अंग माने गए हैं, उसी प्रकार आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है, जो इस प्रकार हैं -- १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. परा। इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियाँ अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार द्रष्टियों से पतन की सम्भावना बनी रहती है, इसलिये उन्हें प्रतिपाती कहा गया है, जबकि अन्तिम चार दृष्टियों से पतन की सम्भावना नहीं होती, अत: वे अप्रतिपाती कही जाती हैं। योग के आठ अंगों से इन दृष्टियों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है - १. मित्रादृष्टि और यम : मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष है। इस अवस्था में अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों अथवा पाँच यमों का पालन होता Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभ कार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करने वालों के प्रति अद्वेषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थायी नहीं होता है। २. तारादृष्टि और नियम : तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है। इसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है। जिस प्रकार मित्रादृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वेष गुण होता है, उसी प्रकार तारादृष्टि में जिज्ञासा गुण होता है, व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है। ३. बलादृष्टि और आसन : इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शान्त हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योगांग से की जा सकती है। क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचिक और मानसिक स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इस अवस्था का प्रमुख गुण शुश्रूषा अर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है। इस अवस्था में प्रारम्भ किये गए शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होते हैं। इस अवस्था में प्राप्त होने वाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थायी होता है। ४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम : दीप्रादृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम के समान हैं। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एवं कुम्भक ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार बाह्य भावनियन्त्रण रूप रेचक, आन्तरिक भावनियन्त्रण रूप पूरक एवं मनोभावों की स्थिरतारूप कुम्भक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक प्राणायाम है। इस दृष्टि में स्थिर व्यक्ति सदाचरण या चरित्र को अत्यधिक महत्त्व देता है। वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोध दीपक की ज्योति के समान होता है। यहाँ नैतिक विकास होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है, अतः इस अवस्था से पतन की सम्भावना बनी रहती है। ५. स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार : पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है। अत: व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्य का मान्यता के रूप में ग्रहण होता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग के अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है। जिस प्रकार प्रत्याहार में विषय-विकार का परित्याग होकर आत्मा विषयोन्मुख न होते हुए स्व-स्वरूप की ओर उन्मुख होता है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी विषय-विकारों का त्याग होकर आत्मा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११९ स्वभावदशा की ओर उन्मुख होती है। इस अवस्था में व्यक्ति का आचरण सामान्यतया निर्दोष होता है। इस अवस्था में होने वाले तत्त्व - बोध की तुलना रत्न की प्रभा से की जाती है, जो निर्दोष तथा स्थायी होती है। ६. कान्तादृष्टि और धारणा : कान्तादृष्टि योग के धारणा अंग के समान है । जिस प्रकार धारणा में चित्त की स्थिरता होती है, उसी प्रकार इस अवस्था में व्यक्ति में सदसत् का विवेक पूर्णतया स्पष्ट होता है । उसमें किंकर्तव्य के विषय में कोई अनिश्चयात्मक स्थिति नहीं होती है। आचरण पूर्णतया शुद्ध होता है । इस अवस्था में तत्त्वबोध तारे की प्रभा के समान एक-सा स्पष्ट और स्थिर होता है । ७. प्रभादृष्टि और ध्यान : प्रभादृष्टि की तुलना ध्यान नामक सातवें योगांग से की जा सकती है। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय और अल्पकालिक होती है, जबकि ध्यान में चित्तवृत्ति की स्थिरता प्रभारूप एवं दीर्घकालिक होती है। इस अवस्था में चित्त पूर्णतया शान्त होता है । पातंजल योगदर्शन की परिभाषा में यह प्रशान्तवाहिता की अवस्था है। इस अवस्था में रागद्वेषात्मक वृत्तियों का पूर्णतया अभाव होता है । इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध सूर्य की प्रभा के समान दीर्घकालिक और अति स्पष्ट होता है और कर्ममल क्षीणप्राय हो जाते हैं । ८. परादृष्टि और समाधि : परादृष्टि की तुलना योग के आठवें अंग समाधि से की गयी है। इस अवस्था में चित्तवृत्तियाँ पूर्णतया आत्म- केन्द्रित होती हैं। विकल्प, विचार आदि का पूर्णतया अभाव होता है । इस अवस्था में आत्मा स्व-स्वरूप में ही रमण करती है और अन्त में निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार यह नैतिक साध्य की उपलब्धि की अवस्था है, आत्मा के पूर्ण समत्व की अवस्था है जो कि समग्र आचार - दर्शन का सार है। परादृष्टि में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना चन्द्रप्रभा से की जाती है । जिस प्रकार चन्द्रप्रभा शान्त और आह्लादजनक होती है, उसी प्रकार इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध भी शान्त एवं आनन्दमय होता है । ३२ योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास क्रम की १. अध्यात्म, २. भावना, ३. भूमिकाओं को पाँच भागों में विभक्त किया है ध्यान, ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय । आचार्य ने स्वयं ही इन भूमिकाओं की तुलना योग - 1 - परम्परा की सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात नामक भूमिकाओं से की है। प्रथम चार भूमिकाएँ सम्प्रज्ञात हैं और अन्तिम असम्प्रज्ञात। इन पाँच भूमिकाओं ३३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण में समता चित्तवृत्ति की समत्व की अवस्था है और वृत्तिसंक्षय आत्मरमण की । समत्व हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और वृत्तिसंक्षय आध्यात्मिक साध्य की उपलब्धि । १२० सन्दर्भ १. देखिये : विनयपिटक, चुल्लवग्ग, ४/४. २. दर्शन और चिन्तन ( गुजराती ), पृ० १०२२. ३. भगवद्गीता : डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० ३१३. ४. गीता, १४ / १०. ५. वही, १४/५. ६. वही, ७ / १३. ७. वही, ९/३०. ८. वही, १/१५. ९. वही, ७/१६, ७/१८ ( इसमें उदारे शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत है ) १०. वही, ७/२०. ११. वही, २/४३, २/४४. १२ . वही, २ / ७. १३. वही, २/४०. १४. वही, ६ / ३७. १५. वही, ९/३०. १६. वही, ९/३१. १७. वही, ६/४५. १८. वही, ६ / ३७, ६/३८. १९. वही, ६/४०. २०. वही, १८ / २०. २९. वही, १८ / २३. २२. वही, १८/२६, वही, १४ / ११ २३. भगवद्गीता ( हिन्दी ) : डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० ११४. २४. गीता, २/४५. २५. वही, ८ / ११. २६. वही, ८/१२, ८/१३. २७. वही, ८/१० २८. कालिदास, रघुवंश, १/८. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १२१ २९. भगवद्गीता ( हिन्दी ) : डॉ० राधाकृष्णन, पृ० ३१०. ३०. योगवाशिष्ठ, उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७/२-२४ उद्धृत-दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० २८२-२८३. ३१. देखिये : दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० २८२-२८३. ३२. देखिये : जैन आचार, पृ० ४०-४७. ३३. योगबिन्दु, ३१, उद्धृत : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १००-१०१. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय गुणस्थान और मार्गणा' जीव की विभिन्न पर्यायों या अवस्थाओं के सन्दर्भ में जिन-जिन अपेक्षाओं से विचार-विमर्श या अन्वेषण किया जाता है, वे सभी मार्गणा कही जाती हैं। जैनदर्शन में जीव के सम्बन्ध में चौदह मार्गणाओं का उल्लेख मिलता है - १. गति, २. इन्द्रिय, ३. काया, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञित्व एवं १४. आहारकत्व। जीवसमास (श्वेताम्बर), षट्खण्डागम ( यापनीय ) एवं गोम्मटसार ( दिगम्बर ) आदि कर्म-सिद्धान्त के ग्रन्थों में इन चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा से गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा की गयी है। १. गतिमार्गणा - गतियाँ चार हैं - १. देव, २. नारक, ३. तिर्यञ्च एवं ४. मनुष्य। इनमें देव और नारक गतियों में मिथ्यात्व से लेकर अविरत सम्यक् दृष्टि तक के प्रथम चार गुणस्थान पाये जाते हैं। तिर्यञ्चों में मिथ्यात्व से लेकर देशविरत सम्यक् दृष्टि तक के पाँच गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च में ही सम्भव है। मनुष्यगति में मिथ्यात्व से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सभी चौदह गुणस्थान सम्भव हैं। २. इन्द्रियमार्गणा - इन्द्रियाँ पाँच मानी गयी हैं। उनमें एकेन्द्रिय जीवों के (१) सूक्ष्म-अपर्याप्त, (२) सूक्ष्म-पर्याप्त, (३) बादर-अपर्याप्त और (४) बादर-पर्याप्त ऐसे चार भेद होते हैं। पुनः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतरेन्द्रिय जीवों में प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो-दो भेद होने से कुल छ: भेद होते हैं। पञ्चेन्द्रिय जीवों में (१) संज्ञी पर्याप्त, (२) संज्ञी अपर्याप्त, (३) असंज्ञी पर्याप्त और (४) असंज्ञी अपर्याप्त ऐसे कुल चार भेद होते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों के चौदह भेद होते हैं, जिन्हें चौदह भूतग्राम के नाम से भी जाना जाता है। इनमें एकेन्द्रिय से लेकर चतुरेन्द्रिय तक के जीवों में मात्र एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है जबकि पञ्चेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व से लेकर अयोगी केवली तक चौदह गुणस्थान सम्भव हैं। ज्ञातव्य है कि करण-अपर्याप्त बादर-पृथ्वीकाय, अपकाय एवं वनस्पतिकाय में तथा उसी प्रकार करण-अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और मार्गणा १२३ और चतुरेन्द्रिय जीव में जन्म लेते समय सास्वादन सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान की सम्भावना स्वीकार की गयी है किन्तु इस गुणस्थान के अत्यधिक अल्पकालिक होने से सामान्यतया यही माना गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरेन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। ३. कायमार्गणा - काय छ: प्रकार की मानी गयी है - पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस। इनमें सकाय जीवों में चौदह गणस्थानों की सम्भावना है। शेष पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। ४. योगमार्गणा - जैन दर्शन में मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहा जाता है। सामान्यतया योग तीन माने गए हैं - १. मनयोग, २. वचनयोग और ३. काययोग। पुन: मनयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात इस प्रकार योग के निम्नलिखित पन्द्रह भेद माने गए हैं - १. सत्य मनोयोग, २. असत्य मनोयोग, ३. सत्यमृषा मनोयोग, ४. असत्यामृषा मनोयोग, ५. सत्य वचनयोग, ६. असत्य वचनयोग, ७. सत्यमृषा वचनयोग, ८. असत्यामृषा वचनयोग, ९. औदारिकशरीर काययोग १०. औदारिकमिश्रशरीर काययोग, ११. वैक्रियशरीर काययोग, १२. वैक्रियमिश्रशरीर काययोग, १३. आहारकशरीर काययोग, १४. आहारकमिश्रशरीर काययोग १५. तैजसकार्मणशरीर काययोग। इन पन्द्रह योगों में से सत्यमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्य-अमृषा मनोयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग -- ये चार योग संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक सम्भव हैं। शेष चार - असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, सत्यासत्य अर्थात् मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग - संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण-मोह गुणस्थान तक सम्भव है। असंज्ञी विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र असत्य-अमृषा रूप अन्तिम मनोयोग एवं वचनयोग ही होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक लेकर जो असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग कहे गए हैं उन्हें ज्ञानावरण के कारण असावधानीवश ही समझना चाहिए। क्योंकि जब तक ज्ञानावरण है तब तक असत्यता की सम्भावना भी है। यद्यपि यह सम्भावना केवल असावधानी के कारण ही होती है। जहाँ तक काययोगों का प्रश्न है देव और नारक वैक्रिय शरीर वाले होते Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च, वैक्रिय एवं औदारिक शरीर वाले होते हैं। प्रमत्तसंयत में आहारक शरीर सम्भव होता है। जबकि सभी प्रकार के अपर्याप्त जीव मिश्र शरीर वाले होते हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के देव और नारकों में वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और तैजस-कार्मण – ये तीन काययोग पाये जाते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक के मनुष्यों में तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर देशविरत गणस्थान तक के तिर्यञ्चों में औदारिक एवं वैक्रिय काययोग सम्भव होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि केवल वैक्रिय लब्धि के धारक गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही वैक्रिय काययोग की सम्भावना होती है। मनुष्यों में भी अप्रमत्तसंयत गणस्थान और उसके आगे के सभी गुणस्थानों में वैक्रिय काययोग सम्भव नहीं होता है क्योंकि आत्मविशुद्धि के कारण ये वैक्रियलब्धि का उपयोग नहीं करते हैं। इसी प्रकार प्रमत्तसंयत चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनियों में आहारक काययोग की सम्भावना होती है। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि अपर्याप्त अवस्था में मिश्र गुणस्थान सम्भव नहीं होता है। अतः उस अवस्था में ही वैक्रिय मिश्र काययोग सम्भव होता है। कार्मण-तैजस काययोग भवान्तर करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान में तथा केवली समुद्घात करते समय सयोगीकेवली में सम्भव होता है। मिश्र गुणस्थान में कोई जीव मृत्यु को प्राप्त ही नहीं करता है। अत: उसमें तैजस कार्मण काययोग सम्भव नहीं है। ५. वेदमार्गणा - जैनदर्शन में 'वेद' शब्द का तात्पर्य है - स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक सम्बन्धी कामवासनाएँ। वेद तीन होते हैं - पुरुषवेद, स्त्रीवेद एवं नपुंसकवेद। नारकों में नपुंसकवेद, देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद – ये दो वेद होते हैं। तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों में स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक ये तीनों ही वेद पाए जाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर सम्पराय नामक नौवें गुणस्थान तक तीनों वेदों अर्थात् तीनों प्रकार की कामवासनाओं की सम्भावना है। शेष गुणस्थानों में वेद अर्थात् कामवासना का अभाव है। यहाँ विशेषरूप से यह ज्ञातव्य है कि जैनदर्शन में स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी आंगिक संरचना लिङ्ग कही जाती है, जबकि तत्सम्बन्धी कामवासना वेद। श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा के अनुसार दसवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कामवासना समाप्त होने पर तीनों ही लिङ्गों के धारक आरोहण कर सकते हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार सातवें गुणस्थान से आगे मात्र पुरुष ही आरोहण कर सकते हैं। ६. कषायमार्गणा - जैनदर्शन में कषायों के कुल पचीस भेद माने गये Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और मार्गणा हैं । उसमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में इन पचीस ही कषायों की सम्भावना होती है । सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कषायों का उदय नहीं रहता । देशविरत सम्यक्-दृष्टि में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क एवं अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क इन आठ कषायों का अभाव होता है । इसलिये इसमें कुल सत्रह कषायों का उदय सम्भव होता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का अभाव होने से आगे के गुणस्थानों में संज्वलन कषायचतुष्क तथा हास्य-षटक् और तीनों वेद ( कामवासनाएँ ) इस प्रकार कुल तेरह कषायों का उदय शेष रहता है। नवें गुणस्थान के प्रारम्भ में हास्य षटक् का क्षय हो जाने पर मात्र संज्वलन चतुष्क और वेदत्रिक् – ऐसे कुल सात कषायों का उदय होता है। दसवें गुणस्थान में वह वेदत्रिक् और संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान एवं संज्वलन माया का क्षय हो जाने पर मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है। आगे के चारों गुणस्थानों में कषाय की सत्ता का ही अभाव हो जाता है। - ७. ww - ज्ञानमार्गणा ज्ञान पाँच माने गए हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान । इनके अतिरिक्त तीन अज्ञान या मिथ्याज्ञान भी होते हैं मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान एवं विभंग ज्ञान । मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों की सत्ता होती है। मिश्र गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों एवं तीनों ही ज्ञानों का मिश्रित रूप बोध होता है । सम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ही ज्ञानों की सम्भावना होती है, पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मन: पर्यायज्ञान की सम्भावना होने से चारों ज्ञान सम्भव हैं। जबकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में मात्र एक केवलज्ञान ही होता है। ८. संयममार्गणा संयम या चारित्र पाँच माने गए हैं. • सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । वस्तुतः ये व्यक्ति के आचरण की पवित्रता के क्रमिक विकास के सूचक हैं। प्रथम से लेकर अविरत सम्यक् - दृष्टि तक चारित्र का अभाव होता है । देशविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान में आंशिक रूप से ही सम्यक् चारित्र का सद्भाव पाया जाता है। जबकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय ये दोनों चारित्र या संयम सम्भव होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही सम्भव है । इसी प्रकार सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान में ही सम्भव होता है । यथाख्यात चारित्र उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - इन चार गुणस्थानों में ही सम्भव होता है । ९. दर्शनमार्गणा दर्शन चार माने गए हैं – चक्षुदर्शन, अचक्षु - --- १२५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इनमें चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक उपलब्ध होते हैं । अवधिदर्शन अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सम्भव है । जबकि केवलदर्शन मात्र सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को होता है । ―― १०. श्यामार्गणा लेश्याएँ छ: मानी गयी हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कपोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कृष्ण, नील और कपोत ये तीनों लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान तक पायी जाती हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पायी जाती है। जबकि शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव है। यहाँ तक ज्ञातव्य है कि शुक्ललेश्या का सद्भाव मिथ्यादृष्टि में माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी कभी - कभी शुद्ध अध्यवसाय प्रकट हो जाते हैं और उसमें भी लोकमंगल की भावना सम्भव होती है। उदाहरणार्थ – तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया हुआ जीव जब पूर्व में नरकायु का बन्ध होने से देहत्याग करते समय मिथ्यात्व तो ग्रहण करता है फिर भी उसमें उदात्त लोकमंगल की भावना या शुक्ललेश्या का सद्भाव हो सकता है। ― - ११. भव्यत्वमार्गणा • जीव दो प्रकार के माने गए हैं। भव्य और अभव्य । अभव्यजीव केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही पाए जाते हैं। भव्यजीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों में मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अभव्यजीव सम्यक्त्व को ही प्राप्त नहीं कर पाते और इसलिये उनमें सास्वादन और मिश्र गुणस्थान भी सम्भव नहीं होते हैं। १२. सम्यक्त्वमार्गणा उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - ये तीन प्रकार के सम्यक्त्व होते हैं। ये तीनों सम्यक्त्व अविरत सम्यक् - दृष्टि से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकं सम्भव होते हैं। ज्ञातव्य है कि उपशम सम्यक्त्व मात्र उपशान्तमोह गुणस्थान तक ही होता है; जबकि क्षायिक सम्यक्त्व अविरत सम्यक् - दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक सम्भव है। ― -- १३. संज्ञीमार्गणा जीव दो प्रकार के माने गए हैं। संज्ञी और असंज्ञी | जिनमें मन अर्थात् विवेक बुद्धि का अभाव होता है वे असंज्ञी कहे जाते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सास्वादन ये दो गुणस्थान ही सम्भव हैं। संज्ञी ( समनस्क ) जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को नो- संज्ञी नो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान और मार्गणा असंज्ञी कहा गया है, क्योंकि उनमें विचार की अपेक्षा नहीं होती। वे तो मात्र साक्षी भाव में रहते हैं। १४. आहारमार्गणा आहार अर्थात् भोजन। यह आहार तीन प्रकार का होता है ओजाहार, लोमाहार और कवलाहार । जो इन आहारों को ग्रहण करता है, वह आहारक जीव कहा जाता है, जबकि जो इनमें से किसी भी आहार को ग्रहण नहीं करते, वे अनाहारक जीव होते हैं। जैनदर्शन के अनुसार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने के बीच विग्रहगति से यात्रा करने वाले जीव, केवली समुद्घात करने वाले केवली, अयोगी केवली और सिद्ध अनाहारक माने गए हैं। शेष जीव आहारक माने जाते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान वाले जीव विग्रहगति से यात्रा करते समय ही अनाहारक होते हैं, शेष समय में आहारक ही होते हैं। इसी प्रकार सयोगकेवली गुणस्थान में केवली समुद्घात करने वाला जीव उसके तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में अनाहारक होता है, जबकि अयोगीकेवली अनाहारक ही होता है। अतः अनाहारक अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, अविरतसम्यक्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये पाँच गुणस्थान ही सम्भव हैं। आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान ही सम्भव हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार सयोगीकेवली कवलाहार नहीं करता है जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार वह कवलाहार करता है । - १२७ इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न मार्गणाओं अर्थात् प्राणी की मनोदैहिक स्थितियाँ भी उसके आध्यात्मिक विकास में बाधक या साधक होती हैं। वस्तुतः व्यक्ति का मनोदैहिक विकास उसके आध्यात्मिक विकास का सहभागी होता है। सन्दर्भ १. जीवसमास, जिनशासन आराधना ट्रस्ट, बम्बई- २, गाथा ६-८२. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची अध्यात्ममत परीक्षा : यशोविजय, साधु अमीचंद पन्नालाल जैन ट्रस्ट, बम्बई, ई० स० १९५४ । अष्टप्राभृत : अनुवादक रावजीभाई छगनभाई देसाई, परमश्रुत प्रभावक मंडल, __ श्रीराजचन्द्र आश्रम, अगास । आचारांगनियुक्ति : भद्रबाहु, आगमोदय समिति, वीर निर्वाण सं० २४५४ । आचारांग : स्थानकवासी जैन कॉन्फरेन्स, बम्बई, १९३८ । आवश्यकचूर्णि : जिनदासगणि, उत्तर भाग, रतलाम, १९२९ । आवश्यकनियुक्ति ( भाग २ ) : हरिभद्र, प्रकाशक श्री भेरुलाल कन्हैयालाल __ कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं० २५९८ । कर्म-प्रकृति : शिवशर्माचार्य, श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वीर सं० २४४३ । कल्पसूत्र : श्री हंसविजय जैन, फ्री लायब्रेरी, लुणसावाडा, अहमदाबाद । कसायपाहुडसुत्त : सम्पादक पं० हीरालाल जैन, वीरशासन संघ, कलकत्ता, १९५५ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा : स्वामीकुमार, टीका शुभचन्द्र, सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास, वि० सं० १९७८ । गीता : गीताप्रेस, गोरखपुर, १९८४ । गोम्मटसार : पं० खूबचन्द जैन, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास, वि० सं० २०२२ ।। जैन धर्म : मुनि सुशील कुमार, श्री अ० भा० श्वेताम्बर स्थानकवासी, जैन कान्फरेन्स, दिल्ली । जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ( भाग २ ) : डॉ० सागरमल जैन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८२ ।। जैन शिलालेख संग्रह ( भाग २ ) : विजयमूर्ति, माणिकचन्द्र दिगम्बर ग्रन्थमाला समिति, शोलापुर, १९५२ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची १२९ जैन साहित्य और इतिहास : नाथूरामजी प्रेमी, द्वितीय संस्करण, बम्बई, ई० स० १९५६ । जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार, वीर शासन संघ, कलकत्ता, ई० स० १९५६ । जैन साहित्य का इतिहास ( भाग २ ) : सम्पादक पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी, ई० स० १९६२ । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् : विद्यानन्द निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, ई० स० १९१८ । तत्त्वार्थसूत्र : पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, ई० स० १९८४ । तत्त्वार्थसूत्रम् : टीका हरिभद्र, ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम, १९६२ । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र : सिद्धसेनगणि, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ग्रंथांक ७६, विरात् १९८६ । तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( भाग २ ) : डॉ० नेमिचन्द्र, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, सागर, ई० स० १९७४ | दर्शन और चिन्तन : पं० सुखलालजी, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद, ई० स० १९५७ । नियमसार : कुन्दकुन्द, पंडित अजित प्रसाद, दि सेण्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ, ई० स० १९३१ । निर्युक्ति संग्रह : सम्पादक श्री विजयजिनेन्द्रसूरि, श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, सौराष्ट्र, ई० स० १९८९ । भगवती आराधना ( विजयोदया टीका ) : सम्पादक सिद्धान्तशास्त्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ई० स० १९७८ । भगवद्गीता : डॉ० राधाकृष्णन, अनुवादक विराज, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, ई० स० १९६२ । मूलाचार ( दो भाग ) : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १९८४-१९९२ । योगदृष्टिसमुच्चय : स्थानकवासी श्री जैन ग्रंथ प्रकाशक सभा, राजनगर, अहमदाबाद, वीर नि० सं० २४६५ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण योगबिन्दु : हरिभद्र, सम्पादक मुनि जम्बूविजय जी, जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर । योगवाशिष्ठ : निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, ई० स० १९१८ | १३० राजवार्तिक : भट्टअकलंक, सम्पादक प्रो० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० स० १९५३ । विनयपिटक : अनुवादक राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा, सारनाथ ( बनारस ), ई० स० १९३५ । विशेषावश्यकभाष्य : जिनभद्रगणि, आगमोदय समिति, बम्बई, ई० स० १९२७ । शतकनामा : पंचकर्मग्रन्थ ( श्री लघुप्रकरण संग्रह ), शा० नगीनदास करमचंद, मु० पाटण हाल, बम्बई, ई० स० १९२५ । षट्खण्डागम ( सत्प्ररूपणा ) : जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, पुस्तक १, द्वि० सं०, ई० स० १९७३ । सम प्रॉब्लेम ऑफ जैन साइकोलॉजी : टी० जी० कलघटगी, कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवार, ई० स० १९६१ । समयसार : श्री म० ही ० पाटनी, दिगम्बर जैन पार ट्रस्ट, मारोठ ( मारवाड़ ), ई० स० १९५३ । समवायांग : सम्पादक- मधुकर मुनि, जैन आगम प्रकाशन समिति, व्यावर ( राजस्थान ), ई० स० १९८२ । सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद देवनन्दी, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० स० १९५५ । स्टडीज़ इन जैन फिलॉसफी : नथमल टाटिया, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, ई० स० १९५१ । स्पिनोजा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त : डॉ० आर० के० त्रिपाठी, का० हि० वि० वि०, ई० स० १९५७ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका अकलंक २ १६, २७, २८, ३८, ३९, अघातीकर्म ६८ ४६, ४८, ४९, ५०, ५२, अचला ९५ ६२, ६३, ७५, ७६, ७७, अचेलता २३ ९७, १०७, ११३ अध:-प्रवृत्ति ३६ अपूर्वबन्ध ४९ अधिमुक्तचर्याभूमि ९५, ९६, १०२ अपूर्वस्थितिबन्ध ६३ अनन्तदर्शन ६७ अप्रत्याख्यानी २२, ५९, ६२, ८२ अनन्तवियोजक ९, १४, १७, २१, अप्रमत्त ७६, ७७ ।। २५, २९, ३६, ३७, ३९ अप्रमत्तसंयत्त ९, १२, १४, १६, अनन्तशक्ति ६७ १७, १८, ३८, ५२, ६०, अनन्तज्ञान ६७ ६१, ८२, ९९, १०२, अनन्तानुबन्धी १०, ११, २२, २५, १०७, ११३ २७, ३६, ५७, ६०, ६२, अभव्य आत्मा ५३ ७१, ८०, ८१, ८२, १०० अयोगीकेवली १०, १४, १६, २४, अनन्तानुबन्धी कषाय ५९ २५, २९, ३०, ५२, ६८, अनागामी १३, ९३, ९४, ९५, ७५, ७६, ७७, ७८, ८५, १००, १०१ १०५, १०६, १०८, १११, अनिवृत्तिकरण १२, १६, २८, ११२, ११४ ३९, ४८, ५२ ६४, ७५, अयोगीनाथ २७ ७६, ८३ अरति ६४, ६५ अनुप्रेक्षाभावना २८ अर्चिष्मती ९५ अन्तरात्मा ४२, ४३, ४४ अर्हत् १३, ६८, ९३ अन्तराय ६७, ६८, ७३, ८३, अर्हत् भूमि ९३ ८५, ८६ अर्हतावस्था ९५ अन्तर्मुखी ४३ अविरत ९ अन्तर्मुहूर्त ५०, ५५, ५७, ६७ अविरत सम्यग्दृष्टि १४, ५२, ५६, अपृथक् जनभूमि ९२ ५७, ११७ अपूर्वकरण ९, १०, १२, १४, अशुभविहायोगति ८१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ३८ असम्प्रज्ञात ११४, ११९ आवश्यकसूत्र १ आचारांग १, ४, ५, ४२ आहारकद्विक ८१ आचारांगचूर्णि ३४ उत्तराध्ययन १ आचारांग नियुक्ति २०, २२, २३, उदय ५ २९, ३०, ३४, ३६, ३७, उदीरणा ५, ७०, ७१, ८१, ८२, ४१ ८३, ८४, ८५ आजीवक १३, १०४ उपशम ३, ५, ९, ११, १४, २१, आत्मविशुद्धि ५ आत्मा ४४, ४५, ४८, ४९, ५३, उपशान्त ५, ९, ११, २१, २५, ५४, ५७, ५८, ७०, १०५ ३०, ३६, ३७ आदित्रिक २५ उपशान्त कषाय ११, १४ आध्यात्मिक विकास १, ३, ९, १०, उपशान्तमोह २, ३, ९, १०, १२, १३, १४, २०, २२, २३, १४, १७, १८, २१, २९, २४, ३२, ३३, ४०, ४२, ३०, ३८, ५२, ६५, ६६, ४५, ५२, ५३, ५६, ६४, ७५, ७६, ७७, ७८, ८४, ६५, ६६, ७०, ७९, ९२, १०४ ९५, ९७, ९८, १००, उपशान्तमोहक्षपक १४ १०३, १०६, १०९, ११० उमास्वाति १०, ११, १३, १४, १११, ११३ २२, ३२, ३४ आनन्दघन ४३ एकाग्रनिरुद्ध ११७ आयुष्यकर्म ४८ ओघ ( सामान्य ) ७५ आर्तध्यान ९ ऋषिभाषित १ आयुकर्म ५६, ६८, ६९, ७२, कठोपनिषद् ४४ ८२, ८४, ८६ कर्म-निर्जरा ५, ९, १४, २०, २१, आर्यकृष्ण २३ २४, २६, २८, २९, ३२, आर्यनक्षत्र २३ ३४, ३५, ३६ आर्यभद्र २३ कर्म-परमाणु ४७ आर्यरक्षित २२, २३ कर्म-प्रकृति २४, २६, ५०, ५७, आर्यशिवभूति २३ ६२, ७१, ७२, ७३, ७४, आवश्यकचूर्णि १, २, ४ ७९, ८३, ८४, ८५ आवश्यकनियुक्ति १, ४, २४, २६, कर्ममल ४३ ४० कर्मवर्गणा २२, ६२, ७१ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका १३३ कर्मविपाक ४९ गीता ६६, १००, १०४, १०५, कर्मविमुक्ति ७० १०६ कर्मविशुद्धि ४, ५, १०, १२, १५, गुणनिर्जरा ५ ४३ गुणश्रेणी २२, २५, २६, २९, कर्मसिद्धान्त ७०, ७१ ३०, ३८, ४९, ६३ कल्पसूत्र २३, २६ गुणसंक्रमण ४३, ४९, ५० कल्याण पृथक् जनभूमि ९२ गोम्मटसार २४, ३३, ४०, ४१, कषाय ११, ५८, ५९, ६०, ६२, ६६ ६६, ६७, ६८, ८० गोत्रकर्म ६८, ६९, ७३, ८१, ८२, कसायपाहुड १, ११, १२, ३०, ८३, ८४, ८५, ८६ ७० गौड़पाद १२ कसायपाहुडसुत्त ३, ४, ५, १२, ग्रन्थि ४८ १५, ४१ ग्रन्थि-भेद ४६ कषाय-उपशमक २१, २९ घृणा ६४, ६५ कषाय-उपशान्त २२, २९, ३० घातीकर्म ६८ कषाय-चतुष्क २२, २९ चन्द्रर्षि २४ कषाय-क्षपक २२ चरित्रविशुद्धि ५१ कान्ता १११ चारित्रमोह ३, १०, ११, २२, ३९, कार्तिकेयानुप्रेक्षा २७, २८, २९, ४५, ५०, १०१ ३०, ३१, ३२, ३३, ४३, चित्तवृत्ति ११६, ११७, ११९, १२० काललब्धि ७१ चूलिका २९, ३०, ३६ कुन्दकुन्द ४, १३, ३०, ३१, ३२, छद्मस्थ ९, १३, १४, ३८ जड़कर्म ४८ कुमारदत्त ३२ जातिचतुष्क ८१ कुमारनन्दी ३१ जिन ११, १४, १८, २१, २८, कुमारस्वामी ३० कुम्भक ११८ जीवनमुक्त ४३, ६८ केवली समुद्घात ३, ९, १४ ३०, जीवसमास ३, ४, ५, १५, २३, ६८, ६९ ३२, ३३ क्रोड़ा-क्रोड़ी ४७, ४८ . जीवस्थान १, ३, ४, ५, १३, १५, क्रोध ४७, ५२, ५७, ५८, ६० ४२ ४४ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण तत्त्वार्थभाष्य २, ३, ११, १५ देवनन्दी ३३ तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ४ देवेन्द्रसूरि २५, २६ तत्त्वार्थसूत्र १, २, ३, ९, १०, देशना ४८ ११, १२, १३, २०, २२, देश-विरत ९, १२, १४, १७, २३, २८, २९, ३०, ३२, २५, ३८, ५२, ५८, ७५, .३३, ३४, ३५, ३७, ४०, ७६, ७७, ७८, ११३ ४१ देशव्रत २१, २५ तमोगुण १००, १०१, १०३, द्वादशानुप्रेक्षा ३०, ३१ १०४, १०६, १०७, १११ धर्ममेधा ९५ तारा ५३, १११, ११२ धर्मानुस्मृति ९३ तिर्यञ्चत्रिक ८१ धवलाटीका २९ तीर्थङ्कर ५८, ८० ध्यान १४, ११३ तुर्यगा ११६ नपुंसकवेद ८०, ८१ दशभूमिशास्त्र १०१ नरकगति ८० दर्शनमोह १०, ११, ३९, ४५, नरकत्रिक ८१ ५०, १०१ नरकानुपूर्वी ८० दर्शनमोहउपशमक ३, १७, ३८ नामकर्म ६८, ६९, ७२, ७३, ७४, दर्शनमोहत्रिक २७, २८, २९ ७९, ८०, ८३, ८४, ८५, दर्शनमोहक्षपक ३, ९, १०, १४, ८६ १७, २१, २५, २८, २९, नित्य-एकान्त ३२ ३६, ३९ नियमसार १४, १५ दर्शनविशुद्धि ५१ निर्जरा २, १३, २४, ३५ दर्शनावरण ६७, ६८, ७१, ८२, निर्जरा-अनुप्रेक्षा २८ ८३, ८४, ८५, ८६ निर्माण नामकर्म ९५ दशवैकालिक १ निवर्तन ६६ दशाश्रुतस्कन्ध २२, २६ निश्चयनय ३०, ३१ दसविध १३ निह्नव २२, २३ दिगम्बर २, ३, १५, २७, २८, नेमिचन्द्र ५६, ६६ ३२, ३३, ३४, ४०, ७० नोकषाय २२, ६४, ८२ द्रीपा ५३, १११, ११२ पंचसंग्रह २४, २५ दुरारोह ९५ पारगामी ४३ दूरंगमा ९५ परमात्मा ४२, ४३, ४४, १०५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ प्रकाश ३२ परा ११, ११३ परीषह ९, १३, १४ पुद्गल २२, ७१, ९६ पुरुषार्थ ६३, ७१ पुष्पमण्डिता ९५ पूज्यपाद ३२, ३३, ४३ पूज्यपाद देवनन्दी ४, ३४ पूरक ११८ प्रचला ८१ प्रचलाप्रचला ८१ प्रतीत्यसमुत्पाद १०३ प्रत्याख्यानी २२, ६२, ८२ प्रत्याहार ११८ प्रभा ११, ११३ प्रमत्त ७६, ७७ प्रमत्तसंयत ९, १७, २१, ५२, ५९, ७५, १०७ प्रमाद ६०, ६१, ६८ प्रमुदिता ९५, १०२ प्रज्ञापना २३ प्रज्ञापारमिता १०३ प्राणायाम ११८ प्राणीय ४७ फलविपाक ६८ बद्धमान ९५ बंध ४५ बंधद्वार २४, २५ बंधन ४२ बला ५३, ११, ११२ बहिरात्मा ४२, ४३, ४४ बहिर्मुखी ४३ शब्दानुक्रमणिका बादर - संपराय २, ९, १०, १३, १४ बारस्साणुवेक्खा ३० बुद्धानुस्मृति ९३ बोटिक शिवभूति २३ बोधिप्राणिधिचित्त ५८, ९६ बोधिसत्व ५८, ९६, ९८ भगवती १ भगवती आराधना १, ४, १२, १५, ३१ भद्रबाहु२२, २३ भय ६४, ६५ भूतग्राम १, ३२, ३३ मज्झिमनिकाय ९२ १३५ भव्य आत्मा ९२ मध्यम संहनन चतुष्क ८१ महाभारत ५७ महायान १३, ५८, ९२, ९५ मान ४७, ५२, ५७, ६० माया ४७, ५२, ५७, ६०, ६२ मार्गणा ५ मार्गणास्थान १३, ४२ मिथ्यादृष्टि ११, १५, १७, २१ मिथ्यात्वमोह ५०, ६०, ७३, ८०, ८२ मिश्रगुणस्थान ११६ मिश्रमोह ५०, ६० मित्रा ४२ मुनिनाथ ३१ मूलाचार १, ४, १२, १५, ३१, ४० मूढ़ ११६ मोहनीय ६७, ६८, ७१, ७३, ७९, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १२१ ८२, ८३, ८६ विदेहमुक्त ४३ मोक्ष ४२ विपाक ५, ६८, ७०, ७१ मोक्ष प्राभृत ४४ विला ९५ यथाख्यातचारित्र ६७ विरत ९, १२, १४, १७, २१, २८ यथाप्रवृत्तिकरण २१, ४६, ४७, विरत संयत १२ ४८, ५०, ६३ विरताविरत ११, १२, १७ यशोविजय ४३ विशेषावश्यकभाष्य ४५ यापनीय ३२, ३९, ४० विसंयोजक २५ योग ६८ विक्षिप्त ११६ योगदृष्टिसमुच्चय ११७ वीतराग ९ योगनिरोधकेवली ३० वेद ६४ योगवाशिष्ठ १३, ११४, ११५, वेदत्रिक ८४ वेदनाविधान ३५ योगसार ३२, ४४ वेदनीय ६८, ७१, ८२, ८३, ८४, योगीन्दु ४३ ८५, ८६ रजोगुण १००, १०१, १०३, वैनयिकता ५३ १०४, १०६, १०७, १११ व्यवहारनय ४२ रति ६४, ६५ स ६४, ६५ श्रावक ९, १०, ११, १४, १७, रयणसार २१, २८, ३७, ३८ रसघात ४९, ६३ श्रावकयान ९२ रागद्वेष ४५, ४८, ६७ श्रीकृष्ण १०३ राजवार्तिक २ शतक २६ रुचिरा ९५ शान्तात्मा ४४ रेचक ११८ शिवशर्मसूरि २४ रौद्रध्यान ९५ शीलविशुद्धि १०२ लंकावतारसूत्र १०१ शुक्लध्यान ९, ६९ लोकेषणा ४३ शुभचन्द्र ३० लोभ ४७, ५२, ५७, ५८, ६०, शेक्सपीयर ५६ ६२, १०६ शोक ६४, ६५ वराहमिहिर २२, २३ श्लोकवार्तिक २ विचिकित्सा ९३, ९९ श्वेताम्बर १, २, ३, १५, २०, २४, विद्यानन्द २ २५, ३४, ७० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका १३७ ३५ षट्खण्डागम १, २, ३, ४, १२, १४, १७, २५, २७, २८, १५, २४, २९, ३०, ३३, ३७, ५४, ५८, ९३।। ३४, ३५, ३७, ३८, ३९, सम्यग्मिथ्यादृष्टि ५४ ४०, ४१, ७० सयोगीकेवली १४, १८, २४, २५, संक्रमण-काल ९५.. २९, ३०, ३८, ५२, ६८, संग्रहणी १, ५, २३, २४, ३६ ७५, ७६, ७७, ८५, ९५, संधानुस्मृति ९३ ९८, १०१, १०४, १०५, संज्वलन २२, ६२, ६४, ६५, १०८, ११४ ८४, ८७ सयोगीनाथ २७ संयतासंयत ५, ३६ सर्वविरति ५९ संहनन ८१ सर्वज्ञ ६८ सकृदागामी १३, ९३, ९४, १०० सर्वज्ञता ३२ सचेलता २३ सर्वार्थसिद्धि १, ४, ५, ३३, ३४, सत्प्ररूपणा ३३, ७० सत्वगुण १००, १०१, १०३, १०४, सागरोपम ४७, ४८ १०६, १०७, १११ साधुमति ९५ सदेहमुक्ति ६८ सास्वादन १०, १४, १६, २१, समनस्क ४७ ३८, ५२, ५४, ७५, ७६, समन्तभद्र ३२, ३३ ७७, ७८, ८०, १०७, सम्प्रज्ञात ११९ ११३, ११६ समयसार १५ सिद्ध ४३, ४४, ६८ समवायांग १, ३, ४, ५, १५, सिद्धसेनगणि २ ३२, ३३ सुदुर्जया ९५ समाधि ९३ सुहंसम्पराय ५, १८, ३८, ११३ समाधितंत्र ३२ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ६९ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ६९ सूक्ष्मसम्पराय २, ९, १०, १२, समुद्धातकेवली ३० १३, १४, १८, ३९, ५२, सम्यक्त्व गुणस्थान ११३ ६५, ७५, ७६, ७७, ७८, सम्यक्त्व पराक्रम २० ८४, १०७ सम्यक्त्वमोह ४९, ५०, ७३, ७९ सूत्रकृतांग १ सम्यग्चारित्र ५२ सेवार्तसंहनन ८०, ८१ सम्यग्दृष्टि ९, १०, ११, १२, स्रोतापन्नभूमि १३, ५८, ९३, ९४, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १००, १०३, १११ स्त्यानचित्रिक ८०, ८१ स्थावर चतुष्क ८० स्वस्थान केवली ३० स्वामीकुमार ३१, ३२ स्वोपज्ञ २, ३, २५ स्त्रीवेद ८१ स्थितिघात ४९, ६३ स्थिरा १११, ११२ हुंडक संस्थान ८०, ८१ हरिभद्र २४, ४३, ५८ हास्य ६४, ६५ हीनयान ९२, ९३, ९५ क्षणिक-एकान्त ३२ क्षपक ३, ५, १०, ११, १६, २१, २५, २८, २९, ३७, ३९, ८२, ८३, ८४ क्षपकशील २८, २९ क्षपण ११, १६, १७ क्षयोपशम ४८ क्षायिक २१ क्षायिक सम्यक्त्व ९९ क्षायोपशमिक ५८ क्षिप्त ११६ क्षीणकषाय ९, १४, २२, ३८ क्षीणमोह २, ३, ९, १०, १२, १४, १८, २१, २२, २५, २९, ३६, ३७, ३८, ७५, ७६, ७७, ९५, १०१, १०४, ११४ तिर्यंचत्रिक ८०, ८१ ज्ञानात्मा ४४ ज्ञानावरण ६७, ६८, ७१, ८२, ८३, ८४, ८६, ९७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WN हमारे महत्वपूर्ण प्रकाशन 1. Studies in Jain Philosophy - Dr. Nathmal Tatia Rs. 100.00 2. Jain Temples of Western India-Dr. Harihar SinghRs.200.00 3. Jain Epistemology - I. C. Shastri Rs. 150.00 4. Concept of Panchashila in Indian Thought - Dr. Kamala Jain Rs. 50.00V 5. Concept of Matter in Jain Philosophy - Dr. J. C. Sikdar Rs. 150.00 6. Jaina Theory of Reality - Dr. J. C. Sikdar Rs. 150.00 7 Jaina Perspective in Philosophy and Religion - Dr. Ramjee Singh Rs. 100.00 8. Aspects of Jainology, Vol.1 to 5 (Complete Set )Rs. 1100.00 9. An Introduction to Jaina Sadhana - Dr. Sagarmal Jain Rs. 40.00 10. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ( सात खण्ड ) सम्पूर्ण सेट Rs. 560.00 11. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास ( दो खण्ड ) Rs. 340.00 12. जैन प्रतिमा विज्ञान - डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी Rs. 120.00 13. जैन महापुराण - डॉ० कुमुद गिरि Rs. 150.00 14. वज्जालण्ग ( हिन्दी अनुवाद सहित )- पं० विश्वनाथ पाठक Rs. 80.00 15. धर्म का मर्म - प्रो० सागरमल जैन Rs. 20.00 16. प्राकृत हिन्दी कोश - सम्पादक डॉ० के० आर० चन्द्र Rs. 120.00 17. स्याद्वाद और सप्तभंगी नय - डॉ० भिखारी राम यादव Rs. 70.00 18. जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ - डॉ० हीराबाई बोरदिया Rs. 50.00 19. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म - डॉ० ( श्रीमती ) राजेश जैन Rs. 160.00 20. जैन कर्म-सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास - डॉ० रवीन्द्रनाथ मिश्र - Rs. 100.00 21. महावीर निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श - भगवतीप्रसाद खेतान Rs. 60.00 22. गाथासप्तशती ( हिन्दी अनुवाद सहित ) -- पं० विश्वनाथ पाठक Rs.60.00 23. सागर जैन-विद्या भारती भाग 1, 2 (प्रो० सागरमल जैन के लेखों का संकलन ) Rs. 200.00 24. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन - डॉ० फूलचन्द जैन Rs. 80.00 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी - 5 lain Education International Varwarelinangi L