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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
वे जो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधना के युद्धस्थल पर आते तो हैं, लेकिन साहस के अभाव में शत्रु की चुनौती का सामना न कर साधनारूपी युद्धस्थल से भाग खड़े होते हैं । दूसरे वे जो साधनारूपी युद्धक्षेत्र में डटे रहते हैं, संघर्ष भी करते हैं, फिर भी कौशल के अभाव में शत्रु पर विजय - लाभ करने में असफल होते हैं। तीसरे, वे जो साहस के साथ कुशलतापूर्वक प्रयास करते हुए साधना के क्षेत्र में विजय - श्री का लाभ करते हैं । वैदिक चिन्तन में भी इस बात को इस प्रकार प्रकट किया गया है कि कुछ साधक साधना का प्रारम्भ ही नहीं कर कुछ उसे मध्य में ही छोड़ देते हैं लेकिन कुछ उसका अन्त तक निर्वाह करते हुए अपने साध्य को प्राप्त करते हैं। लक्ष्य - उपलब्धि की यह प्रक्रिया जैनसाधना में ग्रन्थिभेद कहलाती है । ग्रन्थि-भेद का तात्पर्य आध्यात्मिक विकास में बाधक प्रगाढ़ मोह एवं राग-द्वेष की वृत्तियों का छेदन करना है। अगले पृष्ठों में हम इसी विषय पर विचार करेंगे।
पाते,
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आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया और ग्रन्थि - भेद
जैन नैतिक साधना का लक्ष्य स्व-स्वरूप में स्थित होना या आत्मसाक्षात्कार करना है। लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिये मोहविजय आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप इसी मोह से आवृत्त है। मोह के आवरण को दूर करने के लिये साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। एक सरल उदाहरण लें
यह आत्मा जिस प्रासाद में रहता है उस पर मोह का आधिपत्य है। मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रासाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। प्रथम द्वार पर निःशस्त्र प्रहरी हैं। दूसरे द्वार पर सशस्त्र सबल और दुर्जेय प्रहरी हैं और तीसरे द्वार पर पुनः निःशस्त्र प्रहरी हैं। वहाँ जाकर आत्म-देव के दर्शन - लाभ के लिये व्यक्ति को तीनों द्वारों से उनके प्रहरियों पर विजय - लाभ करते हुए गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्म-साक्षात्कार है और यह तीन द्वार ही तीन ग्रन्थियाँ हैं और इन पर विजय - लाभ करने की प्रक्रिया ग्रन्थिभेद कहलाती है, जिसके क्रमशः नाम हैं। १. यथाप्रवृत्तिकरण १, २. अपूर्वकरण और ३. अनिवृत्तिकरण ।
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१. यथाप्रवृत्तिकरण : पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख - संवेदना जनित अत्यल्प आत्मशुद्धि को जैन शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण आत्मदेव के राजप्रासाद का वह द्वार है जिस पर निर्बल एवं निःशस्त्र द्वारपाल होता है । अनेक आत्माएँ इस संसाररूपी वन में भ्रमण करते हुए संयोगवश इस द्वार के समीप पहुँच जाती हैं और यदि मन नामक शस्त्र से
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