________________
जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास
४७
सुसज्जित होती हैं तो वह इस निर्बल, निःशस्त्र द्वारपाल को पराजित कर इस द्वार में प्रवेश पा लेती हैं। यथाप्रवृत्तिकरण प्रयास और साधना का परिणाम नहीं होता है, वरन् एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है। फिर भी यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है क्योंकि आत्म-शक्ति के प्रकटन को रोकने वाले या उसे कुण्ठित करने वाले कर्म-परमाणुओं में जैन विचारकों के अनुसार सर्वाधिक ७० क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम की काल-स्थिति मोहकर्म की मानी गयी है और यह अवधि जब गिरिनदी-पाषाण न्याय से घटकर मात्र १ क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम रह जाती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है, अर्थात् जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पाषाण खण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही आकृति को धारण कर लेता है, वैसे ही शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की संवेदना को झेलते-झेलते इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जब कर्मावरण का बहुलांश शिथिल हो जाता है तो आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण रूप शक्ति को प्राप्त होती है। यथाप्रवृत्तिकरण वस्तुत: एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में स्वनियन्त्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार एक बालक प्रकृति से ही चलने की शक्ति पाकर फिर उसी शक्ति के सहारे वांछित लक्ष्य की ओर प्रयाण कर उसे पा सकता है, वैसे ही आत्मा भी स्वाभाविक रूप में स्वनियन्त्रण की क्षमता को प्राप्त कर आगे प्रयास करे तो आत्मसंयम के द्वारा आत्मलाभ कर लेता है। यथाप्रवृत्तिकरण अर्धविवेक की अवस्था में किया गया आत्मसंयम है जिसमें व्यक्ति तीव्रतम ( अनन्तानुबन्धी ) क्रोध, मान, माया एवं लोभ पर अंकुश लगाता है। जैन विचारणा के अनुसार केवल पञ्चेन्द्रिय समनस्क ( मन सहित ) प्राणी ही यथाप्रवृत्तिकरण करने की योग्यता रखते हैं और प्रत्येक समनस्क प्राणी अनेक बार यथाप्रवृत्तिकरण करता भी है। जब प्राणी मन जैसी नियन्त्रक शक्ति को पा लेता है तो स्वाभाविक रूप से ही वह उसके द्वारा अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण का प्रयास करने लगता है। प्राणीय विकास में मन की उपलब्धि से ही बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता जाग्रत होती है और बौद्धिदता एवं विवेक की क्षमता से प्राणी वासनाओं पर अधिशासन करने लगता है। वासनाओं के नियन्त्रण का यह प्रयास विवेक-बुद्धि का स्वाभाविक लक्षण है और यहीं से प्राणीय विकास में स्वतन्त्रता का उदय होता है। यहाँ प्राणी नियति का दास न होकर उस पर शासन करने का प्रयास करता है। यहीं से चेतना की जड़ ( कर्म ) पर विजय-यात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में चेतन आत्मा और जड़कर्म संघर्ष के लिये एक दूसरे के सामने डट जाते हैं। आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करने के पूर्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org