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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
षटखण्डागम के विकसित गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा करना नहीं है, अपितु यह दिखाना है कि षट्खण्डागम में विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के साथ-साथ वे बीज भी उपस्थित हैं जिनसे गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है।
___ अपने तत्त्वार्थसूत्र सम्बन्धी अध्ययन और लेखन के दौरान मुझे पं० परमानन्द शास्त्री का लेख “तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज'१० देखने को मिला। उसमें तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ के नवें अध्याय के ४५वें सूत्र, जिसमें कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की उन अवस्थाओं का चित्रण है, के स्रोत के रूप में षट्खण्डागम के २१८ से २२५ तक के सूत्रों को उद्धृत किया गया है। यह सन्दर्भ अपूर्ण था, क्योंकि ये सूत्र मूल-ग्रन्थ के किस खण्ड में हैं, यह नहीं बताया गया था। अत: यह सब देखने के लिये मैंने षटखण्डागम के मूलपाठ को देखने का प्रयत्न किया। चूँकि प्रस्तुत सन्दर्भ में दी गई सूत्र संख्या भी प्रकाशित षटखण्डागम के अनुरूप न थी, अत: मुझे पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा अथवा यदि कहें तो षट्खण्डागम के मूल सूत्रों का पूरा पारायण ही करना पड़ा। अन्त में मुझे षट्खण्डागम के चतुर्थ वेदनाखण्ड में उक्त सूत्र तो मिले, किन्तु वे ग्रन्थ का मूल भाग न होकर चूलिका के रूप में हैं। मेरा आश्चर्य तब और बढ़ा जब मैंने यह पाया कि ये सूत्र चूलिका की दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में है। इस अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि षटखण्डागम की पूर्व प्रचलित गाथाओं में से दो गाथाएँ लेकर के उसकी व्याख्यास्वरूप इन सूत्रों की रचना हुई है। तत्त्वार्थ की इन दस अवस्थाओं के सन्दर्भ में पं० परमानन्द शास्त्री ने षटखण्डागम के जिन सूत्रों को दिया है और उनका जो क्रम बताया है वह प्रकाशित षट्खण्डागम से मेल नहीं खाता है। तत्त्वार्थसत्र के बीजों की खोज में उन्होंने षटखण्डागम के जो सूत्र दिये हैं वे प्रकाशित ग्रन्थ के आधार पर नहीं हैं, क्योंकि उस समय तक षट्खण्डागम का प्रकाशन नहीं हुआ था। जैसा कि उनकी टिप्पणी से ज्ञात होता है, उन्होंने ये सारे सूत्र धवला सम्बन्धी पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार की नोट बुक से लिये थे। उन्होंने इन सूत्रों का क्रम २१८ से २२५ बताया है जबकि प्रकाशित षट्खण्डागमन में से सूत्र चतुर्थ वेदनाखण्ड के दूसरे वेदना अनुयोगद्वार के सातवें वेदनाभाव विधान की प्रथम चूलिका के सूत्र संख्या १७५-१८४ तक पाए जाते हैं।
सूत्र संख्या के इस महत्त्वपूर्ण अन्तर से एक विचार यह आता है कि क्या हस्तप्रति में जो सूत्र मिले थे और उन्हें जो क्रम दिया गया था, उन्हें बदल दिया गया है या जिस प्रकार प्रथम सत्प्ररूपणा खण्ड में संयत पद हटा दिया गया था, उसी तरह से कुछ सूत्र जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं बैठते थे वे हटा
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