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गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त
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में से १४ का ही उदय होता है, शेष अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, अप्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क, प्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क तथा मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह आदि १४ कर्म-प्रकृतियों का उदय अथवा उदीरणा सम्भव नहीं होती। इसी प्रकार नामकर्म की उदययोग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से इस गणस्थान में ४४ का ही उदय सम्भव होता है। इसमें पूर्ववर्ती देशविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान की नामकर्म की उदययोग्य ४४ में से तिर्यञ्च गति और उद्योत नामकर्म का उदय नहीं होता है, किन्तु आहारक द्विक का उदय होने से नामकर्म की उदययोग्य ४४ प्रकृतियाँ ही होती हैं। शेष ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, आयुष्य की एक मनुष्य-आयु, गोत्र की एक उच्चगोत्र और अन्तराय की पाँच -- इस प्रकार कुल ८१ कर्म-प्रकृतियों का उदय या उदीरणा सम्भव है।
७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - इस सातवें गुणस्थान में छठे गुणस्थान की बन्धयोग्य ६३ कर्म-प्रकृतियों में से प्रारम्भ में ५९ या ५८ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव है। क्योंकि चरमशरीरी जीव किसी भी आयुष्य का बन्ध नहीं करता है। इस गुणस्थान में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की निद्रात्रिक को छोड़कर शेष छह का, वेदनीय में साता वेदनीय का, मोहनीय में नौ नोकषायों का, आयुष्यकर्म में देवआयु का, गोत्र कर्म में उच्चगोत्र का तथा पाँचों अन्तरायों का तथा नामकर्म की ३१ प्रकृतियों का, इस प्रकार कुल ५० कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है। इस गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ तो साधक नहीं करता है किन्तु यदि पूर्व गुणस्थान में उसका प्रारम्भ किया हो तो यहाँ उसका अन्त करता है और इस अपेक्षा से इस गुणस्थान के प्रारम्भ में ५९ कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव होता है। अन्यथा चरमशरीरी या जो आयुष्यकर्म का बन्ध कर चुका है उसे तो ५८ का ही बन्ध होता है। सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान में भी उपशम श्रेणी वाले जीव में मोहत्रिक और कषायचतुष्क का उपशम होने से १४१ अनुपशमित कर्म-प्रकृतियों की और तीर्थङ्कर व्यतिरिक्त क्षपक श्रेणी वाले जीव में प्रारम्भ में मोहत्रिक का क्षय होने से १४५ की और अन्त में मोहत्रिक, गतित्रिक, आयुत्रिक, तीर्थङ्कर- नामकर्म इन १० का विच्छेद होने से १३८ कर्म-प्रकृतियाँ की सत्ता शेष रहती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से इस गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ८१ प्रकृतियों में से निद्रा-त्रिक और आहारकद्विक ये ५ प्रकृतियाँ कम होने से अधिकतम ७६ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है किन्तु उदीरणा मात्र ७३ कर्म-प्रकृति की ही होती है। इस गुणस्थान में ऐसे अध्यवसाय सम्भव नहीं हैं, जिनसे वेदनीय द्विक और आयुष्यकर्म की उदीरणा हो सके। अत: सातवें गुणस्थान में उदय की अपेक्षा से उदीरणा की कर्म-प्रकृतियों की संख्या में तीन की कमी हो जाती है।
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