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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
है, शेष दो का नहीं । नामकर्म की ६७ कर्म - प्रकृतियों में से निम्नलिखित २३ कर्म-प्रकृतियों का उदय उसमें नहीं होता १. देवगति, २. देव आनुपूर्वी, ३. नरकगति, ४. नरक आनुपूर्वी, ५. मनुष्य आनुपूर्वी, ६ तिर्यञ्च आनुपूर्वी, ७ . - १०. एकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय जाति नामकर्म चतुष्क, ११. आहारक शरीर, १२. आहारक अंगोपांग, १३. वैक्रिय शरीर, १४. वैक्रिय अंगोपांग, १५. स्थावर नामकर्म, १६. सूक्ष्म नामकर्म, १७. साधारण नामकर्म, १८. अपर्याप्त नामकर्म, १९. दुर्भग नामकर्म, २०. आनादेय नामकर्म, २१. अयशकीर्ति नामकर्म, २२. आतप नामकर्म और २३. अर्धनाराच संहनन । अत: मात्र नामकर्म की ४४ कर्म - प्रकृतियों का ही उदय माना गया है। यद्यपि गोत्र कर्म की दोनों और अन्तराय कर्म की पाँचों कर्म-प्रकृतियों का उदय सम्भव है । इस प्रकार इस गुणस्थान में ५+९+२+१८+२+४४ +२+५ = ८७ कर्म - प्रकृतियों का उदय सम्भव है । यही स्थिति उदीरणा के सम्बन्ध में भी है। क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक उदय और उदीरणा की कर्म - प्रकृतियाँ समान ही होती हैं ।
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६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्रमत्तसंयत गुणस्थान में देशविरत गुणस्थान में स्वीकृत ६७ कर्म - प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानी कषायचतुष्क का भी बन्ध नहीं होता। इस प्रकार इसमें मात्र ६३ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध माना गया है। ज्ञानावरणीय की पाँचों, दर्शनावरणीय की स्सानगृद्धि त्रिक को छोड़कर शेष छह, वेदनीय की दोनों, मोहनीय की अट्ठाईस में मात्र ग्यारह ( संज्वलन चतुष्क और नपुंसक वेद एवं स्त्रीवेद को छोड़ कर शेष ७ नोकषाय, ४+७ = ११), आयुष्य कर्म की एकमात्र देवायु, नामकर्म की पञ्चम गुणस्थान में वर्णित बत्तीस, गोत्रकर्म की एकमात्र उच्चगोत्र और अन्तराय की पाँचों, इस प्रकार ५ +६+२+११+१+ ३२+ १+५ = ६३ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध ही सम्भव होता है । जहाँ तक सत्ता का प्रश्न है पूर्व गुणस्थान के समान ही इसमें भी सम्भव - सत्ता की अपेक्षा से तो १४८ ही कर्म-प्रकृतियों की सम्भव - सत्ता है, यद्यपि चरम शरीरी जीव में मनुष्य आयु के अतिरिक्त अन्य आयुत्रिक ( देवायु, तिर्यञ्चायु एवं नरकायु ) की अपेक्षा से १४५ कर्म - प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता होती है। अचरम शरीरी क्षायिक श्रेणी वाले जीव में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय होने से १४१ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता होती है । जो चरम शरीरी जीव क्षायिक सम्यक्त्व के धारक होकर क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है, उनमें इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, दर्शनत्रिक और मनुष्यायु को छोड़कर शेष आयुत्रिक की सत्ता नहीं होती है। इस अपेक्षा से इनमें १३८ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता भी मानी गयी है ।
उदय और उदीरणा की अपेक्षा से प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ८१ कर्मप्रकृतियों का उदय अथवा उदीरणा सम्भव है। इसमें मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों
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