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________________ गुणस्थान और मार्गणा हैं । उसमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में इन पचीस ही कषायों की सम्भावना होती है । सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कषायों का उदय नहीं रहता । देशविरत सम्यक्-दृष्टि में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क एवं अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क इन आठ कषायों का अभाव होता है । इसलिये इसमें कुल सत्रह कषायों का उदय सम्भव होता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का अभाव होने से आगे के गुणस्थानों में संज्वलन कषायचतुष्क तथा हास्य-षटक् और तीनों वेद ( कामवासनाएँ ) इस प्रकार कुल तेरह कषायों का उदय शेष रहता है। नवें गुणस्थान के प्रारम्भ में हास्य षटक् का क्षय हो जाने पर मात्र संज्वलन चतुष्क और वेदत्रिक् – ऐसे कुल सात कषायों का उदय होता है। दसवें गुणस्थान में वह वेदत्रिक् और संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान एवं संज्वलन माया का क्षय हो जाने पर मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है। आगे के चारों गुणस्थानों में कषाय की सत्ता का ही अभाव हो जाता है। - ७. ww - ज्ञानमार्गणा ज्ञान पाँच माने गए हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान । इनके अतिरिक्त तीन अज्ञान या मिथ्याज्ञान भी होते हैं मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान एवं विभंग ज्ञान । मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों की सत्ता होती है। मिश्र गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों एवं तीनों ही ज्ञानों का मिश्रित रूप बोध होता है । सम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ही ज्ञानों की सम्भावना होती है, पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मन: पर्यायज्ञान की सम्भावना होने से चारों ज्ञान सम्भव हैं। जबकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में मात्र एक केवलज्ञान ही होता है। ८. संयममार्गणा संयम या चारित्र पाँच माने गए हैं. • सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । वस्तुतः ये व्यक्ति के आचरण की पवित्रता के क्रमिक विकास के सूचक हैं। प्रथम से लेकर अविरत सम्यक् - दृष्टि तक चारित्र का अभाव होता है । देशविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान में आंशिक रूप से ही सम्यक् चारित्र का सद्भाव पाया जाता है। जबकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय ये दोनों चारित्र या संयम सम्भव होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही सम्भव है । इसी प्रकार सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान में ही सम्भव होता है । यथाख्यात चारित्र उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - इन चार गुणस्थानों में ही सम्भव होता है । ९. दर्शनमार्गणा दर्शन चार माने गए हैं – चक्षुदर्शन, अचक्षु Jain Education International - --- १२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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