SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इनमें चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक उपलब्ध होते हैं । अवधिदर्शन अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सम्भव है । जबकि केवलदर्शन मात्र सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को होता है । ―― १०. श्यामार्गणा लेश्याएँ छ: मानी गयी हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कपोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कृष्ण, नील और कपोत ये तीनों लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान तक पायी जाती हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पायी जाती है। जबकि शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव है। यहाँ तक ज्ञातव्य है कि शुक्ललेश्या का सद्भाव मिथ्यादृष्टि में माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी कभी - कभी शुद्ध अध्यवसाय प्रकट हो जाते हैं और उसमें भी लोकमंगल की भावना सम्भव होती है। उदाहरणार्थ – तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया हुआ जीव जब पूर्व में नरकायु का बन्ध होने से देहत्याग करते समय मिथ्यात्व तो ग्रहण करता है फिर भी उसमें उदात्त लोकमंगल की भावना या शुक्ललेश्या का सद्भाव हो सकता है। ― - ११. भव्यत्वमार्गणा • जीव दो प्रकार के माने गए हैं। भव्य और अभव्य । अभव्यजीव केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही पाए जाते हैं। भव्यजीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों में मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अभव्यजीव सम्यक्त्व को ही प्राप्त नहीं कर पाते और इसलिये उनमें सास्वादन और मिश्र गुणस्थान भी सम्भव नहीं होते हैं। १२. सम्यक्त्वमार्गणा उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - ये तीन प्रकार के सम्यक्त्व होते हैं। ये तीनों सम्यक्त्व अविरत सम्यक् - दृष्टि से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकं सम्भव होते हैं। ज्ञातव्य है कि उपशम सम्यक्त्व मात्र उपशान्तमोह गुणस्थान तक ही होता है; जबकि क्षायिक सम्यक्त्व अविरत सम्यक् - दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक सम्भव है। ― -- १३. संज्ञीमार्गणा जीव दो प्रकार के माने गए हैं। संज्ञी और असंज्ञी | जिनमें मन अर्थात् विवेक बुद्धि का अभाव होता है वे असंज्ञी कहे जाते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सास्वादन ये दो गुणस्थान ही सम्भव हैं। संज्ञी ( समनस्क ) जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को नो- संज्ञी नो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy