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________________ गुणस्थान और मार्गणा असंज्ञी कहा गया है, क्योंकि उनमें विचार की अपेक्षा नहीं होती। वे तो मात्र साक्षी भाव में रहते हैं। १४. आहारमार्गणा आहार अर्थात् भोजन। यह आहार तीन प्रकार का होता है ओजाहार, लोमाहार और कवलाहार । जो इन आहारों को ग्रहण करता है, वह आहारक जीव कहा जाता है, जबकि जो इनमें से किसी भी आहार को ग्रहण नहीं करते, वे अनाहारक जीव होते हैं। जैनदर्शन के अनुसार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने के बीच विग्रहगति से यात्रा करने वाले जीव, केवली समुद्घात करने वाले केवली, अयोगी केवली और सिद्ध अनाहारक माने गए हैं। शेष जीव आहारक माने जाते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान वाले जीव विग्रहगति से यात्रा करते समय ही अनाहारक होते हैं, शेष समय में आहारक ही होते हैं। इसी प्रकार सयोगकेवली गुणस्थान में केवली समुद्घात करने वाला जीव उसके तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में अनाहारक होता है, जबकि अयोगीकेवली अनाहारक ही होता है। अतः अनाहारक अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, अविरतसम्यक्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये पाँच गुणस्थान ही सम्भव हैं। आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान ही सम्भव हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार सयोगीकेवली कवलाहार नहीं करता है जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार वह कवलाहार करता है । - १२७ इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न मार्गणाओं अर्थात् प्राणी की मनोदैहिक स्थितियाँ भी उसके आध्यात्मिक विकास में बाधक या साधक होती हैं। वस्तुतः व्यक्ति का मनोदैहिक विकास उसके आध्यात्मिक विकास का सहभागी होता है। सन्दर्भ १. जीवसमास, जिनशासन आराधना ट्रस्ट, बम्बई- २, गाथा ६-८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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